Saturday 7 June 2014

विदेश नीति में भारतीय भाषा- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                     जिन दिनों दूरदर्शन का प्रचलन नहीं था उन दिनों अख़बार में ख़बर छपती तो थी लेकिन ख़बर बनती कैसे है यह पता नहीं चलता था । लेकिन जब से दूरदर्शन का प्रचलन बढ़ा है तब से आँखों के आगे ख़बर बनती हुई दिखाई भी देती है । पुराने दिनों में ख़बर छपती थी कि भारत और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने आपसी हितों के बारे में बातचीत की । क्या बातचीत की , इसका विवरण भी छपता था । अब भी छपता ही है । लेकिन अख़बार में यह नहीं छपता था और अब भी नहीं छपता है कि बातचीत किस भाषा में की । समाचार पत्रों के लिये यह पता करने की जरुरत भी नहीं थी । लेकिन अब स्थिति बदल गई है । अब दूरदर्शन के सभी चैनलों पर दोनों देशों के नेता आपस में बातचीत करते हुये दिखाई भी देते हैं । जिनकी विदेश नीति की गहराइयों में रुचि नहीं भी होती वे भी विदेशियों की शक्ल देखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाते । लेकिन दूरदर्शन पर आश्चर्यजनक दृश्य दिखाई देते हैं । मसलन जापान का प्रधानमंत्री जापानी भाषा में बातचीत करता है और हमारा प्रधानमंत्री अंग्रेज़ी में बोलता है । फिर भी अनुवादक की जरुरत तो होती ही है । अनुवादक जापान के प्रधानमंत्री की बात का अनुवाद अंग्रेज़ी में करता है और हमारे प्रधानमंत्री की अंग्रेज़ी में बोली गई बात का अनुवाद जापानी में करता है । प्रश्न पैदा होता है कि जब सारी बातचीत अनुवादक के सहारे ही चलती है तो भारत का प्रधानमंत्री अपने देश की भाषा में बातचीत क्यों नहीं करता ? यह दृश्य देख कर कोफ़्त होती है । अपमान भी महसूस होता है ।

                            चीन के राष्ट्रपति माओ जे तुंग अंग्रेज़ी बहुत अच्छी तरह जानते थे । उनसे मिलने के लिये जब किसी अंग्रेज़ी भाषी देश का राष्ट्राध्यक्ष भी मिलने आता था तो वे अंग्रेज़ी समझते हुये भी उसका उत्तर अंग्रेज़ी में नहीं देते थे । वे चीनी में ही बोलते थे और अनुवादक अनुवाद कर देता था । किसी देश की भाषा विदेश सम्बंधों में स्वाभिमान का प्रतीक भी होती है,वहाँ वह केवल संवाद का काम नहीं करती । विदेश सम्बंधों में इन प्रतीकों का प्रयोग कैसे करना है , यह भी विदेश नीति के संचालकों की सफलता का एक बड़ा कारक माना जाता है । लेकिन दुर्भाग्य से भारत में अभी तक विदेश मंत्रालय में ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार क्लब का आधिपत्य रहा है । इस क्लब की चमड़ी मोटी है । इसलिये जब दूसरे देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष भारत में आकर अपने देश की भाषा बोलते हैं तो हमारे प्रतिनिधि कम्पनी बहादुर(ब्रिटेन) की भाषा में जुगाली करते । भैंस के आगे बीन बजे और भैंस खड़ी पगुराये । लेकिन अंग्रेज़ी भाषा में पगुराने के कारण भैंस वे बजह नथुने भी फैलाती है । उनकी इन हरकतों से देशवासी तो लज्जित होते लेकिन भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि सिर पर विदेशी भाषा का यूनियन जैक लगा कर नाचते रहते । कई देशों ने तो भारत के इन प्रतिनिधियों  को उनकी इस हरकत पर लताड़ भी लगाई । रुस से एक बार विजय लक्ष्मी पंडित को अपने काग़ज़ पत्र हिन्दी में तैयार करवाने के लिये ही वापिस आना पड़ा था ।

                                 लेकिन देश के नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के इस लज्जास्पद अध्याय को समाप्त करने का निर्णय ले लिया लगता है । प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्ष दिल्ली आये थे । श्री लंका के श्री राजपक्षे से द्विपक्षीय वार्ता में मोदी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया । राजपक्षे अंग्रेज़ी में बोल रहे थे । मोदी उसे समझ तो रहे थे । वे चाहते तो स्वयं उसका उत्तर दे सकते थे । लेकिन मोदी-राजपक्षे की वार्ता के लिये हिन्दी अनुवाद के लिये दुभाषिए की व्यवस्था की गई । इससे देश विदेश में एक अच्छा संदेश गया है । अब दुनिया से भारत अपनी भाषा में बातचीत करेगा । मोदी पहले ही कह चुके हैं कि भारत किसी भी देश से आँख से आँख मिला कर बात करेगा । आँख से आँख अपनी भाषा में ही मिलाई जा सकती है । जो देश ताक़तवर होते हैं वे विदेश नीति के लिये उधार के प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते । अपने देश की भाषा ,अपने देश के मुहावरों का प्रयोग करते हैं । विदेशी राज्यों की दासता में लगभग हज़ार साल तक रहने के कारण हमारे लोगों की मानसिक स्थिति भी दासता की हो गई है । उनके लिये राष्ट्रीय स्वाभिमान साम्प्रदायिकता एवं पोंगापंथी होने का पर्याय हो गया है । उन्होंने भारतीय भाषाओं की वकालत को भी साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया है । लेकिन यह भाव देश की आम जनता में इतना नहीं है जितना देश के बुद्धिजीवी वर्ग एवं नीति निर्धारकों में है । देश का श्रमजीवी अपने देश की भाषा से जुड़ा हुआ ही नहीं है बल्कि उस पर गौरव भी करता है । इस का एक कारण यह भी है कि वह अपने देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ है । लेकिन यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग शिक्षा की उस भट्ठी में तप कर निकला है जिसे अंग्रेज़ों ने बहुत ही शातिराना तरीक़े से यहाँ स्थापित किया था । इसलिये भाषा को लेकर उसकी सोच अभी भी १९४७ से पहले की ही है, जिसमें भारतीय भाषाओं को वर्नक्युलर कह कर अपमानित किया जाता था । लुटियन की दिल्ली में बैठ कर सत्ता के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति इन वर्नक्युलर भाषाओं का प्रयोग भी कर सकता है यह तो कोई सोच ही नहीं सकता था । लेकिन नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका जन्म अंग्रेज़ों के शासन काल में नहीं हुआ था बल्कि अंग्रेज़ी सत्ता समाप्त हो जाने के बाद स्वतंत्र भारत में हुआ था । इस लिये वे विदेशी भाषा की दासता के भाव से मुक्त हैं । दूसरे वे अपनी शक्ति और उर्जा देश के सामान्य जन से ग्रहण करते हैं अत उन्हें स्वयं को एक विदेशी भाषा के अहम से कृत्रिम रुप से महिमामंडित करने की जरुरत नहीं है । अब तक विदेशी भाषा का जाल फेंक कर देश के लिये नीति निर्धारण का काम नौकरशाही ने राजनैतिक नेतृत्व से छीन रखा था । नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के क्षेत्र में लगता है सबसे पहले इसी भाषायी ग़ुलामी से मुक्त होने की पहल की है ।

                         ऊपर से देखने पर यह पहल मामूली लग सकती है । लेकिन इसके संकेत बहुत गहरे हैं । चीनी भाषा में एक कहावत है कि हज़ारों मील की यात्रा के लिये भी पहला क़दम तो छोटा ही होता है । कोई भी यात्रा सदा इस छोटे क़दम से ही शुरु होती है । लगता है विदेश नीति के मामले में मोदी ने छोटा क़दम उठा कर यह यात्रा शुरु कर दी है ।

 05.06.2014 

अब्दुल्ला परिवार छेड़ रहा मरघट की धुनें--डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                   पिछले दिनों लोकसभा के लिये हुये चुनावों में उधमपुर क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी डा० जितेन्द्र सिंह चुने गये । जम्मू कश्मीर में जब भी चुनाव होते हैं तो संघीय संविधान के अनुच्छेद ३७० का प्रश्न सदा प्रमुख रहता है । चुनाव चाहे लोक सभा के हों या विधान सभा के,अनुच्छेद ३७० का मुद्दा कभी ग़ायब नहीं होता । जम्मू और लद्दाख के लोगों ने तो इस अनुच्छेद को हटाने के लिये १९४८ से लेकर १९५३ तक प्रजा परिषद के झंडे तले एक लम्बी लड़ाई भी लड़ी थी जिसमें १५ लोग पुलिस की गोलियों से शहीद हो गये थे । अभी तक भी प्रजा परिषद आन्दोलन की विरासत समाप्त नहीं हुई बल्कि दिन प्रतिदिन और भी घनीभूत होती गई । लेकिन इस बार के चुनावों में अनुच्छेद ३७० को लेकर चर्चा एक नये रुप में हो रही थी । इस बार चुनावों के दौरान मुख्य मुद्दा यह था कि अनुच्छेद ३७० को लेकर बिना किसी पूर्वाग्रह के आम जनता में बहस होनी चाहिये कि इस अनुच्छेद से राज्य की आम जनता को क्या कोई लाभ हो रहा है या फिर यह वहाँ के निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा आम आदमी के शोषण के लिये हथियार के रुप में इस्तेमाल की जा रही है ?

                    लेकिन सोनिया कांग्रेस समेत राज्य की प्रमुख शासक पार्टी,अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कान्फ्रेंस , इस बहस से बचती रही । उसने अत्यन्त शातिराना तरीक़े से बहस को इस दिशा में मोड़ना चाहा कि सीधे सीधे इस बात पर बहस की जाये की अनुच्छेद ३७० को हटाया जाना चाहिये या नहीं ? इस विषय पर उस ने अपना स्टैंड भी स्पष्ट कर दिया कि अनुच्छेद ३७० को हटाने की अनुमति नहीं दी जायेगी । इतना ही नहीं नेशनल कान्फ्रेंस का मालिक अब्दुल्ला परिवार इस सीमा तक आगे बढ़ा कि उसने सार्वजनिक रुप से घोषणा कर दी कि अनुच्छेद ३७० के हटाया जाने की स्थिति में जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा । यह नैशनल कान्फ्रेंस का घोषित स्टैंड रहा । उसने अपने चुनाव प्रचार को इसी के इर्द गिर्द केन्द्रित रखा । नेशनल कान्फ्रेंस इतना तो जानती ही थी कि अपने इस स्टैंड को पूरा करने के लिये उसे राज्य की जनता का समर्थन चाहिये । राज्य में जन समर्थन प्राप्त करने के लिये नेशनल कान्फ्रेंस ने अपने सहयोगी दल सोनिया कांग्रेस के साथ मिल कर राज्य की छह सीटों के लिये प्रत्याशी खड़े किये । जम्मू , उधमपुर और लद्दाख सीट पर सोनिया कांग्रेस के प्रत्याशी खड़े थे और कश्मीर घाटी की तीन सीटों श्रीनगर,बारामुला और अनन्तनाग के लिये नैशनल कान्फ्रेंस के प्रत्याशी मैदान में थे । लेकिन राज्य की जनता ने नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस द्वारा उठाये प्रश्न का उत्तर एकमुश्त दे दिया । नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कान्ग्रेस दोनों के ही सभी प्रत्याशी पराजित हो गये । राज्य से लोक सभा की छह सीटों में से तीन सीटें भारतीय जनता पार्टी ने और तीन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने जीत लीं ।

                      स्वाभाविक रुप से जन प्रतिनिधि के नाते डा० जितेन्द्र सिंह ने अनुच्छेद ३७० से राज्य को मिल रही लाभ हानि को परख लेने की बात कही ।  जैसा अब्दुल्ला परिवार कह रहा है कि इस अनुच्छेद को रहना ही चाहिये , उस के लिये भी आखिर यह देखना तो जरुरी है कि इससे राज्य के लोगों को फ़ायदा भी मिल रहा है या फिर इस का फ़ायदा केवल अब्दुल्ला परिवार या उन की जुंडली के लोग ही उठा रहे हैं ? यदि यह पता चल जाये कि सचमुच इससे रियासत के लोगों को फ़ायदा मिल रहा है ,फिर तो इसे रखा ही जाना चाहिये । लेकिन यदि यह पता चल गया कि आम लोगों को तो कोई फ़ायदा नहीं मिल रहा अलबत्ता अब्दुल्ला ख़ानदान के लिये यह अनुच्छेद धन कुबेर साबित हो रहा है तो फिर रियासत के लोग ही उनसे सवाल करना शुरु कर देंगे कि इस अनुच्छेद को क्यों बरक़रार रखा जाये ? ज़ाहिर है कि इस ख़ानदान के लिये तब जनता के इस प्रश्न का जबाव देना मुश्किल हो जायेगा । इसे देखते हुये राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मूल प्रश्न का सामना करने से बचने के लिये चीं चीं (टवीट शब्द का हिन्दी अनुवाद यही सकता है    ) करना शुरु कर दिया कि," मेरी इस बात को नोट कर लिया जाये और मेरी इस चीं चीं को भी सुरक्षित कर लिया जाये । जब मोदी सरकार केवल भविष्य की स्मृतियों में सुरक्षित रह जायेगी , तब या तो जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं होगा या अनुच्छेद ३७० का अस्तित्व बचा हुआ होगा । इन दोनों में से एक ही स्थिति रहेगी । भारत और जम्मू कश्मीर के बीच अनुच्छेद ३७० ही सांविधानिक सेतु है । "

                              जितेन्द्र सिंह तो अनुच्छेद ३७० की लोक उपादेयता पर सकारात्मक बहस चला कर राज्य में जन सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं लेकिन उमर अब्दुल्ला उससे घबरा कर मरघट की धुनें बजा रहा है । जो व्यक्ति और पार्टी आम जनता की भावनाओं और उसकी धडकनों से कट कर महलों में क़ैद हो जाती है उसका व्यवहार इसी प्रकार का होने लगता है । इन चुनावों में अब्दुल्ला परिवार और उनकी पार्टी के हश्र ने इसको सिद्ध कर दिया है ।

             अनुच्छेद ३७० का जम्मू कश्मीर के भारत का अंग होने या न होने से कोई सम्बंध नहीं है । जम्मू कश्मीर १९४७ में  रियासत के महाराजा हरि सिंह द्वारा अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले भी भारत का ही अंग था । अन्तर केवल इतना था कि वहाँ की प्रशासन प्रणाली ब्रिटिश भारत की प्रशासन प्रणाली से अलग थी । अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद जब सारे भारत में विभिन्न प्रशासनिक प्रणालियाँ समाप्त करके एक संघीय प्रशासनिक प्रणाली लागू करने की बात आई तो महाराजा हरि सिंह ने भी उसमें अपनी सहमति जताई और विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये । इसका जम्मू कश्मीर के भारत का अंग होने या न होने से क्या ताल्लुक़ है ? लेकिन अब्दुल्ला परिवार ने नेहरु की कृपा से रियासत की सत्ता अलोकतांत्रिक तरीक़े से संभालने के तुरन्त बाद ब्रिटिश और अमेरिका के मालिकों से ट्यूशन लेना शुरु कर दिया था । उन मालिकों ने इस परिवार को अनेक अंग्रेज़ी शब्दों की जो व्याख्याएँ सिखा दी , आज तक वे उसी की जुगाली कर रहे हैं । यदि वे थोड़ी कश्मीरी और डोगरी भाषा की ट्यूशन भी किसी देशी विद्वान से ले लेते तो उन्हें अपने आप समझ आ जाता कि कि अनुच्छेद ३७० का रियासत के भारत का अंग होने या न होने से कोई नाता नहीं है । इस बार रियासत की जनता ने कोशिश तो की कि यह परिवार थोड़ी कश्मीरी भी सीख ले लेकिन हार के बाद भी यह पार्टी अमेरिकी प्रभुयों के पढ़ाये पाठ को भूलने को तैयार नहीं है ।

                           अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हुये वे एक और हास्यस्पद बात कहते हैं जिसे सुन कर विश्वास नहीं होता कि वे सचमुच ऐसा मानते होंगे । क्योंकि इस प्रकार की बातों से उनकी छवि भी राहुल गान्धी की पप्पू नुमा छवि में तब्दील होने लगती है । उमर साहिब का कहना है कि अनुच्छेद ३७० के बारे में कोई फ़ैसला तो राज्य की संविधान सभा ही कर सकती थी अब क्योंकि वह सभा अपनी उम्र भोग कर मर चुकी है इसलिये अब अनुच्छेद ३७० अमर हो गया है । यानि बाप मरने से पहले जो लिख गया था अब उसको हाथ नहीं लगाया जा सकता  क्योंकि उसमें हेर फेर का अधिकार तो बाप को ही था । अब वह नहीं रहा तो अनुच्छेद ३७० भी अमर हो गया । यह सोच ही अपने आप में सेमेटिक सोच है । उमर अब्दुल्ला को जान लेना चाहिये कि यह बात "आतिशे चिनार" के बारे में तो सच हो सकती है अनुच्छेद ३७० के बारे में नहीं । जम्मू कश्मीर राज्य की संविधान सभा , जिन दिनों ज़िन्दा भी थी , उन दिनों भी वह संविधान सभा के साथ साथ राज्य की विधान सभा का काम भी करती थी और इसी प्रकार भारत की संविधान सभा भी संविधान सभा होने के साथ साथ संसद का काम भी करती थी । जम्मू कश्मीर की विधान सभा ,उसी राज्य संविधान सभा की वारिस  है और इसी प्रकार भारत की संसद उस संघीय संविधान सभा की वारिस है । अनुच्छेद ३७० को विधि द्वारा संस्थापित भारत की संसद और राज्य की विधान सभा सांविधानिक तरीक़े से बदल सकती है । डा० जितेन्द्र सिंह इसी विषय पर बहस करने की बात कह रहे हैं , जिसे सुन कर अब्दुल्ला परिवार झाग उगल रहा है ।


29.05.2014