Tuesday 29 April 2014

आतंकवादियों को चुनाव में पुकारता अब्दुल्ला परिवार-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                    शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार की एक ख़ूबी है जिसकी तारीफ़ करनी होगी । वे जो कुछ भी करते हैं डंके की चोट पर करते हैं और उसको कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते । परिवार के वर्तमान सदस्यों ने यह ख़ासियत यक़ीनन अपने पुरखे शेख़ अब्दुल्ला से ही पाई होगी । यह शेख़ अब्दुल्ला ही थे जिन्होंने प्रदेश की पहली विधान सभा के लिये १९५२ में हुये चुनावों में सभी विरोधियों के नामांकन पत्र रद्द करवा पर सभी ७५ सीटें बिना चुनाव के ही जीत ली थीं  और  लोकतंत्र का अब्दुल्लाकरण कर दिया था । पंडित नेहरु लोकतंत्र के इस सशक्तिकरण को देखकर दिल्ली में कई दिन नाचते रहे थे । दरअसल उसी दिन से देश में लोकतंत्र को शक्ति प्रदान करने के लिये नेहरु परिवार और शेख़ अब्दुल्ला परिवार में अटूट गठबंधन हो गया था । शेख़ के परिवार की बागडोर अब उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला और उससे भी नीचे उमर अब्दुल्ला तक पहुँच गई है और नेहरु परिवार की बागडोर अनेक घुमावदार रास्तों से होती हुई फ़िलहाल इटली की सोनिया गान्धी और उनकी संतानों के पास है । वैसे केवल रिकार्ड के लिये, विदेशी छौंक अब्दुल्ला परिवार में भी लग चुकी है । उमर के माता जी विदेशी मूल के हैं । ख़ैर यह शिजरा अब केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है । बात कर्म और कारनामों की ही महत्वपूर्ण है । जिन दिनों फ़ारूक़ अब्दुल्ला सक्रिय राजनीति में नहीं थे । विदेश में रह कर राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे थे , तो वे बिना किसी से छिपाये , पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर में जे के अल एफ़ के कार्यक्रमों में शामिल होते थे । अब यह किसी से छिपाने की जरुरत नहीं की जे के एल एफ़ ने उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करवाने के लिये अपना मोर्चा खोला था ।
                  लोकसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं , इस लिये देश की राजनीति का माहौल भी गर्म होने लगा है । चुनाव का यही लाभ होता है । जिन लोगों ने बहुत मेहनत से मुखौटे पहने होतें हैं , वे थोड़ा तनाव बढ़ने पर ही उतरने लगते हैं । फ़ारूक़ और उमर के साथ भी यही हो रहा है । फ़ारूक़ अब्दुल्ला पिछले दिनों कश्मीर घाटी में यह कहते घूम रहे हैं कि उन्हें इस बात का बहुत ही दुख है कि चुनाव में आतंकवादी उनके साथ नहीं हैं । यदि ऐसा होता और मैं कहीं से बंम्ब और पिस्तौल ले पाता तो विरोधियों को मज़ा चखा देता । पत्रकारों से बातचीत करते हुये उन्होंने कहा कि उनके विरोधी इसी क़ाबिल हैं कि उन्हें सबक़ सिखाया जाये और उनसे बदला लिया जाये । लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि वे विरोधियों को सबक़ आतंकवादियों की सहायता और पिस्तौल से सिखाना चाहते हैं । वैसे तो विरोधियों को निपटाने का आसान तरीक़ा अब्दुल्ला परिवार ने पहले ही खोज लिया था और उसका लम्बे अरसे तक फल भोग भी किया । वह था विरोधियों के थोक भाव से नामांकन पत्र ही रद्द करवा देना । लेकिन अब शायद इक्कीसवीं शताब्दी में ऐसा संभव नहीं है । चुनाव आयोग भी सख़्त हो गया है । इटली का फासीवाद भी अब मदद कर नहीं पायेगा । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अब्दुल्ला परिवार ऐसी स्थिति में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जायेगा । अब वह विरोधियों को निपटाने के लिये आतंकवादियों और बंम्ब पिस्तौलों की तलाश कर रहा है । यह विचार  जरुर फ़ारूक़ अब्दुल्ला को अपने जे के एल एफ़ के दिनों के अनुभव से मिला होगा ।
                   लेकिन फ़ारूक़ अब्दुल्ला को संकट की इस घड़ी में ,चुनावों में सहायता के लिये आतंकवादी क्यों नहीं मिल रहे , इसका उत्तर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने,जो इस वक़्त जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं , ने दिया है । उन्होंने बहुत दुख से , मानों एक प्रकार से शोक संदेश प्रसारित करते हुये कहा कि जिन दिनों नेशनल कान्फ्रेंस सत्ता में नहीं थी , उस समय प्रदेश सरकार ने तीस से भी ज़्यादा आतंकवादी मार गिराये थे । उमर ने इन आतंकवादियों को मार दिये जाने का एक ही कारण बताया कि वे आतंकवादी हम से बातचीत कर रहे थे । उनके अनुसार यह बातचीत उनके मुख्य धारा में वापिस आने को लेकर हो रही थी । वे आतंकवादी किस प्रकार की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते थे और फ़ारूक़-उमर उन को किस मुख्यधारा में शामिल करना चाहते थे , इसका ख़ुलासा तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चुनाव में बह रही विपरीत हवा को देख कर कर ही दिया है । आज यदि मुख्यधारा में लौट आये वे आतंकवादी ज़िन्दा होते तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला को विरोधियों से भिड़ने के लिये स्वयं बंम्ब पिस्तौल उठाने की इच्छा न ज़ाहिर करनी पड़ती । यह काम उन प्रशिक्षितों के हवाले आसानी से किया जा सकता था । ताज्जुब है कि बाप बेटा खुले आम चुनाव में आतंकवादियों का सहयोग न मिलने पर सिर पीट रहे हैं और चुनाव आयोग भी चुप है । लेकिन इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि घाटी में पसरे आतंकवाद के दिनों में नेशनल कान्फ्रेंस किस तरीक़े से चुनाव जीतती थी और सत्ता प्राप्त करती थी । नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता या तो नेहरु ख़ानदान की कृपा से मिलती रही या फिर आतंकवादियों की प्रत्यक्ष परोक्ष कृपा से । नेहरु के दबाव में महाराजा हरि सिंह ने बिना किसी लोकतांत्रिक चुनाव के शेख़ अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी थी । पहला चुनाव धाँधली से जीता , उसके बाद इंदिरा गान्धी की मदद से फिर सत्ता मिली । आपात् स्थिति के बाद हुये चुनावों में जरुर शेख़ अब्दुल्ला अपने बल बीते चुनाव जीते लेकिन इसके साथ ही यह भी दिन की तरह साफ़ हो गया कि कश्मीर घाटी के बाहर अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कान्फ्रेंस का सिक्का नहीं चलता । इतना ही नहीं पाँच साल के इस एक ही शासन काल में जनता को भी शेख़ अब्दुल्ला की असलियत पता चल गई । उनके पारिवारिक भ्रष्टाचार के चलते जनता उन्हें सबक़ सीखाने के लिये आमादा हो गई ।  उसके बाद फिर चुनावों में बदस्तूर धाँधलियाँ शुरु हो गईं । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि अब जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस मिल कर धाँधलियाँ कर रहे थे और सत्ता भी आपस में मिल बाँट कर खा रहे थे ।
                          लेकिन समय के अनुसार कश्मीर घाटी में ही सत्ता के दूसरे दावेदार उभरने लगे । इनमें से कुछ तो दबाव समूह हैं और कुछ राजनैतिक दल हैं । घाटी में गुज्जर  और बकरबाल राजनीति में ही हाशिए पर नहीं हैं बल्कि वहाँ के सामाजिक जीवन में भी उपेक्षित हैं । अब उन्होंने भी सत्ता में भागीदारी के लिये अपने वोट को तौलना शुरु कर दिया है । घाटी का शिया समाज सदा से मुसलमानों के निशाने पर रहता है । जब नेशनल कान्फ्रेंस ने घाटी में मुसलमानों की संख्या बढ़ा कर दिखाना होती है तो शिया समाज को मुसलमान बताया जाता है और जब वे राजनैतिक सत्ता में भागीदारी माँगते हैं तो उन्हें मूर्तिपूजक बताया जाता है । पी डी पी और आम आदमी पार्टी के भी मैदान में होने के कारण नेशनल कान्फ्रेंस का घाटी पर से एकाधिकार ख़त्म होने जा रहा है । इसलिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला बंम्ब पिस्तौल के लिये आहें भर रहे हैं और सहायता के लिये आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिये उन्हें आतंकवादी मिले या नहीं , यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे , लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस का विरोध करने वाले एक सरपंच की निर्मम हत्या जरुर हो गई है । वैसे भी जिन दिनों फ़ारूक़ स्वयं जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तो उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों पर आतंकवादियों से सम्बंध होने के आरोप लगते रहते थे । नेशनल कान्फ्रेंस को पिछले तीन दशकों में घाटी में भी कभी इतना जन समर्थन नहीं मिला की वे अपने बलबूते सरकार बना और चला सके । उसे कन्धों पर ढोकर सरकार चलाने का अधिकार सोनिया गान्धी की पार्टी ही देती  है । सोनिया गान्धी की पार्टी घाटी में से तो कोई सीट जीत नहीं पाती । वह जम्मू संभाग से मत प्राप्त करके , उन्हें नेशनल कान्फ्रेंस की झोली में डाल डाल कर जम्मू संभाग को घाटी का बंधुआ बना देती है जिसका दुष्परिणाम जम्मू व लद्दाख संभाग के अतिरिक्त घाटी के अल्पसंख्यकों , जनजातियों और शिया समाज को भुगतना पड रहा है । शेख़ अब्दुल्ला के परिवार को अपने कन्धों पर ढोने के पीछे नेहरु परिवार की क्या विवशता है , यह तो कोई नहीं जानता , लेकिन इतना स्पष्ट है कि फ़ारूक़-उमर बाप बेटे को विश्वास हो चला है कि इस बार सोनिया गान्धी की पार्टी भी उन्हें सत्ता की मंज़िल तक पहुँचा नहीं पायेगी , क्योंकि बक़ौल उमर अब्दुल्ला देश में नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है । इसलिये लगता है विरोधियों को केवल हराने के लिये ही नहीं , बल्कि उन्हें ज़िन्दगी भर का सबक़ सिखाने के लिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला घाटी में पिस्तौल और आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । गाढ़े वक़्त में वही काम आयेंगे । आमीन ।


22 April 2014 

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