Saturday 7 June 2014

विदेश नीति में भारतीय भाषा- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                     जिन दिनों दूरदर्शन का प्रचलन नहीं था उन दिनों अख़बार में ख़बर छपती तो थी लेकिन ख़बर बनती कैसे है यह पता नहीं चलता था । लेकिन जब से दूरदर्शन का प्रचलन बढ़ा है तब से आँखों के आगे ख़बर बनती हुई दिखाई भी देती है । पुराने दिनों में ख़बर छपती थी कि भारत और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने आपसी हितों के बारे में बातचीत की । क्या बातचीत की , इसका विवरण भी छपता था । अब भी छपता ही है । लेकिन अख़बार में यह नहीं छपता था और अब भी नहीं छपता है कि बातचीत किस भाषा में की । समाचार पत्रों के लिये यह पता करने की जरुरत भी नहीं थी । लेकिन अब स्थिति बदल गई है । अब दूरदर्शन के सभी चैनलों पर दोनों देशों के नेता आपस में बातचीत करते हुये दिखाई भी देते हैं । जिनकी विदेश नीति की गहराइयों में रुचि नहीं भी होती वे भी विदेशियों की शक्ल देखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाते । लेकिन दूरदर्शन पर आश्चर्यजनक दृश्य दिखाई देते हैं । मसलन जापान का प्रधानमंत्री जापानी भाषा में बातचीत करता है और हमारा प्रधानमंत्री अंग्रेज़ी में बोलता है । फिर भी अनुवादक की जरुरत तो होती ही है । अनुवादक जापान के प्रधानमंत्री की बात का अनुवाद अंग्रेज़ी में करता है और हमारे प्रधानमंत्री की अंग्रेज़ी में बोली गई बात का अनुवाद जापानी में करता है । प्रश्न पैदा होता है कि जब सारी बातचीत अनुवादक के सहारे ही चलती है तो भारत का प्रधानमंत्री अपने देश की भाषा में बातचीत क्यों नहीं करता ? यह दृश्य देख कर कोफ़्त होती है । अपमान भी महसूस होता है ।

                            चीन के राष्ट्रपति माओ जे तुंग अंग्रेज़ी बहुत अच्छी तरह जानते थे । उनसे मिलने के लिये जब किसी अंग्रेज़ी भाषी देश का राष्ट्राध्यक्ष भी मिलने आता था तो वे अंग्रेज़ी समझते हुये भी उसका उत्तर अंग्रेज़ी में नहीं देते थे । वे चीनी में ही बोलते थे और अनुवादक अनुवाद कर देता था । किसी देश की भाषा विदेश सम्बंधों में स्वाभिमान का प्रतीक भी होती है,वहाँ वह केवल संवाद का काम नहीं करती । विदेश सम्बंधों में इन प्रतीकों का प्रयोग कैसे करना है , यह भी विदेश नीति के संचालकों की सफलता का एक बड़ा कारक माना जाता है । लेकिन दुर्भाग्य से भारत में अभी तक विदेश मंत्रालय में ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार क्लब का आधिपत्य रहा है । इस क्लब की चमड़ी मोटी है । इसलिये जब दूसरे देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष भारत में आकर अपने देश की भाषा बोलते हैं तो हमारे प्रतिनिधि कम्पनी बहादुर(ब्रिटेन) की भाषा में जुगाली करते । भैंस के आगे बीन बजे और भैंस खड़ी पगुराये । लेकिन अंग्रेज़ी भाषा में पगुराने के कारण भैंस वे बजह नथुने भी फैलाती है । उनकी इन हरकतों से देशवासी तो लज्जित होते लेकिन भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि सिर पर विदेशी भाषा का यूनियन जैक लगा कर नाचते रहते । कई देशों ने तो भारत के इन प्रतिनिधियों  को उनकी इस हरकत पर लताड़ भी लगाई । रुस से एक बार विजय लक्ष्मी पंडित को अपने काग़ज़ पत्र हिन्दी में तैयार करवाने के लिये ही वापिस आना पड़ा था ।

                                 लेकिन देश के नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के इस लज्जास्पद अध्याय को समाप्त करने का निर्णय ले लिया लगता है । प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्ष दिल्ली आये थे । श्री लंका के श्री राजपक्षे से द्विपक्षीय वार्ता में मोदी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया । राजपक्षे अंग्रेज़ी में बोल रहे थे । मोदी उसे समझ तो रहे थे । वे चाहते तो स्वयं उसका उत्तर दे सकते थे । लेकिन मोदी-राजपक्षे की वार्ता के लिये हिन्दी अनुवाद के लिये दुभाषिए की व्यवस्था की गई । इससे देश विदेश में एक अच्छा संदेश गया है । अब दुनिया से भारत अपनी भाषा में बातचीत करेगा । मोदी पहले ही कह चुके हैं कि भारत किसी भी देश से आँख से आँख मिला कर बात करेगा । आँख से आँख अपनी भाषा में ही मिलाई जा सकती है । जो देश ताक़तवर होते हैं वे विदेश नीति के लिये उधार के प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते । अपने देश की भाषा ,अपने देश के मुहावरों का प्रयोग करते हैं । विदेशी राज्यों की दासता में लगभग हज़ार साल तक रहने के कारण हमारे लोगों की मानसिक स्थिति भी दासता की हो गई है । उनके लिये राष्ट्रीय स्वाभिमान साम्प्रदायिकता एवं पोंगापंथी होने का पर्याय हो गया है । उन्होंने भारतीय भाषाओं की वकालत को भी साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया है । लेकिन यह भाव देश की आम जनता में इतना नहीं है जितना देश के बुद्धिजीवी वर्ग एवं नीति निर्धारकों में है । देश का श्रमजीवी अपने देश की भाषा से जुड़ा हुआ ही नहीं है बल्कि उस पर गौरव भी करता है । इस का एक कारण यह भी है कि वह अपने देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ है । लेकिन यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग शिक्षा की उस भट्ठी में तप कर निकला है जिसे अंग्रेज़ों ने बहुत ही शातिराना तरीक़े से यहाँ स्थापित किया था । इसलिये भाषा को लेकर उसकी सोच अभी भी १९४७ से पहले की ही है, जिसमें भारतीय भाषाओं को वर्नक्युलर कह कर अपमानित किया जाता था । लुटियन की दिल्ली में बैठ कर सत्ता के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति इन वर्नक्युलर भाषाओं का प्रयोग भी कर सकता है यह तो कोई सोच ही नहीं सकता था । लेकिन नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका जन्म अंग्रेज़ों के शासन काल में नहीं हुआ था बल्कि अंग्रेज़ी सत्ता समाप्त हो जाने के बाद स्वतंत्र भारत में हुआ था । इस लिये वे विदेशी भाषा की दासता के भाव से मुक्त हैं । दूसरे वे अपनी शक्ति और उर्जा देश के सामान्य जन से ग्रहण करते हैं अत उन्हें स्वयं को एक विदेशी भाषा के अहम से कृत्रिम रुप से महिमामंडित करने की जरुरत नहीं है । अब तक विदेशी भाषा का जाल फेंक कर देश के लिये नीति निर्धारण का काम नौकरशाही ने राजनैतिक नेतृत्व से छीन रखा था । नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के क्षेत्र में लगता है सबसे पहले इसी भाषायी ग़ुलामी से मुक्त होने की पहल की है ।

                         ऊपर से देखने पर यह पहल मामूली लग सकती है । लेकिन इसके संकेत बहुत गहरे हैं । चीनी भाषा में एक कहावत है कि हज़ारों मील की यात्रा के लिये भी पहला क़दम तो छोटा ही होता है । कोई भी यात्रा सदा इस छोटे क़दम से ही शुरु होती है । लगता है विदेश नीति के मामले में मोदी ने छोटा क़दम उठा कर यह यात्रा शुरु कर दी है ।

 05.06.2014 

अब्दुल्ला परिवार छेड़ रहा मरघट की धुनें--डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                   पिछले दिनों लोकसभा के लिये हुये चुनावों में उधमपुर क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी डा० जितेन्द्र सिंह चुने गये । जम्मू कश्मीर में जब भी चुनाव होते हैं तो संघीय संविधान के अनुच्छेद ३७० का प्रश्न सदा प्रमुख रहता है । चुनाव चाहे लोक सभा के हों या विधान सभा के,अनुच्छेद ३७० का मुद्दा कभी ग़ायब नहीं होता । जम्मू और लद्दाख के लोगों ने तो इस अनुच्छेद को हटाने के लिये १९४८ से लेकर १९५३ तक प्रजा परिषद के झंडे तले एक लम्बी लड़ाई भी लड़ी थी जिसमें १५ लोग पुलिस की गोलियों से शहीद हो गये थे । अभी तक भी प्रजा परिषद आन्दोलन की विरासत समाप्त नहीं हुई बल्कि दिन प्रतिदिन और भी घनीभूत होती गई । लेकिन इस बार के चुनावों में अनुच्छेद ३७० को लेकर चर्चा एक नये रुप में हो रही थी । इस बार चुनावों के दौरान मुख्य मुद्दा यह था कि अनुच्छेद ३७० को लेकर बिना किसी पूर्वाग्रह के आम जनता में बहस होनी चाहिये कि इस अनुच्छेद से राज्य की आम जनता को क्या कोई लाभ हो रहा है या फिर यह वहाँ के निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा आम आदमी के शोषण के लिये हथियार के रुप में इस्तेमाल की जा रही है ?

                    लेकिन सोनिया कांग्रेस समेत राज्य की प्रमुख शासक पार्टी,अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कान्फ्रेंस , इस बहस से बचती रही । उसने अत्यन्त शातिराना तरीक़े से बहस को इस दिशा में मोड़ना चाहा कि सीधे सीधे इस बात पर बहस की जाये की अनुच्छेद ३७० को हटाया जाना चाहिये या नहीं ? इस विषय पर उस ने अपना स्टैंड भी स्पष्ट कर दिया कि अनुच्छेद ३७० को हटाने की अनुमति नहीं दी जायेगी । इतना ही नहीं नेशनल कान्फ्रेंस का मालिक अब्दुल्ला परिवार इस सीमा तक आगे बढ़ा कि उसने सार्वजनिक रुप से घोषणा कर दी कि अनुच्छेद ३७० के हटाया जाने की स्थिति में जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा । यह नैशनल कान्फ्रेंस का घोषित स्टैंड रहा । उसने अपने चुनाव प्रचार को इसी के इर्द गिर्द केन्द्रित रखा । नेशनल कान्फ्रेंस इतना तो जानती ही थी कि अपने इस स्टैंड को पूरा करने के लिये उसे राज्य की जनता का समर्थन चाहिये । राज्य में जन समर्थन प्राप्त करने के लिये नेशनल कान्फ्रेंस ने अपने सहयोगी दल सोनिया कांग्रेस के साथ मिल कर राज्य की छह सीटों के लिये प्रत्याशी खड़े किये । जम्मू , उधमपुर और लद्दाख सीट पर सोनिया कांग्रेस के प्रत्याशी खड़े थे और कश्मीर घाटी की तीन सीटों श्रीनगर,बारामुला और अनन्तनाग के लिये नैशनल कान्फ्रेंस के प्रत्याशी मैदान में थे । लेकिन राज्य की जनता ने नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस द्वारा उठाये प्रश्न का उत्तर एकमुश्त दे दिया । नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कान्ग्रेस दोनों के ही सभी प्रत्याशी पराजित हो गये । राज्य से लोक सभा की छह सीटों में से तीन सीटें भारतीय जनता पार्टी ने और तीन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने जीत लीं ।

                      स्वाभाविक रुप से जन प्रतिनिधि के नाते डा० जितेन्द्र सिंह ने अनुच्छेद ३७० से राज्य को मिल रही लाभ हानि को परख लेने की बात कही ।  जैसा अब्दुल्ला परिवार कह रहा है कि इस अनुच्छेद को रहना ही चाहिये , उस के लिये भी आखिर यह देखना तो जरुरी है कि इससे राज्य के लोगों को फ़ायदा भी मिल रहा है या फिर इस का फ़ायदा केवल अब्दुल्ला परिवार या उन की जुंडली के लोग ही उठा रहे हैं ? यदि यह पता चल जाये कि सचमुच इससे रियासत के लोगों को फ़ायदा मिल रहा है ,फिर तो इसे रखा ही जाना चाहिये । लेकिन यदि यह पता चल गया कि आम लोगों को तो कोई फ़ायदा नहीं मिल रहा अलबत्ता अब्दुल्ला ख़ानदान के लिये यह अनुच्छेद धन कुबेर साबित हो रहा है तो फिर रियासत के लोग ही उनसे सवाल करना शुरु कर देंगे कि इस अनुच्छेद को क्यों बरक़रार रखा जाये ? ज़ाहिर है कि इस ख़ानदान के लिये तब जनता के इस प्रश्न का जबाव देना मुश्किल हो जायेगा । इसे देखते हुये राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मूल प्रश्न का सामना करने से बचने के लिये चीं चीं (टवीट शब्द का हिन्दी अनुवाद यही सकता है    ) करना शुरु कर दिया कि," मेरी इस बात को नोट कर लिया जाये और मेरी इस चीं चीं को भी सुरक्षित कर लिया जाये । जब मोदी सरकार केवल भविष्य की स्मृतियों में सुरक्षित रह जायेगी , तब या तो जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं होगा या अनुच्छेद ३७० का अस्तित्व बचा हुआ होगा । इन दोनों में से एक ही स्थिति रहेगी । भारत और जम्मू कश्मीर के बीच अनुच्छेद ३७० ही सांविधानिक सेतु है । "

                              जितेन्द्र सिंह तो अनुच्छेद ३७० की लोक उपादेयता पर सकारात्मक बहस चला कर राज्य में जन सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं लेकिन उमर अब्दुल्ला उससे घबरा कर मरघट की धुनें बजा रहा है । जो व्यक्ति और पार्टी आम जनता की भावनाओं और उसकी धडकनों से कट कर महलों में क़ैद हो जाती है उसका व्यवहार इसी प्रकार का होने लगता है । इन चुनावों में अब्दुल्ला परिवार और उनकी पार्टी के हश्र ने इसको सिद्ध कर दिया है ।

             अनुच्छेद ३७० का जम्मू कश्मीर के भारत का अंग होने या न होने से कोई सम्बंध नहीं है । जम्मू कश्मीर १९४७ में  रियासत के महाराजा हरि सिंह द्वारा अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले भी भारत का ही अंग था । अन्तर केवल इतना था कि वहाँ की प्रशासन प्रणाली ब्रिटिश भारत की प्रशासन प्रणाली से अलग थी । अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद जब सारे भारत में विभिन्न प्रशासनिक प्रणालियाँ समाप्त करके एक संघीय प्रशासनिक प्रणाली लागू करने की बात आई तो महाराजा हरि सिंह ने भी उसमें अपनी सहमति जताई और विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये । इसका जम्मू कश्मीर के भारत का अंग होने या न होने से क्या ताल्लुक़ है ? लेकिन अब्दुल्ला परिवार ने नेहरु की कृपा से रियासत की सत्ता अलोकतांत्रिक तरीक़े से संभालने के तुरन्त बाद ब्रिटिश और अमेरिका के मालिकों से ट्यूशन लेना शुरु कर दिया था । उन मालिकों ने इस परिवार को अनेक अंग्रेज़ी शब्दों की जो व्याख्याएँ सिखा दी , आज तक वे उसी की जुगाली कर रहे हैं । यदि वे थोड़ी कश्मीरी और डोगरी भाषा की ट्यूशन भी किसी देशी विद्वान से ले लेते तो उन्हें अपने आप समझ आ जाता कि कि अनुच्छेद ३७० का रियासत के भारत का अंग होने या न होने से कोई नाता नहीं है । इस बार रियासत की जनता ने कोशिश तो की कि यह परिवार थोड़ी कश्मीरी भी सीख ले लेकिन हार के बाद भी यह पार्टी अमेरिकी प्रभुयों के पढ़ाये पाठ को भूलने को तैयार नहीं है ।

                           अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हुये वे एक और हास्यस्पद बात कहते हैं जिसे सुन कर विश्वास नहीं होता कि वे सचमुच ऐसा मानते होंगे । क्योंकि इस प्रकार की बातों से उनकी छवि भी राहुल गान्धी की पप्पू नुमा छवि में तब्दील होने लगती है । उमर साहिब का कहना है कि अनुच्छेद ३७० के बारे में कोई फ़ैसला तो राज्य की संविधान सभा ही कर सकती थी अब क्योंकि वह सभा अपनी उम्र भोग कर मर चुकी है इसलिये अब अनुच्छेद ३७० अमर हो गया है । यानि बाप मरने से पहले जो लिख गया था अब उसको हाथ नहीं लगाया जा सकता  क्योंकि उसमें हेर फेर का अधिकार तो बाप को ही था । अब वह नहीं रहा तो अनुच्छेद ३७० भी अमर हो गया । यह सोच ही अपने आप में सेमेटिक सोच है । उमर अब्दुल्ला को जान लेना चाहिये कि यह बात "आतिशे चिनार" के बारे में तो सच हो सकती है अनुच्छेद ३७० के बारे में नहीं । जम्मू कश्मीर राज्य की संविधान सभा , जिन दिनों ज़िन्दा भी थी , उन दिनों भी वह संविधान सभा के साथ साथ राज्य की विधान सभा का काम भी करती थी और इसी प्रकार भारत की संविधान सभा भी संविधान सभा होने के साथ साथ संसद का काम भी करती थी । जम्मू कश्मीर की विधान सभा ,उसी राज्य संविधान सभा की वारिस  है और इसी प्रकार भारत की संसद उस संघीय संविधान सभा की वारिस है । अनुच्छेद ३७० को विधि द्वारा संस्थापित भारत की संसद और राज्य की विधान सभा सांविधानिक तरीक़े से बदल सकती है । डा० जितेन्द्र सिंह इसी विषय पर बहस करने की बात कह रहे हैं , जिसे सुन कर अब्दुल्ला परिवार झाग उगल रहा है ।


29.05.2014

Tuesday 29 April 2014

आतंकवादियों को चुनाव में पुकारता अब्दुल्ला परिवार-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                    शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार की एक ख़ूबी है जिसकी तारीफ़ करनी होगी । वे जो कुछ भी करते हैं डंके की चोट पर करते हैं और उसको कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते । परिवार के वर्तमान सदस्यों ने यह ख़ासियत यक़ीनन अपने पुरखे शेख़ अब्दुल्ला से ही पाई होगी । यह शेख़ अब्दुल्ला ही थे जिन्होंने प्रदेश की पहली विधान सभा के लिये १९५२ में हुये चुनावों में सभी विरोधियों के नामांकन पत्र रद्द करवा पर सभी ७५ सीटें बिना चुनाव के ही जीत ली थीं  और  लोकतंत्र का अब्दुल्लाकरण कर दिया था । पंडित नेहरु लोकतंत्र के इस सशक्तिकरण को देखकर दिल्ली में कई दिन नाचते रहे थे । दरअसल उसी दिन से देश में लोकतंत्र को शक्ति प्रदान करने के लिये नेहरु परिवार और शेख़ अब्दुल्ला परिवार में अटूट गठबंधन हो गया था । शेख़ के परिवार की बागडोर अब उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला और उससे भी नीचे उमर अब्दुल्ला तक पहुँच गई है और नेहरु परिवार की बागडोर अनेक घुमावदार रास्तों से होती हुई फ़िलहाल इटली की सोनिया गान्धी और उनकी संतानों के पास है । वैसे केवल रिकार्ड के लिये, विदेशी छौंक अब्दुल्ला परिवार में भी लग चुकी है । उमर के माता जी विदेशी मूल के हैं । ख़ैर यह शिजरा अब केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है । बात कर्म और कारनामों की ही महत्वपूर्ण है । जिन दिनों फ़ारूक़ अब्दुल्ला सक्रिय राजनीति में नहीं थे । विदेश में रह कर राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे थे , तो वे बिना किसी से छिपाये , पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर में जे के अल एफ़ के कार्यक्रमों में शामिल होते थे । अब यह किसी से छिपाने की जरुरत नहीं की जे के एल एफ़ ने उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करवाने के लिये अपना मोर्चा खोला था ।
                  लोकसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं , इस लिये देश की राजनीति का माहौल भी गर्म होने लगा है । चुनाव का यही लाभ होता है । जिन लोगों ने बहुत मेहनत से मुखौटे पहने होतें हैं , वे थोड़ा तनाव बढ़ने पर ही उतरने लगते हैं । फ़ारूक़ और उमर के साथ भी यही हो रहा है । फ़ारूक़ अब्दुल्ला पिछले दिनों कश्मीर घाटी में यह कहते घूम रहे हैं कि उन्हें इस बात का बहुत ही दुख है कि चुनाव में आतंकवादी उनके साथ नहीं हैं । यदि ऐसा होता और मैं कहीं से बंम्ब और पिस्तौल ले पाता तो विरोधियों को मज़ा चखा देता । पत्रकारों से बातचीत करते हुये उन्होंने कहा कि उनके विरोधी इसी क़ाबिल हैं कि उन्हें सबक़ सिखाया जाये और उनसे बदला लिया जाये । लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि वे विरोधियों को सबक़ आतंकवादियों की सहायता और पिस्तौल से सिखाना चाहते हैं । वैसे तो विरोधियों को निपटाने का आसान तरीक़ा अब्दुल्ला परिवार ने पहले ही खोज लिया था और उसका लम्बे अरसे तक फल भोग भी किया । वह था विरोधियों के थोक भाव से नामांकन पत्र ही रद्द करवा देना । लेकिन अब शायद इक्कीसवीं शताब्दी में ऐसा संभव नहीं है । चुनाव आयोग भी सख़्त हो गया है । इटली का फासीवाद भी अब मदद कर नहीं पायेगा । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अब्दुल्ला परिवार ऐसी स्थिति में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जायेगा । अब वह विरोधियों को निपटाने के लिये आतंकवादियों और बंम्ब पिस्तौलों की तलाश कर रहा है । यह विचार  जरुर फ़ारूक़ अब्दुल्ला को अपने जे के एल एफ़ के दिनों के अनुभव से मिला होगा ।
                   लेकिन फ़ारूक़ अब्दुल्ला को संकट की इस घड़ी में ,चुनावों में सहायता के लिये आतंकवादी क्यों नहीं मिल रहे , इसका उत्तर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने,जो इस वक़्त जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं , ने दिया है । उन्होंने बहुत दुख से , मानों एक प्रकार से शोक संदेश प्रसारित करते हुये कहा कि जिन दिनों नेशनल कान्फ्रेंस सत्ता में नहीं थी , उस समय प्रदेश सरकार ने तीस से भी ज़्यादा आतंकवादी मार गिराये थे । उमर ने इन आतंकवादियों को मार दिये जाने का एक ही कारण बताया कि वे आतंकवादी हम से बातचीत कर रहे थे । उनके अनुसार यह बातचीत उनके मुख्य धारा में वापिस आने को लेकर हो रही थी । वे आतंकवादी किस प्रकार की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते थे और फ़ारूक़-उमर उन को किस मुख्यधारा में शामिल करना चाहते थे , इसका ख़ुलासा तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चुनाव में बह रही विपरीत हवा को देख कर कर ही दिया है । आज यदि मुख्यधारा में लौट आये वे आतंकवादी ज़िन्दा होते तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला को विरोधियों से भिड़ने के लिये स्वयं बंम्ब पिस्तौल उठाने की इच्छा न ज़ाहिर करनी पड़ती । यह काम उन प्रशिक्षितों के हवाले आसानी से किया जा सकता था । ताज्जुब है कि बाप बेटा खुले आम चुनाव में आतंकवादियों का सहयोग न मिलने पर सिर पीट रहे हैं और चुनाव आयोग भी चुप है । लेकिन इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि घाटी में पसरे आतंकवाद के दिनों में नेशनल कान्फ्रेंस किस तरीक़े से चुनाव जीतती थी और सत्ता प्राप्त करती थी । नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता या तो नेहरु ख़ानदान की कृपा से मिलती रही या फिर आतंकवादियों की प्रत्यक्ष परोक्ष कृपा से । नेहरु के दबाव में महाराजा हरि सिंह ने बिना किसी लोकतांत्रिक चुनाव के शेख़ अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी थी । पहला चुनाव धाँधली से जीता , उसके बाद इंदिरा गान्धी की मदद से फिर सत्ता मिली । आपात् स्थिति के बाद हुये चुनावों में जरुर शेख़ अब्दुल्ला अपने बल बीते चुनाव जीते लेकिन इसके साथ ही यह भी दिन की तरह साफ़ हो गया कि कश्मीर घाटी के बाहर अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कान्फ्रेंस का सिक्का नहीं चलता । इतना ही नहीं पाँच साल के इस एक ही शासन काल में जनता को भी शेख़ अब्दुल्ला की असलियत पता चल गई । उनके पारिवारिक भ्रष्टाचार के चलते जनता उन्हें सबक़ सीखाने के लिये आमादा हो गई ।  उसके बाद फिर चुनावों में बदस्तूर धाँधलियाँ शुरु हो गईं । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि अब जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस मिल कर धाँधलियाँ कर रहे थे और सत्ता भी आपस में मिल बाँट कर खा रहे थे ।
                          लेकिन समय के अनुसार कश्मीर घाटी में ही सत्ता के दूसरे दावेदार उभरने लगे । इनमें से कुछ तो दबाव समूह हैं और कुछ राजनैतिक दल हैं । घाटी में गुज्जर  और बकरबाल राजनीति में ही हाशिए पर नहीं हैं बल्कि वहाँ के सामाजिक जीवन में भी उपेक्षित हैं । अब उन्होंने भी सत्ता में भागीदारी के लिये अपने वोट को तौलना शुरु कर दिया है । घाटी का शिया समाज सदा से मुसलमानों के निशाने पर रहता है । जब नेशनल कान्फ्रेंस ने घाटी में मुसलमानों की संख्या बढ़ा कर दिखाना होती है तो शिया समाज को मुसलमान बताया जाता है और जब वे राजनैतिक सत्ता में भागीदारी माँगते हैं तो उन्हें मूर्तिपूजक बताया जाता है । पी डी पी और आम आदमी पार्टी के भी मैदान में होने के कारण नेशनल कान्फ्रेंस का घाटी पर से एकाधिकार ख़त्म होने जा रहा है । इसलिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला बंम्ब पिस्तौल के लिये आहें भर रहे हैं और सहायता के लिये आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिये उन्हें आतंकवादी मिले या नहीं , यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे , लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस का विरोध करने वाले एक सरपंच की निर्मम हत्या जरुर हो गई है । वैसे भी जिन दिनों फ़ारूक़ स्वयं जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तो उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों पर आतंकवादियों से सम्बंध होने के आरोप लगते रहते थे । नेशनल कान्फ्रेंस को पिछले तीन दशकों में घाटी में भी कभी इतना जन समर्थन नहीं मिला की वे अपने बलबूते सरकार बना और चला सके । उसे कन्धों पर ढोकर सरकार चलाने का अधिकार सोनिया गान्धी की पार्टी ही देती  है । सोनिया गान्धी की पार्टी घाटी में से तो कोई सीट जीत नहीं पाती । वह जम्मू संभाग से मत प्राप्त करके , उन्हें नेशनल कान्फ्रेंस की झोली में डाल डाल कर जम्मू संभाग को घाटी का बंधुआ बना देती है जिसका दुष्परिणाम जम्मू व लद्दाख संभाग के अतिरिक्त घाटी के अल्पसंख्यकों , जनजातियों और शिया समाज को भुगतना पड रहा है । शेख़ अब्दुल्ला के परिवार को अपने कन्धों पर ढोने के पीछे नेहरु परिवार की क्या विवशता है , यह तो कोई नहीं जानता , लेकिन इतना स्पष्ट है कि फ़ारूक़-उमर बाप बेटे को विश्वास हो चला है कि इस बार सोनिया गान्धी की पार्टी भी उन्हें सत्ता की मंज़िल तक पहुँचा नहीं पायेगी , क्योंकि बक़ौल उमर अब्दुल्ला देश में नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है । इसलिये लगता है विरोधियों को केवल हराने के लिये ही नहीं , बल्कि उन्हें ज़िन्दगी भर का सबक़ सिखाने के लिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला घाटी में पिस्तौल और आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । गाढ़े वक़्त में वही काम आयेंगे । आमीन ।


22 April 2014 

Friday 4 April 2014

नरेन्द्र मोदी होने का सच-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों सोनिया माईनो गान्धी और उनके बेटे राहुल गान्धी ने अपने चुनाव प्रचार में दो अलग अलग स्थानों पर दो अलग अलगबातें कहीं । ऊपर से दोनों बयान सहती लगते हैं और एक दूसरे से असम्बधित भी । लेकिन भीतर कहीं गहरे से आपस में जुड़े हुये तो हैं हीं , साथ ही नरेन्द्र मोदी को लेकर जो पूरे भारत में लहर चल रही है , उसको लेकर सोनिया गान्धी परिवार और उनकी पार्टी की असली चिन्ताओं को भी उजागर करते हैं । असम में सोनिया गान्धी ने कहा कि सरकार चलाना और भारत का शासन चलाना कोई बच्चों का खेल नहीं है । उनका संकेत था कि नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को भारत का शासन चला लेने की अपनी इच्छा को त्याग देना चाहिये क्योंकि यह उन के वंश और योग्यता से बाहर की बात है । इससे कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में एक जन सभा को सम्बोधित करते हुये राहुल गान्धी ने कहा कि नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गान्धी की पार्टी की लड़ाई व्यक्तियों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह विचारधारा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाई है । राहुल गान्धी ने जो कहा वह बिल्कुल ठीक कहा है । आगामी लोकसभा के लिये जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह दो विभिन्न वैचारिक धरातलों पर खड़ी सेनाओं की लड़ाई है । इसमें एक धरातल तो भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व में लामबन्ध हुई राष्ट्रवादी शक्तियों का है और दूसरा धरातल सोनिया गान्धी और उनके शिविर में एकत्रित सेनानायकों का है । सोनिया गान्धी के शिविर का वैचारिक धरातल क्या है ? इसका संकेत उन्होंने असम में अपने उस बयान में दिया है , जिसका ज़िक्र ऊपर किया  गया है ।
                       सोनिया गान्धी ने जो कुछ कहा है , वह भारत के लोगों के बारे में पुरानी यूरोपीय धारणा को इंगित करता है । जब इस देश पर क़ब्ज़ा करने के लिये पुर्तगाली , डच, फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ अपनी चालें चल रहे थे तो जिस एक बात पर वे सहमत थे वह यही थी कि भारतीय अपना शासन स्वयं चलाने के योग्य नहीं है । अन्ततः अंग्रेज़ों ने इस देश पर क़ब्ज़ा कर लिया तो उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में ही यह पढ़ाना शुरु कर दिया कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है । इसके लिये योग्यता चाहिये । वह योग्यता भारत के लोगों में नहीं है । दरअसल यह वैचारिक आधार कैम्ब्रिज और आक्सफोर्ड में तैयार हुआ था , जिसने प्रत्यक्ष तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना को चिन्तित किया था और परोक्ष रुप से इस ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना में कहीं न कहीं सम्पूर्ण यूरोपीय साम्राज्यवादी चेतना भी प्रतिध्वनित होती थी । उस समय भी इस यूरोपीय वैचारिक धरातल को स्वीकारने वाले कुछ भारतीय उठ खड़े हुये थे , जिन्हें ब्रिटिश शासन तो रायबहादुर और रायसाहिब कहता था लेकिन आम भारतीय जन टोडी बच्चा कह कर हिक़ारत की नज़र से देखता था । सोनिया गान्धी के बयान से भी उसी यूरोपीय वैचारिक चेतना प्रतिबिम्बित होती दिखाई दे रही है । वे प्रकारान्तर से इस देश के लोगों से कह रही हैं कि इस देश का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है तो प्रत्युत्तर में उनसे पूछा जा सकताहै कि फिर क्या यह इटली और वेटिकन वालों का है ? इतालवी परिवार में ऐसी कौन सी योग्यता है जो वह भारत की गद्दी पर अपना दावा ठोंक रहा है ? सोनिया गान्धी ने एक और बात भी कहीं कि यदि नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा का शासन आ गया तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा । भारतीयों को ब्लैकमेल करने का यह भी पुराना यूरोपीय टोटका है । अंग्रेजशासक सदा ही यह कहते रहते थे कि यदि वे देश को छोड़ कर चले गये तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा । अंग्रेज़ों के साथ उन दिनों उनके राय बहादुर और रायसाहिब भी यही गीत गाया करते थे । आज भी सोनिया गान्धी की पार्टी में उनका झण्डा उठाये प्रमुख लोग यही चिल्ला रहे हैं । ब्रिटिश सरकार ने उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे लोगों को सबक़ सिखाने के लिये और अपने शासन को देर तक बनाये रखने के लिये मुस्लिम लीग की स्थापना करवा दी थी , जो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाते थे और गुंडई करते थे । आज सोनिया गान्धी की पार्टी ने भी अपने भीतर ऐसे लोगों की व्यवस्था कर ली है जो वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय हितों की बात करने वालों की बोटी बोटी करने की धमकियाँ देते हैं । मुस्लिम लीग भी इसी प्रकार के डायरैक्ट एक्शन की धमकियाँ ही नहीं देती थी बल्कि उसे अमल में भी लाती थी ।

                              सोनिया गान्धी के नेतृत्व में इक्कठे हुये लोग भारत पर शासन करने के लिये वही तर्क दे रहे हैं जो कभी ब्रिटिश सरकार के लोग भारत पर शासन करने के लिये देते थे । उस समय भी मुस्लिम लीग की विचारधारा को मानने वाले लोग ब्रिटिश सरकार के साथ थे और इस लडाईमें भी वे या तो सोनिया गान्धी के जमावड़े का हिस्सा बन गये हैं या फिर परोक्ष रुप से उस के लिये मददगार हो रहे हैं । राहुल गान्धी जिस वैचारिक लड़ाई की बात कर रहे हैं उस लड़ाई में उन समेत उन के संगी साथी उस वैचारिक प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं , जिस का ऊपर ज़िक्र किया गया है और जिस का संकेत सोनिया गान्धी ने स्वयं दिया है ।

                             इस वैचारिक लड़ाई में दूसरा खेमा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सन्नद्ध हो चुका है । नरेन्द्र मोदी की लड़ाई इस मुल्क को यूरोपीय मानसिक दासता से मुक्त करवाने की है , जिसका पाश सोनिया के नेतृत्व में दिन प्रतिदिन कसता जा रहा है । वैसे इस मानसिक पाश से भारत के लोगों को बाँधने का इतिहास तो पंडित नेहरु से ही शुरु हो गया था , जिन्होंने स्वयं ही घोषणा कर दी थी कि वे यूरोपीय सभ्यता और नीतियों के विरोधी नहीं हैं , केवल यूरोपीय शासकों के विरोधी हैं । नेहरु ने तो विदेशी मुग़ल शासकों को भी स्वदेशी ही मानने की नीति अपनाई थी । नेहरु से लेकर अब तक यही नीति भारत सरकार की आधिकारिक नीति रही । सोनिया गान्धी के शासन काल में इन यूरोपीय सांस्कृतिक नीतियों को इस देश में लागू करने का प्रयास ही नहीं हुआ बल्कि सत्ता की बागडोर ही एक प्रकार से फिर इंतक़ाल ी मूल की सोनिया गान्धी के हाथ आ गई । दस साल के अरसे बाद एक बार फिर देश के लोगों ने इस सांस्कृतिक दासता और दैन्यता से मुक्ति पाने के लिये नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अँगड़ाई ली है । देश के लोग ऐसी नीतियाँ चाहते हैं जिस से भारत विश्व का अग्रणी देश बने न की सोनिया गान्धी के नेतृत्व में यूरोप और अमेरिका का पिछलग्गू । पिछले दस साल में गहरे षड्यन्त्र के तहत सरकार ने लोगों का यह आत्मविश्वास तोड़ने का प्रयास किया था कि भारत में अग्रणी बन सकता है ।

                  नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो काम करके दिखाया उससे देश के लोगों में एक बार फिर यह आत्मविश्वास जागने लगा है कि यदि सुदृढ़ नेतृत्व मिल जाये और भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अपनी जड़ों से जुड़ जाये तो वह एक बार फिर विश्व की राजनीति में नीति निर्धारण बन सकता है । नरेन्द्र मोदी के कृतित्व ने लोगों में उनके प्रति आस्था को जगाया है । यूरोपीय लाबी के लिये इसीलिये नरेन्द्र मोदी सबसे बड़ा ख़तरा बन कर उभरे हैं । अब जब यह लड़ाई अपने अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गई है और उसके परिणाम के क़यास भी लगने शुरु हो गये हैं तो सोनिया गान्धी और उनको आगे करके अपनी गोटियां खेल रही देशी विदेशी ताक़तें अपना सब कुछ झोंक रही हैं । सोनिया गान्धी का असम में दिया गया बयान   इस कैम्प की इसी हडबडाहट को इंगित करता है ।

                           इस कैम्प के पास सबसे बड़ा एक ही हथियार था कि नरेन्द्र मोदी के कारण देश की दूसरी कोई भी पार्टी भाजपा का समर्थन नहीं करेगी । लेकिन दूसरी पार्टियों की बात तो दूर सोनिया के अपने कैम्प में से ही भाग कर मोदी की सेना में आ मिलने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । जदयू , बसपा और सपा इत्यादि के शिविर से भाग कर मोदी के शिविर में आने वालों में मानों प्रतियोगिता ही चल पड़ी हो । नये लोगों की बढ़ती संख्या देख कर जहाँ सोनिया गान्धी के शिविर में घबराहट और सन्नाटा है , वहीं भाजपा के भीतर से ही कुछ प्रश्न उठने लगे हैं । प्रश्न पूछना भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परम्परा है । यह परम्परा इतनी उदार है कि महाभारत के युद्ध में जब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गईं थीं , धनुष की प्रत्यंाचाएं तन गईं तोअर्जुन ने श्री कृष्ण से बीच रण भूमि में प्रश्न पूछने शुरु कर दिया कि आत्मा कहाँ से आती है और कहाँ जाती है ? उस समय तो अर्जुन के सारथी श्री कृष्ण थे । उन्होंने अर्जुन का समाधान कर उसे पुनः युद्ध के लिये प्रेरित कर दिया । लेकिन इस बार नरेन्द्र मोदी का सारथी कोई कृष्ण नहीं है बल्कि देश की सारी जनता ही उनकी सारथी है । लेकिन इस सारथीके पास किसी के भी अप्रासंगिक प्रश्नों का उत्तर देने का समय नहीं है । मोदी का निशाना भी मछली की आँख पर लगा हुआ है । ऐसे समय में ध्यान को भटकाना घातक हो सकता है । मोदी उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं दे रहे हैं जो इस देश की अस्मिता और उसके भविष्य से जुड़े हुये हैं । लोकसभा की इस लड़ाई में देश के भविष्य का निर्णय होने वाला है । मोदी स्वयं अरुणाचल प्रदेश जाकर भारत की चीन नीति की परोक्ष घोषणा कर आये हैं । जम्मू कश्मीर में उन्होंने पाकिस्तान और उसके परोक्ष समर्थकों को चेतावनी दे दी है । भाजपा के भीतर इस बार लड़ाई इस बात की नहीं होनी चाहिये कि टिकट किस को दिया जा रहा है और किस को नहीं दिया जा रहा । बहस इस बात पर होनी चाहिये कि राष्ट्रीय हितों को पलीता लगाने वाली फ़ौज के डैन को किस प्रकार समाप्त करना है । यह साधारण चुनाव नहीं है । यह एक प्रकार से स्वतंत्रता का दूसरा युद्ध है । मोदी इस समय जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जबकि सोनिया गान्धी और उन का खेमा अपने संकीर्ण हितों एवं देशी विदेशी दबाव समूहों के हितों की लड़ाई लड़ रहा है , जिसका लाभ या तो अमेरिका उठायेगा , या क्वात्रोची के वंशज या फिर राय बहादुरों और राय साहिबों की फ़ौज , जो इस वक़्त सोनिया के आस पास घूम रही है ।

                              नरेन्द्र मोदी का सच आज भारत का सच बन गया है । वे भारतीय जनमानस की राष्ट्रीय भावना के साथ एकाकार हो गये हैं । आन्ध्र , ओडीशा या अरुणाचल में विधान सभा के चुनावों में जो लोग दूसरे राजनैतिक दलों के लिये कार्य कर रहे हैं , वे भी लोक सभा के लिये नरेन्द्र मोदी का समर्थक होनी की बात कर रहे हैं । इस चुनाव में मोदी फ़ैक्टर ने राजनीति में एक नये समतल धरातल की रचना की है । इस धरातल पर विभिन्न राजनैतिक दलों से निरपेक्ष होकर साधारण मतदाता मोदी के पक्ष में खड़ा नज़र आता है । लेकिन ध्यान रखना चाहिये इस धरातल पर जो मोदी खड़ा दिखाई देता है , वह मोदी कोई व्यक्ति न होकर एक सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा का प्रतीक है । वह इस सासंकृतिक भारत का मानवीकरण कहा जा सकता है । इस सांस्कृतिक भारत से ही सोनिया गान्धी और उसके सिपाहसलारों को डर लगता है । क्योंकि सांस्कृतिक भारत का सच ही मोदीका सच है । अपनी सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर ही भारत आर्थिक क्षेत्र में भी लम्बी छलाँग लगा सकता है । लेकिन इसी से भयभीत होकर यूरोप एक बार फिर दिल्ली में आकर चिल्ला रहा है कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं । मोदी के नेतृत्व में भारत को यूरोप की इसी गाली का उत्तर देना है ।


(2.4.2014 )

Monday 10 February 2014

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के पीछे सोनिया गान्धी की पार्टी का एजेंडा क्या है ?-डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

  दिल्ली की एक अंग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ ने जेल में वन्द स्वामी असीमानन्द के हवाले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह आरोप लगाया है कि संघ ने उन्हें हिंसात्मक गतिविधियों की अनुमति प्रदान की थी । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन शक्तियों के निशाने पर अपने जन्म काल से ही रहा है, जो भारत को कमजोर करना चाहती है और इसको खंडित करने के स्वप्न देखती रही हैं या अभी भी देख रही हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि संघ ने शुरू से ही भारत के जिस सांस्कृतिक स्वरूप् का समर्थन किया है, विदेशी शासकों और विदेशी ताकतों को वह कभी पसंद नहीं रहा है। क्योंकि उन्हें सदा खतरा रहता है कि इस सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर भारत एक बार फिर विश्व में अपना गौरवशाली स्थान प्राप्त कर सकता है। 1947 से कुछ साल पहले तक मुस्लिम लीग संघ का इस लिए विरोध करती थी क्योंकि संघ मुस्लिम लीग के देशघाती विभाजन के सिद्धांत का विरोध कर रही थी और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ पर इस लिए आक्रमण तेज किए क्योंकि देश विभाजन के राष्ट्रघाती फॉर्मूले को स्वीकार कर लेने के बाद कांग्रेस के भीतर जो अपराध बोध पल रहा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आईने में वह उसे टीस देता रहता था इसलिए यह जरूरी था कि संघ के इस आईने को भी किसी प्रकार से तोड़ दिया जाए। मामला यहां तक बढ़ा कि नेहरू और उसकी टीम के मुख्य लोगों यथा मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई ने भी महात्मा गांधी के मन में भी संघ के बारे में गलतफहमी पैदा करने की कोशिस की। यही कारण था कि महात्मा गांधी स्वयं संघ की शाखा में उसे समझने बुझने के लिए पधारे थे। नेहरू और उसकी टीम के लोग महात्मा गांधी के मन में मोटे तौर पर संघ की भूमिका को लेकर भ्रम पैदा करने में सफल नहीं हुए लेकिन जब नेहरू के मित्र और उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने, पाकिस्तान को 55 करोड़ दिए जाने के प्रश्न पर महात्मा गांधी को उपवास करने के लिए उकसाया, तो माउंटबेटन भी शायद इतना तो जानते ही थे की विभाजनोपरांत उत्पन्न हुए उत्तेजक वातावरण में इस उपवास से और उत्तेजना बढ़ सकती है और इसका परिणाम घातक भी हो सकता है ।  इसे भी माउंटबेटन की रणनीति का हिस्सा ही मानना चाहिए कि उन्होंने गांधी को मरणव्रत रखने के लिये उकसाते समय सरदार पटेल और अन्य राष्ट्रीय ताकतों को अंधेरे में रखा। महात्मा गांधी की हत्या पर जब सारा देश स्तब्ध और शोकाकुल था तो जवाहार लाल नेहरू  इस राष्ट्रीय शोक का इस्तेमाल केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निपटाने के लिए ही नहीं कर कर रहे थे बल्कि लगे हाथ यह चर्चा भी चला दी थी कि इसके लिये सरदार पटेल भी दोषी हैं । पटेल इससे बहुत आहत हुये थे । नेहरु ने गान्धी हत्या का बहाना लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित ही नहीं किया बल्कि संघ के उस वक्त के सरसंघचालक गुरू गोलवलकर को गिरफ्तार भी कर लिया। ताज्जुब होता है कि भारत विभाजन के लिये काम कर रही मुस्लिम लीग को तो १९४७ के बाद भी काम करने दिया गया और संघ को स्वतंत्रता के तुरन्त बाद प्रतिबन्धित कर दिया गया । यह अलग बात है कि न्यायालयों ने नेहरू की इस चाल को तार-तार कर दिया और संघ को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से मुक्त किया,जिसके बाद सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा।
                             
बहुत से लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि जिन दिनों पंडित नेहरू जम्मू कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थें उन दिनों लेक सक्सेस में पाकिस्तान का प्रतिनिधि बार-बार इस बात पर जोर देता था कि जम्मू कश्मीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सभी लोगों को निकाला जाए। उसका मुख्य कारण शायद यही था कि पाकिस्तान को विश्वास था कि नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ तो मजहब के आधार पर जम्मू कश्मीर के विभाजन की बात की जा सकती है लेकिन जब तक राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं तब तक वे जम्मू कश्मीर के किसी भी हिस्से को पाकिस्तान को दिए जाने का विरोध करते रहेंगे।
                             
विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग ने और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों को अपने निशाने पर बनाए रखा। लगता है सोनिया गांधी की पार्टी भी मुस्लिम लीग की उसी विरासत को लेकर एक बार फिर किसी गहरे षड्यंत्र को लेकर देश की राष्ट््वादी शक्तियों को निशाना बना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के षड्यंत्र में जुट गई है। अंग्रेजी की एक पत्रिका की किसी पत्रकार को आगे करके संघ पर देश में हिंसात्मक गतिविधियों को सहमति देने को लेकर जो आरोप लगाया है वह उसी रणनीति का हिस्सा है। सोनिया गान्धी की पार्टी के क्रियाकलापों और उसकी रीति नीति को समझने के लिये मुसोलिनी की कार्यप्रणाली और मैकियावली की राज्य नीति को समझना बहुत जरुरी है । कारवाँ में प्रकाशित तथाकथित साक्षात्कारः को तभी ठीक से पकड़ा जा सकता है ।
                             
कारवां अपने इस तथाकथित साक्षात्कार को लेकर किस प्रकार एक पूरी रणनीति के तहत काम कर रहा था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कारवां में प्रकाशित इस आलेख को जब किसी ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी तो पत्रिका की ओर से 5 फरवरी को बाकायदा एक प्रेस नोट जारी किया गया जिसमें संघ के सरसंघचालक पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने असीमानंद को देश में हिंसात्मक गतिविधि करने के लिए अपनी सहमति दी थी। यह प्रेस नोट दिल्ली प्रेस के मालिकों की सहमति या सहभागिता के बिना तैयार नहीं किया जा सकता था जो कारवाँ के मालिक हैं । रिकॉर्ड के लिए बता दिया जाए कि दिल्ली प्रेस नाम से मीडिया के धंघे में लगी यह कंपनी पिछले कई सालों से अंग्रेजी और हिंदी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं छाप रही है। दिल्ली प्रेस के इस मीडिया हाउस का स्वर शत प्रतिशत हिंदू विरोधी रहता है। हिन्दू संस्कृति और उसके प्रतीकों को खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। जो काम तरूण तेजपाल का मीडिया हाउस तथाकथित स्टिंग ऑपरेशनों के माध्यम से करता था वही काम दिल्ली प्रेस का मीडिया हाउस हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार द्वारा करता है ।  कहना चाहिए कि दोनों मीडिया हाउस एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरीकों से काम कर रहे हैं । इस उदेश्य की पूर्ति के लिए एक तीसरा समूह भी कार्यरत है। भारत में  चर्च के विभिन्न संस्थानों द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं को इस तीसरे समूह की संज्ञा दी जा सकती है। दिल्ली प्रेस की पत्र पत्रिकाओं और चर्च द्वारा भारत में मतांतरण आंदोलन को तेज करने के लिए प्रकाशित की जा रही पत्र पत्रिकाओं की भाषा का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो लगभग एक समान दिखाई देती है।
                               
सोनिया गांधी की पार्टी को लगता होगा कि यदि संघ पर ये आरोप तरूण तेजपाल के मीडिया हाउस तहलका के माध्यम से लगाए जाते हैं तो उस पर कोई विश्वास नहीं करेगा क्योंकि तेजपाल की कथित करतूतों का पर्दाफाश हो जाने के कारण उसकी विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो गई है। शायद इसी मजबूरी में दिल्ली प्रेस को पर्दे के पीछे से निकाल कर यह खेल खेलने के लिए मैदान में उतारा गया। लेकिन दिल्ली प्रेस वालों ने शायद इस खेल में नए होने के कारण ऐसी भूलें कर दी जिससे उनका झूठ पकड़ा ही नहीं जा रहा बल्कि उसके भीतर के अंतरविरोध भी स्पष्ट नजर आ रहे हैं। कारवां के प्रेस वक्तव्य में अंतरविरोध इतने स्पष्ट थे कि उन्हें इस वक्तव्य के जारी हो जाने के तुरंत बाद भूल सुधार और स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा।
                   
पिछले चार पाँच साल से सोनिया गान्धी की पार्टी सरकारी जाँच एजेंसियों के साथ मिल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हिंसात्मक गतिविधियों से जोड़ कर , एक प्रकार से आतंकवादियों को कवरिंग रेंज प्रदान कर रही है । इस से होता यह है कि जाँच एजेंसियाँ यदि चाहें भी तो वे न तो इस्लामी आतंकवादियों की गतिविधियों की जाँच कर सकतीं हैं और न ही उन्हें रोक सकतीं हैं । सोनिया पार्टी को लगता है कि इस्लामी आतंकवाद के प्रति उसके इस रवैये से मुसलमान उसे एक मुश्ताक़ वोट दे देंगें । सरकार को अच्छी तरह पता होता है कि संघ को लेकर फैलाए जा रहे इस दुर्भावना पूर्ण इतालवी झूठ को सिद्ध करने के लिये उसके पास कोई प्रमाण नहीं है । इसलिये न्यायालय में किसी को आरोपित नहीं किया जा सकता है और न ही आज तक किया गया है । लेकिन सरकार की मंशा तो चुने गये मीडिया समूहों की सहायता से संघ और राष्ट्रवादियों को जनमानस में बदनाम करना है । दिल्ली प्रेस की सहायता से किया गया यह प्रयास भी उसी कोटि में आता है । कारवाँ के किसी  पत्रकार ने दावा किया है कि उसने जेल में असीमानन्द से दो साल में बार बार मुलाक़ात की है तो ज़ाहिर है यह सारी साज़िश सरकारी सहायता के बिना संभव नहीं हो सकती । दिल्ली प्रेस भी और सोनिया गान्धी की पार्टी और उसकी सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि तथाकथित टेपों की जब तक जाँच होगी तब तक तो संघ पर लगे यह आरोप सब जगह चर्चित हो चुके होंगे ।
                                     
कारवाँ के इस कारनामे को एक और पृष्ठभूमि में भी देखना होगा । पिछले एक दो साल से देश में यह चर्चा फिर से हो रही है कि सोनिया गान्धी की इतालवी पृष्ठभूमि और उनके राजीव गान्धी से शादी से पूर्व के जीवन के बारे में तहक़ीक़ात की जाये । सोनिया गान्धी इस समय देश की सत्ता के केन्द्र बिन्दु में है और देश सुरक्षा के लिहाज़ से एक प्रकार से संक्रमण काल से ही गुज़र रहा है । वैश्विक इस्लामी आतंकवादियों के निशाने पर भारत भी है , यह रहस्य किसी से छिपा नहीं है । ऐसे समय में सोनिया गान्धी की सरकार आतंकवादियों के प्रति नर्म रवैया ही नहीं अपना रही बल्कि देश की जनता का ध्यान भी इस ओर से हटाने के लिये संघ पर दोषीरोपण कर रही है । पार्टी के एक महामंत्री तो खुलेआम आतंकवादियों का समर्थन करते नज़र आते हैं । आख़िर आतंकवादियों के प्रति सरकार की इस नर्म नीति के पीछे कौन है ? ये प्रश्न और भी तेज़ होकर चारों ओर गूँजने लगें , उससे पहले ही देश की राष्ट्रवादी ताक़तों पर दोषारोपण कर उन्हें रक्षात्मक रुख़ अख़्तियार करने के लिये विवश किया जाये,लगता है संघ पर दोषारोपण के पीछे यही सरकारी नीति काम कर रही है ।
                       
क्या कारण है कि आज अमेरिका भी संघ को निशाना बना रहा है , पाकिस्तान भी और सोनिया गान्धी की पार्टी भी ? हरिशंकर परसाई ने एक बार लिखा था कि यदि दुकानदार किसी ग्राहक की बुराई करें तो समझ लेना चाहिये कि ग्राहक ने उस दुकानदार के हाथों चुपचाप लुटने से इन्कार कर दिया है । इसी प्रकार अमेरिका भारत में जब किसी संगठन को गालियाँ देना शुरु कर दे तो मान लेना चाहिये कि वह संगठन भारत में अमेरिकी हितों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । लेकिन क्या सोनिया गान्धी और उसकी पार्टी इस बात का ख़ुलासा करेगी कि वह संघ को बदनाम करने के काम में किसके हितों की रक्षा में लगी हुई है ? रही बात  कारवाँ की , इस लड़ाई में अभी पता नहीं कितने छिपे हुये कारवाँ लोकसभा के चुनावों तक प्रकट होते रहेंगे । तरुण तेज़पाल के जेल जाने से कारवाँ ख़त्म थोड़ा हो गया है ।

Sunday 9 February 2014

क्या शांतिकाली जी महाराज, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के बाद अब स्वामी असीमानंद की बारी है?


पिछले कुछ समय से दक्षिण गुजरात के डांग जिले के वनवासी क्षेत्रों में सेवा कार्य कर रहे स्वामी असीमानंद भारत सरकार के निशाने पर हैं। चर्च किसी भी स्थिति में स्वामी असीमानंद को डांग से हटाना चाहता था क्योंकि इस वनवासी बहुल क्षेत्र में चर्च द्वारा चलायी जा रही अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का स्वामी जी विरोध कर रहे थे। सोनिया-कांग्रेस और वेटिकन सिटी में पिछले कुछ दशकों से जो साझेदारी पनपी है उससे यह आशंका गहरी होती जा रही थी कि अंततः भारत सरकार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चर्च की सहायता के लिए उतरेगी। यह आशंका तब सत्य सिध्द हुई जब भारत सरकार की केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने देश में कुछ स्थानों पर इस्लामी आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोटों में अचानक ही स्वामी असीमानंद जी को लपेटना शुरू कर दिया। जांच एजेंसियों ने तीर्थ क्षेत्र हरिद्वार से स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें ज्ञात-अज्ञात स्थानों पर रखा और उन्हें तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी। किसी मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए उनके बयान को लीक करते हुए उसे विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित मीडिया के एक खास गुट को मुहैया करवाया गया और उनके चरित्र हनन का प्रयास किया गया। भारत सरकार ने यह प्रचारित किया कि स्वामी असीमानंद आतंकवाद से जुडे हुए हैं और इस्लामी अल्पसंख्यकों के विरुध्द साजिश रच रहे हैं। सरकार का कहना था कि असीमानंद ने यह स्वीकार किया है कि संघ परिवार और कुछ हिन्दू आतंकवादी घटनाओं से जुड़े हुए हैं। जांच एजेंसियों ने स्वामी जी को शारीरिक यातनाएं देकर उनसे एक पत्र राष्ट्रपति के नाम भी लिखवाया जिसमें स्वामी जी ने विस्फोटों में कुछ हिंदुओं के हाथ होने की बात कही। यह अलग बात है कि जेल से राष्ट्रपति को लिखा गया यह पत्र राष्ट्रपति तक पहुंचने से पहले ही सरकारी योजना के चलते मीडिया तक पहुंच गया। सरकार ने असीमानंद पर बहुत दबाव डाला कि सरकारी गवाह बन जाएं और सरकार की रणनीति के अनुसार भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद से जोड़ने की मुहिम में हिस्सेदार बनें। लेकिन असीमानंद ने स्वयं को और बंगाल में अपने अन्य बंधु-बांधवों के जीवन को स्पष्ट दिखाई दे रहे खतरे के बावजूद यह कार्य करने से इनकार कर दिया। अलबत्ता, स्वामी जी ने कचहरी को यह जरूर बताया कि जांच एजेंसियां उन्हें असहनीय यातनाएं दे रही हैं और उनसे अपनी इच्छानुसार झूठे बयान भी दिलवा रही हैं और राष्ट्रपति को चिटि्ठयां भी लिखवा रही हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि सोनिया, कांग्रेस और भारत सरकार स्वामी असीमानंद की पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी हैं? इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। विदेशी मिशनरियां भारत के वनवासी क्षेत्रों में पिछले सौ सालों से भी ज्यादा समय से जनजातीय क्षेत्रों में लोगों के मतांतरण में लगी हुई हैं। इसके लिए इन मिशनरियों को विदेशी सरकारों से अरबों रूपयों की सहायता प्राप्त हो रही है। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार के लोगों ने भी वनवासी क्षेत्रों में अनेक सेवा-प्रकल्प प्रारंभ किए हैं। जनजातीय क्षेत्र के लोग अब अपने इतिहास, विरासत और आस्थाओं के प्रति जागरुक ही नहीं हो रहे हैं बल्कि सेवा की आड़ में मिशनरियों द्वारा जनजातीय समाज की आस्थाओं पर किए जा रहे प्रहार का विरोध भी करने लगे हैं। पिछले दिनों एक आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस, जो लंबे अर्से से जनजातीय समाज के रीति-रिवाजों, उनकी आस्थाओं, विश्वासों, पूजा-स्थलों और देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ा रहा था और उनके विरुध्द अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहा था, को ओडिशा के जनजातीय समाज के लोगों ने मार दिया था। तथाकथित हत्यारों को फांसी देने की प्रार्थना को लेकर ओडिशा सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार की इस प्रार्थना को रद्द कर दिया और यह टिप्पणी की कि इस प्रकार की घटनाएं तीव्र प्रकार की घटनाए होती हैं। साधू-संतों ने भी अपने कर्तव्य को पहचानते हुए वनवासी क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य प्रारंभ किया है। जाहिर है इससे चर्च का भारत में मतांतरण आंदोलन, खासकर जनजातीय क्षेत्रों में मंद पड़ता जा रहा है। चर्च को इससे निपटना है। लेकिन वह अपने बल पर यह काम नहीं कर सकता। इसलिए उसे सोनिया-कांग्रेस की सहायता की जरूरत है। सोनिया-कांग्रेस का वर्तमान संदर्भों में अर्थ भारत सरकार ही लिया जाना चाहिए।
चर्च ने अपने इस अभियान की शुरुआत सन 2000 में त्रिपुरा से की। त्रिपुरा के जनजातीय समाज में कार्य कर रहे स्वामी शांतिकाली जी महाराज की नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरानामक ईसाई संगठन ने उनके आश्रम में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी। हत्या से पहले चर्च के आतंकवादियों ने उनसे हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई बनने के लिए कहा। स्वामी जी के इनकार करने पर उन्हें गोली मार दी गयी। स्वामी जी कई वर्षों से त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्रों में जनजातीय समाज में शिक्षा, संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। स्वामी जी के कामों के चलते चर्च भोले-भाले जनजातीय समाज के वनवासियों को यीशु की शरण में लाने में दिक्कत अनुभव करने लगा था। भारत में चर्च की चरागाहें मुख्य तौर पर यह जनजातीय समाज ही है। त्रिपुरा में शांतिकाली जी महाराज इसी चरागाह में विदेशी मिशनरियों के प्रवेश को रोक रहे थे। चर्च ने अंत में उसी हथियार का इस्तेमाल किया जिससे वह आज तक दुनिया भर मे ंचर्च के मत से असहमत होने वालों को सबक सिखाता रहा है। स्वामी जी की हत्या कर दी गयी। स्वाभाविक ही हत्या से पहले जिस प्रकार की योजना बनायी गयी होगी, उसी के अनुरुप हत्यारों का बाल-बांका नहीं हुआ। सरकार हत्यारों को पकड़ने के बजाय जनजातीय समाज को यह समझाने का अप्रत्यक्ष प्रयास करती नजर आयी कि ऐसा काम ही क्यों किया जाए जिससे चर्च नाराज होता है। चर्च को आशा थी कि शांतिकाली जी महाराज की निर्मम हत्या से देश के साधु-संताें और राष्ट्रवादी शक्तियां सबक सीख लेंगी और विदेशी मिशनरियों को राष्ट्रविरोधी कृत्यों और मतांतरण अभियान का विरोध करना बंद कर देंगी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। जनजातीय क्षेत्रों में विशेषकर ओडिशा के जनजातिय क्षेत्र कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती वही कार्य कर रहे थे जो त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्र में स्वामी शांतिकाली जी महाराज कर रहे थे। त्रिपुरा के स्वामी जी की निर्मम हत्या का समाचार कंधमाल में पहुंचा ही। चर्च बड़े धैर्य से प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के आश्रम में इस हत्या से भय का वातावरण नहीं था बल्कि चर्च के इस अमानवीय कृत्य को लेकर उसकी भूमिका के प्रति दया और क्रोध का मिलाजुला भाव था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या से जनजातीय समाज के आगे चर्च का असली वीभत्स चेहरा एक झटके से उजागर हो गया। चर्च को सबसे बड़ी हैरानी तब हुई जब इस चेतावनी नुमा हत्या के बाद भी अपने समस्त भौतिक सुखों को त्यागते हुए पश्चिमी बंगाल के नभ कुमार ने सांसारिक जीवन को अलविदा कहते हुए स्वामी असीमानंद के नाम से गुजरात के डांग क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य करने के लिए प्रवेश किया। डांग एक लम्बे अरसे से ईसाई मिशनरियों की शिकारगाह रहा है और झूठ, छल, फरेब और धोखे से चर्च वहां के जनजातीय समाज को भ्रमित कर इसाई मजहब में दीक्षित कर रहा है। उधर ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के प्रयासों से चर्च के षड्यंत्र अनावृत हो रहे थे। जनजातीय समाज के जाली प्रमाण-पत्र बनाने में चर्च की भूमिका उजागर हो रही थी। यहां तक की सोनिया-कांग्रेस के एक प्रमुख सांसद चर्च की इस जालसाजी में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। इस बार में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती से निपटने के लिए चर्च ने काफी अरसा पहले ही पुख्ता रणनीति तैयार की। योजना यह थी कि जैसे ही सरस्वती जी की हत्या की जाए उसके तुरंत बाद मीडिया की सहायता से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार पर कंधमाल में ईसाईयों को तंग करने और विस्थापित करने के आरोप मीडिया की सहायता जड़ दिए जाएं। यह चोर मचाए शोरवाली स्थिति थी। इस योजना के अनुरुप ही अगस्त 2008 में जन्माष्टमी के दिन स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या की तर्ज पर ही आश्रम में घुसकर लक्ष्मणानंद सरस्वती को केवल गोलियों से ही नहीं मारा बल्कि कुल्हाड़ी से उनकी लाश के टुकडे भी किए गए। जनजातीय समाज का चर्च के प्रति गुस्सा पूर उफान पर था। परन्तु चर्च पहले ही अपनी योजना के अनुसार आक्रामक मुद्रा में आ चुका था। स्वामी जी की हत्या की औपचारिक तौर पर निंदा करने के बजाय क्रिश्चियन कौन्सिलके अध्यक्ष जॉन दयाल ने कहना शुरु कर दिया की उन्हें तो बहुत पहले ही जेल में डाल देना चाहिए था। इधर चर्च ने शोर मचाया की राष्ट्रवादी शक्तियां और संघ परिवार के लोग अल्पसंख्यक ईसाइयों पर अत्याचार कर रहे हैं, उधर भारत सरकार से लेकर यूरोपीय संघ तक कंधमाल में जांच के नाम पर संघ परिवार को बदनाम करने के काम में जुट गई। लक्ष्मणानंद सरस्वती के असली हत्यारों को पकड़ने की बजाय सरकार ने कंधमाल के जनजातीय समाज के लोगों को पकड़कर जेल में डालना शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक बिगड़ गयी कि कुछ लोगों को न्यायालय में यह याचिका देनी पड़ी कि सरकार जानबूझकर गलत दिशा में और गलत प्रकार से जांच कर रही है ताकि स्वामी जी के असली हत्यारे छूट जाएं। चर्च सीना तानकर भारतीय समाज को चुनौती दे रहा था-त्रिपुरा में स्वामी शांतिकाली जी महाराज और ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बावजूद कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर पाया। सोनिया कांग्रेस अब नंगे-चिट्टे रूप में ही चर्च के साथ आ खड़ी हुई थी। स्वामियों के हत्यारों को पकड़ने की मांग करने के बजाय वह राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी सिध्द करने में जुटी हुई थी। लेकिन दक्षिण गुजरात को जनजातीय क्षेत्र डांग चर्च की इन धमकियों के बावजूद भयभीत नहीं हुआ था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पीछे छिपी हुई शासकीय और अशासकीय शक्तियों को डांग में अपने आश्रम में स्वामी असीमानंद स्पष्ट ही देख रहे थे और इन हत्याओं के माध्यम से दी गई चेतावनी को देश का जनजातीय समाज भी समझ रहा था और स्वामी असीमानंद भी। लेकिन स्वामी असीमानंद ने चर्च की इन परोक्ष धमकियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया। डांग में स्वामी असीमानंद के कार्यों की गूंज वेटिकन तक सुनायी देने लगी। फरवरी, 2006 में स्वामी असीमानंद जी ने डांग में जिस शबरी कुंभ का आयोजन किया था, वह ईसाई मिशनरियों और विदेशों में स्थिति उनके आकाओं के लिए एक खतरे की घंटी थी। शबरी कुंभ में देश भर से जनजातीय समाज के 8 लाख से भी ज्यादा वनवासी एकत्रित हुए थे। भील जाति की शबरी ने त्रेतायुग में दक्षिण गुजरात के इस मार्ग से गुजरते हुए श्री रामचंद्र को अपने जूठे बेर प्रेमभाव से खिलाए थे। सबरी माता का उस स्थान पर बना हुआ मंदिर सारे जनजातीय समाज के लिए एक तीर्थ स्थल के समान है। शबरी कुंभ जनजातीय समाज में सांस्कृतिक चेतना के एक नए युग की ओर संकेत कर रहा था। चर्च बौखलाया हुआ था। सोनिया-कांग्रेस से लेकर वेटिकन तक सब चिल्ला रहे थे। भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कटघरे में खड़ा करने के प्रयास हो रहे थे। लेकिन स्वामी असीमानदं अविचलित थे। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो चुकी थी। चर्च इस प्रतीक्षा में था कि असीमानंद स्वयं ही डांग छोड़कर चले जाएंगे और वहां क ा जनजातीय समाज एकबार फिर उसकी शिकारगाह बन जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस बार असीमानंद की हत्या करना शायद चर्च के लिए इतना सहज व सरल नहीं रहा था। कंधमाल में जनजातीय समाज की प्रतिक्रिया को देखते हुए चर्च सावधान हो चुका था। इसलिए असीमानंद को ठिकाने लगाने के लिए नए हथियार का इस्तेमाल किया गया और उन्हें सोनिया-कांग्रेस के इशारे पर केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने एक दिन अचानक गिरफ्तार करके चर्च का अप्रत्यक्ष रूप से रास्ता साफ कर दिया। स्वामी असीमानंद को जांच एजेंसियां तरह-तरह से यातना दे ही रही हैं लेकिन फिर भी वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने न्यायालय में निर्भीक होकर कहा कि जांच एजेंसियां धमकियों और यातनाओं मेरे मुंह में शब्द ठूंस रही हैं। लेकिन वे किसी भी स्थिति में मेरे शब्द न समझे जाएं। चर्च स्वामी असीमानंद को किसी भी हालत में डांग के जनजातीय समाज में जाने नहीं देगा और जाहिर है स्वामी जी अपने संकल्प से पीछे नहीं हटेंगे। जनजातीय क्षेत्र के लोगों को इस बात की आशंका होने लगी है कि कहीं स्वामी असीमानंद की भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की तरह ही हत्या न कर दी जाए। हवालात में कैदी की हत्या कैसे की जाती है-इसको सोनिया कांग्रेस की इशारे पर जांच कर रही एजेंसियों से बेहतर कौन जानता है? क्या स्वामी असीमानंद को भी स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के रास्ते पर धकेल दिया जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि आतंकवादी घटनाओं में स्वामी जी को गिरफ्तार करना तो परदा मात्र है, असली मकसद तो चर्च की योजना के अनुसार उन्हें रास्ते से हटाने की है।

स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती हत्याकांड में उच्च न्यायायलय की फटकार -- डॉ0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री

 4 अगस्त, 2011 को ओडीशा उच्च न्यायालय ने 3 साल पहले 23 अगस्त, 2008 को स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती हत्याकांड की जांच में दखलंदाजी करते हुए जांच अधिकारी को आदेश दिया कि वह इस पूरे हत्याकांड की नए सिरे से जांच करें और यदि जरुरत पड़े तो इस सिलसिले में न्यायालय में नया आरोपपत्र भी दाखिल किया जाए । ब्रह्मचारी माधव चैतन्य ने ओडीशा उच्च न्यायालय में गुहार लगायी थी कि सरस्वती जी के असली हत्यारों को पकड़ने के लिए न तो जांच अधिकारी सही दिशा में जांच कर रहे हैं और न ही सरकारी तंत्र न्यायालय से दोषियों को सजा दिलवाने के उद्देश्य से सबूत और गवाह पेश कर रहे हैं। यह ब्रह्मचारी माधव चैतन्य ही थे जिन्होंने स्वामी जी की हत्या की प्रथम सूचना रपट थाने मे दर्ज करवायी थी और वे इसके चश्मदीद गवाह भी हैं। स्वामी जी की इस याचिका के बाद विश्व हिंदू परिषद् के ओडीषा शाखा के अध्यक्ष दुर्गा प्रसाद कर ने भी उच्च न्यायालय से अनुरोध किया कि उन्हें भी इस मामले में अपना पक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाए । न्यायालय ने उनकी इस प्रार्थना को भी स्वीकार कर लिया था ।

दरअसल, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को लेकर ओडीशा सरकार का जो रवैया रहा है, उससे आम लोगों में यह धारणा पनपी है कि स्वामी जी के हत्यारे, जांच अधिकारी और लोक अभियोजक तीनों आपस में गहरे तालमेल से चल रहे हैं । और इन तीनों का उद्देश्य हत्यारों को पकड़ना और सजा दिलाना नही हैं, बल्कि इसके विपरीत उनको कानून की गिरफ्त से सुरक्षित करना है। ब्रह्मचारी माधव चैतन्य और दुर्गा प्रसाद कर की उच्च न्यायालय में दी गयी याचिका आम लोगों में उपजे इसी जनाक्रोश का परिणाम थी। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इस हत्याकांड की जांच कर रहे पहले जांच अधिकारी को बदलकर जब नए जांच अधिकारी को यह जिम्मेवारी सौंपी गयी तो उसने जांच की प्रारम्भिक महत्वपूर्ण सामग्री को एकदम से दरकिनार कर दिया। विधिवेत्ता यह अच्छी तरह जानते हैं कि हत्या के मामलों में इस प्रकार की प्रारम्भिक सामग्री कितनी महत्वपूर्ण होती है। जांच अधिकारी के इस रवैये से ही यह अंदेशा होने लगा था कि जांच किस दिशा मे जाएगी। स्वामी जी की हत्या के पूर्व पहाड़ी मंच नामक किसी संस्था ने उनको हत्या करने का धमकी भरा पत्र लिखा था। हत्या से पूर्व पिछले कुछ सालों में स्वामी जी पर चर्च के गुंडों ने लगभग 8 बार अलग-अलग स्थानों पर कातिलाना हमले किए थे। हत्या से एक महीना पहले ही कंधमाल जिला के तुमडीबंद नामक स्थान पर कुछ लोगों ने चर्च की शह पर गोकशी की थी। स्वामी जी जब उसका विरोध करने के लिए वहां पहुंचे तो चर्च के उन्हीं गुंडों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी थी। जाहिर है कि चर्च पिछले लम्बे अर्सें से स्वामी जी की हत्या का प्रयास कर रहा था। लेकिन जब स्वामी जी की हत्या हुई तो ओेडीशा सरकार के प्रतिनिधि ने हत्या के कुछ घंटे बाद ही यह घोषणा कर दी कि यह हत्या माओवादियों ने करवायी है। जाहिर है कि बिना किसी प्रमाण के सरकार द्वारा की गयी इस घोषणा से जांच अधिकारी को स्पष्ट संकेत मिल गए कि उसे अपनी जांच को किस दिशा में लेकर जाना है। शायद, इसीलिए उच्च न्यायालय में याचिककर्ताओं ने यह प्रश्न खडा किया कि जांच अधिकारी माओवादियों को हत्या के लिए दोषी तो ठहरा रहा है लेकिन इस हत्या के पीछे माओवादियों का उद्देश्य या ‘मोटिव’ क्या है? इसको स्थापित नहीं कर पा रहा। लम्बे अरसे से फौजदारी मुकदमों से बावस्ता जांच अधिकारी और लोक अभियोजक इतना तो जानते ही हैं कि हत्या के मामले में जब तक मोटिव या उद्देश्य सफलतापूर्वक स्थापित न कर दिया जाए तब तक हत्यारों के बच निकलने की पूरी संभावना रहती है। लेकिन जांच अधिकारी जानते -बूझते इस पक्ष को अनदेखा कर रहा है और लोक अभियोजक इसमे उसकी सहायता कर रहा है। जबकि इसके विपरीत स्वामी जी की हत्या में चर्च का उद्देश्य या मोटिव बिल्कुल स्पष्ट है । चर्च लम्बे अर्से से ओडीशा के जनजातीय समाज को मतांतरित करके वहां एक नए ईसाई राष्ट्र की स्थापना में जुटा हुआ है। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती उनके इन अराष्ट्रीय प्रयासों में दीवार बनकर खडे हो गए थे । ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल के महासचिव जॉन दयाल और सोनिया गांधी की कृपा से राज्यसभा सदस्य बने मतांतरित राधाकांत के बयानो में सरस्वती जी को लेकर चर्च की छटपटाहट स्पष्ट ही देखी जा सकती है। इन दोनों की गतिविधियों से ही कोई भी सरकार अंदाजा लगा सकती थी कि चर्च स्वामी जी की हत्या के प्रयत्न कर रहा है। कंधमाल जिला के ही घुंसर उदयगिरी ब्लॉक में बट्टीकला गांव के चर्च में, स्वामी जी हत्या से तीन दिन पहले बाकायदा एक बैठक में प्रस्ताव पारित करके हत्या करने का निर्णय लिया गया। और इस प्रस्ताव को बाकायदा कार्रवाई रजिस्टर में भी दर्ज किया गया। कहा जााता है कि इस बैठक में राज्य सरकार का एक अधिकारी भी उपस्थित था। बट्टीकला चर्च की इस बैठक की मीडिया में भी काफी चर्चा हुई थी। इसी प्रकार राइकिया चर्च में हत्या से पहले हुई बैठक में इसी प्रकार की चर्चा हुई। लेकिन सरकारी जांच अभिकरणों ने बट्टीकला चर्च में स्वामी जी की हत्या के लिए पारित इस प्रस्ताव का नोटिस लेना भी जरुरी नहीं समझा।

कंधमाल जिला में चर्च की एक गैरसरकारी संस्था जनविकास काफी लम्बे अर्से से संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त है। इस संस्था ने स्वामी जी की हत्या के कुछ दिन पहले भारतीय स्टेट बैंक से 1 करोड़ रुपया निकलवाया। आखिर उस 1 करोड़ रुपए का क्या किया और उसे निकलवाने का उद्देश्य क्या था? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि हत्या में चर्च की संलिप्तता को लेकर मिलने वाले इन स्पष्ट संकेतों को और तथ्यों को जांच अधिकारी ने एकदम से दरकिनार कर दिया। हत्या के बाद चर्च ने अनेक गांवों में हत्या पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सार्वजनिक भोजों का आयोजन किया। उक्त सभी घटनाएं हत्या में चर्च की षडयंत्रपूर्ण भूमिका की ओर संकेत करती हैं। माओवादियों की इस हत्या में केवल एक ही भूमिका हो सकती है, वह यह कि चर्च ने उनको इस हत्या के लिए सुपारी दे दी हो। ओडीशा में माओवादियों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने वाले विद्वान अच्छी तरह जानते हैं कि अनेक स्थानों पर माओवादी पैसा लेकर भाड़े के हत्यारों के रुप में बदल गए हैं। इस हत्याकांड में उनकी भूमिका भाडे के हत्यारों की ही हो सकती है, षडयंत्रकारियों की नहीं। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को चर्च ने ही अपना दुश्मन न.-1 घोषित किया हुआ था और जॉन दयाल तो सार्वजनिक रुप से यह कहते रहे कि चर्च का विरोध करने के कारण लक्ष्मणानंद सरस्वती को जेल में डाला जाना चाहिए लेकिन जांच अधिकारी और लोकअभियोजक हत्या के असली षडयंत्रकारियों को जांच के दायरे से बाहर करने में जुटे हुए हैं और भाडे के हत्यारों को केस कमजोर करके सजा से बचाने की मशक्कत में लगे हुए हैं।

हत्या के एक दिन बाद नवगांव थाना के अंतर्गत गुंजीवाड़ी गांव में लोगों ने दो व्यक्तियों को पकडा था जो गांव के जौहड में खून से सने कपडे धो रहे थे। उसके पास से नकाब भी बरामद हुए और हथियार भी। गांव के लोगों ने उनको पकडकर पुलिस के हवाले किया लेकिन पुलिस ने उनको छोड ही नहीं दिया बल्कि जांच करने वालों ने उनको किसी प्रकार की जांच में शामिल नहीं किया। इसी प्रकार कंधमाल जिला के बाराखमा गांव में हत्या के कुछ दिन बाद लोगों ने कुछ अपराधियों को पकड़कर पुलिस के हवाले किय। लेकिन पुलिस ने बिना किसी जांच के उन्हें भी भगा दिया। ध्यान रहे, हत्या के उपरांत उस समय की अपराध शाखा के आईजी ने स्पष्ट रुप से यह कहा था कि स्वामी जी की हत्या एक गहरी साजिश का नतीजा है। इसकी साजिश केरल में हुई थी। एक ग्रुप ने हत्या के साजिश की और पूरी योजना बनायी और दूसरे गु्रप ने इस हत्या को अंजाम दिया। ताज्जुब है कि बाद में पुलिस ने अपनी जांच में इसको नजरंदाज किया। कुलमिलाकर पुलिस ने अभी तक इस हत्या में दो आरोपपत्र दाखिल किए हैं। पहले आरोपपत्र में 7 अभियुक्त में हैं और दूसरे पूरक आरोपपत्र में अन्य 7 माओवादी मसलन सव्यसांची पांडा, आंध्रपदेश के दो माओवादी दूना केशवराव आजाद, पोलारी रामराव व छत्तीसगढ के तीन माओवादी दुसरु, लालू और लकमू के नाम शामिल हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अभी तक उनकी भी शिनाख्ती परेड नहीं हुई। पुलिस ने हत्या के बाद हत्यारों का जो स्केच जारी किया था उससे भी इन अभियुक्तों का मिलान नहीं किया गया। यदि सरकार सचमुच केस में रुचि रखती होती तो इन अभियुक्तों को शिनाख्त के लिए चश्मदीद गवाह ब्रह्मचारी माधव चैतन्य के सम्मुख जरुर प्रस्तुत किया जाता क्योंकि हत्या के चश्मदीद होने के कारण वही इस स्थिति में थे कि ये 14 लोग हत्या में शामिल थे या नहीं। या फिर इसमे से कौन-कौन लोग हत्या में शामिल थे? अभियोजन पक्ष ने शिनाख्ती परेड की बात तो दूर चश्मदीद गवाह माधवचैतन्य को अपना पक्ष रखने का सही अवसर भी नहीं दिया । जाहिर है कि सरकार कि मंशा सत्य को न्यायालय से छिपाने की रही होगी न कि उसे न्यायालय के सामने लाने की। बहुत ही स्पष्ट साक्ष्यों और परिस्थितिजन्य सबूतों के बावजूद ओडीषा सरकार ने इस हत्या से चर्च को बडी सफाई से बचा लिया।

ब्रह्मचारी माधव चैतन्य ने 2009 में अंततः उच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि इस हत्या की जांच किसी निश्पक्ष जांच अभिकरण या सीबीआई से करवायी जाए ताकि स्वामी जी के असली हत्यारे पकडे जाएं और उसके पीछे छिपे षडयंत्रकारियों का भांडाफोड भी हो। याचिकाकर्ता के अनुसार विक्रम दीगाल, विलियम दीगाल और प्रदेश कुमार दास की इस हत्या में प्रमुख भागीदारी थी। लेकिन जांच अधिकारी ने इनके खिलाफ सरसरी तौर पर ही जांच की। यदि सरकार के पास छिपाने के लिए सचमुच कुछ नहीं था तो उसे तुरंत यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए थी और पूरी जांच सीबीआई या किसी अन्य जांच एजेंसी को सौंप देनी चाहिए थी। इससे सरकार की छवि पर हत्या में शामिल अपराधियों को बचाने का कलंक भी धुल जाता और पर्दे के पीछे के देश विरोधी तत्व भी सामने आ जाते। लेकिन ओडीशा के लोगों को सबसे ज्यादा ताज्जुब तब हुआ जब सरकार ने इस याचिका का डटकर विरोध करना शुरु कर दिया । उच्च न्यायालय ने सरकार से याचिका में उठाए गए तमाम मुद्दों पर शपथ-पत्र दाखिल करने के लिए कहा। सरकार ने अपने शपथ-पत्र में कहा, जांच के दौरान प्राप्त हुए सबूतों ने प्रथम दृष्टतया यह स्थापित कर दिया है कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और आश्रम के दूसरे लोगों की हत्या कट्टर माओवादियों ने अपने समर्थकों के साथ किया है। जाहिर है कि इस शपथ-पत्र से किसी की संतुष्टि नहीं हो सकती थी अतः न्यायालय ने सरकार को स्पष्ट कहा कि याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में जो मुद्दे उठाए हैं वे अभी तक अनुत्तरित है। एक नए शपथ-पत्र में उन सभी का संतोषजनक उत्तर दिया जाए। इस पर सरकार इन मुद्दों का उत्तर देते हुए शपथ-पत्र दाखिल करने का साहस नहीं कर सकी। ओडीशा सरकार के महाधिवक्ता ने तकनीकी आधारों पर याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्यों से बचने का और उन्हें किसी भी तरह हत्याकांड से संबंधित चल रहे केस में न शामिल किए जाने का भगीरथ प्रयास किया। परन्तु याचिकाकर्ताओं द्वारा हत्याकांड से संबंधित सामग्री इतनी पुख्ता और प्रामाणिक थी कि अंततःउच्च न्यायालय की एकल पीठ के न्यायाधीश श्री एम.एम.दास ने जांच अधिकारी को नए सिरे से हत्या की जांच करने का आदेश दिया और यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं ने जो सामग्री उपलब्ध करवायी है, उसको ध्यान में रखते हुए जांच को आगे बढ़ाया जाए।

जाहिर है कि इससे ओडीशा सरकार के हत्यारों को बचाने के प्रयासों को धक्का लगा है। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती कि हत्या के षडयंत्रकारियों के खिलाफ इस लड़ाई का अंत नहीं हुआ है। दूध का दूध और पानी का पानी तभी होगा जब जांच अधिकारी को हटाकर यह जांच किसी स्वतंत्र जांच अभिकरण को सौंप दी जाती है। लगता है इसके लिए भारत के लोगों को चर्च के षडयंत्रकारियों और उनके पीछे छिपी भारत विरोधी शक्तियों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़नी होगी।