Saturday 7 June 2014

विदेश नीति में भारतीय भाषा- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                     जिन दिनों दूरदर्शन का प्रचलन नहीं था उन दिनों अख़बार में ख़बर छपती तो थी लेकिन ख़बर बनती कैसे है यह पता नहीं चलता था । लेकिन जब से दूरदर्शन का प्रचलन बढ़ा है तब से आँखों के आगे ख़बर बनती हुई दिखाई भी देती है । पुराने दिनों में ख़बर छपती थी कि भारत और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने आपसी हितों के बारे में बातचीत की । क्या बातचीत की , इसका विवरण भी छपता था । अब भी छपता ही है । लेकिन अख़बार में यह नहीं छपता था और अब भी नहीं छपता है कि बातचीत किस भाषा में की । समाचार पत्रों के लिये यह पता करने की जरुरत भी नहीं थी । लेकिन अब स्थिति बदल गई है । अब दूरदर्शन के सभी चैनलों पर दोनों देशों के नेता आपस में बातचीत करते हुये दिखाई भी देते हैं । जिनकी विदेश नीति की गहराइयों में रुचि नहीं भी होती वे भी विदेशियों की शक्ल देखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाते । लेकिन दूरदर्शन पर आश्चर्यजनक दृश्य दिखाई देते हैं । मसलन जापान का प्रधानमंत्री जापानी भाषा में बातचीत करता है और हमारा प्रधानमंत्री अंग्रेज़ी में बोलता है । फिर भी अनुवादक की जरुरत तो होती ही है । अनुवादक जापान के प्रधानमंत्री की बात का अनुवाद अंग्रेज़ी में करता है और हमारे प्रधानमंत्री की अंग्रेज़ी में बोली गई बात का अनुवाद जापानी में करता है । प्रश्न पैदा होता है कि जब सारी बातचीत अनुवादक के सहारे ही चलती है तो भारत का प्रधानमंत्री अपने देश की भाषा में बातचीत क्यों नहीं करता ? यह दृश्य देख कर कोफ़्त होती है । अपमान भी महसूस होता है ।

                            चीन के राष्ट्रपति माओ जे तुंग अंग्रेज़ी बहुत अच्छी तरह जानते थे । उनसे मिलने के लिये जब किसी अंग्रेज़ी भाषी देश का राष्ट्राध्यक्ष भी मिलने आता था तो वे अंग्रेज़ी समझते हुये भी उसका उत्तर अंग्रेज़ी में नहीं देते थे । वे चीनी में ही बोलते थे और अनुवादक अनुवाद कर देता था । किसी देश की भाषा विदेश सम्बंधों में स्वाभिमान का प्रतीक भी होती है,वहाँ वह केवल संवाद का काम नहीं करती । विदेश सम्बंधों में इन प्रतीकों का प्रयोग कैसे करना है , यह भी विदेश नीति के संचालकों की सफलता का एक बड़ा कारक माना जाता है । लेकिन दुर्भाग्य से भारत में अभी तक विदेश मंत्रालय में ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार क्लब का आधिपत्य रहा है । इस क्लब की चमड़ी मोटी है । इसलिये जब दूसरे देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष भारत में आकर अपने देश की भाषा बोलते हैं तो हमारे प्रतिनिधि कम्पनी बहादुर(ब्रिटेन) की भाषा में जुगाली करते । भैंस के आगे बीन बजे और भैंस खड़ी पगुराये । लेकिन अंग्रेज़ी भाषा में पगुराने के कारण भैंस वे बजह नथुने भी फैलाती है । उनकी इन हरकतों से देशवासी तो लज्जित होते लेकिन भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि सिर पर विदेशी भाषा का यूनियन जैक लगा कर नाचते रहते । कई देशों ने तो भारत के इन प्रतिनिधियों  को उनकी इस हरकत पर लताड़ भी लगाई । रुस से एक बार विजय लक्ष्मी पंडित को अपने काग़ज़ पत्र हिन्दी में तैयार करवाने के लिये ही वापिस आना पड़ा था ।

                                 लेकिन देश के नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के इस लज्जास्पद अध्याय को समाप्त करने का निर्णय ले लिया लगता है । प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्ष दिल्ली आये थे । श्री लंका के श्री राजपक्षे से द्विपक्षीय वार्ता में मोदी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया । राजपक्षे अंग्रेज़ी में बोल रहे थे । मोदी उसे समझ तो रहे थे । वे चाहते तो स्वयं उसका उत्तर दे सकते थे । लेकिन मोदी-राजपक्षे की वार्ता के लिये हिन्दी अनुवाद के लिये दुभाषिए की व्यवस्था की गई । इससे देश विदेश में एक अच्छा संदेश गया है । अब दुनिया से भारत अपनी भाषा में बातचीत करेगा । मोदी पहले ही कह चुके हैं कि भारत किसी भी देश से आँख से आँख मिला कर बात करेगा । आँख से आँख अपनी भाषा में ही मिलाई जा सकती है । जो देश ताक़तवर होते हैं वे विदेश नीति के लिये उधार के प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते । अपने देश की भाषा ,अपने देश के मुहावरों का प्रयोग करते हैं । विदेशी राज्यों की दासता में लगभग हज़ार साल तक रहने के कारण हमारे लोगों की मानसिक स्थिति भी दासता की हो गई है । उनके लिये राष्ट्रीय स्वाभिमान साम्प्रदायिकता एवं पोंगापंथी होने का पर्याय हो गया है । उन्होंने भारतीय भाषाओं की वकालत को भी साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया है । लेकिन यह भाव देश की आम जनता में इतना नहीं है जितना देश के बुद्धिजीवी वर्ग एवं नीति निर्धारकों में है । देश का श्रमजीवी अपने देश की भाषा से जुड़ा हुआ ही नहीं है बल्कि उस पर गौरव भी करता है । इस का एक कारण यह भी है कि वह अपने देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ है । लेकिन यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग शिक्षा की उस भट्ठी में तप कर निकला है जिसे अंग्रेज़ों ने बहुत ही शातिराना तरीक़े से यहाँ स्थापित किया था । इसलिये भाषा को लेकर उसकी सोच अभी भी १९४७ से पहले की ही है, जिसमें भारतीय भाषाओं को वर्नक्युलर कह कर अपमानित किया जाता था । लुटियन की दिल्ली में बैठ कर सत्ता के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति इन वर्नक्युलर भाषाओं का प्रयोग भी कर सकता है यह तो कोई सोच ही नहीं सकता था । लेकिन नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका जन्म अंग्रेज़ों के शासन काल में नहीं हुआ था बल्कि अंग्रेज़ी सत्ता समाप्त हो जाने के बाद स्वतंत्र भारत में हुआ था । इस लिये वे विदेशी भाषा की दासता के भाव से मुक्त हैं । दूसरे वे अपनी शक्ति और उर्जा देश के सामान्य जन से ग्रहण करते हैं अत उन्हें स्वयं को एक विदेशी भाषा के अहम से कृत्रिम रुप से महिमामंडित करने की जरुरत नहीं है । अब तक विदेशी भाषा का जाल फेंक कर देश के लिये नीति निर्धारण का काम नौकरशाही ने राजनैतिक नेतृत्व से छीन रखा था । नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के क्षेत्र में लगता है सबसे पहले इसी भाषायी ग़ुलामी से मुक्त होने की पहल की है ।

                         ऊपर से देखने पर यह पहल मामूली लग सकती है । लेकिन इसके संकेत बहुत गहरे हैं । चीनी भाषा में एक कहावत है कि हज़ारों मील की यात्रा के लिये भी पहला क़दम तो छोटा ही होता है । कोई भी यात्रा सदा इस छोटे क़दम से ही शुरु होती है । लगता है विदेश नीति के मामले में मोदी ने छोटा क़दम उठा कर यह यात्रा शुरु कर दी है ।

 05.06.2014 

अब्दुल्ला परिवार छेड़ रहा मरघट की धुनें--डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                   पिछले दिनों लोकसभा के लिये हुये चुनावों में उधमपुर क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी डा० जितेन्द्र सिंह चुने गये । जम्मू कश्मीर में जब भी चुनाव होते हैं तो संघीय संविधान के अनुच्छेद ३७० का प्रश्न सदा प्रमुख रहता है । चुनाव चाहे लोक सभा के हों या विधान सभा के,अनुच्छेद ३७० का मुद्दा कभी ग़ायब नहीं होता । जम्मू और लद्दाख के लोगों ने तो इस अनुच्छेद को हटाने के लिये १९४८ से लेकर १९५३ तक प्रजा परिषद के झंडे तले एक लम्बी लड़ाई भी लड़ी थी जिसमें १५ लोग पुलिस की गोलियों से शहीद हो गये थे । अभी तक भी प्रजा परिषद आन्दोलन की विरासत समाप्त नहीं हुई बल्कि दिन प्रतिदिन और भी घनीभूत होती गई । लेकिन इस बार के चुनावों में अनुच्छेद ३७० को लेकर चर्चा एक नये रुप में हो रही थी । इस बार चुनावों के दौरान मुख्य मुद्दा यह था कि अनुच्छेद ३७० को लेकर बिना किसी पूर्वाग्रह के आम जनता में बहस होनी चाहिये कि इस अनुच्छेद से राज्य की आम जनता को क्या कोई लाभ हो रहा है या फिर यह वहाँ के निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा आम आदमी के शोषण के लिये हथियार के रुप में इस्तेमाल की जा रही है ?

                    लेकिन सोनिया कांग्रेस समेत राज्य की प्रमुख शासक पार्टी,अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कान्फ्रेंस , इस बहस से बचती रही । उसने अत्यन्त शातिराना तरीक़े से बहस को इस दिशा में मोड़ना चाहा कि सीधे सीधे इस बात पर बहस की जाये की अनुच्छेद ३७० को हटाया जाना चाहिये या नहीं ? इस विषय पर उस ने अपना स्टैंड भी स्पष्ट कर दिया कि अनुच्छेद ३७० को हटाने की अनुमति नहीं दी जायेगी । इतना ही नहीं नेशनल कान्फ्रेंस का मालिक अब्दुल्ला परिवार इस सीमा तक आगे बढ़ा कि उसने सार्वजनिक रुप से घोषणा कर दी कि अनुच्छेद ३७० के हटाया जाने की स्थिति में जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा । यह नैशनल कान्फ्रेंस का घोषित स्टैंड रहा । उसने अपने चुनाव प्रचार को इसी के इर्द गिर्द केन्द्रित रखा । नेशनल कान्फ्रेंस इतना तो जानती ही थी कि अपने इस स्टैंड को पूरा करने के लिये उसे राज्य की जनता का समर्थन चाहिये । राज्य में जन समर्थन प्राप्त करने के लिये नेशनल कान्फ्रेंस ने अपने सहयोगी दल सोनिया कांग्रेस के साथ मिल कर राज्य की छह सीटों के लिये प्रत्याशी खड़े किये । जम्मू , उधमपुर और लद्दाख सीट पर सोनिया कांग्रेस के प्रत्याशी खड़े थे और कश्मीर घाटी की तीन सीटों श्रीनगर,बारामुला और अनन्तनाग के लिये नैशनल कान्फ्रेंस के प्रत्याशी मैदान में थे । लेकिन राज्य की जनता ने नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस द्वारा उठाये प्रश्न का उत्तर एकमुश्त दे दिया । नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कान्ग्रेस दोनों के ही सभी प्रत्याशी पराजित हो गये । राज्य से लोक सभा की छह सीटों में से तीन सीटें भारतीय जनता पार्टी ने और तीन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने जीत लीं ।

                      स्वाभाविक रुप से जन प्रतिनिधि के नाते डा० जितेन्द्र सिंह ने अनुच्छेद ३७० से राज्य को मिल रही लाभ हानि को परख लेने की बात कही ।  जैसा अब्दुल्ला परिवार कह रहा है कि इस अनुच्छेद को रहना ही चाहिये , उस के लिये भी आखिर यह देखना तो जरुरी है कि इससे राज्य के लोगों को फ़ायदा भी मिल रहा है या फिर इस का फ़ायदा केवल अब्दुल्ला परिवार या उन की जुंडली के लोग ही उठा रहे हैं ? यदि यह पता चल जाये कि सचमुच इससे रियासत के लोगों को फ़ायदा मिल रहा है ,फिर तो इसे रखा ही जाना चाहिये । लेकिन यदि यह पता चल गया कि आम लोगों को तो कोई फ़ायदा नहीं मिल रहा अलबत्ता अब्दुल्ला ख़ानदान के लिये यह अनुच्छेद धन कुबेर साबित हो रहा है तो फिर रियासत के लोग ही उनसे सवाल करना शुरु कर देंगे कि इस अनुच्छेद को क्यों बरक़रार रखा जाये ? ज़ाहिर है कि इस ख़ानदान के लिये तब जनता के इस प्रश्न का जबाव देना मुश्किल हो जायेगा । इसे देखते हुये राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मूल प्रश्न का सामना करने से बचने के लिये चीं चीं (टवीट शब्द का हिन्दी अनुवाद यही सकता है    ) करना शुरु कर दिया कि," मेरी इस बात को नोट कर लिया जाये और मेरी इस चीं चीं को भी सुरक्षित कर लिया जाये । जब मोदी सरकार केवल भविष्य की स्मृतियों में सुरक्षित रह जायेगी , तब या तो जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं होगा या अनुच्छेद ३७० का अस्तित्व बचा हुआ होगा । इन दोनों में से एक ही स्थिति रहेगी । भारत और जम्मू कश्मीर के बीच अनुच्छेद ३७० ही सांविधानिक सेतु है । "

                              जितेन्द्र सिंह तो अनुच्छेद ३७० की लोक उपादेयता पर सकारात्मक बहस चला कर राज्य में जन सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं लेकिन उमर अब्दुल्ला उससे घबरा कर मरघट की धुनें बजा रहा है । जो व्यक्ति और पार्टी आम जनता की भावनाओं और उसकी धडकनों से कट कर महलों में क़ैद हो जाती है उसका व्यवहार इसी प्रकार का होने लगता है । इन चुनावों में अब्दुल्ला परिवार और उनकी पार्टी के हश्र ने इसको सिद्ध कर दिया है ।

             अनुच्छेद ३७० का जम्मू कश्मीर के भारत का अंग होने या न होने से कोई सम्बंध नहीं है । जम्मू कश्मीर १९४७ में  रियासत के महाराजा हरि सिंह द्वारा अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले भी भारत का ही अंग था । अन्तर केवल इतना था कि वहाँ की प्रशासन प्रणाली ब्रिटिश भारत की प्रशासन प्रणाली से अलग थी । अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद जब सारे भारत में विभिन्न प्रशासनिक प्रणालियाँ समाप्त करके एक संघीय प्रशासनिक प्रणाली लागू करने की बात आई तो महाराजा हरि सिंह ने भी उसमें अपनी सहमति जताई और विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये । इसका जम्मू कश्मीर के भारत का अंग होने या न होने से क्या ताल्लुक़ है ? लेकिन अब्दुल्ला परिवार ने नेहरु की कृपा से रियासत की सत्ता अलोकतांत्रिक तरीक़े से संभालने के तुरन्त बाद ब्रिटिश और अमेरिका के मालिकों से ट्यूशन लेना शुरु कर दिया था । उन मालिकों ने इस परिवार को अनेक अंग्रेज़ी शब्दों की जो व्याख्याएँ सिखा दी , आज तक वे उसी की जुगाली कर रहे हैं । यदि वे थोड़ी कश्मीरी और डोगरी भाषा की ट्यूशन भी किसी देशी विद्वान से ले लेते तो उन्हें अपने आप समझ आ जाता कि कि अनुच्छेद ३७० का रियासत के भारत का अंग होने या न होने से कोई नाता नहीं है । इस बार रियासत की जनता ने कोशिश तो की कि यह परिवार थोड़ी कश्मीरी भी सीख ले लेकिन हार के बाद भी यह पार्टी अमेरिकी प्रभुयों के पढ़ाये पाठ को भूलने को तैयार नहीं है ।

                           अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हुये वे एक और हास्यस्पद बात कहते हैं जिसे सुन कर विश्वास नहीं होता कि वे सचमुच ऐसा मानते होंगे । क्योंकि इस प्रकार की बातों से उनकी छवि भी राहुल गान्धी की पप्पू नुमा छवि में तब्दील होने लगती है । उमर साहिब का कहना है कि अनुच्छेद ३७० के बारे में कोई फ़ैसला तो राज्य की संविधान सभा ही कर सकती थी अब क्योंकि वह सभा अपनी उम्र भोग कर मर चुकी है इसलिये अब अनुच्छेद ३७० अमर हो गया है । यानि बाप मरने से पहले जो लिख गया था अब उसको हाथ नहीं लगाया जा सकता  क्योंकि उसमें हेर फेर का अधिकार तो बाप को ही था । अब वह नहीं रहा तो अनुच्छेद ३७० भी अमर हो गया । यह सोच ही अपने आप में सेमेटिक सोच है । उमर अब्दुल्ला को जान लेना चाहिये कि यह बात "आतिशे चिनार" के बारे में तो सच हो सकती है अनुच्छेद ३७० के बारे में नहीं । जम्मू कश्मीर राज्य की संविधान सभा , जिन दिनों ज़िन्दा भी थी , उन दिनों भी वह संविधान सभा के साथ साथ राज्य की विधान सभा का काम भी करती थी और इसी प्रकार भारत की संविधान सभा भी संविधान सभा होने के साथ साथ संसद का काम भी करती थी । जम्मू कश्मीर की विधान सभा ,उसी राज्य संविधान सभा की वारिस  है और इसी प्रकार भारत की संसद उस संघीय संविधान सभा की वारिस है । अनुच्छेद ३७० को विधि द्वारा संस्थापित भारत की संसद और राज्य की विधान सभा सांविधानिक तरीक़े से बदल सकती है । डा० जितेन्द्र सिंह इसी विषय पर बहस करने की बात कह रहे हैं , जिसे सुन कर अब्दुल्ला परिवार झाग उगल रहा है ।


29.05.2014

Tuesday 29 April 2014

आतंकवादियों को चुनाव में पुकारता अब्दुल्ला परिवार-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                    शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार की एक ख़ूबी है जिसकी तारीफ़ करनी होगी । वे जो कुछ भी करते हैं डंके की चोट पर करते हैं और उसको कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते । परिवार के वर्तमान सदस्यों ने यह ख़ासियत यक़ीनन अपने पुरखे शेख़ अब्दुल्ला से ही पाई होगी । यह शेख़ अब्दुल्ला ही थे जिन्होंने प्रदेश की पहली विधान सभा के लिये १९५२ में हुये चुनावों में सभी विरोधियों के नामांकन पत्र रद्द करवा पर सभी ७५ सीटें बिना चुनाव के ही जीत ली थीं  और  लोकतंत्र का अब्दुल्लाकरण कर दिया था । पंडित नेहरु लोकतंत्र के इस सशक्तिकरण को देखकर दिल्ली में कई दिन नाचते रहे थे । दरअसल उसी दिन से देश में लोकतंत्र को शक्ति प्रदान करने के लिये नेहरु परिवार और शेख़ अब्दुल्ला परिवार में अटूट गठबंधन हो गया था । शेख़ के परिवार की बागडोर अब उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला और उससे भी नीचे उमर अब्दुल्ला तक पहुँच गई है और नेहरु परिवार की बागडोर अनेक घुमावदार रास्तों से होती हुई फ़िलहाल इटली की सोनिया गान्धी और उनकी संतानों के पास है । वैसे केवल रिकार्ड के लिये, विदेशी छौंक अब्दुल्ला परिवार में भी लग चुकी है । उमर के माता जी विदेशी मूल के हैं । ख़ैर यह शिजरा अब केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है । बात कर्म और कारनामों की ही महत्वपूर्ण है । जिन दिनों फ़ारूक़ अब्दुल्ला सक्रिय राजनीति में नहीं थे । विदेश में रह कर राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे थे , तो वे बिना किसी से छिपाये , पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर में जे के अल एफ़ के कार्यक्रमों में शामिल होते थे । अब यह किसी से छिपाने की जरुरत नहीं की जे के एल एफ़ ने उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करवाने के लिये अपना मोर्चा खोला था ।
                  लोकसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं , इस लिये देश की राजनीति का माहौल भी गर्म होने लगा है । चुनाव का यही लाभ होता है । जिन लोगों ने बहुत मेहनत से मुखौटे पहने होतें हैं , वे थोड़ा तनाव बढ़ने पर ही उतरने लगते हैं । फ़ारूक़ और उमर के साथ भी यही हो रहा है । फ़ारूक़ अब्दुल्ला पिछले दिनों कश्मीर घाटी में यह कहते घूम रहे हैं कि उन्हें इस बात का बहुत ही दुख है कि चुनाव में आतंकवादी उनके साथ नहीं हैं । यदि ऐसा होता और मैं कहीं से बंम्ब और पिस्तौल ले पाता तो विरोधियों को मज़ा चखा देता । पत्रकारों से बातचीत करते हुये उन्होंने कहा कि उनके विरोधी इसी क़ाबिल हैं कि उन्हें सबक़ सिखाया जाये और उनसे बदला लिया जाये । लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि वे विरोधियों को सबक़ आतंकवादियों की सहायता और पिस्तौल से सिखाना चाहते हैं । वैसे तो विरोधियों को निपटाने का आसान तरीक़ा अब्दुल्ला परिवार ने पहले ही खोज लिया था और उसका लम्बे अरसे तक फल भोग भी किया । वह था विरोधियों के थोक भाव से नामांकन पत्र ही रद्द करवा देना । लेकिन अब शायद इक्कीसवीं शताब्दी में ऐसा संभव नहीं है । चुनाव आयोग भी सख़्त हो गया है । इटली का फासीवाद भी अब मदद कर नहीं पायेगा । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अब्दुल्ला परिवार ऐसी स्थिति में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जायेगा । अब वह विरोधियों को निपटाने के लिये आतंकवादियों और बंम्ब पिस्तौलों की तलाश कर रहा है । यह विचार  जरुर फ़ारूक़ अब्दुल्ला को अपने जे के एल एफ़ के दिनों के अनुभव से मिला होगा ।
                   लेकिन फ़ारूक़ अब्दुल्ला को संकट की इस घड़ी में ,चुनावों में सहायता के लिये आतंकवादी क्यों नहीं मिल रहे , इसका उत्तर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने,जो इस वक़्त जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं , ने दिया है । उन्होंने बहुत दुख से , मानों एक प्रकार से शोक संदेश प्रसारित करते हुये कहा कि जिन दिनों नेशनल कान्फ्रेंस सत्ता में नहीं थी , उस समय प्रदेश सरकार ने तीस से भी ज़्यादा आतंकवादी मार गिराये थे । उमर ने इन आतंकवादियों को मार दिये जाने का एक ही कारण बताया कि वे आतंकवादी हम से बातचीत कर रहे थे । उनके अनुसार यह बातचीत उनके मुख्य धारा में वापिस आने को लेकर हो रही थी । वे आतंकवादी किस प्रकार की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते थे और फ़ारूक़-उमर उन को किस मुख्यधारा में शामिल करना चाहते थे , इसका ख़ुलासा तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चुनाव में बह रही विपरीत हवा को देख कर कर ही दिया है । आज यदि मुख्यधारा में लौट आये वे आतंकवादी ज़िन्दा होते तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला को विरोधियों से भिड़ने के लिये स्वयं बंम्ब पिस्तौल उठाने की इच्छा न ज़ाहिर करनी पड़ती । यह काम उन प्रशिक्षितों के हवाले आसानी से किया जा सकता था । ताज्जुब है कि बाप बेटा खुले आम चुनाव में आतंकवादियों का सहयोग न मिलने पर सिर पीट रहे हैं और चुनाव आयोग भी चुप है । लेकिन इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि घाटी में पसरे आतंकवाद के दिनों में नेशनल कान्फ्रेंस किस तरीक़े से चुनाव जीतती थी और सत्ता प्राप्त करती थी । नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता या तो नेहरु ख़ानदान की कृपा से मिलती रही या फिर आतंकवादियों की प्रत्यक्ष परोक्ष कृपा से । नेहरु के दबाव में महाराजा हरि सिंह ने बिना किसी लोकतांत्रिक चुनाव के शेख़ अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी थी । पहला चुनाव धाँधली से जीता , उसके बाद इंदिरा गान्धी की मदद से फिर सत्ता मिली । आपात् स्थिति के बाद हुये चुनावों में जरुर शेख़ अब्दुल्ला अपने बल बीते चुनाव जीते लेकिन इसके साथ ही यह भी दिन की तरह साफ़ हो गया कि कश्मीर घाटी के बाहर अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कान्फ्रेंस का सिक्का नहीं चलता । इतना ही नहीं पाँच साल के इस एक ही शासन काल में जनता को भी शेख़ अब्दुल्ला की असलियत पता चल गई । उनके पारिवारिक भ्रष्टाचार के चलते जनता उन्हें सबक़ सीखाने के लिये आमादा हो गई ।  उसके बाद फिर चुनावों में बदस्तूर धाँधलियाँ शुरु हो गईं । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि अब जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस मिल कर धाँधलियाँ कर रहे थे और सत्ता भी आपस में मिल बाँट कर खा रहे थे ।
                          लेकिन समय के अनुसार कश्मीर घाटी में ही सत्ता के दूसरे दावेदार उभरने लगे । इनमें से कुछ तो दबाव समूह हैं और कुछ राजनैतिक दल हैं । घाटी में गुज्जर  और बकरबाल राजनीति में ही हाशिए पर नहीं हैं बल्कि वहाँ के सामाजिक जीवन में भी उपेक्षित हैं । अब उन्होंने भी सत्ता में भागीदारी के लिये अपने वोट को तौलना शुरु कर दिया है । घाटी का शिया समाज सदा से मुसलमानों के निशाने पर रहता है । जब नेशनल कान्फ्रेंस ने घाटी में मुसलमानों की संख्या बढ़ा कर दिखाना होती है तो शिया समाज को मुसलमान बताया जाता है और जब वे राजनैतिक सत्ता में भागीदारी माँगते हैं तो उन्हें मूर्तिपूजक बताया जाता है । पी डी पी और आम आदमी पार्टी के भी मैदान में होने के कारण नेशनल कान्फ्रेंस का घाटी पर से एकाधिकार ख़त्म होने जा रहा है । इसलिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला बंम्ब पिस्तौल के लिये आहें भर रहे हैं और सहायता के लिये आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिये उन्हें आतंकवादी मिले या नहीं , यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे , लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस का विरोध करने वाले एक सरपंच की निर्मम हत्या जरुर हो गई है । वैसे भी जिन दिनों फ़ारूक़ स्वयं जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तो उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों पर आतंकवादियों से सम्बंध होने के आरोप लगते रहते थे । नेशनल कान्फ्रेंस को पिछले तीन दशकों में घाटी में भी कभी इतना जन समर्थन नहीं मिला की वे अपने बलबूते सरकार बना और चला सके । उसे कन्धों पर ढोकर सरकार चलाने का अधिकार सोनिया गान्धी की पार्टी ही देती  है । सोनिया गान्धी की पार्टी घाटी में से तो कोई सीट जीत नहीं पाती । वह जम्मू संभाग से मत प्राप्त करके , उन्हें नेशनल कान्फ्रेंस की झोली में डाल डाल कर जम्मू संभाग को घाटी का बंधुआ बना देती है जिसका दुष्परिणाम जम्मू व लद्दाख संभाग के अतिरिक्त घाटी के अल्पसंख्यकों , जनजातियों और शिया समाज को भुगतना पड रहा है । शेख़ अब्दुल्ला के परिवार को अपने कन्धों पर ढोने के पीछे नेहरु परिवार की क्या विवशता है , यह तो कोई नहीं जानता , लेकिन इतना स्पष्ट है कि फ़ारूक़-उमर बाप बेटे को विश्वास हो चला है कि इस बार सोनिया गान्धी की पार्टी भी उन्हें सत्ता की मंज़िल तक पहुँचा नहीं पायेगी , क्योंकि बक़ौल उमर अब्दुल्ला देश में नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है । इसलिये लगता है विरोधियों को केवल हराने के लिये ही नहीं , बल्कि उन्हें ज़िन्दगी भर का सबक़ सिखाने के लिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला घाटी में पिस्तौल और आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । गाढ़े वक़्त में वही काम आयेंगे । आमीन ।


22 April 2014 

Friday 4 April 2014

नरेन्द्र मोदी होने का सच-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों सोनिया माईनो गान्धी और उनके बेटे राहुल गान्धी ने अपने चुनाव प्रचार में दो अलग अलग स्थानों पर दो अलग अलगबातें कहीं । ऊपर से दोनों बयान सहती लगते हैं और एक दूसरे से असम्बधित भी । लेकिन भीतर कहीं गहरे से आपस में जुड़े हुये तो हैं हीं , साथ ही नरेन्द्र मोदी को लेकर जो पूरे भारत में लहर चल रही है , उसको लेकर सोनिया गान्धी परिवार और उनकी पार्टी की असली चिन्ताओं को भी उजागर करते हैं । असम में सोनिया गान्धी ने कहा कि सरकार चलाना और भारत का शासन चलाना कोई बच्चों का खेल नहीं है । उनका संकेत था कि नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को भारत का शासन चला लेने की अपनी इच्छा को त्याग देना चाहिये क्योंकि यह उन के वंश और योग्यता से बाहर की बात है । इससे कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में एक जन सभा को सम्बोधित करते हुये राहुल गान्धी ने कहा कि नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गान्धी की पार्टी की लड़ाई व्यक्तियों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह विचारधारा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाई है । राहुल गान्धी ने जो कहा वह बिल्कुल ठीक कहा है । आगामी लोकसभा के लिये जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह दो विभिन्न वैचारिक धरातलों पर खड़ी सेनाओं की लड़ाई है । इसमें एक धरातल तो भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व में लामबन्ध हुई राष्ट्रवादी शक्तियों का है और दूसरा धरातल सोनिया गान्धी और उनके शिविर में एकत्रित सेनानायकों का है । सोनिया गान्धी के शिविर का वैचारिक धरातल क्या है ? इसका संकेत उन्होंने असम में अपने उस बयान में दिया है , जिसका ज़िक्र ऊपर किया  गया है ।
                       सोनिया गान्धी ने जो कुछ कहा है , वह भारत के लोगों के बारे में पुरानी यूरोपीय धारणा को इंगित करता है । जब इस देश पर क़ब्ज़ा करने के लिये पुर्तगाली , डच, फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ अपनी चालें चल रहे थे तो जिस एक बात पर वे सहमत थे वह यही थी कि भारतीय अपना शासन स्वयं चलाने के योग्य नहीं है । अन्ततः अंग्रेज़ों ने इस देश पर क़ब्ज़ा कर लिया तो उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में ही यह पढ़ाना शुरु कर दिया कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है । इसके लिये योग्यता चाहिये । वह योग्यता भारत के लोगों में नहीं है । दरअसल यह वैचारिक आधार कैम्ब्रिज और आक्सफोर्ड में तैयार हुआ था , जिसने प्रत्यक्ष तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना को चिन्तित किया था और परोक्ष रुप से इस ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना में कहीं न कहीं सम्पूर्ण यूरोपीय साम्राज्यवादी चेतना भी प्रतिध्वनित होती थी । उस समय भी इस यूरोपीय वैचारिक धरातल को स्वीकारने वाले कुछ भारतीय उठ खड़े हुये थे , जिन्हें ब्रिटिश शासन तो रायबहादुर और रायसाहिब कहता था लेकिन आम भारतीय जन टोडी बच्चा कह कर हिक़ारत की नज़र से देखता था । सोनिया गान्धी के बयान से भी उसी यूरोपीय वैचारिक चेतना प्रतिबिम्बित होती दिखाई दे रही है । वे प्रकारान्तर से इस देश के लोगों से कह रही हैं कि इस देश का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है तो प्रत्युत्तर में उनसे पूछा जा सकताहै कि फिर क्या यह इटली और वेटिकन वालों का है ? इतालवी परिवार में ऐसी कौन सी योग्यता है जो वह भारत की गद्दी पर अपना दावा ठोंक रहा है ? सोनिया गान्धी ने एक और बात भी कहीं कि यदि नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा का शासन आ गया तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा । भारतीयों को ब्लैकमेल करने का यह भी पुराना यूरोपीय टोटका है । अंग्रेजशासक सदा ही यह कहते रहते थे कि यदि वे देश को छोड़ कर चले गये तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा । अंग्रेज़ों के साथ उन दिनों उनके राय बहादुर और रायसाहिब भी यही गीत गाया करते थे । आज भी सोनिया गान्धी की पार्टी में उनका झण्डा उठाये प्रमुख लोग यही चिल्ला रहे हैं । ब्रिटिश सरकार ने उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे लोगों को सबक़ सिखाने के लिये और अपने शासन को देर तक बनाये रखने के लिये मुस्लिम लीग की स्थापना करवा दी थी , जो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाते थे और गुंडई करते थे । आज सोनिया गान्धी की पार्टी ने भी अपने भीतर ऐसे लोगों की व्यवस्था कर ली है जो वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय हितों की बात करने वालों की बोटी बोटी करने की धमकियाँ देते हैं । मुस्लिम लीग भी इसी प्रकार के डायरैक्ट एक्शन की धमकियाँ ही नहीं देती थी बल्कि उसे अमल में भी लाती थी ।

                              सोनिया गान्धी के नेतृत्व में इक्कठे हुये लोग भारत पर शासन करने के लिये वही तर्क दे रहे हैं जो कभी ब्रिटिश सरकार के लोग भारत पर शासन करने के लिये देते थे । उस समय भी मुस्लिम लीग की विचारधारा को मानने वाले लोग ब्रिटिश सरकार के साथ थे और इस लडाईमें भी वे या तो सोनिया गान्धी के जमावड़े का हिस्सा बन गये हैं या फिर परोक्ष रुप से उस के लिये मददगार हो रहे हैं । राहुल गान्धी जिस वैचारिक लड़ाई की बात कर रहे हैं उस लड़ाई में उन समेत उन के संगी साथी उस वैचारिक प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं , जिस का ऊपर ज़िक्र किया गया है और जिस का संकेत सोनिया गान्धी ने स्वयं दिया है ।

                             इस वैचारिक लड़ाई में दूसरा खेमा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सन्नद्ध हो चुका है । नरेन्द्र मोदी की लड़ाई इस मुल्क को यूरोपीय मानसिक दासता से मुक्त करवाने की है , जिसका पाश सोनिया के नेतृत्व में दिन प्रतिदिन कसता जा रहा है । वैसे इस मानसिक पाश से भारत के लोगों को बाँधने का इतिहास तो पंडित नेहरु से ही शुरु हो गया था , जिन्होंने स्वयं ही घोषणा कर दी थी कि वे यूरोपीय सभ्यता और नीतियों के विरोधी नहीं हैं , केवल यूरोपीय शासकों के विरोधी हैं । नेहरु ने तो विदेशी मुग़ल शासकों को भी स्वदेशी ही मानने की नीति अपनाई थी । नेहरु से लेकर अब तक यही नीति भारत सरकार की आधिकारिक नीति रही । सोनिया गान्धी के शासन काल में इन यूरोपीय सांस्कृतिक नीतियों को इस देश में लागू करने का प्रयास ही नहीं हुआ बल्कि सत्ता की बागडोर ही एक प्रकार से फिर इंतक़ाल ी मूल की सोनिया गान्धी के हाथ आ गई । दस साल के अरसे बाद एक बार फिर देश के लोगों ने इस सांस्कृतिक दासता और दैन्यता से मुक्ति पाने के लिये नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अँगड़ाई ली है । देश के लोग ऐसी नीतियाँ चाहते हैं जिस से भारत विश्व का अग्रणी देश बने न की सोनिया गान्धी के नेतृत्व में यूरोप और अमेरिका का पिछलग्गू । पिछले दस साल में गहरे षड्यन्त्र के तहत सरकार ने लोगों का यह आत्मविश्वास तोड़ने का प्रयास किया था कि भारत में अग्रणी बन सकता है ।

                  नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो काम करके दिखाया उससे देश के लोगों में एक बार फिर यह आत्मविश्वास जागने लगा है कि यदि सुदृढ़ नेतृत्व मिल जाये और भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अपनी जड़ों से जुड़ जाये तो वह एक बार फिर विश्व की राजनीति में नीति निर्धारण बन सकता है । नरेन्द्र मोदी के कृतित्व ने लोगों में उनके प्रति आस्था को जगाया है । यूरोपीय लाबी के लिये इसीलिये नरेन्द्र मोदी सबसे बड़ा ख़तरा बन कर उभरे हैं । अब जब यह लड़ाई अपने अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गई है और उसके परिणाम के क़यास भी लगने शुरु हो गये हैं तो सोनिया गान्धी और उनको आगे करके अपनी गोटियां खेल रही देशी विदेशी ताक़तें अपना सब कुछ झोंक रही हैं । सोनिया गान्धी का असम में दिया गया बयान   इस कैम्प की इसी हडबडाहट को इंगित करता है ।

                           इस कैम्प के पास सबसे बड़ा एक ही हथियार था कि नरेन्द्र मोदी के कारण देश की दूसरी कोई भी पार्टी भाजपा का समर्थन नहीं करेगी । लेकिन दूसरी पार्टियों की बात तो दूर सोनिया के अपने कैम्प में से ही भाग कर मोदी की सेना में आ मिलने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । जदयू , बसपा और सपा इत्यादि के शिविर से भाग कर मोदी के शिविर में आने वालों में मानों प्रतियोगिता ही चल पड़ी हो । नये लोगों की बढ़ती संख्या देख कर जहाँ सोनिया गान्धी के शिविर में घबराहट और सन्नाटा है , वहीं भाजपा के भीतर से ही कुछ प्रश्न उठने लगे हैं । प्रश्न पूछना भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परम्परा है । यह परम्परा इतनी उदार है कि महाभारत के युद्ध में जब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गईं थीं , धनुष की प्रत्यंाचाएं तन गईं तोअर्जुन ने श्री कृष्ण से बीच रण भूमि में प्रश्न पूछने शुरु कर दिया कि आत्मा कहाँ से आती है और कहाँ जाती है ? उस समय तो अर्जुन के सारथी श्री कृष्ण थे । उन्होंने अर्जुन का समाधान कर उसे पुनः युद्ध के लिये प्रेरित कर दिया । लेकिन इस बार नरेन्द्र मोदी का सारथी कोई कृष्ण नहीं है बल्कि देश की सारी जनता ही उनकी सारथी है । लेकिन इस सारथीके पास किसी के भी अप्रासंगिक प्रश्नों का उत्तर देने का समय नहीं है । मोदी का निशाना भी मछली की आँख पर लगा हुआ है । ऐसे समय में ध्यान को भटकाना घातक हो सकता है । मोदी उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं दे रहे हैं जो इस देश की अस्मिता और उसके भविष्य से जुड़े हुये हैं । लोकसभा की इस लड़ाई में देश के भविष्य का निर्णय होने वाला है । मोदी स्वयं अरुणाचल प्रदेश जाकर भारत की चीन नीति की परोक्ष घोषणा कर आये हैं । जम्मू कश्मीर में उन्होंने पाकिस्तान और उसके परोक्ष समर्थकों को चेतावनी दे दी है । भाजपा के भीतर इस बार लड़ाई इस बात की नहीं होनी चाहिये कि टिकट किस को दिया जा रहा है और किस को नहीं दिया जा रहा । बहस इस बात पर होनी चाहिये कि राष्ट्रीय हितों को पलीता लगाने वाली फ़ौज के डैन को किस प्रकार समाप्त करना है । यह साधारण चुनाव नहीं है । यह एक प्रकार से स्वतंत्रता का दूसरा युद्ध है । मोदी इस समय जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जबकि सोनिया गान्धी और उन का खेमा अपने संकीर्ण हितों एवं देशी विदेशी दबाव समूहों के हितों की लड़ाई लड़ रहा है , जिसका लाभ या तो अमेरिका उठायेगा , या क्वात्रोची के वंशज या फिर राय बहादुरों और राय साहिबों की फ़ौज , जो इस वक़्त सोनिया के आस पास घूम रही है ।

                              नरेन्द्र मोदी का सच आज भारत का सच बन गया है । वे भारतीय जनमानस की राष्ट्रीय भावना के साथ एकाकार हो गये हैं । आन्ध्र , ओडीशा या अरुणाचल में विधान सभा के चुनावों में जो लोग दूसरे राजनैतिक दलों के लिये कार्य कर रहे हैं , वे भी लोक सभा के लिये नरेन्द्र मोदी का समर्थक होनी की बात कर रहे हैं । इस चुनाव में मोदी फ़ैक्टर ने राजनीति में एक नये समतल धरातल की रचना की है । इस धरातल पर विभिन्न राजनैतिक दलों से निरपेक्ष होकर साधारण मतदाता मोदी के पक्ष में खड़ा नज़र आता है । लेकिन ध्यान रखना चाहिये इस धरातल पर जो मोदी खड़ा दिखाई देता है , वह मोदी कोई व्यक्ति न होकर एक सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा का प्रतीक है । वह इस सासंकृतिक भारत का मानवीकरण कहा जा सकता है । इस सांस्कृतिक भारत से ही सोनिया गान्धी और उसके सिपाहसलारों को डर लगता है । क्योंकि सांस्कृतिक भारत का सच ही मोदीका सच है । अपनी सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर ही भारत आर्थिक क्षेत्र में भी लम्बी छलाँग लगा सकता है । लेकिन इसी से भयभीत होकर यूरोप एक बार फिर दिल्ली में आकर चिल्ला रहा है कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं । मोदी के नेतृत्व में भारत को यूरोप की इसी गाली का उत्तर देना है ।


(2.4.2014 )

Monday 10 February 2014

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के पीछे सोनिया गान्धी की पार्टी का एजेंडा क्या है ?-डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

  दिल्ली की एक अंग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ ने जेल में वन्द स्वामी असीमानन्द के हवाले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह आरोप लगाया है कि संघ ने उन्हें हिंसात्मक गतिविधियों की अनुमति प्रदान की थी । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन शक्तियों के निशाने पर अपने जन्म काल से ही रहा है, जो भारत को कमजोर करना चाहती है और इसको खंडित करने के स्वप्न देखती रही हैं या अभी भी देख रही हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि संघ ने शुरू से ही भारत के जिस सांस्कृतिक स्वरूप् का समर्थन किया है, विदेशी शासकों और विदेशी ताकतों को वह कभी पसंद नहीं रहा है। क्योंकि उन्हें सदा खतरा रहता है कि इस सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर भारत एक बार फिर विश्व में अपना गौरवशाली स्थान प्राप्त कर सकता है। 1947 से कुछ साल पहले तक मुस्लिम लीग संघ का इस लिए विरोध करती थी क्योंकि संघ मुस्लिम लीग के देशघाती विभाजन के सिद्धांत का विरोध कर रही थी और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ पर इस लिए आक्रमण तेज किए क्योंकि देश विभाजन के राष्ट्रघाती फॉर्मूले को स्वीकार कर लेने के बाद कांग्रेस के भीतर जो अपराध बोध पल रहा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आईने में वह उसे टीस देता रहता था इसलिए यह जरूरी था कि संघ के इस आईने को भी किसी प्रकार से तोड़ दिया जाए। मामला यहां तक बढ़ा कि नेहरू और उसकी टीम के मुख्य लोगों यथा मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई ने भी महात्मा गांधी के मन में भी संघ के बारे में गलतफहमी पैदा करने की कोशिस की। यही कारण था कि महात्मा गांधी स्वयं संघ की शाखा में उसे समझने बुझने के लिए पधारे थे। नेहरू और उसकी टीम के लोग महात्मा गांधी के मन में मोटे तौर पर संघ की भूमिका को लेकर भ्रम पैदा करने में सफल नहीं हुए लेकिन जब नेहरू के मित्र और उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने, पाकिस्तान को 55 करोड़ दिए जाने के प्रश्न पर महात्मा गांधी को उपवास करने के लिए उकसाया, तो माउंटबेटन भी शायद इतना तो जानते ही थे की विभाजनोपरांत उत्पन्न हुए उत्तेजक वातावरण में इस उपवास से और उत्तेजना बढ़ सकती है और इसका परिणाम घातक भी हो सकता है ।  इसे भी माउंटबेटन की रणनीति का हिस्सा ही मानना चाहिए कि उन्होंने गांधी को मरणव्रत रखने के लिये उकसाते समय सरदार पटेल और अन्य राष्ट्रीय ताकतों को अंधेरे में रखा। महात्मा गांधी की हत्या पर जब सारा देश स्तब्ध और शोकाकुल था तो जवाहार लाल नेहरू  इस राष्ट्रीय शोक का इस्तेमाल केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निपटाने के लिए ही नहीं कर कर रहे थे बल्कि लगे हाथ यह चर्चा भी चला दी थी कि इसके लिये सरदार पटेल भी दोषी हैं । पटेल इससे बहुत आहत हुये थे । नेहरु ने गान्धी हत्या का बहाना लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित ही नहीं किया बल्कि संघ के उस वक्त के सरसंघचालक गुरू गोलवलकर को गिरफ्तार भी कर लिया। ताज्जुब होता है कि भारत विभाजन के लिये काम कर रही मुस्लिम लीग को तो १९४७ के बाद भी काम करने दिया गया और संघ को स्वतंत्रता के तुरन्त बाद प्रतिबन्धित कर दिया गया । यह अलग बात है कि न्यायालयों ने नेहरू की इस चाल को तार-तार कर दिया और संघ को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से मुक्त किया,जिसके बाद सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा।
                             
बहुत से लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि जिन दिनों पंडित नेहरू जम्मू कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थें उन दिनों लेक सक्सेस में पाकिस्तान का प्रतिनिधि बार-बार इस बात पर जोर देता था कि जम्मू कश्मीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सभी लोगों को निकाला जाए। उसका मुख्य कारण शायद यही था कि पाकिस्तान को विश्वास था कि नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ तो मजहब के आधार पर जम्मू कश्मीर के विभाजन की बात की जा सकती है लेकिन जब तक राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं तब तक वे जम्मू कश्मीर के किसी भी हिस्से को पाकिस्तान को दिए जाने का विरोध करते रहेंगे।
                             
विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग ने और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों को अपने निशाने पर बनाए रखा। लगता है सोनिया गांधी की पार्टी भी मुस्लिम लीग की उसी विरासत को लेकर एक बार फिर किसी गहरे षड्यंत्र को लेकर देश की राष्ट््वादी शक्तियों को निशाना बना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के षड्यंत्र में जुट गई है। अंग्रेजी की एक पत्रिका की किसी पत्रकार को आगे करके संघ पर देश में हिंसात्मक गतिविधियों को सहमति देने को लेकर जो आरोप लगाया है वह उसी रणनीति का हिस्सा है। सोनिया गान्धी की पार्टी के क्रियाकलापों और उसकी रीति नीति को समझने के लिये मुसोलिनी की कार्यप्रणाली और मैकियावली की राज्य नीति को समझना बहुत जरुरी है । कारवाँ में प्रकाशित तथाकथित साक्षात्कारः को तभी ठीक से पकड़ा जा सकता है ।
                             
कारवां अपने इस तथाकथित साक्षात्कार को लेकर किस प्रकार एक पूरी रणनीति के तहत काम कर रहा था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कारवां में प्रकाशित इस आलेख को जब किसी ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी तो पत्रिका की ओर से 5 फरवरी को बाकायदा एक प्रेस नोट जारी किया गया जिसमें संघ के सरसंघचालक पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने असीमानंद को देश में हिंसात्मक गतिविधि करने के लिए अपनी सहमति दी थी। यह प्रेस नोट दिल्ली प्रेस के मालिकों की सहमति या सहभागिता के बिना तैयार नहीं किया जा सकता था जो कारवाँ के मालिक हैं । रिकॉर्ड के लिए बता दिया जाए कि दिल्ली प्रेस नाम से मीडिया के धंघे में लगी यह कंपनी पिछले कई सालों से अंग्रेजी और हिंदी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं छाप रही है। दिल्ली प्रेस के इस मीडिया हाउस का स्वर शत प्रतिशत हिंदू विरोधी रहता है। हिन्दू संस्कृति और उसके प्रतीकों को खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। जो काम तरूण तेजपाल का मीडिया हाउस तथाकथित स्टिंग ऑपरेशनों के माध्यम से करता था वही काम दिल्ली प्रेस का मीडिया हाउस हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार द्वारा करता है ।  कहना चाहिए कि दोनों मीडिया हाउस एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरीकों से काम कर रहे हैं । इस उदेश्य की पूर्ति के लिए एक तीसरा समूह भी कार्यरत है। भारत में  चर्च के विभिन्न संस्थानों द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं को इस तीसरे समूह की संज्ञा दी जा सकती है। दिल्ली प्रेस की पत्र पत्रिकाओं और चर्च द्वारा भारत में मतांतरण आंदोलन को तेज करने के लिए प्रकाशित की जा रही पत्र पत्रिकाओं की भाषा का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो लगभग एक समान दिखाई देती है।
                               
सोनिया गांधी की पार्टी को लगता होगा कि यदि संघ पर ये आरोप तरूण तेजपाल के मीडिया हाउस तहलका के माध्यम से लगाए जाते हैं तो उस पर कोई विश्वास नहीं करेगा क्योंकि तेजपाल की कथित करतूतों का पर्दाफाश हो जाने के कारण उसकी विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो गई है। शायद इसी मजबूरी में दिल्ली प्रेस को पर्दे के पीछे से निकाल कर यह खेल खेलने के लिए मैदान में उतारा गया। लेकिन दिल्ली प्रेस वालों ने शायद इस खेल में नए होने के कारण ऐसी भूलें कर दी जिससे उनका झूठ पकड़ा ही नहीं जा रहा बल्कि उसके भीतर के अंतरविरोध भी स्पष्ट नजर आ रहे हैं। कारवां के प्रेस वक्तव्य में अंतरविरोध इतने स्पष्ट थे कि उन्हें इस वक्तव्य के जारी हो जाने के तुरंत बाद भूल सुधार और स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा।
                   
पिछले चार पाँच साल से सोनिया गान्धी की पार्टी सरकारी जाँच एजेंसियों के साथ मिल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हिंसात्मक गतिविधियों से जोड़ कर , एक प्रकार से आतंकवादियों को कवरिंग रेंज प्रदान कर रही है । इस से होता यह है कि जाँच एजेंसियाँ यदि चाहें भी तो वे न तो इस्लामी आतंकवादियों की गतिविधियों की जाँच कर सकतीं हैं और न ही उन्हें रोक सकतीं हैं । सोनिया पार्टी को लगता है कि इस्लामी आतंकवाद के प्रति उसके इस रवैये से मुसलमान उसे एक मुश्ताक़ वोट दे देंगें । सरकार को अच्छी तरह पता होता है कि संघ को लेकर फैलाए जा रहे इस दुर्भावना पूर्ण इतालवी झूठ को सिद्ध करने के लिये उसके पास कोई प्रमाण नहीं है । इसलिये न्यायालय में किसी को आरोपित नहीं किया जा सकता है और न ही आज तक किया गया है । लेकिन सरकार की मंशा तो चुने गये मीडिया समूहों की सहायता से संघ और राष्ट्रवादियों को जनमानस में बदनाम करना है । दिल्ली प्रेस की सहायता से किया गया यह प्रयास भी उसी कोटि में आता है । कारवाँ के किसी  पत्रकार ने दावा किया है कि उसने जेल में असीमानन्द से दो साल में बार बार मुलाक़ात की है तो ज़ाहिर है यह सारी साज़िश सरकारी सहायता के बिना संभव नहीं हो सकती । दिल्ली प्रेस भी और सोनिया गान्धी की पार्टी और उसकी सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि तथाकथित टेपों की जब तक जाँच होगी तब तक तो संघ पर लगे यह आरोप सब जगह चर्चित हो चुके होंगे ।
                                     
कारवाँ के इस कारनामे को एक और पृष्ठभूमि में भी देखना होगा । पिछले एक दो साल से देश में यह चर्चा फिर से हो रही है कि सोनिया गान्धी की इतालवी पृष्ठभूमि और उनके राजीव गान्धी से शादी से पूर्व के जीवन के बारे में तहक़ीक़ात की जाये । सोनिया गान्धी इस समय देश की सत्ता के केन्द्र बिन्दु में है और देश सुरक्षा के लिहाज़ से एक प्रकार से संक्रमण काल से ही गुज़र रहा है । वैश्विक इस्लामी आतंकवादियों के निशाने पर भारत भी है , यह रहस्य किसी से छिपा नहीं है । ऐसे समय में सोनिया गान्धी की सरकार आतंकवादियों के प्रति नर्म रवैया ही नहीं अपना रही बल्कि देश की जनता का ध्यान भी इस ओर से हटाने के लिये संघ पर दोषीरोपण कर रही है । पार्टी के एक महामंत्री तो खुलेआम आतंकवादियों का समर्थन करते नज़र आते हैं । आख़िर आतंकवादियों के प्रति सरकार की इस नर्म नीति के पीछे कौन है ? ये प्रश्न और भी तेज़ होकर चारों ओर गूँजने लगें , उससे पहले ही देश की राष्ट्रवादी ताक़तों पर दोषारोपण कर उन्हें रक्षात्मक रुख़ अख़्तियार करने के लिये विवश किया जाये,लगता है संघ पर दोषारोपण के पीछे यही सरकारी नीति काम कर रही है ।
                       
क्या कारण है कि आज अमेरिका भी संघ को निशाना बना रहा है , पाकिस्तान भी और सोनिया गान्धी की पार्टी भी ? हरिशंकर परसाई ने एक बार लिखा था कि यदि दुकानदार किसी ग्राहक की बुराई करें तो समझ लेना चाहिये कि ग्राहक ने उस दुकानदार के हाथों चुपचाप लुटने से इन्कार कर दिया है । इसी प्रकार अमेरिका भारत में जब किसी संगठन को गालियाँ देना शुरु कर दे तो मान लेना चाहिये कि वह संगठन भारत में अमेरिकी हितों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । लेकिन क्या सोनिया गान्धी और उसकी पार्टी इस बात का ख़ुलासा करेगी कि वह संघ को बदनाम करने के काम में किसके हितों की रक्षा में लगी हुई है ? रही बात  कारवाँ की , इस लड़ाई में अभी पता नहीं कितने छिपे हुये कारवाँ लोकसभा के चुनावों तक प्रकट होते रहेंगे । तरुण तेज़पाल के जेल जाने से कारवाँ ख़त्म थोड़ा हो गया है ।

Sunday 9 February 2014

क्या शांतिकाली जी महाराज, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के बाद अब स्वामी असीमानंद की बारी है?


पिछले कुछ समय से दक्षिण गुजरात के डांग जिले के वनवासी क्षेत्रों में सेवा कार्य कर रहे स्वामी असीमानंद भारत सरकार के निशाने पर हैं। चर्च किसी भी स्थिति में स्वामी असीमानंद को डांग से हटाना चाहता था क्योंकि इस वनवासी बहुल क्षेत्र में चर्च द्वारा चलायी जा रही अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का स्वामी जी विरोध कर रहे थे। सोनिया-कांग्रेस और वेटिकन सिटी में पिछले कुछ दशकों से जो साझेदारी पनपी है उससे यह आशंका गहरी होती जा रही थी कि अंततः भारत सरकार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चर्च की सहायता के लिए उतरेगी। यह आशंका तब सत्य सिध्द हुई जब भारत सरकार की केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने देश में कुछ स्थानों पर इस्लामी आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोटों में अचानक ही स्वामी असीमानंद जी को लपेटना शुरू कर दिया। जांच एजेंसियों ने तीर्थ क्षेत्र हरिद्वार से स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें ज्ञात-अज्ञात स्थानों पर रखा और उन्हें तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी। किसी मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए उनके बयान को लीक करते हुए उसे विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित मीडिया के एक खास गुट को मुहैया करवाया गया और उनके चरित्र हनन का प्रयास किया गया। भारत सरकार ने यह प्रचारित किया कि स्वामी असीमानंद आतंकवाद से जुडे हुए हैं और इस्लामी अल्पसंख्यकों के विरुध्द साजिश रच रहे हैं। सरकार का कहना था कि असीमानंद ने यह स्वीकार किया है कि संघ परिवार और कुछ हिन्दू आतंकवादी घटनाओं से जुड़े हुए हैं। जांच एजेंसियों ने स्वामी जी को शारीरिक यातनाएं देकर उनसे एक पत्र राष्ट्रपति के नाम भी लिखवाया जिसमें स्वामी जी ने विस्फोटों में कुछ हिंदुओं के हाथ होने की बात कही। यह अलग बात है कि जेल से राष्ट्रपति को लिखा गया यह पत्र राष्ट्रपति तक पहुंचने से पहले ही सरकारी योजना के चलते मीडिया तक पहुंच गया। सरकार ने असीमानंद पर बहुत दबाव डाला कि सरकारी गवाह बन जाएं और सरकार की रणनीति के अनुसार भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद से जोड़ने की मुहिम में हिस्सेदार बनें। लेकिन असीमानंद ने स्वयं को और बंगाल में अपने अन्य बंधु-बांधवों के जीवन को स्पष्ट दिखाई दे रहे खतरे के बावजूद यह कार्य करने से इनकार कर दिया। अलबत्ता, स्वामी जी ने कचहरी को यह जरूर बताया कि जांच एजेंसियां उन्हें असहनीय यातनाएं दे रही हैं और उनसे अपनी इच्छानुसार झूठे बयान भी दिलवा रही हैं और राष्ट्रपति को चिटि्ठयां भी लिखवा रही हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि सोनिया, कांग्रेस और भारत सरकार स्वामी असीमानंद की पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी हैं? इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। विदेशी मिशनरियां भारत के वनवासी क्षेत्रों में पिछले सौ सालों से भी ज्यादा समय से जनजातीय क्षेत्रों में लोगों के मतांतरण में लगी हुई हैं। इसके लिए इन मिशनरियों को विदेशी सरकारों से अरबों रूपयों की सहायता प्राप्त हो रही है। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार के लोगों ने भी वनवासी क्षेत्रों में अनेक सेवा-प्रकल्प प्रारंभ किए हैं। जनजातीय क्षेत्र के लोग अब अपने इतिहास, विरासत और आस्थाओं के प्रति जागरुक ही नहीं हो रहे हैं बल्कि सेवा की आड़ में मिशनरियों द्वारा जनजातीय समाज की आस्थाओं पर किए जा रहे प्रहार का विरोध भी करने लगे हैं। पिछले दिनों एक आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस, जो लंबे अर्से से जनजातीय समाज के रीति-रिवाजों, उनकी आस्थाओं, विश्वासों, पूजा-स्थलों और देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ा रहा था और उनके विरुध्द अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहा था, को ओडिशा के जनजातीय समाज के लोगों ने मार दिया था। तथाकथित हत्यारों को फांसी देने की प्रार्थना को लेकर ओडिशा सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार की इस प्रार्थना को रद्द कर दिया और यह टिप्पणी की कि इस प्रकार की घटनाएं तीव्र प्रकार की घटनाए होती हैं। साधू-संतों ने भी अपने कर्तव्य को पहचानते हुए वनवासी क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य प्रारंभ किया है। जाहिर है इससे चर्च का भारत में मतांतरण आंदोलन, खासकर जनजातीय क्षेत्रों में मंद पड़ता जा रहा है। चर्च को इससे निपटना है। लेकिन वह अपने बल पर यह काम नहीं कर सकता। इसलिए उसे सोनिया-कांग्रेस की सहायता की जरूरत है। सोनिया-कांग्रेस का वर्तमान संदर्भों में अर्थ भारत सरकार ही लिया जाना चाहिए।
चर्च ने अपने इस अभियान की शुरुआत सन 2000 में त्रिपुरा से की। त्रिपुरा के जनजातीय समाज में कार्य कर रहे स्वामी शांतिकाली जी महाराज की नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरानामक ईसाई संगठन ने उनके आश्रम में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी। हत्या से पहले चर्च के आतंकवादियों ने उनसे हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई बनने के लिए कहा। स्वामी जी के इनकार करने पर उन्हें गोली मार दी गयी। स्वामी जी कई वर्षों से त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्रों में जनजातीय समाज में शिक्षा, संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। स्वामी जी के कामों के चलते चर्च भोले-भाले जनजातीय समाज के वनवासियों को यीशु की शरण में लाने में दिक्कत अनुभव करने लगा था। भारत में चर्च की चरागाहें मुख्य तौर पर यह जनजातीय समाज ही है। त्रिपुरा में शांतिकाली जी महाराज इसी चरागाह में विदेशी मिशनरियों के प्रवेश को रोक रहे थे। चर्च ने अंत में उसी हथियार का इस्तेमाल किया जिससे वह आज तक दुनिया भर मे ंचर्च के मत से असहमत होने वालों को सबक सिखाता रहा है। स्वामी जी की हत्या कर दी गयी। स्वाभाविक ही हत्या से पहले जिस प्रकार की योजना बनायी गयी होगी, उसी के अनुरुप हत्यारों का बाल-बांका नहीं हुआ। सरकार हत्यारों को पकड़ने के बजाय जनजातीय समाज को यह समझाने का अप्रत्यक्ष प्रयास करती नजर आयी कि ऐसा काम ही क्यों किया जाए जिससे चर्च नाराज होता है। चर्च को आशा थी कि शांतिकाली जी महाराज की निर्मम हत्या से देश के साधु-संताें और राष्ट्रवादी शक्तियां सबक सीख लेंगी और विदेशी मिशनरियों को राष्ट्रविरोधी कृत्यों और मतांतरण अभियान का विरोध करना बंद कर देंगी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। जनजातीय क्षेत्रों में विशेषकर ओडिशा के जनजातिय क्षेत्र कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती वही कार्य कर रहे थे जो त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्र में स्वामी शांतिकाली जी महाराज कर रहे थे। त्रिपुरा के स्वामी जी की निर्मम हत्या का समाचार कंधमाल में पहुंचा ही। चर्च बड़े धैर्य से प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के आश्रम में इस हत्या से भय का वातावरण नहीं था बल्कि चर्च के इस अमानवीय कृत्य को लेकर उसकी भूमिका के प्रति दया और क्रोध का मिलाजुला भाव था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या से जनजातीय समाज के आगे चर्च का असली वीभत्स चेहरा एक झटके से उजागर हो गया। चर्च को सबसे बड़ी हैरानी तब हुई जब इस चेतावनी नुमा हत्या के बाद भी अपने समस्त भौतिक सुखों को त्यागते हुए पश्चिमी बंगाल के नभ कुमार ने सांसारिक जीवन को अलविदा कहते हुए स्वामी असीमानंद के नाम से गुजरात के डांग क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य करने के लिए प्रवेश किया। डांग एक लम्बे अरसे से ईसाई मिशनरियों की शिकारगाह रहा है और झूठ, छल, फरेब और धोखे से चर्च वहां के जनजातीय समाज को भ्रमित कर इसाई मजहब में दीक्षित कर रहा है। उधर ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के प्रयासों से चर्च के षड्यंत्र अनावृत हो रहे थे। जनजातीय समाज के जाली प्रमाण-पत्र बनाने में चर्च की भूमिका उजागर हो रही थी। यहां तक की सोनिया-कांग्रेस के एक प्रमुख सांसद चर्च की इस जालसाजी में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। इस बार में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती से निपटने के लिए चर्च ने काफी अरसा पहले ही पुख्ता रणनीति तैयार की। योजना यह थी कि जैसे ही सरस्वती जी की हत्या की जाए उसके तुरंत बाद मीडिया की सहायता से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार पर कंधमाल में ईसाईयों को तंग करने और विस्थापित करने के आरोप मीडिया की सहायता जड़ दिए जाएं। यह चोर मचाए शोरवाली स्थिति थी। इस योजना के अनुरुप ही अगस्त 2008 में जन्माष्टमी के दिन स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या की तर्ज पर ही आश्रम में घुसकर लक्ष्मणानंद सरस्वती को केवल गोलियों से ही नहीं मारा बल्कि कुल्हाड़ी से उनकी लाश के टुकडे भी किए गए। जनजातीय समाज का चर्च के प्रति गुस्सा पूर उफान पर था। परन्तु चर्च पहले ही अपनी योजना के अनुसार आक्रामक मुद्रा में आ चुका था। स्वामी जी की हत्या की औपचारिक तौर पर निंदा करने के बजाय क्रिश्चियन कौन्सिलके अध्यक्ष जॉन दयाल ने कहना शुरु कर दिया की उन्हें तो बहुत पहले ही जेल में डाल देना चाहिए था। इधर चर्च ने शोर मचाया की राष्ट्रवादी शक्तियां और संघ परिवार के लोग अल्पसंख्यक ईसाइयों पर अत्याचार कर रहे हैं, उधर भारत सरकार से लेकर यूरोपीय संघ तक कंधमाल में जांच के नाम पर संघ परिवार को बदनाम करने के काम में जुट गई। लक्ष्मणानंद सरस्वती के असली हत्यारों को पकड़ने की बजाय सरकार ने कंधमाल के जनजातीय समाज के लोगों को पकड़कर जेल में डालना शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक बिगड़ गयी कि कुछ लोगों को न्यायालय में यह याचिका देनी पड़ी कि सरकार जानबूझकर गलत दिशा में और गलत प्रकार से जांच कर रही है ताकि स्वामी जी के असली हत्यारे छूट जाएं। चर्च सीना तानकर भारतीय समाज को चुनौती दे रहा था-त्रिपुरा में स्वामी शांतिकाली जी महाराज और ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बावजूद कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर पाया। सोनिया कांग्रेस अब नंगे-चिट्टे रूप में ही चर्च के साथ आ खड़ी हुई थी। स्वामियों के हत्यारों को पकड़ने की मांग करने के बजाय वह राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी सिध्द करने में जुटी हुई थी। लेकिन दक्षिण गुजरात को जनजातीय क्षेत्र डांग चर्च की इन धमकियों के बावजूद भयभीत नहीं हुआ था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पीछे छिपी हुई शासकीय और अशासकीय शक्तियों को डांग में अपने आश्रम में स्वामी असीमानंद स्पष्ट ही देख रहे थे और इन हत्याओं के माध्यम से दी गई चेतावनी को देश का जनजातीय समाज भी समझ रहा था और स्वामी असीमानंद भी। लेकिन स्वामी असीमानंद ने चर्च की इन परोक्ष धमकियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया। डांग में स्वामी असीमानंद के कार्यों की गूंज वेटिकन तक सुनायी देने लगी। फरवरी, 2006 में स्वामी असीमानंद जी ने डांग में जिस शबरी कुंभ का आयोजन किया था, वह ईसाई मिशनरियों और विदेशों में स्थिति उनके आकाओं के लिए एक खतरे की घंटी थी। शबरी कुंभ में देश भर से जनजातीय समाज के 8 लाख से भी ज्यादा वनवासी एकत्रित हुए थे। भील जाति की शबरी ने त्रेतायुग में दक्षिण गुजरात के इस मार्ग से गुजरते हुए श्री रामचंद्र को अपने जूठे बेर प्रेमभाव से खिलाए थे। सबरी माता का उस स्थान पर बना हुआ मंदिर सारे जनजातीय समाज के लिए एक तीर्थ स्थल के समान है। शबरी कुंभ जनजातीय समाज में सांस्कृतिक चेतना के एक नए युग की ओर संकेत कर रहा था। चर्च बौखलाया हुआ था। सोनिया-कांग्रेस से लेकर वेटिकन तक सब चिल्ला रहे थे। भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कटघरे में खड़ा करने के प्रयास हो रहे थे। लेकिन स्वामी असीमानदं अविचलित थे। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो चुकी थी। चर्च इस प्रतीक्षा में था कि असीमानंद स्वयं ही डांग छोड़कर चले जाएंगे और वहां क ा जनजातीय समाज एकबार फिर उसकी शिकारगाह बन जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस बार असीमानंद की हत्या करना शायद चर्च के लिए इतना सहज व सरल नहीं रहा था। कंधमाल में जनजातीय समाज की प्रतिक्रिया को देखते हुए चर्च सावधान हो चुका था। इसलिए असीमानंद को ठिकाने लगाने के लिए नए हथियार का इस्तेमाल किया गया और उन्हें सोनिया-कांग्रेस के इशारे पर केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने एक दिन अचानक गिरफ्तार करके चर्च का अप्रत्यक्ष रूप से रास्ता साफ कर दिया। स्वामी असीमानंद को जांच एजेंसियां तरह-तरह से यातना दे ही रही हैं लेकिन फिर भी वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने न्यायालय में निर्भीक होकर कहा कि जांच एजेंसियां धमकियों और यातनाओं मेरे मुंह में शब्द ठूंस रही हैं। लेकिन वे किसी भी स्थिति में मेरे शब्द न समझे जाएं। चर्च स्वामी असीमानंद को किसी भी हालत में डांग के जनजातीय समाज में जाने नहीं देगा और जाहिर है स्वामी जी अपने संकल्प से पीछे नहीं हटेंगे। जनजातीय क्षेत्र के लोगों को इस बात की आशंका होने लगी है कि कहीं स्वामी असीमानंद की भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की तरह ही हत्या न कर दी जाए। हवालात में कैदी की हत्या कैसे की जाती है-इसको सोनिया कांग्रेस की इशारे पर जांच कर रही एजेंसियों से बेहतर कौन जानता है? क्या स्वामी असीमानंद को भी स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के रास्ते पर धकेल दिया जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि आतंकवादी घटनाओं में स्वामी जी को गिरफ्तार करना तो परदा मात्र है, असली मकसद तो चर्च की योजना के अनुसार उन्हें रास्ते से हटाने की है।

स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती हत्याकांड में उच्च न्यायायलय की फटकार -- डॉ0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री

 4 अगस्त, 2011 को ओडीशा उच्च न्यायालय ने 3 साल पहले 23 अगस्त, 2008 को स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती हत्याकांड की जांच में दखलंदाजी करते हुए जांच अधिकारी को आदेश दिया कि वह इस पूरे हत्याकांड की नए सिरे से जांच करें और यदि जरुरत पड़े तो इस सिलसिले में न्यायालय में नया आरोपपत्र भी दाखिल किया जाए । ब्रह्मचारी माधव चैतन्य ने ओडीशा उच्च न्यायालय में गुहार लगायी थी कि सरस्वती जी के असली हत्यारों को पकड़ने के लिए न तो जांच अधिकारी सही दिशा में जांच कर रहे हैं और न ही सरकारी तंत्र न्यायालय से दोषियों को सजा दिलवाने के उद्देश्य से सबूत और गवाह पेश कर रहे हैं। यह ब्रह्मचारी माधव चैतन्य ही थे जिन्होंने स्वामी जी की हत्या की प्रथम सूचना रपट थाने मे दर्ज करवायी थी और वे इसके चश्मदीद गवाह भी हैं। स्वामी जी की इस याचिका के बाद विश्व हिंदू परिषद् के ओडीषा शाखा के अध्यक्ष दुर्गा प्रसाद कर ने भी उच्च न्यायालय से अनुरोध किया कि उन्हें भी इस मामले में अपना पक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाए । न्यायालय ने उनकी इस प्रार्थना को भी स्वीकार कर लिया था ।

दरअसल, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को लेकर ओडीशा सरकार का जो रवैया रहा है, उससे आम लोगों में यह धारणा पनपी है कि स्वामी जी के हत्यारे, जांच अधिकारी और लोक अभियोजक तीनों आपस में गहरे तालमेल से चल रहे हैं । और इन तीनों का उद्देश्य हत्यारों को पकड़ना और सजा दिलाना नही हैं, बल्कि इसके विपरीत उनको कानून की गिरफ्त से सुरक्षित करना है। ब्रह्मचारी माधव चैतन्य और दुर्गा प्रसाद कर की उच्च न्यायालय में दी गयी याचिका आम लोगों में उपजे इसी जनाक्रोश का परिणाम थी। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इस हत्याकांड की जांच कर रहे पहले जांच अधिकारी को बदलकर जब नए जांच अधिकारी को यह जिम्मेवारी सौंपी गयी तो उसने जांच की प्रारम्भिक महत्वपूर्ण सामग्री को एकदम से दरकिनार कर दिया। विधिवेत्ता यह अच्छी तरह जानते हैं कि हत्या के मामलों में इस प्रकार की प्रारम्भिक सामग्री कितनी महत्वपूर्ण होती है। जांच अधिकारी के इस रवैये से ही यह अंदेशा होने लगा था कि जांच किस दिशा मे जाएगी। स्वामी जी की हत्या के पूर्व पहाड़ी मंच नामक किसी संस्था ने उनको हत्या करने का धमकी भरा पत्र लिखा था। हत्या से पूर्व पिछले कुछ सालों में स्वामी जी पर चर्च के गुंडों ने लगभग 8 बार अलग-अलग स्थानों पर कातिलाना हमले किए थे। हत्या से एक महीना पहले ही कंधमाल जिला के तुमडीबंद नामक स्थान पर कुछ लोगों ने चर्च की शह पर गोकशी की थी। स्वामी जी जब उसका विरोध करने के लिए वहां पहुंचे तो चर्च के उन्हीं गुंडों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी थी। जाहिर है कि चर्च पिछले लम्बे अर्सें से स्वामी जी की हत्या का प्रयास कर रहा था। लेकिन जब स्वामी जी की हत्या हुई तो ओेडीशा सरकार के प्रतिनिधि ने हत्या के कुछ घंटे बाद ही यह घोषणा कर दी कि यह हत्या माओवादियों ने करवायी है। जाहिर है कि बिना किसी प्रमाण के सरकार द्वारा की गयी इस घोषणा से जांच अधिकारी को स्पष्ट संकेत मिल गए कि उसे अपनी जांच को किस दिशा में लेकर जाना है। शायद, इसीलिए उच्च न्यायालय में याचिककर्ताओं ने यह प्रश्न खडा किया कि जांच अधिकारी माओवादियों को हत्या के लिए दोषी तो ठहरा रहा है लेकिन इस हत्या के पीछे माओवादियों का उद्देश्य या ‘मोटिव’ क्या है? इसको स्थापित नहीं कर पा रहा। लम्बे अरसे से फौजदारी मुकदमों से बावस्ता जांच अधिकारी और लोक अभियोजक इतना तो जानते ही हैं कि हत्या के मामले में जब तक मोटिव या उद्देश्य सफलतापूर्वक स्थापित न कर दिया जाए तब तक हत्यारों के बच निकलने की पूरी संभावना रहती है। लेकिन जांच अधिकारी जानते -बूझते इस पक्ष को अनदेखा कर रहा है और लोक अभियोजक इसमे उसकी सहायता कर रहा है। जबकि इसके विपरीत स्वामी जी की हत्या में चर्च का उद्देश्य या मोटिव बिल्कुल स्पष्ट है । चर्च लम्बे अर्से से ओडीशा के जनजातीय समाज को मतांतरित करके वहां एक नए ईसाई राष्ट्र की स्थापना में जुटा हुआ है। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती उनके इन अराष्ट्रीय प्रयासों में दीवार बनकर खडे हो गए थे । ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल के महासचिव जॉन दयाल और सोनिया गांधी की कृपा से राज्यसभा सदस्य बने मतांतरित राधाकांत के बयानो में सरस्वती जी को लेकर चर्च की छटपटाहट स्पष्ट ही देखी जा सकती है। इन दोनों की गतिविधियों से ही कोई भी सरकार अंदाजा लगा सकती थी कि चर्च स्वामी जी की हत्या के प्रयत्न कर रहा है। कंधमाल जिला के ही घुंसर उदयगिरी ब्लॉक में बट्टीकला गांव के चर्च में, स्वामी जी हत्या से तीन दिन पहले बाकायदा एक बैठक में प्रस्ताव पारित करके हत्या करने का निर्णय लिया गया। और इस प्रस्ताव को बाकायदा कार्रवाई रजिस्टर में भी दर्ज किया गया। कहा जााता है कि इस बैठक में राज्य सरकार का एक अधिकारी भी उपस्थित था। बट्टीकला चर्च की इस बैठक की मीडिया में भी काफी चर्चा हुई थी। इसी प्रकार राइकिया चर्च में हत्या से पहले हुई बैठक में इसी प्रकार की चर्चा हुई। लेकिन सरकारी जांच अभिकरणों ने बट्टीकला चर्च में स्वामी जी की हत्या के लिए पारित इस प्रस्ताव का नोटिस लेना भी जरुरी नहीं समझा।

कंधमाल जिला में चर्च की एक गैरसरकारी संस्था जनविकास काफी लम्बे अर्से से संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त है। इस संस्था ने स्वामी जी की हत्या के कुछ दिन पहले भारतीय स्टेट बैंक से 1 करोड़ रुपया निकलवाया। आखिर उस 1 करोड़ रुपए का क्या किया और उसे निकलवाने का उद्देश्य क्या था? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि हत्या में चर्च की संलिप्तता को लेकर मिलने वाले इन स्पष्ट संकेतों को और तथ्यों को जांच अधिकारी ने एकदम से दरकिनार कर दिया। हत्या के बाद चर्च ने अनेक गांवों में हत्या पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सार्वजनिक भोजों का आयोजन किया। उक्त सभी घटनाएं हत्या में चर्च की षडयंत्रपूर्ण भूमिका की ओर संकेत करती हैं। माओवादियों की इस हत्या में केवल एक ही भूमिका हो सकती है, वह यह कि चर्च ने उनको इस हत्या के लिए सुपारी दे दी हो। ओडीशा में माओवादियों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने वाले विद्वान अच्छी तरह जानते हैं कि अनेक स्थानों पर माओवादी पैसा लेकर भाड़े के हत्यारों के रुप में बदल गए हैं। इस हत्याकांड में उनकी भूमिका भाडे के हत्यारों की ही हो सकती है, षडयंत्रकारियों की नहीं। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को चर्च ने ही अपना दुश्मन न.-1 घोषित किया हुआ था और जॉन दयाल तो सार्वजनिक रुप से यह कहते रहे कि चर्च का विरोध करने के कारण लक्ष्मणानंद सरस्वती को जेल में डाला जाना चाहिए लेकिन जांच अधिकारी और लोकअभियोजक हत्या के असली षडयंत्रकारियों को जांच के दायरे से बाहर करने में जुटे हुए हैं और भाडे के हत्यारों को केस कमजोर करके सजा से बचाने की मशक्कत में लगे हुए हैं।

हत्या के एक दिन बाद नवगांव थाना के अंतर्गत गुंजीवाड़ी गांव में लोगों ने दो व्यक्तियों को पकडा था जो गांव के जौहड में खून से सने कपडे धो रहे थे। उसके पास से नकाब भी बरामद हुए और हथियार भी। गांव के लोगों ने उनको पकडकर पुलिस के हवाले किया लेकिन पुलिस ने उनको छोड ही नहीं दिया बल्कि जांच करने वालों ने उनको किसी प्रकार की जांच में शामिल नहीं किया। इसी प्रकार कंधमाल जिला के बाराखमा गांव में हत्या के कुछ दिन बाद लोगों ने कुछ अपराधियों को पकड़कर पुलिस के हवाले किय। लेकिन पुलिस ने बिना किसी जांच के उन्हें भी भगा दिया। ध्यान रहे, हत्या के उपरांत उस समय की अपराध शाखा के आईजी ने स्पष्ट रुप से यह कहा था कि स्वामी जी की हत्या एक गहरी साजिश का नतीजा है। इसकी साजिश केरल में हुई थी। एक ग्रुप ने हत्या के साजिश की और पूरी योजना बनायी और दूसरे गु्रप ने इस हत्या को अंजाम दिया। ताज्जुब है कि बाद में पुलिस ने अपनी जांच में इसको नजरंदाज किया। कुलमिलाकर पुलिस ने अभी तक इस हत्या में दो आरोपपत्र दाखिल किए हैं। पहले आरोपपत्र में 7 अभियुक्त में हैं और दूसरे पूरक आरोपपत्र में अन्य 7 माओवादी मसलन सव्यसांची पांडा, आंध्रपदेश के दो माओवादी दूना केशवराव आजाद, पोलारी रामराव व छत्तीसगढ के तीन माओवादी दुसरु, लालू और लकमू के नाम शामिल हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अभी तक उनकी भी शिनाख्ती परेड नहीं हुई। पुलिस ने हत्या के बाद हत्यारों का जो स्केच जारी किया था उससे भी इन अभियुक्तों का मिलान नहीं किया गया। यदि सरकार सचमुच केस में रुचि रखती होती तो इन अभियुक्तों को शिनाख्त के लिए चश्मदीद गवाह ब्रह्मचारी माधव चैतन्य के सम्मुख जरुर प्रस्तुत किया जाता क्योंकि हत्या के चश्मदीद होने के कारण वही इस स्थिति में थे कि ये 14 लोग हत्या में शामिल थे या नहीं। या फिर इसमे से कौन-कौन लोग हत्या में शामिल थे? अभियोजन पक्ष ने शिनाख्ती परेड की बात तो दूर चश्मदीद गवाह माधवचैतन्य को अपना पक्ष रखने का सही अवसर भी नहीं दिया । जाहिर है कि सरकार कि मंशा सत्य को न्यायालय से छिपाने की रही होगी न कि उसे न्यायालय के सामने लाने की। बहुत ही स्पष्ट साक्ष्यों और परिस्थितिजन्य सबूतों के बावजूद ओडीषा सरकार ने इस हत्या से चर्च को बडी सफाई से बचा लिया।

ब्रह्मचारी माधव चैतन्य ने 2009 में अंततः उच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि इस हत्या की जांच किसी निश्पक्ष जांच अभिकरण या सीबीआई से करवायी जाए ताकि स्वामी जी के असली हत्यारे पकडे जाएं और उसके पीछे छिपे षडयंत्रकारियों का भांडाफोड भी हो। याचिकाकर्ता के अनुसार विक्रम दीगाल, विलियम दीगाल और प्रदेश कुमार दास की इस हत्या में प्रमुख भागीदारी थी। लेकिन जांच अधिकारी ने इनके खिलाफ सरसरी तौर पर ही जांच की। यदि सरकार के पास छिपाने के लिए सचमुच कुछ नहीं था तो उसे तुरंत यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए थी और पूरी जांच सीबीआई या किसी अन्य जांच एजेंसी को सौंप देनी चाहिए थी। इससे सरकार की छवि पर हत्या में शामिल अपराधियों को बचाने का कलंक भी धुल जाता और पर्दे के पीछे के देश विरोधी तत्व भी सामने आ जाते। लेकिन ओडीशा के लोगों को सबसे ज्यादा ताज्जुब तब हुआ जब सरकार ने इस याचिका का डटकर विरोध करना शुरु कर दिया । उच्च न्यायालय ने सरकार से याचिका में उठाए गए तमाम मुद्दों पर शपथ-पत्र दाखिल करने के लिए कहा। सरकार ने अपने शपथ-पत्र में कहा, जांच के दौरान प्राप्त हुए सबूतों ने प्रथम दृष्टतया यह स्थापित कर दिया है कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और आश्रम के दूसरे लोगों की हत्या कट्टर माओवादियों ने अपने समर्थकों के साथ किया है। जाहिर है कि इस शपथ-पत्र से किसी की संतुष्टि नहीं हो सकती थी अतः न्यायालय ने सरकार को स्पष्ट कहा कि याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में जो मुद्दे उठाए हैं वे अभी तक अनुत्तरित है। एक नए शपथ-पत्र में उन सभी का संतोषजनक उत्तर दिया जाए। इस पर सरकार इन मुद्दों का उत्तर देते हुए शपथ-पत्र दाखिल करने का साहस नहीं कर सकी। ओडीशा सरकार के महाधिवक्ता ने तकनीकी आधारों पर याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्यों से बचने का और उन्हें किसी भी तरह हत्याकांड से संबंधित चल रहे केस में न शामिल किए जाने का भगीरथ प्रयास किया। परन्तु याचिकाकर्ताओं द्वारा हत्याकांड से संबंधित सामग्री इतनी पुख्ता और प्रामाणिक थी कि अंततःउच्च न्यायालय की एकल पीठ के न्यायाधीश श्री एम.एम.दास ने जांच अधिकारी को नए सिरे से हत्या की जांच करने का आदेश दिया और यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं ने जो सामग्री उपलब्ध करवायी है, उसको ध्यान में रखते हुए जांच को आगे बढ़ाया जाए।

जाहिर है कि इससे ओडीशा सरकार के हत्यारों को बचाने के प्रयासों को धक्का लगा है। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती कि हत्या के षडयंत्रकारियों के खिलाफ इस लड़ाई का अंत नहीं हुआ है। दूध का दूध और पानी का पानी तभी होगा जब जांच अधिकारी को हटाकर यह जांच किसी स्वतंत्र जांच अभिकरण को सौंप दी जाती है। लगता है इसके लिए भारत के लोगों को चर्च के षडयंत्रकारियों और उनके पीछे छिपी भारत विरोधी शक्तियों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़नी होगी।

Saturday 8 February 2014

भारत की पहचान बदलने का षड्यंत्र- डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

  भारत की पहचान बदलने का षड्यंत्र- डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
रत की सुरक्षा को दोहरा खतरा है। बाहरी शत्रु से खतरा और द्वितीय आंतरिक षड्यंत्रों से खतरा। यह खतरा भारत की मूल पहचान पर ही आ रहा है।
सोनिया कांग्रेस का वैचारिक खोखलापन-भारत में आतंकवाद के मूल में या तो इस्लामी शक्तियां हैं या फिर चर्च का अधूरा एजेंडा है। आतंकवादी घटनाएं कुछ निराश एवं हताश लोगों द्वारा की जा रही एकाकी घटनाएं नहीं हैं बल्कि इनके मूल में वैचारिक आधार है। वही वैचारिक आधार जिसे सैयद अहमद खान, मुहम्मद अली जिन्ना और डॉ. मुहम्मद इकबाल ने 1947 में भारत विभाजन के लिए प्रयुक्त किया था। 1947 में भी कांग्रेस इस इस्लामी आतंकवाद का वैचारिक एवं व्यावहारिक स्तर पर मुकाबला करने से पीछे हट गई थी या फिर उसके आगे पराजित हो गई थी। कांग्रेस ने उस समय इस्लामी आतंकवाद का वैचारिक स्तर पर सामना करने की बजाये भय की स्थिति में हिन्दु कट्टरवाद की दुहाई मचानी शुरू कर दी थी। कांग्रेस का मानना था कि इस्लामी कट्टरवाद या आतंकवाद इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि हिन्दु महासभा हिन्दु कट्टरता फैला रही है। कांग्रेस ने उस समय भी प्रतिक्रिया को क्रिया घोषित करके शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छुपाने का प्रयास किया था और सोचा था कि शायद विभाजन टल जाये। उस समय ब्रिटिश सरकार भी चाह रही थी कि कांग्रेस इसी रास्ते पर चले क्योंकि वह जानती थी कि यह रास्ता अन्ततः विभाजन की ओर ही जाता है। भारत का विभाजन ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य था। एक तो खंडित भारत कमजोर होता है दूसरे विभाजित भारत के एक खंड में गोरी शक्तियों की दखलअंदाजी पूर्ववत् बनी रहती।
भारत विभाजन के लगभग साठ साल बाद फिर लगता है कि इतिहास अपने को दोहराने की स्थिति में पहॅंुच गया है। इस्लाम खतरे में है, हिन्दु बहुल भारत में मुस्लिम समुदाय सुरक्षित नहीं है, उसके साथ मतभेद हो रहा है, इत्यादि जुमले एक बार फिर प्रयोग में लाये जा रहे हैं। इस बार यह अभियान कश्मीर से छेड़ा गया है। पिछली बार सिंध, बलोचिस्तान और पश्चिमी पंजाब इत्यादि से छेड़ा गया था। कश्मीर से अभियान छेड़ने का भी खास उद्देश्य है। क्योंकि कश्मीर घाटी मुस्लिम बहुल है और चीन व पाकिस्तान की सीमा से जुड़ी हुई है। 1947 से पूर्व नोआखली इत्यादि में डायरेक्ट एक्शन छेड़ कर वहॉ से हिन्दुओं को भगाने की साजिश की गई थी। इसी प्रकार इस बार कश्मीर से सभी हिन्दुओं को इस अभियान के शुरूआती दौर में ही भगा दिया गया। असम में यह प्रयोग अभी भी जारी है। कांग्रेस का व्यवहार इस बार लगभग उसी तर्ज पर है जिस तर्ज पर उसने 1947 में विभाजन के समय किया था। कांग्रेस की प्रड्डति, स्वभाव और प्रशिक्षण इस्लामी आतंकवाद का सामना करने का नहीं है। इसलिए उसको अपनी अकर्मण्यता से उपजे अपराध बोध के चलते मानसिक रूप से मुक्त होने के लिए आतंकवाद में हिन्दुओं की जरूरत है। एक बार यदि हिन्दु आतंकवाद का आविष्कार कर लिया जाये तो कांग्रेस को अपने कार्यकर्ताओं को यह समझाने में सुविधा हो जायेगी कि देश में जो हो रहा है इसमें सारा दोष इस्लामी ताकतों का नहीं है। ये बेचारे हिन्दु आतंकवाद से डरे हुए लोग हैं और प्रतिक्रिया के कारण ही आतंकवाद में संलिप्त हो जाते हैं। कांग्रेस का सामान्य मतदाता और कार्यकर्ता भी आखिर हिन्दु ही है। इस्लामी आतंकवाद की वैचारिक साजिश को वह भी देख और समझ सकता है। कांग्रेस की यही चिन्ता है। अपने कार्यकर्ता को समझाने के लिए भी उसे हिन्दु आतंकवाद की जरूरत है। इसके साथ ही हिन्दु आतंकवाद एक और फ्रंट पर भी हथियार का काम कर सकता है। देश का सामान्य मुसलमान जो आंतकवादियों की गतिविधियों के कारण शक के घेरे में आ रहा था उसे प्रत्युत्तर में वार करने के लिए एक ढाल की जरूरत है ताकि वह इस्लामी आतंकवाद से उपजे प्रश्नों का उत्तर दे सके। कांग्रेस ने उसे हिन्दु आतंकवाद की यह काल्पनिक ढाल प्रदान कर दी है। संकट की इस घड़ी में और लम्बी वैचारिक लड़ाई में मुस्लिम समाज को जो ढाल कांग्रेस ने दी है उससे वह ड्डतज्ञ तो होगा ही और इसी ड्डतज्ञता में वह कांग्रेस को वोट देगा।
भारत में अमेरिका की रणनीति और कांग्रेस की भूमिका- चर्च और अमेरिका मिलकर भारत को घेरने की साजिश में जुटे हुए हैं। चर्च का उद्देश्य बहुत स्पष्ट है। वेटिकन के राष्ट्रपति के अनुसार इस शताब्दी में उन्हें भारत का काम निपटाना है। क्योंकि पिछली दो सहस्राब्दियों में चर्च ने पूरे यूरोप और अफ्रीका के इतिहास, विरासत और संस्ड्डति को नष्ट करके वहॉं ईसाई मत को स्थापित कर दिया है। एशिया के अधिकांश हिस्से पर भी चर्च ने अपना मजहबी आधिपत्य जमा लिया है। शुरू में तो यूरोप ने ईसाइकरण का विरोध किया लेकिन कालांतर में वही यूरोप अफ्रीका और एशिया में मजहबी साम्राज्यवाद का हरावल दस्ता बना। जिन लोगों ने चर्च के इन अभियानों का विरोध किया उन्हें निर्दयतापूर्वक कुचल दिया गया। चर्च के दुर्भाग्य से भारत उसके इस विश्वव्यापी अभियान के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ा हो गया। अपनी इस सम्राज्यवादी लिप्सा में बींसवी शताब्दी में ही भारत के संदर्भ में चर्च और अमेरिका एक जुट हो गये थे। इसलिए बचे खुचे देशों में ईसाई मजहब को स्थापित करने में अमेरिका अ्रग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया है। परन्तु अमेरिका को इस प्रकार के देशों में दखलअंदाजी के लिए कोई न कोई तार्किक बहाना चाहिए। कोई ऐसा बहाना जिस पर लोग सहज ही विश्वास कर लें। अमेरिका ने इसके लिए आतंकवाद को बहाना भी बनाया और हथियार भी। अमेरिका का ऐसा कहना है कि दुनियां इस्लामी आतंकवाद का प्रहार झेल रही है और अमेरिका क्योंकि नवविचार और नवचेतना का देश है इसलिए वह इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझता है। चाहे इसमें उसके अपने सैनिक भी मर रहे हैं परन्तु इसके बावजूद अमेरिका मानवता के हित में इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहा है। केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में। वैसे , केवल रिकार्ड के लिए, अमेरिका का अपना इतिहास भी निर्दोष नहीं है। सी0आई00 ने कितने लोगों की हत्या करवाई और कितने देशों की सरकारों को उल्टा-पुल्टा इसका लेखा-जोखा उसकी पुरानी फाइलों में से निकल आयेगा। आज जिस इस्लामी आतंकवाद को लेकर इतना हल्ला मचा हुआ है उसका जन्म भी अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस को उत्तर देने के लिए दिया था। बाद में इसी आतंकवाद के बहाने अमेरिका अपने आर्थिक हितों के लिए ईराक में धुसा, फिर अफगानिस्थान में और अब उसकी सेनाएं आतंकवाद की खोज करते करते अपनी इच्छा से पाकिस्तान में भी चली जाती हैं। लेकिन चर्च और अमेरिका का निशाना तो भारत है। पर इस्लामी आतंकवाद के बहाने अमेरिका भारत में नहीें घुस सकता क्योंकि भारत इस्लामी आतंकवाद से पीड़ित देश है। भारत में घुसने के लिए अमेरिका को हिन्दु आतंकवाद की जरूरत है, इस्लामी आतंकवाद की नहीं। जब तक भारत में कांग्रेस की निर्बाध सत्ता है तब तक न अमेरिका को चिंता है न ही चर्च को क्योंकि भारत को मतांतरित करने की चर्च की योजनाओं में कांग्रेस सरकार सहायक है, बाधक नहीं। परन्तु पिछले तीन दशकों से भारत का राजनैतिक घटना क्रम तेजी से परिवर्तित हुआ है। कांग्रेस के केन्द्रीय सत्ता में बने रहने की निरंतरता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। इसी अरसे में राष्ट्रवादी शक्तियां भारतीय राजनीति के केन्द्र में पहुॅंच गई। अमेरिका और चर्च दोनांे को लगता है यदि देर सबेर राष्ट्रवादी ताकतें फिर भारत की सत्ता के केन्द्र में स्थापित हो गई तो भारत के ईसाइकरण में निश्चय ही बाधा उपस्थित हो जायेगी। इसी मरहले पर ईतालवी मूल की सोनिया गॉंधी कांग्रेस के केन्द्र में स्थापित होती हैं। यह ताकतें अपनी इस रणनीति में तो कामयाब हो गई लेकिन इनके दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वयं ही सत्ता के केन्द्र से विच्युत होने की स्थति में पहुंच रही है। यदि कल चर्च और अमेरिका के आगे ऐसा संकट उपस्थित हो जाता है तो उनके आगे भारत में दखलअंदाजी का कौन सा रास्ता बचता है? यह रास्ता भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करने का ही है। भविष्य में यदि राष्ट्रवादी शक्तियां भारत का शासन सूत्र संभाल लेती हैं तो अमेरिका को यह कहने का अवसर मिल जायेगा कि भारत में आतंकवादी शक्तियों ने कब्जा कर लिया है। यह अमेरिका ने स्वयं ही घोषित किया हुआ है कि दुनियां में जहां भी आतंकवादी शक्तियां होंगी अमेरिका उनका पीछा करते हुए वहॉ तक जायेगा। और वैसे भी सोनिया ब्रिगेड और चर्च को अमेरिका के आगे यह गुहार लगाते हुए कितनी देर लगेगी कि अमेरिका आगे बढ़ कर भारत को आतंकवादी शक्तियों के चगुंल से मुक्त करे।
अमेरिका की यही नीति है कि किसी भी तरह से भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कटघरे में खड़ा कर उन्हें नकारात्मक चित्रित किया जाये। अमेरिका की सरकार और अमेरिका का मीडिया इस काम में लम्बे अरसे लगा हुआ है। अमेरिकी सरकार के संस्थान सी0आई00 की आधिकारिक साईट पर संघ परिवार से जुड़े संस्थानों को हिन्दु मिलीटैंट आरगेनाइजेशन घोषित किया हुआ है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को वीजा न देने का एक उद्देश्य राष्ट्रवादी शक्तियों को कट्टरपंथी के रूप में चित्रित करना भी था। अमेरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिन्दुत्व की नकारात्मक व्याख्या को लेकर व्यापक शोधकार्य करवाया जा रहा है। यहां यह कहना असंगत नहीं होगा कि 80-90 के दशक में ही अमेरिका में संघ परिवार को लेकर लगभग 200 शोध कार्य हुये जिनमें किसी प्रकार से संघ की मिलीटेंट एवं नकारात्मक घोषित करना ही उद्देश्य रहा।
ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ लार्डस में इस बात को लेकर बहस हुई कि आरएसएस आतंकवादी संगठन है या नहीं। बहुत से लोग इस बात पर प्रसन्न हैं कि बहस के बाद ब्रिटिश सरकार ने संघ परिवार से जुड़े संगठनों को आतंकवादी स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इस बात पर प्रसन्न होना भूल होगी। षड्ंयत्रकारियों का मूल उद्देश्य पहले चरण में केवल विश्वभर में यह बहस चलाना ही है कि संघ परिवार आतंकवादी संगठन है या नहीं। पक्ष - विपक्ष में तर्क दिये जाते रहेंगे और कल यदि भारत के लोग सत्ता राष्ट्रवादी शक्तियों को सौंप देते हैं और अमेरिका सहित अन्य गोरे साम्राज्यवादियों को यह अपने हितों के विपरीत लगता है तो वह किसी भी क्षण नई बहस में इसे आतंकवादी संगठन घोषित कर सकते हैं। पहले अमेरिका को इराक के सद्दाम हुसैन की नीतियां अमेरिका के हित में लगती थी, इसलिए अमेरिकी मीडिया और राज्य सत्ता सद्दाम हुसैन और उनकी बाथ पार्टी को उदारवादी और प्रगतिवादी बता रहा था। लेकिन जब अमेरिका को लगा कि अब सद्दाम हुसैन की नीतियां अमेरिका के हित में नहीं है तो उसे हुसैन और उसकी बाथ पार्टी को आतंकवादी घोषित करते हुए एक क्षण भी नहीं लगा। अमेरिका की लम्बी रणनीति के तहत यही भारत और संघ परिवार के साथ भी हो सकता है। अभी शायद यह दूर की कौड़ी लगती है। इसका अर्थ यह नहीं कि अमेरीका भारत पर सशस्त्र आक्र्रमण कर सकता है। आज के युग में आक्रमण के और भी अनेक ढंग विद्यमान हैं।
गोरे साम्राज्यवादियों की भारत को लेकर एक और समस्या है। ब्रिटिश सरकार लगभग दो सौ वर्ष तक भारत पर राज्य करने और उसकी मूल पहचान को परिवर्तित करने की आधारभूत संरचना तैयार करने के बाद पूरे आत्मविश्वास से सत्ता उन्हीं लोगों अथवा समूहों को सौंप कर गई थी जिन पर उन्हें पूरा विश्वास था कि वे भारत में उनकी नीति अथवा दर्शन को निरंतर आगे बढ़ाते रहेगे। अमेरिका अब उसी ब्रिटिश परंपरा का उत्तराधिकारी है। लेकिन दुर्भाग्य या सौभाग्य से सरकार एवं मोमबत्ती ब्रिगेड के पूरे प्रयासों के बावजूद भारत की मूल पहचान तो नहीं बदली बल्कि इसके विपरीत संास्ड्डतिक पुर्नजागरण की लहर दिखाई देने लगी। इसका प्रभाव राजनीति के क्षेत्र में भी दिखाई देने लगा है। संघ परिवार से संबधित संस्थाओं द्वारा अनेक राज्यों की सत्ता संभाल लेना एवं केन्द्र तक पहुंच जाना इसका प्रमाण है।
इसलिए ब्रिटिश - अमेरिकी नीति सपष्ट है कि जब तक भारत को भी यूनान, मिश्र, रोम ;जिनकी अपनी पहचान समाप्त हो चुकी हैद्ध की श्रेणी में नहीं ला दिया जाता तब तक दिल्ली में सत्ता उन्हीं लोगों के हाथों में रहनी चाहिए जिनके हाथों में वे 1947 में छोड़ गये थे। जब तक पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री रहे तब तक तो अमेरिका व ब्रिटिश सरकार संतुष्ट थी। नेहरू राजनैतिक क्षेत्र में अमेरिका के विरोधी थे और उन्होंने अमेरिका की सरपरस्ती में नाटो इत्यादि गठबंधन में जाने की बजाये गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरूआत की थी। इस दृष्टि से वह समाजवादी-वामंपथी खेमे के ज्यादा नजदीक माने जाते थे। लेकिन जहां तक उनकी संास्ड्डतिक दृष्टि का प्रश्न था वह वही थी जिसकी घुट्टी ब्रिटिश सरकार उन्हें पिला गई थी। गोरी साम्राज्यवादी शक्तियां जानती हैं कि राजनीति चंचला है। वह पलपल रंग बदलती है लेकिन सांस्ड्डतिक प्रभाव एंव परिवर्तन स्थाई व दीर्घ होता है। अतः नेहरू इस दृष्टि से ब्रिटिश - अमेरिकी गुट के अनुकूल पड़ते थे। लेकिन नेहरू की मृत्यु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने जो निश्चय ही भारतीयता के पोषक थे और सांस्ड्डतिक दृष्टि से नेहरू के विपरीत ध्रुव थे लेकिन उनकी 18 मास बाद ही मौत हो गई। शास्त्री की मृत्यु के बाद भारत के सत्ता सूत्र एक बार फिर नेहरू परिवार के हाथ में ही चले गये। श्रीमती इंदिरा गान्धी देश की प्रधानमंत्री बनी। अमेरिका समेत पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतें इंदिरा गांधी को कमजोर मानकर चल रही थी। इंदिरा गांधी चतुर राजनीतिज्ञ थी। उन्हें किसी भी विचारधारा से नेहरू की तरह कोई मोह नहीं था। लेकिन उन्होंने अपनी राजनैतिक सुविधा के लिए विचारधाराओं को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। इंदिरा गांधी नेहरू की तरह आदर्शवादी नहीं थी बल्कि वह यथार्थवाद के धरातल पर रहती थी। उन पर न अमेरिका विश्वास कर सकता था और न ही ब्रिटिश सरकार राजनैतिक दृष्टि से तो बिल्कुल ही नहीं।
श्रीमती इंदिरा गांधी वैचारिक धरातल पर पश्चिमोन्मुखी नहीं थी। उनके शासनकाल में ही पोखरण का परमाणु विस्फोट हुआ था। परन्तु उनके इर्द -गिर्द जिन दृश्य और अदृश्य शक्तियों ने अपना तानाबाना बुना हुआ था , वे उनके भीतर के तानाशाही राक्षस को दानापानी खिलाकर जागृत करने में लगे रहते थे। श्रीमती गांधी स्वभाव से अंतर्मुखी थीं और इसके कारण असुरक्षा की भावना से घिरी रहती थीं। इस प्रकार की भावना से ग्रस्त लोगों के भीतर तानाशाही प्रवृत्तियों का पनप जाना बहुत आसान होता है। श्रीमती गांधी के साथ भी ऐसा ही हो रहा था। तानाशाही और फासीवादी मूल्य भारतीय परम्पराओं के बिल्कुल खिलाफ हैं। इन मूल्यों का पश्चिम में हिटलर और मुसोलिनियों ने अनेक बार रक्षण और पोषण किया है। भारतीय अथवा हिन्दू प्रड्डति मूलतः लोकतांत्रिक है। अतः जब श्रीमती गांधी में ये तानाशाही प्रवृत्तियां स्पष्ट ही दिखाई देनी लगी और उसका कुप्रभाव इधर -उधर परिलक्षित होने लगा तो जाहिर है श्रीमती गांधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से टकराव होता क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय लोकतांत्रिक सांस्ड्डतिक थाती का पक्षधर है। इंदिरा गांधी ने उसी पर प्रहार करना शुरु कर दिया था। इस मरहले पर खांटी गांधीवादी जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ आ खडे़ हुए। जयप्रकाश नारायण और उनके समाजवादियों का यह वही खेमा था जो कांग्रेस के भीतर भारतीयता के प्रश्न पर धीरे-धीरे नेहरू से दूर होता गया था और महात्मा गांधी के नजदीक होता गया था। आज वह खेमा अपनी इस यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ खड़ा था। जिसका स्वाभाविक अर्थ था कि भारतीयता की इस यात्रा में संघ इस प्रकार की शक्तियों का स्वाभाविक साथी था। इंदिरा गांधी जिस तानाशाही रास्ते पर चल रही थी, उस पर तर्क से बातचीत करना सम्भव ही नहीं होता। भारतीय स्वभाव तर्क और शास्त्रार्थ का है। इसलिए संघ देश भर में इसी शास्त्रार्थ को प्रोत्साहित कर रहा था। जयप्रकाश नारायण उसके साथ थे। लेकिन जैसा तानाशाही शासनों का स्वभाव होता है वे तर्क का उत्तर हिंसा और शक्ति सेे देते हैं। इंदिरा गांधी ने देश में आंतरिक आपात स्थिति लागू कर दी और संघ को नेहरू के बाद एकबार फिर प्रतिबंधित घोषित कर दिया। जयप्रकाश नारायण और दूसरे लोग जेलों में ठूंस दिए। परदे के पीछे की शक्तियां भारतीय अस्मिता के प्रतीक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी का प्रयोग कर रही थीं और श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता के मोह में उनका खिलौना बन गयी थी। संघ ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के खातिर सारे देश में सत्याग्रह प्रारम्भ किया और उसके लाखों स्वयंसेवक जेल गए उनमें से अनेकों की मृत्यु भी हुई और अंततः भारतीय जनता जीती। भारतीय मूल्यों की विजय हुई। इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध से लड़ रही थी, जहा तक तो ठीक था लेकिन यह लड़ाई राजनैतिक थी सांस्ड्डतिक नहीं। 1976 में चुनावों मे पराजित होने पर पद छोड़ने से पहले इंदिरा गांधी ने स्वय प्रतिबन्ध हटाया था। क्योंकि संघ से वह राजनैतिक धरातल पर वह लड़ रही थी और वहा पराजित होने पर उन्होने उसे गरिमा से स्वीकार किया।
इंदिरा गांधी को लेकर ब्रिटिश- अमेरिका की समस्या केवल राजनैतिक ही नहीं थी सांस्ड्डतिक भी थी। इंदिरा गांधी अपने पिता की तरह समाजवादी भी नहीं थी। इसके विपरीत उसका झुकाव भारतीयता की ओर ज्यादा था जो उम्र के साथ साथ बढ़ता जा रहा था। इसका कारण शायद उन पर अपनी मॉं कमला नेहरू का प्रभाव था, जिसका उत्पीड़न अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। कमला कौल भारतीयता की जीवंत प्रतिमा थी। इसलिए इंदिरा गांधी अपने जीवन के अन्तिम दौर में अमेरिका-ब्रिटेन के लिए राजनैतिक व सांस्ड्डतिक दोनों दृष्टियों से ही असहनीय हो गई थी। इंदिरा गांधी भारत को अमेरिका या रूस का पिछलग्गू बनाने की बजाए उसे शक्तिशाली देश के रूप में देखना चाहती थी। पोखरन में पहली बार परमाणु धमाका कर उन्होंने भविष्य के भारत का संकेत भी अमेरिका को दे दिया था। उसके बाद तो इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को ही खंडित कर दिया। निक्सन ने इंदिरा गांधी के लिए जिन अभद्र शब्दों को प्रयोग किया है उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
लेकिन गोरी साम्राज्यवादी ताकतों के लिये प्रश्न था कि नेहरू परिवार की विरासत कौन संभाले जो राजनैतिक एवं सांस्ड्डतिक दोनों दृष्टियों से अमेरिका-ब्रिटिश समूह के अनुकूल हो। नेहरू परिवार उस मोड़ पर पहुॅच गया था जिस पर अमेरिका -ब्रिटिश समूह उसकी भविष्य की उपयोगिता को लेकर चिंतित दिखाई दे रहे थे। वैसे भी 1967 के बाद से नेहरू परिवार के नेतृत्व को दूसरे राजनैतिक दलों से गंभीर चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई थी और आगे भविष्य में कांग्रेस का एकछत्र सम्राज्य समाप्त हो सकता था- ऐसी संभावनाएं दिखाई देने लगी थी। समाजवादी एंव राष्ट्रवादी जनसंघ के संयुक्त प्रयासों के प्रयोग दीनदयाल उपाध्याय व राममनोहर लोहिया ने प्रारंभ कर ही दिये थे। इसलिए ब्रिटिश - अमेरिका की नीति यही थी कि भारत में कांग्रेस का एकछत्र साम्राज्य भी बना रहे और साथ ही कांग्रेस पर ऐसे लोगों का कब्जा भी बना रहे जो उसी सांस्ड्डतिक नीति का अनुसरण करें जो 1947 में अंग्रेज उन्हें दे गये थे। इसी काल में नेहरू परिवार में इटली की एडविन एण्टोनियो अल्बिना माइनों का प्रवेश होता है जो बाद में सोनिया गांधी के नाम से प्रसिद्व हुई।
कांग्रेस में एडविज एण्टोनियो अल्बिना माइनो का प्रवेश
भारत में यह लम्बा नाम अटपटा न लगे इसलिए इसका नाम सोनिया गांधी बना दिया गया। सोनिया गांधी का जन्म 9 दिसम्बर 1946 को इटली के बेनितो प्रांत में लुजियाना नामक एक गांव में हुआ था। इनकी बचपन की पढ़ाई और लालन -पालन एक कट्टर रोमन परिवार में हुआ और वहीं एक कैथोलिक स्कूल में इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। इनके पिता का नाम स्टेफेनो और माता का नाम पायोला माईनो था। परिवार में सोनिया समेत तीन लड़कियां ही थीं और सोनिया गांधी की बाकी दो बहनें अभी भी इटली में रहती हैं। 18 साल की उम्र में सोनिया इंग्लैंड चली आयीं और कैम्ब्रिज शहर में एक ग्रीक रेस्तरां में महिला वेटर का काम करने लगीं। भाषा की दिक्कत के कारण सोनिया अंग्रेजी सिखाने वाली किसी संस्था में अंग्रेजी भाषा भी सीखने लगीं। उन्हीं दिनों राजीव गांधी कैम्ब्रिज में ही ट्रिनिटी कालेज में पढ़ते थे। राजीव गांधी की 1965 में इसी ग्रीक रेस्तरां में सोनिया गांधी से मुलाकात हुई और देखते-देखते मामला शादी तक आ पहुंचा। तीन साल बाद ही 1968 में दोनों की शादी हो गयी। ऐसा कहा जाता है कि इस शादी का शुरु में तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने विरोध किया लेकिन बाद में उन्होंने इसे स्वीड्डति दे दी। भारत के पूर्व केन्द्रीय विधि मंत्री सुब्रह्मण्यन स्वामी का मानना है कि नेहरू परिवार में सोनिया गांधी का दाखिला एक षड्यंत्र के तहत है ताकि भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल पर कब्जा कर लिया जाये और उसके माध्यम से देश के सत्ता सूत्र संभाल लिये जाये। सोनिया गांधी की नेहरू परिवार में घुसपैठ कैसे हुई, यह रहस्य अभी तक तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा हुआ है लेकिन इतना निश्चित है कि सोनिया गांधी के नेहरू परिवार में आ जाने से ब्रिटिश-अमेरिकी समूह निश्ंिचत हो गया क्योंकि यदि किसी भी तरह से सोनिया गांधी कांग्रेस पर कब्जा कर लेती हैं और उसके माध्यम से देश की सत्ता के केन्द्र में आ जाती हैं तो यह स्थति ब्रिटिश अमेरिकी समूह को राजनैतिक व सांस्ड्डतिक दोनों ही दृष्टियों से अनुकूल पड़ती है। सोनिया गांधी की भारत में उपस्थिति वैटिकन के लिए तो और भी ज्यादा अनुकूल है क्योंकि सोनिया की सहायता से चर्च का मतांतरण आंदोलन भारत में ज्यादा बल पकड़ सकता है।
कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की विरासत का अंत -सोनिया गांधी के नेहरू परिवार में प्रवेश के बाद घटनाएं तेजी से घटित हुई। संजय गांधी की मृत्यु हो गई। संजय गांधी इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के तौर पर उभर रहे थे। उसके बाद मेनिका गांधी का इंदिरा गांधी के घर से निष्कासन हुआ। मेनिका गांधी भविष्य में इंदिरा की भारतीय बहू के रूप में नेहरू परिवार की विरासत संभाल सकती थी। संजय -मेनका प्रकरण के समाप्त हो जाने के बाद इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। कई जांच आयोगों की स्थापना के बाद भी शक की सुई अभी भी घूम रही है कि इंदिरा गांधी की हत्या किन शक्तियों ने करवाई। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नेहरू -गांधी परिवार में वारिस के नाते केवल राजीव गांधी ही बचे थे। इसलिए राष्ट्रपति ने उन्हीं को प्रधानमंत्री बना दिया। राजीव गांधी के शासनकाल में बोफोर्स स्कैण्डल हुआ जिसमें इटली के एक व्यवसायी क्वात्रोची, जो सोनिया गांधी के दोस्त बताए जाते थे, मुख्य अपराधी के रूप में सामने आए। राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गयी। राजीव गांधी पर हिन्दुत्ववादी होने का शक होने लगा था। उनकी सांस्ड्डतिक दृष्टि संदेह के घेरे में आ रही थी। अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास की शुरूआत उन्हीं के राज्यकाल मंे हुई थी। अगले चुनावों में जब वे चुनाव अभियान में थे तो तमिलनाडु में लिट्टे आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। यह एक संयोग ही था कि सोनिया गांधी उनके साथ नहीं थी।
देश का राजनैतिक वातावरण अशांत एवं अस्थिर था। क्या इस स्थिति में सोनिया गांधी देश की सत्ता संभाल सकती थी। शायद नहीं। राजनीति में धैर्य एवं सही वक्त की पहचान बहुत जरूरी होती है। सोनिया गांधी से ज्यादा सही समय व सही स्थान की पहचान भला कौन कर सकता है। राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और सीताराम केसरी अध्यक्ष बने राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस पर ऑक्टोपस की तरह शिकंजा कस लिया और कांग्रेस में उनके साथ रायबहादुरों एवं रायसाहबों की फौज अपने आप ही खड़ी हो गयी क्योंकि इस देश में रायबहादुरों एवं रायसाहबों की परम्परा ब्रिटिश शासनकाल में ही स्थापित हो गयी थी।
विवशता में नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बनाये गये। नरसिम्हा राव कांग्रेस को सोनिया गांधी के शिकंजे से निकाल कर सच मुच भारतीय राजनैतिक दल की स्थिति में लाना चाहते थे। भारतीय इतिहास, विरासत और संस्ड्डति को लेकर उनकी दृष्टि भी राष्ट्रवादी दृष्टि थी। उनकी आस्था एवं विश्वास की जड़ें भारतीयता में से ही प्राण तत्व ग्रहण करती थी। स्वाभाविक है कि नरसिम्हा राव के रहने से कांग्रेस के भीतर सोनिया गांधी की स्थिति पतली हो रही थी। यदि ज्यादा देर ऐसा चलता रहा तो गांधी को नेहरू परिवार में लाने और कांग्रेस पर कब्जा करने की उपयोगिता पर प्रश्न चिह्न लग जाता।
इसलिए नरसिम्हा राव के खिलाफ कांग्रेस के भीतर से ही एक विश्वासी गुट के माध्यम से जोरदार अभियान चलाया गया। उनकी भारतीय सांस्ड्डतिक दृष्टि को ही उनका नकारात्मक पक्ष बताया जाने लगा। लेकिन मुख्य प्रश्न यह था कि ऐसे समय में जब सोनिया गांधी के पास न सत्ता में कोई पद है और न ही कांग्रेस पार्टी के भीतर, तब उनकी महत्ता एवं आतंक को कैसे बरकार रखा जाये। इसके लिए अमेरिका सहित अन्य यूरोपीय शक्तियों ने एक नया रास्ता निकाला।
जब भी अमेरिका अथवा अन्य यूरोपीय देशों से भारत सरकार के निमंत्रण पर सत्ताधीश, प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री दिल्ली आते थे तो वे बाकायदा सोनिया गांधी से भी मिलने जाते थे। इसका मीडिया में भी प्रचार प्रसार किया जाता था। यह भारत के भीतर यूरोप की सोनिया गांधी की महत्ता स्थापित करने का यूरोपीय प्रयास था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मृत्यु और कांग्रेस का उदय
1997 में श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य बनीं और प्राथमिक सदस्य बनने के 62 दिनों के बाद ही उन्होंने सीताराम केसरी को अपदस्थ करके कांग्रेस के प्रधान का पद संभाला। कांग्रेस पर सोनिया गांधी के कब्जे की रणनीति में किस प्रकार भारत स्थित अमेरिकी समर्थित तत्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, यह किसी से छिपा नहीं है। अब एक पुख्ता रणनीति तैयार की गयी। भारत से बाहर हिंदुत्व पर पश्चिमी शक्तियां प्रहार करेंगी और भारत के भीतर कांग्रेस के अंदर गैर लोकतांत्रिक तिकड़मों से कब्जा किए हुए सोनिया गांधी का जत्था करेगा। तभी एक दिन कांग्रेस के भीतर अपने कुछ चुने हुए विश्वस्त साथियों की सहायता से सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को अवैधानिक ढंग से हटाकर कांग्रेस पर कब्जा कर लिया। सीताराम केसरी ने बहुत हो हल्ला मचाया लेकिन सोनिया गंाधी ने अपने इर्द गिर्द जिन लोगों का घेरा बना लिया था उन्होंने उनकी एक नहीं चलने दी। इस प्रकार एक सोची समझी साजिश के तहत सोनिया कांग्रेस का जन्म हुआ। लेकिन भारत के लोगों को धोखा देने के लिये यह आभास दिया गया, मानों यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अस्तित्व सीताराम केसरी को बलपूर्वक हटाने पर समाप्त हो गया उसके बाद कुछ साल तक केन्द्र की राजनीति में अस्थिरता का दौर चलता रहा। सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस पर कब्जा करने के बाद भी वह भारत में अपना प्रभाव नहीं जमा सकी। केन्द्र की सत्ता अन्य अन्य राजनैतिक दलों के समूहों में बंटती रही। लेकिन अन्ततः धमाका तो तब हुआ जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबधंन ने केन्द्र में सरकार बना ली। अब अमेरिकी -ब्रिटिश समूह के लिए सचमुच खतरा पैदा हो गया था। यदि संघ परिवार सेे उपजी भारतीय जनता पार्टी ज्यादा देर सत्ता में रह जाती तो निश्चय ही भारत के सांस्ड्डतिक पुनर्जागरण को बल मिलता क्योंकि भाजपा ने नेहरू की यूरोपीय सांस्ड्डतिक नीति को परिवर्तित कर उसे भारतीय स्वरूप देना प्रारम्भ कर दिया था।
इसलिए भाजपा को परास्त करके किसी भी तरह से इस नये दल सोनिया कांग्रेस के हाथों में भारत के सत्ता सूत्र देना ही ब्रिटिश-अमेरिकी समूह की नीति रही। तभी भारत को नियंत्रित ढंग से चलाया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य से यूरोपिय शक्तियां जिस सोनिया गांधी पर दाबव लगा रही थीं, उसने उनकी सहायता से और उनके संास्ड्डतिक दूतों के माध्यम से कांग्रेस पर तो कब्जा कर लिया था, लेकिन वह भारतीय जनमानस को अपनी पकड़ में नहीं ले सकी थी। सत्ता के चाटुकार, जैसा कि इस देश में इस्लामी और ब्रिटिश काल में भी हुआ है, उसके इर्दगिर्द जुट गये थे। लेकिन भारतीय जनमानस ने सोनिया गांधी को स्वीकार नहीं किया। 2004 के चुनावों में सोनिया गांधी के तमाम प्रयासों के बावजूद कांग्रेस लोकसभा की 540 सीटों में से केवल 144 सीटें ही जीत पाई। लेकिन इस बार वे शक्तियां जिनकी मंशा थी कि किसी प्रकार भी भारत की सत्ता राष्ट्रवादी शक्तियों के हाथ में नहीं जानी चाहिए, कोई चांस नहीं लेना चाहती थी। इसी को ध्यान में रखते हुए साम्यवादी शक्तियों की सहायता से यूपीए का गठन किया गया। कांग्रेस और साम्यवादी दलों में ऐतिहासिक या वैचारिक समानता नहीं है। लेकिन दोनों का भारतीय संस्ड्डति, इतिहास व विरासत से विरोध जगजाहिर है। साम्यवादी दल भी जानते हैं कि यदि उन्होंने भारत को पश्चिमी दृष्टि के साम्यवादी दर्शन के अनुकूल ढालना है तो यहां के जनमानस मे से भारतीय दृष्टि, दर्शन व संस्ड्डति की जड़ें काटनी होंगी। इसी प्रकार सोनिया गांधी भी जानती है कि यदि भारत को पश्चिमी दृष्टि व चर्च के दर्शन के लिए उर्वरा भूमि के तौर पर तैयार करना है तो यहां से भारतीयता को समाप्त करना होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोनों दल एकत्रित हो गये और उन्होंने अल्प मत में होते हुए भी सत्ता के केन्द्र से राष्ट्रवादी शक्तियों को अपदस्थ करने में सफलता हासिल की। लेकिन इस सारे द्रविड़ प्राणायाम में इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि सोनिया गांधी के बलबूते पश्चिम की गोरी शक्तियां भारत की सत्ता पर कब्जा नहीं कर सकती।
इस तथ्य को दृष्टिकोण में रखते हुए गोरी साम्राज्यवादी शक्तियों को लगा कि भारत में सोनिया गांधी के साथ मिलकर राष्ट्रवादी शक्तियों पर प्रत्यक्ष प्रहार करना होगा। कुछ ही महीनों में भारतीय संसद के लिए चुनाव होने वाले हैं। इसलिए उससे पहले ही भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों पर प्रहार करना जरूरी हो गया।
यही कारण है कि भारत सरकार आतंकवाद व आतंकवादियों से लड़ना तो चाहती है लेकिन आतंकवाद के इस आंदोलन और इसके उद्देश्य और इसमें संलग्न व्यक्तियों व ताकतों की शिनाख्त करने से बचना चाहती है। हो सकता है कि भारत सरकार ने शिनाख्त कर ली हो, लेकिन राजनीतिक कारणों से वह उनका नाम भी नहीं लेना चाहती और वह उनसे प्रत्यक्ष रूप से लड़ना भी नहीं चाहती। आखिर बिना ऐसा किये इस इस्लामी आतंकवाद से कैसे लड़ा जाएगा? आतंकवाद का यह इस्लामी जेहादी आंदोलन है। भारत इसका शिकार आठवीं शताब्दी से ही हो रहा है। जब इस्लाम की अरबी सेनाओं ने भारत पर आक्रमण किया था। यह आक्रमण उस समय और उसके बाद के वर्षों में सैनिक दृष्टि से सफल रहा और भारत पर इस्लामी ताकतों का कब्जा हो गया। सात-आठ सौ सालों में उसने भारत के जितने हिस्से का इस्लामीकरण कर दिया, 1947 में उतने हिस्से को भारत से अलग करवा दिया। लेकिन यह आक्रमण रुका नहीं। इसका स्वरूप बदलता गया। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब इस्लाम का यह आंदोलन पूरी दुनिया में पुनः जागृत हो गया तो भारत पर उसने अपना आक्रमण पुनः प्रारंभ कर दिया। यह आक्रमण भारत को इस्लामी देश बनाने के लिए किया गया आक्रमण है और जिहादी इसके लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार हैं। यह कुछ सिरफिरे दुःसाहसी मुसलमान युवकों का आतंक मचाने के लिए किया गया कारनामा मात्र नहीं है जैसा कि भारत सरकार और अंग्रेजी पत्रकारिता के संपादक विश्वास करने के लिए कहते हैं। इस आंदोलन के पीछे एक पूरा वैचारिक दर्शन है, यह इस्लाम का दर्शन है। इस दर्शन के पीछे उसे क्रियान्वित करने के लिए मुसलमान युवकों की सेना है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राण देने तक के लिए नहीं हिचकती। यह उद्देश्य भारत को दारुल हरब की श्रेणी से निकाल कर दारुल इस्लाम की श्रेणी में लाना है। जब तक ऐसा हो नहीं जाता तब तक 8वीं शताब्दी से चला हुआ इस्लामी आक्रमण का यह आंदोलन सफल नहीं कहला सकता। इस्लामी आक्रामक सेना दुनिया के जिस देश में भी गई, उसे कुछ ही वर्षों में इस्लामी देश में परिवर्तित कर दिया। परंतु भारत में उसे आंशिक सफलता ही मिली। भारत के कुछ हिस्से तो इस्लामी हो गये, लेकिन भारत का बडा हिस्सा इस्लामीकरण से बचा रहा और अपने मूल भारतीय स्वरूप में ही बना रहा। इस्लामी आतंकवाद का यही दर्द है। पुराने युग में बाकायदा इस्लाम की सेनाएं इस काम को पूरा करने के लिए भारत में आती थीं, लेकिन आधुनिक युग में आक्रमण का स्वरूप व स्वभाव दोनों ही बदल गये हैं। अब इस्लाम की शक्तियां आतंकवाद के माध्यम से भारत पर परोक्ष आक्रमण कर रही है।
क्या भारत सरकार की इच्छा आक्रमणकारियों को पहचानने और उनके वैचारिक आधार पर आक्रमण करने की है। इन आतंकवादी हमलों के कारण और उद्देश्य इस्लामिक इतिहास में ही देखने होंगे। क्या भारत सरकार की संकल्प शक्ति है? शायद ऐसा नहीं है। अभी भी भारत सरकार इस्लाम के मूल स्वरुप को पहचान नहीं सकी है। सरकार की और कांग्रेस की अपनी राजनीतिक विवशता हो सकती है। इतना ही नहीं वह कुछ व्यक्तियों की सत्य असत्य गतिविधियों को प्रचारित करके यथार्थ इस्लामी आतंक के मुकाबले काल्पनिक हिन्दू आतंकवाद का हौआ खड़ा कर रही है। हो सकता है कांग्रेस को कुछ वोटें मिल जाए लेकिन देश मुंबई बनने की ओर अग्रसर हो जाएगा। भारत सरकार मुंबई को तो बचाना चाहती है लेकिन इस्लामी आतंकवाद के राक्षस से लड़ने से कतरा रही है। इतना ही नहीं वह उसे आतंकवादी मानने से ही कुछ सीमा तक इंकार कर रही है। शायद यही कारण था जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफगानिस्तान गए तो वहां बाबर की कब्र पर भी वह श्र(ा सुमन अर्पित कर आए। भारत तो बच ही जाएगा। उसने 800 सालों तक इस्लामी आतंकवाद को झेलते हुए अपनी अस्मिता को बचाए रखा और अपनी निरंतरता में विद्यमान है। भारत अपनी भीतरी ऊर्जा से बचेगा लेकिन भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी की कलंक गाथा इतिहास में उसी तरह अमर हो जाएगी जिस तरह जयचंद और मीरजाफर की कलंक गाथा अमर हो गई है। लड़ाई अंततः भारत के लोगों को ही लडनी है और मुंबई के आक्रमण के समय भारतीयों ने उसी संकल्प शक्ति का परिचय दिया है। यकीनन भारत विजयी होगा और इस्लामी आतंकवाद पराजित होगा।
चर्च द्वारा भारत की पहचान बदलने का षड्यंत्र -संघ परिवार रास्ते की बाधा
जिस प्रकार पाकिस्तान अपने आतंकवादियों को कश्मीर में घुसाने के लिए सीमा पर गोलीबारी करता है और उसकी आड़ में आतंकवादी भारत में घुस आते हैं उसी प्रकार सोनिया बिग्रेड भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों पर सम्प्रदायिक और अल्पसंख्यक विरोधी होने का प्रहार करती हैं और पश्चिमी शक्तियां उसी की आड़ में भारत स्थित विदेशी चर्च मिशनरियों को धन मुहैया करवाती है। भारत में सोनिया गांधी के नेतृत्व में प्रशासन चर्च को अपने क्रियाकलापों के लिए उर्वरा भूमि प्रदान करता है और देश में मतांतरण का काम निर्बाध चलता रहता है। मतंातरण से राष्ट्रांतरण होता है धीरे धीरे भारत की पहचान धंुधली पड़ती है और एक नए राष्ट्र की पहचान उभरने लगती है। भारत में सोनिया गांधी द्वारा सत्ता सूत्र सम्भाल लेने के बाद चर्च और सोनिया काग्रेस की एक नई सांझेदारी विकसित हुई है। इसमें निश्चित ही वेटिकन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस पूरे षड्यंत्र के रास्ते में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्रवादी शक्तियां बाधा हैं। अतः संघ परिवार की राष्ट्रवादी पहचान पर सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस भीतर से प्रहार करती है और पश्चिमी शक्तियां बाहर से। कांग्रेस और चर्च का भारत की पहचान धुंधली करने का यह संयुक्त षड्यंत्र है। चर्च की रणनीति को समझने के लिए उसकी पृष्टभूमि को जानना अनिवार्य है।
चर्च की आक्रामक पृष्ठभूमि
ईसा की मृत्यु के लगभग 300 साल में उनके कुछ तथा कथित अनुयायियों ने स्वयं को संगठित कर लिया था और उन्होंने अपने इस संगठन के बल पर विश्व विजय के साम्राज्यवादी सपने देखने शुरू कर दिये थे। उन्हें अपने इस प्रयास में सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने रोम के तात्कालिक बादशाह कोन्स्टेन्टाईन को ईसाई मजहब में दीक्षित कर लिया और राजा ने ईसाई मत को सरकारी मजहब घोषित कर दिया। पादरियों के प्रभाव में रोम संस्ड्डति को समाप्त किया जाने लगा और मन्दिरों व देव मूर्तियों को नष्ट किया जाने लगा। राजा ने अपने पुत्र एवं महारानी को भी मरवा दिया। रोम साम्राज्य की वंश परम्परा समाप्त हो गई और पोप का राज्य स्थापित होने का रास्ता खुल गया। अब चर्च ने इससे उत्साहित होकर दुनिया भर में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिये। इसमें उसे सफलता भी मिली लेकिन ‘‘चर्च द्वारा ईसाई रीलिजन की स्थापना के लिए डेढ सौ करोड़ से अधिक लोगोें की हत्या की गई। पश्चिम के अंग्रेज इतिहासकारों ने अति परिश्रमपूर्वक इन हत्याओं को विवरण उपलब्ध किया है। चर्च द्वारा सौ से अधिक संस्ड्डतियों -सभ्यताओं, पन्द्रह सौ से अधिक विशिष्ट पहचान वाली जातियों तथा एक करोड़ से अधिक महिलाओं का सामूहिक कत्ल किया गया। विश्व के इतिहास में किसी भी पंथ अथवा सम्प्रदाय द्वारा सुव्यवस्थित रूप से इतनी हत्याएं नहीं की गई। हत्याओं का यह सिलसिला पहली शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक चला है। ”;शिवदत त्रिपाठी, कामेश्वर उपाध्याय, सम्पादक, इसाईयत का इतिहास वाराणसी, संवाद प्रकाशन 2008, पृष्ठ ग्टद्ध
भारत में चर्च की अमानवीय भूमिका
पोप ने जब विश्व भर में ईसाई मत का प्रचार करने के लिए पुर्तगाल और स्पेन को अधिकार दे दिये तो भारत में इस आंदोलन की शुरूआत के लिए पुर्तगाल ने प्रयास किये। जब पुर्तगाल ने गोवा पर अधिकार जमा लिया तो वहां भयंकर नरसंहार प्रारम्भ हुआ और मंदिरों को गिराया जाने लगा। पुर्तगालियों के लिए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। क्योंकि ईस्वी सन की शुरूआत की शताब्दियों में स्थापित रोम और यूनान की संस्ड्डति को नष्ट करने के लिए चर्च ने इसी कार्य पद्धति का सहारा लिया था। यूरोपीय देशों की मूल संस्ड्डति को नष्ट करके पोप की सत्ता स्थापित करने के लिए चर्च ने सर्वत्र इसी प्रणाली को अपनाया था। दरअसल ईसा मसीह की निर्मम हत्या के बाद उनके नाम को आधार बनाकर चर्च और पोप जिस साम्राज्य की रचना कर रहे थे उसमें आध्यात्मिकता नहीं थी। चर्च के असली स्वरूप को पहचानते हुए महात्मा गांधी ने कालांतर में कहा था कि आधुनिक चर्च में ईसा मसीह नहीं है, बाकी सब कुछ है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज के चर्च का ईसा मसीह और उन द्वारा सत्य और न्याय की रक्षा के लिए दिये जाने वाले बलिदान से कोई ताल्लुक नहीं है। कालांतर में तो यह चर्च अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय साम्राज्यवादी हवस का हरावल दस्ता सि( होने लगा। अफ्रीका और एशिया में लोगों का ईसाई मत में मतान्तरण वहां के सांस्ड्डतिक आधार को नष्ट करने के लिए किया जाने लगा ताकि चर्च द्वारा स्थापित नये सांस्ड्डतिक परिवेश में इन देशों के लोग यूरोप के शासन और वहां के सांस्ड्डतिक प्रवाह को सहज भाव से मानसिक रूप में स्वीकार कर लें। यूरोप की साम्राज्यवादी लिप्सा की पूर्ति के लिए चर्च अफ्रीका और एशिया के देशों में एकरूपता स्थापित करने के कार्य में जुट गया। मध्य काल में और उसके बाद भी अफ्रीका और एशिया में यूरापीय देशों के सेना करती थी, व्यावहारिक स्थितियां बदल जाने के कारण कालांतर में वही कार्य चर्च ने शुरू कर दिया।
पुर्तगाल द्वारा भारत में लाये जा रहे ईसाई आंदोलन के उपरान्त 19वीं शताब्दी में भारत में अंग्रेजी राज्य के साथ ही चर्च एक हरावल दस्ते के रूप में भारत में आया। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि जिस प्रकार भारतवर्ष में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं के लिए अनुकूल मानसिक वातावरण तैयार करने के लिए सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वही भूमिका चर्च अंग्रेजी शासन के लिए भारत में निभा रहा था। प्रसि( उपन्यासकार मुंशीप्रेम चन्द ने अपने उपन्यास रंग भूमि में इसका यथार्थ चित्रण किया है। 1947 में अंग्रेजों को परिस्थिति वश भारत से जाना पड़ा। इंगलैंड और चर्च दोनों के लिए ही यह चिन्ता का विषय था कि उसके उपरान्त भारत में चर्च की गतिविधियां किस प्रकार अबाध रूप से चलती रहें। क्योंकि इंगलैंड ने भारत से अपना प्रत्यक्ष शासन तो समेट लिया था परन्तु चर्च अपने उस साम्राज्यवादी आंदोलन को किसी प्रकार भी त्याग नहीं सकता था, जिसके परिणामस्वरूप उसने कुल मिलाकर दो हजार साल में यूरोप, अफ्रीका और अधिकांश एशिया की संस्ड्डति, इतिहास, विरासत और पूजा प्रणाली को समाप्त कर उसे चर्च साम्राज्य में समाविष्ट कर लिया था। इंगलैंड का हित भी चर्च के इसी हित से जुड़ा हुआ था। अब तक चर्च के इस आंदोलन में सहायक के रूप में अमेरिका भी कूद पड़ा था। क्यांेकि द्वितीय विश्व यु( के बाद विश्व राजनीति में इंग्लैंड का रूतबा कहीं कम हो गया था और अमेरिका अग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया था। चर्च और ब्रिटिश शासन की तमाम कोशिशों के वावजूद भारत की मुख्य संास्ड्डतिक धारा अक्षुण्ण ही नहीं रही बल्कि भारत के साधु संतों और योगियों ने विश्व भर में हिन्दु धर्म के मूल्यों की पताका फहराना भी प्रारम्भ कर दिया है।
चर्च द्वारा स्वामी विवेकानंद का विरोध
चर्च शुरू से ही भारत में मतांतरण का तार्किक आधार पर विरोध करने वाले विद्वानों, साधु सन्तों और स्वामियों को उत्तर देता रहा है। लेकिन उसका उत्तर देने का तरीका समय स्थान और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। अपने समय में चर्च स्वामी विवेकानन्द के हिन्दुत्व के अभियान से भी चिंतित था। स्वामी जी का बढ़ता प्रभाव चर्च को विचलित कर रहा था। ईसाई मिशनरी अमेरिका व यूरोप से आकर भारतीयों को ज्ञान देने का दंभ पाल रहे थे। उधर स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका व यूरोप के ईसाईयों को ही हिन्दुत्व की ओर आकर्षित कर लिया था। चर्च की चिन्ता यह थी,”जब मिशनरी प्रचारक भारत के स्कूलों व बाजारों में बाईबल का संदेश देने लगते तो पूरे विश्वास के साथ लोग स्वामी विवेकानन्द का नाम आगे कर देते थे। स्वामी जी ईसाईयत पर हिन्दुत्व की विजय के प्रतीक बन गये। यह विश्वास घर करता जा रहा था कि अब स्वामी जी आ गये हैं इसलिए ईसाई मिशनरी अवश्य पराजित हो जायेगे“ ;ए हिस्टरी ऑफ मिशन इन इंडिया पृष्ठ 388 द्ध
मिशनरियों की चिन्ता थी कि स्वामी जी के बढ़ते प्रभाव को कैसे रोका जाये? उनकी दृष्टि में स्वामी जी पाखंडी थे। ‘‘स्वामी जी का आचरण हिन्दुओं की पवित्र पुस्तकों की शिक्षाओं के विपरीत था। उन्होेंने समुद्र यात्रा की थी जिसके कारण वे जाति से बहिष्ड्डत हो सकते थे। अमेरिका में वे होटलों मे जाते थे वहॉं शु(-अशु( भोजन करते थे और बेतहाशा सिगरटें पीते थे’’ ;वही-पृष्ठ 387द्ध ताज्जुब है कि चर्च जिन अंधविश्वासों के आधार पर हिन्दुत्व को गाली दे रहा था अब उन्हीं को नकारने पर स्वामी विवेकानन्द को पाख्ंाडी बता रहा था। लेकिन चर्च की चिंता का कारण कहीं और गहरा था। चर्च का मानना था कि स्वामी जी ईसाई मिश्नरियों की तर्ज पर हिन्दु मिशनरी स्थापित करने का विचार कर रहे थे जो भारत के साथ साथ पश्चिमी देशों में हिन्दुत्व का प्रचार करे। वे हिमालय में एक मठ में चले गये और वहॉं अपनी इस योजना के लिए शिष्य एकत्रित करने लगे। लेकिन ईश्वर ऐसा कैसे होने दे सकता था। अचानक ही 4 जुलाई 1902 को 39 साल की उम्र में कोलकाता में उनकी मृत्यु हो गई ;वही-पृष्ठ 388द्ध इस उ(रण में स्वामी जी की मृत्यु पर चर्च की छिपी हुई प्रसन्नता स्पष्ट झलकती है। यूरोप और अमेरिका की इस मानसिकता को समझने के लिए एक-दो और घटनाओं का सही परिप्रेक्ष्य में विवेचन करना आवश्यक है। जैसा कि शुरू में संकेत किया गया है कि भारत विश्व के ईसाईकरण के एजेंडा में एक प्रकार से लेट ओवर एजेंडाहै, जिसको चर्च 21वीं शताब्दी में हर हालत में पूरा कर लेना चाहता है। इसमें यूरोप के देश तो उसके साथ है हीं। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, अमेरिका और कनाडा जैसे देश ;जिन पर यूरोपीय जातियों ने 17वीं शताब्दी के बाद कब्जा कर लिया था और वहां के जनजाति समाज को या तो मार ही दिया था या फिर उनका ईसाईकरण कर लिया थाद्ध भी चर्च के इस लेट ओवर एजेंडा को पूरा करने में सक्रिय सहायता कर रहे हैं। यूरोपीय जातियों की यह अजीब स्थिति है कि वे चर्च के राजनीतिक आधिपत्य को तो नकारती है लेकिन विश्व भर मे। उसके सांस्कृतिक आधिपत्य की समर्थक हैं। इतिहास में यूरोप ने चर्च के इस राजनैतिक आधिपत्य के खिलाफ विद्रोह किया और वहीं से सेक्युलर स्टेट की अवधारणा का विकास हुआ। ऐसी स्टेट जिसके राजनीतिक क्रियाकलापों में चर्च का हस्तक्षेप बिल्कुल न हो। लेकिन यूरोप यह जरुर चाहता है कि चर्च का सांस्कृतिक आधिपत्य सारे विश्व में कायम हो। क्योंकि चर्च का सांस्कृतिक आधिपत्य प्रकारांतर से यूरोप और अमेरिका की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को आगे बढाने में सहयोग करता है। चर्च की सत्ता जिस प(ति से स्थापित की गई, वह प्रक्रिया और आंदोलन आध्यात्मिक न रह कर एक प्रकार का राजनैतिक आंदोलन बन गया और चर्च का स्वरूप एक संगठित राजनैतिक दल के रूप में विकसित होने लगा। चर्च ने राष्ट्रीयता का विरोध करके पैन-ईसाई की अवधारणा को विकसित किया और पोप इस विश्व साम्राज्य का नियन्ता बना।
ओशो रजनीश का निष्कासन और इस्कान पर आरोप --इसलिए अमेरिका ने अरसा पहले ओशो रजनीश को अमेरिका से निष्कासित कर दिया था। इस घटना को चर्च के इसी मतांतरण अभियान के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। चर्च भारत में मतांतरण कर रहा है। उसके लिए पाखंड, लोभ, लालच, भय और अज्ञानता का सहारा ले रहा है। इसके विपरीत ओशो रजनीश ने चर्च को अमेरिका में जाकर लताडा। उन्होंने बाईबल की स्थापनाओं, मान्यताओं और विश्वासों पर तार्किक आधार पर सवाल उठाये। ओशो रजनीश का हथियार चर्च की तरह पाखंड और लालच नहीं था बल्कि ज्ञान का मूल आधार तर्क था। अमेरिका की ईसाई युवा पीढी में ओशो रजनीश की मान्यता बढती जा रही थी। उनके तार्किक प्रश्नों से बाईबल का अवैज्ञानिक और अतार्किक आधार खंडित होने लगा था। अमेरिका को लगा कि आचार्य रजनीश ईसा के मत को कटघरे में खडा कर रहे हैं। अमेरिका लोकतंत्र, बोलने की स्वतंत्रता, लिखने की स्वतंत्रता और प्रचार करने की स्वतंत्रता की बात उसी सीमा तक करता है जिस सीमा में चर्च को आघात न लगे। क्योंकि अमेरिका विश्व भर में अपनी राजनीतिक प्रभुत्ता स्थापित करना चाहता है और चर्च की सांस्कृतिक प्रभुता। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मध्ययुगीन चर्च के रोमन साम्राज्य के स्थान पर आधुनिक युग का यह अमेरिकी साम्राज्य प्रारंभ हुआ है जिसमें चर्च और स्टेट एक दूसरे के पूरक बन कर उभरे हैं। रजनीश ने इसी पाखंड पर प्रहार किया था और अमेरिका ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।
केस स्टडी के लिए दूसरा उदाहरण हरे राम- हरे कृष्ण ;इस्कानद्ध का लिया जा सकता है। ओशो रजनीश ने चर्च को ज्ञान के स्तर पर चुनौती दी थी। स्वामी प्रभुपाद ने उसे भक्ति के स्तर पर चुनौती दी। स्वामी प्रभुपाद का यह आंदोलन ओशो रजनीश से भी दो कदम आगे था। इसमें तर्क की शायद इतनी तपिश नहीं थी। गोरे लोग आस्था के स्तर पर वैष्णव विश्वासों से जुड़ने लगे। ज्ञान के स्तर पर भी, आचरण और संस्कार के स्तर पर भी। कमाल की बात यह है कि यह आंदोलन देखते देखते पूरे विश्व में फैल गया और अमेरिका की युवा पीढी भी इसकी चपेट में आने लगी। इसे क्या इतिहास का संयोग कहा जाए कि भारत में वृंदावन के बाद न्यू वृंदावन की स्थापना अमेरिका में हुई। अमेरिका और यूरोपीय सरकारों के लिए प्रभुपाद का यह आंदोलन असहनीय होने लगा। ओपस दाई और सीआईए के प्रयासों से आंदोलन में दलाल घुसाने की एक लंबी साजिश चली और इन दलालों ने इस्कान के सन्यासियों पर दुराचार और यौन शोषण के आरोप लगाये। इस षड्यंत्र की परतें अब धीरे-धीरे खुल रही हैं। केस स्टडी में ये उदाहरण इस लिए लिये गये हैं क्योंकि यूरोप व अमेरिका में जब चर्च की मान्यताओं को लेकर शास्त्रार्थ होता है तो सभी सरकारें सेक्युलरिज्म का लबादा उतार कर नंगे चिट्टे रुप में चर्च के सहायक के रुप में खडी हो जाती हैं।
अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय मजहबी स्वतंत्रता अधिनियमः-जब से अमेरिका की शक्ति बढ़ी है तो उसने अपने देश में एक नया विभाग स्थापित किया है। इसकी स्थापना 1998 में अंतरराष्ट्रीय मजहबी स्वतंत्रता अधिनियम के तहत हुई। यह विभाग दुनिया भर में यह देखता है कि कौन-कौन से देश चर्च के मतांतरण के आंदोलन में बाधा पहुंचा रहे हैं और उसके रास्ते में दीवार बन रहे हैं। उससे भी आगे उन संस्थाओं और व्यक्तियों की शिनाख्त की जाती है जो चर्च के इस अभियान के राह का रोडा हैं। अमेरिका ने बाकायदा इस कानून के अंतर्गत दूसरे देशों में स्थित अपने दूतावासों को स्पष्ट निर्देश दिया हुआ है कि वे सरकारों को चर्च की मतांतरण की कार्रवाइयों का विरोध करने से रोकें। उन पर हर प्रकार से दबाव बनाएं और समय-समय पर उस देश के अधिकारियों को भी इस विषय पर आगाह करते रहें। साल के अंत में अमेरिका सरकार बाकायदा एक रपट प्रस्तुत करती है जिसमें चर्च के मतांतरण अभियान के विरोधियों का वर्णनन किया जाता है। यह प्रकारांतर से अमेरिका का उस देश को चेतावनी पत्र ही होता है।
इधर अमेरिका ने अपनी रणनीति को और तीखा व धारदार बनाया है। चर्च की मतांतरण की गतिविधियों का जो विरोध करते हैं उनको अमेरिकी सरकार ने आतंकवादियों के रुप में चिह्नित करना शुरु कर दिया है और पिछले कुछ सालों से यह उत्तरदायित्व भी अमेरिका ने खुद ही संभाल लिया है कि आतंकवादी कौन है और कहां है। इसकी शिनाख्त वह स्वयं करेगा और आतंकवाद को समाप्त करना भी उसी का कर्तव्य है। स्वंय के ओढे़ हुए इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए अमेरिका को किसी से अनुमति लेने की जरुरत नहीं है। संयुक्त राष्ट्रसंघ से भी नहीं। 9/11 की घटना के बाद तो अमेरिका का रवैया तो और भी खूंखार हो गया है। अफगानिस्तान में अमेरिका का प्रवेश आतंकवाद को समाप्त करने के लिए ही हुआ। इराक में भी अमेरिका का प्रवेश आंतक वाद को समाप्त करने के लिए ही था और अमेरिका पाकिस्तान के अंदर घुस रहा है। इसका कारण भी वह आतंकवादियों को नष्ट करना ही बता रहा है। पाकिस्तान और अमेरिका का साझा मकसद स्पष्ट हैं। अमेरिका पाकिस्तान का उपयोग भारत की घेराबंदी करना चाहता है। जाहिर है पाकिस्तान यह भूमिका निभाने के लिए सहर्ष तैयार है। इस धेराबंदी का मकसद भारत में राष्ट्रवादी ताकतों को आतंकवादी बताकर सोनिया बिग्रेड की सहायता करना है। सोनियां कांग्रेस भारत की सत्ता संभाले रहे, यह अमेरिका समेत पश्चिमी ताकतों का मकसद है। क्योंकि सोनिया की सरपरस्ती में चर्च को अपना मतांतरण आंदोलन चलाने में सहायता मिलती है। इसलिए अमेरिका ने भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को अपनी हिटलिस्ट में अगले निशाने पर रखा हो।
इसका अनुमान पिछले कुछ अरसे से अमेरिका की रीति नीति और उसके कृत्यों को समझ कर लगाया जा सकता है। अमेरिका की जासूसी संस्था सीआईए जो तृतीय विश्व के देशों में सरकारों को उखाडने व जमाने के लिए कुख्यात है, की आधिकारिक वेबसाइट पर राष्ट्रीय स्वंयंसेवक संघ कोे हिन्दू उग्रवादी संगठन बताया गया है। धीरे-धीरे संघ परिवार अमेरिका की दृष्टि में मिलिटैंट की श्रेणी में आता जा रहा है। अंग्रेजी मीडिया ने, जिसका संचालन अधिकांशतः चर्च से जुडी हुई संस्थाएं करती हैं, बजरंग दल को हिन्दू आतंकवादी संगठन बताना शुरू कर दिया है। अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी को वीजा देने से इंकार कर दिया। ऐसा करने का उसे अधिकार है। परंतु इस इंकार के साथ अमेरिका ने लंबे कारण गिनाएं हैं जिसका अधिकार अमेरिका को नहीं हैं। उन कारणों में से एक प्रमुख कारण यह भी है कि चर्च के मतांतरण कार्यक्रमों का विरोध गुजरात में हो रहा है। यह अमेरिका और वेटिकन की संयुक्त रणनीति ही है कि सोनिया गांधी ने पिछले कुछ सालों से किसी भी प्रांत की सरकार को मतांतरण रोकने के लिए कानून बनाने की अनुमति नहीं दी। राजस्थान विधानसभा ने मतांतरण रोकने के लिए दो दो बार कानून पास किया लेकिन राज्यपाल ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किये। यहां तक की वेटिकन के राष्ट्रपति पोप ने भारत के राजदूत अमिताभ त्रिपाठी को इसके लिए सार्वजनिक डांट भी लगाई। जिन प्रदेशों ने पूर्व में ऐसे अधिनियम बना भी लिये थे उनको इन विधेयकों को लागू करने से रोका गया। जैसे-जैसे संघ परिवार देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक चेतना के केन्द्र में आ रहा है त्यों-त्यों अमेरिका उसे कट्टरवादी, उग्रवादी और आतंकवादी सि( करने के लिए विश्व भर के मीडिया को जुटा रहा है। चर्च के आधिकारिक घोषणापत्र आपरेशन वर्ल्ड में स्पष्ट रुप से घोषणा की गई है कि राष्ट्रवाद चर्च के मतांतरण अभियान की सबसे बडी बाधा है। संघ परिवार भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक के रुप में ही देखा जाता है। शायद इसलिए चर्च और अमेरिका दोनों को ही लगता है कि संघ परिवार मतांतरण के रास्ते का रोड़ा है। अब अमेरिका और चर्च दोनों ही अपनी इस अवधारणा को छिपाते नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट ही इसकी घोेषणा कर दी है। उन्हें भारत में वह व्यवस्था अनुकूल लगती है जो राष्ट्रवाद की जगह पश्चिमीकरण के नाम पर चर्च को खुला खेल खेलने की अनुमति दे दे। इस व्यवस्था के सूत्रधार के रुप में चर्च और अमेरिका ने बड़ी मेहनत से सोनिया गांधी को स्थापित किया है।
चर्च स्वामी विवेकानन्द से लेकर स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती तक अपनी रणनीति समय अनुसार तैयार करता रहा है। उसने भारतीयता के इन सभी साधु संतों को उत्तर अवश्य दिया। स्वामी विवेकानंद को एक तरीके से और स्वामी लक्ष्मणानंद को दूसरे तरीके से। फर्क केवल इतना ही है कि 21 वीं शताब्दी तक आते आते चर्च का उत्तर देने का तरीका बदल गया।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या: भविष्य का संकेत
चर्च द्वारा त्रिपुरा में शान्तिकाली जी महाराज की हत्या और ओडीशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की पृष्ठ भूमि में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रहार करने की रणनीति को समझना आसान हो जायेगा। इन दोनों हत्याओं के मामले में कांग्रेस का रवैया आश्चर्यजनक रूप से चर्च के पक्ष में रहा। सोनिया गांधी और उनकी चर्च समर्थक शक्तियां किसी भी तरीके से शीघ्रातिशीघ्र राहुल गांधी को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बिठा देना चाहती हैं। देश में छोट मोटे राजनैतिक हितों वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का सहयोग उन्होंने किसी ने किसी तरीके से प्राप्त कर ही लिया है। लेकिन सोनिया और चर्च दोनों जानते है कि संघ परिवार और देश की राष्ट्रवादी शक्तियां किसी न किसी रूप में भारत की राजनीति के केन्द्र बिन्दु तक पहंुच गई हैं। इसलिए संघ को हटाये बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता और न ही भारत में चर्च की रणनीति सफल हो सकती है। यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनते तो सोनिया गांधी की 45 साल पहले इंग्लैंड के कैम्ब्रिज से दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर तक पहुंचने की सारी मेहनत बेकार जायेगी और चर्च के व पश्चिमी शक्तियों के भारत की पहचान बदलने के सारे स्वप्न धूलि धूसर हो जायेंगे। चर्च द्वारा स्वामी जी की हत्या की इस पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती बड़े-बड़े नगरों में भीड़ के सामने प्रवचन करने वाले स्वामी नहीं थे। उनके प्रवचन दृश्य माध्यमों से प्रसारित भी नहीं होते थे। वे उसके लिए प्रयास भी नहीं करते थे। और इस उद्देश्य के लिए विभिन्न चैनलों से किराये पर टाइम स्लाट भी नहीं लेेते थे। इसलिए शायद स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती शहरी समाज में और मीडिया में भी उस प्रकार चर्चित नहीं थे। स्वामी जी ने भारत के जनजाति समाज विशेषकर उड़ीसा के जनजाति समाज पर स्वयं को केन्द्रित किया हुआ था। वे इस समाज की आध्यात्मिक भूख को ही शान्त नहीं करते थे, बल्कि उनके आर्थिक विकास की चिंता भी करते थे। वे जनजातीय समाज के समग्र विकास के लिए प्रयत्नशील थे। वे उनमें साक्षरता व शिक्षा का प्रसार भी कर रहे थे। जनजातीय समाज की निरक्षरता और उसकी गरीबी ही चर्च के लिए सबसे उर्वरा शिकार भूमि है।चर्च ने उड़ीसा के संदर्भ में मतांतरण आंदोलन की समीक्षा करते हुए स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। उड़ीसा में मतांतरण रोकने का कानून भी बना हुआ है लेकिन हिन्दु कट्टरपंथियों के तमाम विरोध के बावजूद उड़ीसा में ईसाईयों और चर्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रदेश में बाईबल के संदेश के प्रति जनजाति समाज ही सबसे ज्यादा उत्सुक और उत्साही हैं ओरांव 40 प्रतिशत, खरीया 37 प्रतिशत, मुंडा 34 प्रतिशत बिनहजिया 6.4 प्रतिशत साओरा 6 प्रतिशत, किसान 5 प्रतिशत कोल 5 प्रतिशत और कंध 2 प्रतिशत मतांतरण के द्वारा इसाई मत में दीक्षित हो चुके हैं। इनके जो लोग अपना पंथ छोड़कर इसाई हो गये हैं उन्में 62 प्रतिशत जनजाति और 25 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं। मतांतरित होने वाले अधिकांश लोग सुन्दरगढ़, कंधमाल और गजपति जिलों के रहने वाले हैं। ईसाई मत में दीक्षित होने का मुख्य कारण इनकी निरक्षरता और गरीबी ही है। इस जनजाति समाज को मतांतरित करने के लिए उड़ीसा में अनेक इसाई उपसम्प्रदाय अभिकरण सक्रिय हैं। परन्तु उड़ीसा में स्वर्ण जाति के लोग चर्च के घेरे में नहीं आ रहे। अनुसूचित जातियों में भी एक को छोड़कर अन्य चर्च के घेरे में नहीं आ रहे। इस चुनौती का सामना करना लाजमी है ;आपरेशन बर्ल्ड, पैट्रिक जॉन स्टॉन, मिशिगन, जान्डरवन पब्लिशिंग हाउस, 1993, पृष्ठ 287द्ध जिस वक्त चर्च मतांतरण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए रणनीति तैयार कर रहा था, उसी वक्त स्वामी लक्ष्मणान्नद सरस्वती के नेतृत्व में भारतीय समाज भी इन राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए आगे आया। जाहिर है जनजाति समाज की जिस निरक्षरता, गरीबी और पिछड़ेपन की चर्च को सबसे ज्यादा जरूरत है स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उसी पर प्रहार कर रहे थे। दूसरे स्वामी जी प्रचार से परे रह कर जमीनी स्तर पर कर्मशील थे। यदि वे केवल प्रवचन या उपदेश देकर चुप रह जाते तो चर्च इतने क्रोध में न आता लेकिन स्वामी जी ने तो अपने आप को जनजाति समाज से एकाकार कर लिया था। यह चर्च के लिए असहनीय भी था और चुनौती भी। दरअसल स्वामी जी चर्च के मुंह से जनजाति समाज रूपी वह शिकार छिन रहे थे जो अंग्रेज जाने से पहले उसके हवाले कर गये थे और जिसे सोनिया कांग्रेस भी सेक्यूलरिज्म के नाम पर उसे चर्च के पास ही रहने देने की समर्थक है। इसलिए स्वामी लक्ष्मणानन्द चर्च के शत्रुओं की श्रेणी में सबसे उपर ठहरते थे। टी.वी. वाले स्वामियों से तो चर्च शब्द के स्तर पर ही निपट सकता था। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती से कैसे निपटा जाये स्वामी जी शब्द शूर नहीं कर्म शूर थे। इससे पहले भी चर्च ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तरीके से भारतीयता और हिन्दुत्व के पुनर्जागरण हेतु कार्य करने वाले तपस्वियों को अपमानित करने का प्रयास किया था ताकि उनकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाये।
कुछ साल पहले जब वेटिकन के राष्ट्रपति पोप महोदय भारत आये थे तो स्पष्ट घोषणा कर गये थे कि 21वीं शताब्दी भारत में चर्च की शताब्दी होगी और चर्च मतान्तरण की फसल काटेगा। लक्ष्मणानन्द सरस्वती पोप की उसी घोषणा के आगे कैलाश पर्वत बनकर खडे़ थे। चर्च ने उसका उत्तर दे दिया है। सरकार अपने राज धर्म का पालन करने की बजाए चर्च की कठपुतली बनकर वेटिकन का एजेंडा लागू कर रही है। लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी ने भविष्य के भारत के रक्षा यज्ञ में अपनी पहली आहुति डाल दी है।
भारत में चर्च का मतांतरण अभियान और विदेशी शक्तियां
भारत को, विशेषकर भारत के जनजाति सामज को ईसाई मजहब में मतांतरित करना चर्च के विश्वव्यापी अभियान का ही एक हिस्सा है। इस अभियान में उसे पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों, खास कर नागालैंड, मेघालय व मिजोरम में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है और वहां अधिकांश जनजातियां अपने पूर्वजों की विरासत और मान्यताओं को छोड़कर चर्च की विरासत से जुड़ गई। चर्च यह अभियान ओडीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात और बिहार के जनजाति क्षेत्रों में भी तेजी से चला रहा है। इसके विरोध में जो भी खड़ा हुआ चर्च ने उसे समाप्त करवा दिया। त्रिपुरा में स्वामी शान्तिकाली जी महाराज की इसी प्रकार हत्या की गई थी। और अब 2008 में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी को मार दिया गया। स्वामी जी की हत्या से चर्च ने दो स्पष्ट संकेत दिये। पहला संदेश तो यह कि जो भी चर्च के मतांतरण अभियान के रास्ते में बाधा बनेगा उसका हश्र भी वैसा ही होगा जैसा स्वामी शान्ति काली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती का हुआ है। दूसरा संदेश यह कि भारत सरकार या फिर प्रदेश सरकार चर्च का कुछ बिगाड़ नहीं पायेगी। अलबत्ता अप्रत्यक्ष रूप से उसकी मददगार ही होगी।
लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि चर्च का मतांतरण अभियान आईसोलेटिड एक्ट नहीं है बल्कि एक बहुत ही सुनियोजित और सुव्यवस्थित विश्व अभियान है, जिसमें भारत से बाहर की भी अनेक शक्तियां प्रमुख भूमिका में है। चर्च ने अब इन विदेशी शक्तियों को भारत में आमंत्रित करके तीसरा संदेश देने का प्रयास किया है कि चर्च को मतांतरण से रोकने पर यह विदेशी देश ही कूटनीतिक स्तर पर हस्तक्षेप कर सकते है। यूरोपीय संघ ने ओडीसा में अपना जांच दल भेज कर यही संदेश दिया है।
ओडीसा में कानून व्यवस्था की जांच करने के लिए यूरोपीय संघ ने 11 सदस्यीय जांच दल पिछले दिनों भेजा था। यह जांच दल 2 फरवरी से लेकर 5 फरवरी तक चार दिनों के लिए ओडीसा में घूमता रहा। जांच दल का नेतृत्व यूरोपीय संघ के राजनैतिक मामलों के अध्यक्ष क्रिस्टोफर मैनेट और ऐने वाउगीयर कर रहे थे। उन दोनों के अतिरिक्त इस जांच दल में स्पेन के गैराडो फियो बा्रेस, हंगरी के नोर बट्र रिवालवर, पोलैंड की क्रिस्टाना, आयरलैंड की लविना कोलिनस, नीदरलैंड के एलग्जैंडर जपुस्टरवीजक, इग्लैंड की रूथ वालेमी विलस, फिनलैंड की लैलसा बाल जैंटों, स्वीडन के एंडरज सयोवर्ग और इटली के डॉ. गरेवरिले आनिस थे। नौ देशों के ये प्रतिनिधि दिल्ली स्थित इन देशों के दूतावासों में या तो प्रथम सचिव के पद पर काम कर रहे हैं या फिर काउंसलर के पद पर। जाहिर है इन सभी व्यक्तियों के पास भारत में रहने के लिए कूटनीतिक वीजा ही होगा। कूटनीतिक वीजा के धारक भारत सरकार की लिखित अनुमति के बिना किसी स्थान पर नहीं जा सकते और उस देश की आंतरिक स्थिति अथवा आंतरिक मामलों में तो बिल्कुल ही हस्तक्षेप नहीं कर सकते। इससे इतना तो स्पष्ट है कि यूरोपीय संघ के इस जांच दल को भारत सरकार ने ही ओडीसा जाने के अनुमति दी होगी। यह जांच दल 2 तारीख को भुवनेश्वर के हवाई अड्डे पर रात्रि लगभग 9 बजे पहुंचा। अगले ही दिन इस जांच दल ने कटक में पुलिस मुख्यालय में प्रदेश के महत्वपूर्ण अधिकारियों की बैठक बुलाई और उन अधिकारियों से ओडीसा की कानून व्यवस्था के बारे में लम्बी बातचीत की। प्रदेश सरकार के पुलिस महानिदेशक सरकार की और से स्पष्टीकरण देने के लिए उपस्थित थे। 4 फरवरी को यह जांच दल सड़क मार्ग से प्रदेश के सर्वाधिक संवेदनशील कंधमाल जिले में पहुंचा। वहां इस जांच दल ने नंदगिरि के पुनर्वास केन्द्र में जाकर चर्च के लोगों से बातचीत की। ध्यान रहे यह पुनर्वास केन्द्र वही है जहां कुछ महीने पहले कुछ ईसाई उग्रवादी बम बनाते हुए मारे गये थे। इसके अतिरिक्त यह जांच दल हाटपाड़ा, नीलूगिया, पीरीगढ़, के नुआगांव, बालीगुड़ा राईकिया इत्यादि स्थानों पर गये। इस जांच दल के उद्देश्यों और गतिविधियों पर चर्चा करने से पहले ओडीसा के लोगों को बधाई देना जरूरी है क्योंकि ओडीसा के लोगों ने स्थान-स्थान पर इस जांच दल का विरोध किया, इसे ओडीसा का अपमान बताया और इसके खिलाफ प्रदर्शन किये। 2 तारीख को जांच दल के हवाई अड्डे पर उतरते ही प्रदर्शनों का यह सिलसिला शुरू हो गया था। 5 फरवरी को जब यह जांच दल कंधमाल के जिला मुख्यालय में न्यायालय के न्यायधीशों को मिलने का प्रयास कर रहा था तो वकीलों के भारी विरोध के कारण यह संभव नहीं हो पाया। जांच दल को जिलाधीश कृष्ण कुमार के साथ कानून व्यवस्था की समीक्षा बैठक करके ही संतोष करना पड़ा। यह जांच दल केवल चर्च के अधिकारियों, मतांतरित ईसाइयों से ही मिलता रहा। यहां तक कि मीडिया के गिने चुने और सावधानी से तय किये गये कुछ लोगों के साथ ही इस जांच दल ने एक पाश होटल में मीटिंग की। उड़िया भाषा के पत्रकारों को पास ही नहीं फटकने दिया बल्कि उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया गया। चर्च के अधिकारियों के साथ इस जांच दल ने एक गुप्त बैठक भी की जिसमें क्या बातचीत हुई इसका ब्यौरा किसी को नहीं दिया गया। राज्य सरकार ने जांच दल के लिए कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की हुई थी। प्रदर्शनकारियों के उग्रविरोध को देखते हुए होटल में जांच दल को पिछले दरवाजे से ही ले जाना पड़ा। निष्पक्ष जिला अधिकारियों का मानना था कि इस जांच दल के कंधमाल में जाने से जनजाति के लोगों और मतांतरित ईसाइयों के बीच में तनाव बढ़ने की आशंका है , लेकिन राज्य सरकार ने उनके आकलन पर कोई ध्यान नहीं दिया।
इसी बीच जब यह जांच दल ओडीसा के विभिन्न क्षेत्रों में घूम कर कानून व्यवस्था की जांच कर रहा था तो भुवनेश्वर में आर्कबिशप राफेल चिनाथ ने एक प्रैस वार्ता बुलाई। इसमें अखिल भारतीय क्रिश्चियन कौंसिल के अध्यक्ष जॉन दयाल भी उपस्थित थे। आर्कबिशप ने इस पत्रकार वार्ता में ओडीसा सरकार और भारत सरकार पर गंभीर आरोप लगाये। आर्कबिशप के अनुसार सरकार ने चर्चो का पुननिर्माण करने के लिए अभी तक धन मुहैया नहीं करवाया और न ही जिन ईसाई परिवारों के मकानों को दंगें के दौरान नुकसान हुआ था उनको उसका मुआवजा दिया गया। आर्कबिशप ने कहा कि सरकार ईसाइयों के साथ भेदभाव कर रही है। उसने न्यायालय पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि न्यायालय ज्यादातर तथाकथित अपराधियों को छोड़ रहा है। प्रैस वार्ता से पहले इस आर्कबिशप की यूरोपिय जांच दल से लम्बी बातचीत हुई थी। जांच दल ने अपने दौरे के बाद स्पष्ट कहा कि यदि यहां मतांतरित ईसाईयों के साथ कुछ होता है तो यूरोपीय देशों पर उसका असर पड़ता है। पत्रकारों ने यह पूछा कि पिछले डेढ़ साल से आप चुप थे और यूरोपीय संघ के जांच दल के आने पर क्यों बोल रहे हैं क्या यह भी कोई बड़ी योजना है? तो आर्कबिशप कन्नी काट गये।
इस जांच दल की गतिविधियों के बारे में विस्तृत जानकारी होने के बाद अब इसके उद्देश्यों और भविष्य की रणनीति पर विचार करना आवश्यक है। सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि यूरोप के इस जांच दल को ओडिसा में कानून व्यवस्था की जांच पड़ताल करने के लिए किसने निमंत्रित किया था? निमंत्रण भेजने वाली दो ही संस्थाएं हो सकती हैं या तो भारत सरकार या फिर ईसाई संगठन। भारत सरकार और ओडीसा सरकार दोनों ही फिलहाल इस मुद्दे पर चुप हैं। कटक और भुवनेश्वर के आर्कबिशप राफेल चिनाथ से यही प्रश्न ओडीसा के उत्तेजित पत्रकारों ने किया था। प्रश्न था कि आपने बाहर के देशों के जांच दल को ओडीसा में क्यों आमंत्रित किया है? भाव कुछ इस प्रकार का था कि यह जानबूझ कर ओडीसा को अपमानित करने की साजिश है। तब चिनाथ ने इस जांच दल को निमंत्रित किये जाने से अपनी भूमिका को लेकर इंकार किया। लेकिन उसने यह जरूर कहा कि जांच दल ने उसे पत्र लिख कर यह जरूर सूचित किया था कि वह उससे मिलना चाहता है और ओडीसा में ईसाइयों की स्थिति के बारे में जानकारी लेना चाहता है। यदि इस जांच दल को भारत सरकार ने निमंत्रित नहीं किया तो जाहिर है शक की सुई आर्क बिशप के इर्द गिर्द ही घूमेगी। आगे बढ़ने से पहले आर्कबिशप के पद के बारे में जान लेना जरूरी है। जिस प्रकार भारत सरकार देश के विभिन्न जिलों में जिलाधीश नियुक्त करती है उसी प्रकार वेटिकन देश का राष्ट्रपति भारत में विभिन्न क्षेत्रों के लिए आर्कबिशपों की नियुक्ति करता है। आर्कबिशप के नीचे बिशप का पद होता है और वह एक सीमित क्षेत्र अथवा डायकोजी का मुखिया होता है। बिशपों की नियुक्ति भी भारतवर्ष में वेटिकन के राष्ट्रपति ही करते है। आर्क बिशप के उपर कार्डिनल का पद होता है और उसकी नियुक्ति भी वेटिकन के राष्ट्रपति ही करते हैं। कार्डिनल का क्षेत्र कई प्रांतों के बराबर होता है। भारत में इस समय वेटिकन के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त पाचं कार्डिनल हैं। वेटिकन के राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने के बाद नये राष्ट्रपति का चुनाव भी यह कार्डिनल करते है। 2005 में जब वेटिकन के राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था तो इन पांच कार्डिनलों में से तीन ने मतदान किया था। दो इसलिए मतदान नहीं कर सके क्योंकि उनकी उमर 80 साल से ज्यादा हो चुकी थी और वेटिकन के संविधान के मुताबिक 80 साल से ज्यादा उमर के कार्डिनल का नाम उस देश की मतदाता सूची में दर्ज नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि वेटिकन के राष्ट्रपति भारत में एक समानांतर सरकार चला रहे हैं और ये आर्कबिशप इत्यादि उस सरकार के अधिकारी हैं। इसे सुविधा के लिए भारत में वेटिकन की प्रतिनिधि सरकार अथवा ईसाई सरकार भी कहा जा सकता है। भारत में इस ईसाई सरकार की प्रजा या फिर इसके प्रति आस्था रखने वाले लोग मतांतरित ईसाई हैं। इस सरकार के अपने नियम और कायदे कानून हैं। और अपनी प्रजा पर उसे लागू करवाने का एक तंत्र भी। कंधमाल में जनजाति समाज और मतांतरित ईसाइयों में दंगा फसाद हुआ तो जाहिर है दोनों पक्षों का नुकसान हुआ होगा। इस ईसाई सरकार का यह भी कहना है कि ओडीसा सरकार ने या फिर भारत सरकार ने ही इस मौके पर ईसाइयों की पूरी सुरक्षा नहीं की। इसलिए आर्कबिशप ने यूरोपीय संघ की सरकार को जांच पड़ताल के लिए बुला लिया है। कंधमाल के उन गांवों में जहां यह जांच दल गया था वहां के मतांतरित ईसाई बड़े उत्साह में भर कर जनजाति समाज के लोगों को ललकार रहे हैं कि हमारे पीछे तो यूरोप की सरकारें है। बिशपों के एक इशारे पर वे सात समुद्रपार से हमारे साथ आ खड़े हुए हैं। फिर वे पूछते है-आपके साथ कौन है? ओडीसा का जनजाति समाज भला इसका क्या उत्तर दे? उसे इस बात का विश्वास ही नहीं है कि ओडीसा सरकार या भारत सरकार उसके साथ है। जो उनके साथ था वह लक्ष्मणानन्द सरस्वती चर्च ने मरवा दिया। जब ओडीसा सरकार उसके हत्यारों को ही नहीं पकड़ रही तो वह जनजाति समाज का क्या साथ देगी?
यूरोपीय संघ का यह जांच दल मतांतरण के लिए 150 लाख यूरो की सहायता की बात करके गया है। ऊपरी तौर पर यह सहायता विकास और कल्याण के लिए कही जायेगी लेकिन सभी जानते हैं कि इसका मकसद भारत में मतांतरण को तेज करना ही होता है।
आर्कबिशप की प्रैस कान्फ्रैंस में जब किसी ने ऐसा आरोप लगाया तो आर्कबिशप भड़क उठे। जॉन दयाल तो उनके साथ थे ही। उन्होंने कहा यूरोपीय संघ पंथनिरपेक्ष देशों का संघ है। वह ईसाई देशों का संघ नहीं है। इसलिए उस पर यह आरोप लगाना की वह ओडीसा में मतांतरण के काम मंे तेजी लाने के लिए ही आया है, गलत होगा। आर्कबिशप अच्छी तरह जानते हैं कि तुर्की को यूरोपीय संघ में इसीलिए शामिल नहीं किया जा रहा है कि वह मुस्लिम देश है। तुर्की के राष्ट्रपति ने तो संघ के इस रवैये को देख कर कहा भी था कि यूरोपिय संघ इस प्रकार व्यवहार कर रहा है मानो वह ईसाई देशों का ही संघ हो। ओडीसा में संघ के जांच दल ने इस बात को और भी पुख्ता कर दिया है। ओडीसा के एक ईसाई पी0के0 थॉमस ने ही न्यू इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादक को लिखे एक पत्र में कहा है कि यदि यूरोपीय संघ को मानवाधिकारों के हनन की ही इतनी चिन्ता है तो उन्हें तिब्बत या अलजीरिया जाना चाहिए था। ओडीसा में आकर यह जांच दल यह स्थापित करने का प्रयास कर रहा है कि भारत के ईसाइयों की निष्ठा यूरोप के देशों के साथ है क्योंकि वहां भी ईसाई बसते हैं। दरअसल यूरोपीय संघ मजहब के आधार पर भारत के ईसाईयों की देश से पार निष्ठा स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।
यहीं से भारत सरकार की भूमिका प्रारम्भ होती है। पिछले दिनों मलेशिया में हिन्दुओं पर वहां की सरकार ने अनेक प्रकार के अत्याचार किये उन्हें जेलों में बंद कर दिया गया और मन्दिर तोड़ दिये गये। क्या भारत सरकार भारत से किसी जांच दल को वहां भेज सकती थी? या फिर यदि भेजती है तो मलेशिया सरकार उसे अपने देश में इस प्रकार से जांच करने की अनुमति दे देगी जिस प्रकार की अनुमति भारत सरकार ने इस जांच दल को ओडीसा में दी है? एक और उदाहरण दिया जा सकता है। कुछ साल पहले रूस ने अपने यहां के हिन्दुओं द्वारा बनाये गये एक मन्दिर को तोड़ दिया था और इस अत्याचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हिन्दुओं को बंदी बना लिया था। वही प्रश्न फिर खड़ा होता है कि क्या रूस सरकार भारत के किसी जांच दल को अपने देश में उस प्रकार की जांच और व्यवहार करने की अनुमति दे देती जिस प्रकार का व्यवहार यूरोपीय संघ के इस जांच दल ने ओडीसा में किया है।
क्या यह भारत की प्रभुसत्ता में विदेशी दखलअंदाजी नहीं है? संविधान भारत सरकार को इस देश की प्रभुसत्ता की रक्षा करने के लिए कहता है और अब भारत सरकार इसी प्रभुसत्ता में यूरोपीय संघ की सहायता से दरारें पैदा कर रही है। यह सब कुछ इसलिए किया जा रहा है ताकि यह किया जा सके कि भारत के ईसाइयों की जिम्मेदारी या तो यूरोपीय संघ की है या फिर वेटिकन की। आर्कबिशप शायद भारत सरकार को या फिर ओडीसा की सरकार को डराना चाहते है कि हम आपके भरोसे पर मतांतरण का यह आंदोलन नहीं चला रहे बल्कि हमारे पीछे यूरोपीय संघ की ताकत है। जिन लोगों को उनकी इस बात पर भरोसा नहीं था उनके लिए उन्होंने प्रमाण हेतु यूरोपीय संघ का जांच दल ओडीसा के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया है।
प्रश्न केवल यह है कि भारत सरकार सचमुच डरी हुई है या फिर वह अंदरखाते मतांतरण के मामले में यूरोपीय संघ और वेटिकन के साथ ही मिली हुई है। मनमोहन सिंह इसका जवाब दंे या न दें लेकिन सोनिया कांग्रेस को तो इसका जवाब देना ही होगा। यह नैतिकता का भी तकाजा है और भारत के हितों का भी। जाहिर है कांग्रेस और विदेशी धन के बलबूते पर फलफूल रही सशक्त सांठ-गांठ के सूत्र इस पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिखायी देने लगते हैं। भारत में चर्च को अपना मतांतरण आंदोलन चलाने में किसी प्रकार की बाधा का सामना न करना पड़े , यह सोनिया कांग्रेस का गुप्त एजंेडाहै। जिसको कुछ पत्रकारों हिडेन एजेंडाभी कहते हैं। इस मसले पर सोनिया कांग्रेस और संघ का टकराव स्पष्ट दिखलायी देता है। सोनिया कांग्रेस संघ परिवार का भारतीयता अथवा राष्ट्रीयता के क्षेत्र में मुकाबला नहीं कर सकते क्योंकि संघ परिवार की राष्ट्रीयता और उसके प्रति प्रतिबद्धता जगजाहिर है, और प्रामाणिक भी। चर्च की पूरी लड़ाई भी इस भारतीयता अथवा राष्ट्रीयता के खिलाफ है। इसलिए कांग्रेस इस लडाई में चर्च को अपने तरीके से कुमुक पहुंचाने का कार्य कर रही है। यह तभी संभव है यदि संघ परिवार को किसी भी ढंग से अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों में अलिप्त बताकर जनता की नजर में बदनाम किया जाए। आतंकवादी घटनाओं में राष्ट्रवादी शक्तियों की तथाकथित संलिप्तता को लेकर जांच एजंेसियों और विदेशी मीडिया के एक समूह की सहायता से चलाए जा रहे अभियान को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
विकीलीक्स खुलासे से पुष्ट हुई राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध की रणनीति
विकीलीक्स के खुलासों से भारत को लेकर कांग्रेस और अमेरिका दोनों की रणनीति का कुछ सीमा तक खुलासा हुआ है। संघ परिवार और भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करने व हाशिए पर ले जाने के रणनीति पर सोनिया कांग्रेस व अमेरिका एक ही दिशा में चल रहे हैं। राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करने की रणनीति मूलतः वेटिकन की है। जिसको पूरा करने में ये दोनों सहयोग करते नजर आ रहे हैं।
विकीलीक्स ने अमेरिका सरकार के लाखों संदेश सार्वजनिक कर दिये हैं , जिसको लेकर दुनिया भर में तहलका मचा हुआ है। अमेरिका के अलग अलग देशों में जो दूतावास हैं, वे वहां से वाशिंगटन को समय समय पर संदेश भेजा करते हैं। यह संदेश उस देश की आंतरिक अवस्था के बारे में टिप्पणियां या आकलन होते हैं। जाहिर है जमीनी स्तर से मिली हुई इन जानकारियों से ही अमेरिका अपनी विदेश नीति बनाता है। और दूसरे देशों में अपनी भावी राजनीति को अंतिम रूप देता है। मीडिया, भारत में इन खुलासों को लेकर इतना शोर मचा रहा है कि उसकी आवाज में सोनिया कांग्रेस और अमेरिकी सरकार के भारत सम्बन्धी षड्यंत्र से ध्यान हटता जा रहा है। हो सकता है मीडिया के एक वर्ग की, जो मुख्य तौर पर विदेशी मालिकों से संचालित है, यह भी एक सोची समझी योजना हो। इसलिए जरूरी है कि विकीलीक्स के इन खुलासों की पृष्ठ भूमि में भारत को लेकर रचे जा रहे षड्यंत्र को ठीक ढंग से समझा जा सके। सबसे पहले गुजरात में वहॉं के मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी को खत्म करने के लिए एक बड़े षड्यंत्र की रूपरेखा। इन खुलासों से स्पष्ट हो गया है कि नरेन्द्र मोदी को मारने के लिए लश्कर-ए-तोयबा एक लम्बे समय से अपना जाल बुन रहा है, जिसकी पूरी जानकारी अमेरिका को थी और है। भारत सरकार का कहना है कि अमेरिका ने इसकी सूचना उसको नहीं दी। फिलहाल तर्क के लिए भारत सरकार की इस बात को स्वीकार किया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका चाहता था कि लश्कर-ए-तोयबा मोदी को मारने के अपने इस अभियान में सफल हो जाये। अमेरिका का अपना एक एजेंट भी भारत में इसी प्रकार की आतंकवादी योजनाओं में तालमेल बिठाने और उन्हें निष्पादित करने में सक्रिय था। हेडली नाम का यह व्यक्ति पाकिस्तान की आईएसआई के लिए भी काम कर रहा था और अमेरिका की सीबीआई के लिए भी। ऊपर से देखने पर लगता है कि हेडली डबल क्रास कर रहा था। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। क्योंकि पाकिस्तान की आईएसआई और अमेरिका की सीआईए व्यवहारिक रूप में एक दूसरे से सहयोग करके ही चल रहे हैं। डेविड कोलमैन हेडली इस सहयोग का उत्ड्डष्ट नमूना है। इसका वास्तविक नाम दाऊद सैयद गिलानी है और यह मूलतः पाकिस्तान का रहने वाला है। बाद वह अमेरिका का नागरिक बन गया। स्वाभाविक है कि यदि वह अपने असली नाम से बार बार भारत के चक्र लगाता तो निश्चय ही सुरक्षा एजेंसियों की नजर में आ सकता था। इसलिए अमेरिका ने उसे हेडली के नाम से पासपोर्ट प्रदान किया। अमेरिकी पासपोर्ट और उपर से हेडली नाम। कोई भी कल्पना कर सकता है कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नजर आसानी से उस पर नहीं पड़ेगी। इसलिए वह लम्बे समय तक भारत में आतंकवादी योजनाएं बनाने में और उनको निष्पादित करने के लिए आवश्यक संरचनागत ढांचा तैयार करने के काम में लगा रहा। लेकिन सी0आई00 के दुर्भाग्य से वह अमेरिका में ही पकड़ा गया और मीडिया के चलते यह खबर छिपी भी नहीं रह सकी। अब अमेरिका की चिन्ता बढ़ना स्वाभाविक था। यदि नियमानुसार उसे भारत को सौंपना पड़ा तो न जाने वह अमेरिका के कितने राज उगल दे। इसलिए अमेरिकी सरकार ने उससे तुरंत अपने अपराधों की स्वीड्डति करवाई और उसे जेल में बंद कर दिया। यानी एक प्रकार से उसे भारत की जांच एजेंसियों की पहंुच से बाहर कर दिया। वैसे भारत सरकार की रूचि भी हेडली से बचने की ही रही क्योंकि यदि जांच एजेंसियां उससे गहन पूछताछ करती तो हो सकता था, भारत सरकार की आतंकवादियों से लड़ने की अपनी नीति की राजनीति के ढोल की पोल खुल जाती।
अमेरिका सरकार जानती थी कि लश्कर-ए-तोयबा भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी की हत्या की तैयारियां कर रहा है। इसके बावजूद वह लश्कर-ए-तोयबा को इस हत्या के लिए एक काल्पनिक साम्प्रदायिक और उन्मादित आधार प्रदान करने के काम में जुटी हुई थी। नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा न देना इसी बड़ी योजना का एक हिस्सा था। किसी को वीजा देना या न देना अमेरिका की सरकार का अपना अधिकार है। इसके लिए उस पर उगली नहीं उठाई जा सकती और न ही किसी को अमेरिका की पर्दे के पीछे की भूमिका पर शक हो सकता था। परन्तु नरेन्द्र मोदी को वीजा न देने के कारणों की आड़ में अमेरिका ने जो प्रवचन दिया, वह अप्रत्यक्ष रूप से लश्कर-ए-तोयबा और अन्य आतंकवादी संगठनों को मोदी की हत्या के लिए प्रेरित करने जैसा ही था। अमेरिका ने मोदी पर मुस्लिम विरोधी होने, मुसलमानों का नरसंहार करनवाने इत्यादि के न जाने कितने आरोप मढ़े। यह ठीक है कि अमेरिकी सरकार द्वारा दिये गये कारण कुतर्क की श्रेणी में आते हैं। परन्तु अमेरिका भी जानता है कि लश्कर-ए-तोयबा जैसे संगठनों को आतंकवाद की प्रेरणा के लिए कुतर्कों की ही जरूरत होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका मोदी की हत्या होते चुपचाप देखते रहने का इच्छुक था। यदि उसकी ऐसी इच्छा न होती तो निश्चय ही वह यह सूचना भारत सरकार को देता। अब दूसरी संभावना पर भी विचार कर लेना चाहिए। मान लीजिये अमेरिका ने भारत सरकार को यह सूचना मुहैया करवा दी थी। तब भारत सरकार ने इस छिपा कर रखा इससे भी भारत सरकार की मंशा पर प्रश्न चिन्ह लगता है। यहॉं तक ही बस नहीं गुजरात की सुरक्षा एंव जांच एजेसियां अपने बलबूते गुजरात में आतंकवाद को लेकर की जाने वाली घटनाओं की जानकारी हासिल करती है और जान हथेली पर रख कर पुलिस के लोग आतंकवादियों से टक्कर लेते हैं। जब किसी आतंकवादी की इस टक्कर मेें मौत हो जाती है तो कुछ लोग तुरन्त मरे हुए आतंकवादियों के पक्ष में और आतंकवाद का मुकाबला करने वाले पुलिस बल के खिलाफ मानवाधिकार के नाम पर मोर्चा लगा लेते है। तीस्ता सीतलवाड़ तो गुजरात में आतंकवादियों के खिलाफ की गई कार्यवाहियों को अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाओं में उठाती रहती है। यहॉं तक कि न्यायालय को भी उसके इस व्यवहार पर आपत्ति करनी पड़ी। सीतलवाड़ पर गवाहों को डराने धमकाने के आरोप भी न्यायालय में लगते रहे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि लश्कर-ए-तोयबा गुजरात में नरेन्द्र मोदी को मारने का प्रयास करेगा और कुछ लोग उससे पहले वहॉं के पुलिस बल को हतोत्साहित करने का प्रयास करेंगे। इशरतजहां और सोहराबुद्दीन के मामलों से ऐसे ही संकेत मिलते हैं। दुर्भाग्य से भारत सरकार तीस्तासीतलवाड़ों के साथ खड़ी दिखाई देती है न कि लश्कर-ए-तोयबा का साजिशों को विफल करने वालोें के साथ।
आतंकवाद के प्रति दृष्टि-सरकार के इस व्य्ावहार से दो स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। प्रथम तो य्ाह कि वह देश की आतंकवादिय्ाों से सुरक्षा करने में ही अक्षम है। द्वितीय्ा य्ाह कि वह मुस्लिम वोटों के लालच में उनका तुष्टिकरण करने के लालच में आतंकवाद को समाप्त ही नहीं करना चाहती बल्कि उसका मजहबी दोहन करना चाहती है। इसलिए वह आतंकवाद से सख्ती से निपटना ही नहीं चाहती। तीसरा यह कि सोनिया कांग्रेस मतांतरण के काम में लगी विदेशी ईसाई मिशनरियों की भीतरी सांठगांठ है। यह मिशनरियां जनजातीय समाज में मसीही आतंकवाद फैलाने के काम मे लगी हुई हैं और सरकार इनका साथ दे रही है। त्रिपुरा में शांतिकाली जी महाराज और ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या व गुजरात में अब स्वामी असीमानंद की तथाकथित आरोपों में गिरफ्तारी इसी का प्रमाण है।
देश के लिए य्ाह तीनों स्थितिय्ाां घातक हैं। लेकिन एक चौथे मोर्चे पर सरकार का व्य्ावहार चौंकाता भी है और उसकी भविष्य्ा की रणनीति का संकेत भी करता है। जैसे ही विश्व जनमत का पाकिस्तान पर दबाव बढने लगता है कि वह भारत में आतंकी गतिविधिय्ाां समाप्त करे और भारत में हुए आतंकी कारनामों में जिम्मेदार लोगों और संगठनों से सख्ती से निपटने लगी भारत सरकार इन विस्फोटों में हिन्दु आतंकवाद का हौआ खड़ा करके पाकिस्तान की आक्रमक होने की एक स्वनिर्णय्ा अवसर प्रदान कर देती है। समझौता एक्सप्रेस में हुआ विस्फोट इसका ताजा उदाहरण है। सिम्मी के अध्य्ाक्ष नागौरी ने नोटंकी तौर में कबूल किया है कि यह कारनामा उसके संगठन ने लश्करे तोयबा की सहायता से किया था और इसमें पाकिस्तान का हाथ है, अब भारत सरकार इतने सालों बाद स्वयं की सिमी और लश्करे-तोयबा को इन विस्फोट में क्लीन चिट दे रही है।
प्रत्येक आतंकी घटना में सोनिया कांग्रेस ने एक खास पैटर्न विकसित कर लिया है। जैसे ही किसी आतंकी घटना में सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में आतंकी मारे जाते हैं वैसे ही सोनिया कांग्रेस के जिम्मेदार लोग और तथाकथित मानवाधिकार संगठनों के उनके सहाय्ाक तुरंत मुठभेड़ को नकली घोषित कर देते हैं और सुरक्षा बलों के खिलाफ कार्रवाई की मांग शुरू कर देते हैं। दिल्ली में बाटला हाउस मुठभेड़ कांड में मारे गए मुस्लिम आतंकवादिय्ाों का पक्ष लेते हुए सोनिया कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय्ा सिंह ने शहीद हुए पुलिस अधिकारी मोहन चंद्र शर्मा की शहादत को लांछित किय्ाा। य्ाही कायर््ा उन्होंने 26/11 में शहीद हुए हेमंत करकरे को लेकर किय्ाा। य्ाह अलग बात है कि दोनों केसों में शहीद के परिवार वालों ने शहीदों की चिताओं पर राजनीति करने के लिए सार्वजनिक रूप से सोनिया कांग्रेस महासचिव दिग्विजय्ा सिंह की भर्त्सना की। लेकिन दिग्विजय्ा सिंह य्ाहीं तक नहीं रुके। वे मारे गए आतंकवादिय्ाों के गृह क्षेत्र आजगमढ़ में उनके परिवारों को अपना समर्थन देने के लिए पहुंचे। वोटों की खातिर मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कोई संगठन इस हद तक जाएगा इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी।
दोनों सामी सम्प्रदायों मसलन इस्लाम व ईसाइयत के विदेशी उपासकों ने भारत पर लम्बे अरसे तक राज किया है। लेकिन उनका दर्द यह है कि वे भारत की मूल पहचान को समाप्त नहीं कर सके। बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में ये दोनों, अपनी नई रणनीति बनाकर इस काम में जुटे तो रास्ते में संघ परिवार खड़ा है इसलिये ये शक्तियां संघ को अपने रास्ते की बाधा मानती हैं। इसलिए उन्होंने संघ को प्रहार का निशाना बनाया हुआ है। पिछली कुछ अरसे से चर्च द्वारा प्रमुख साधु-संयासियों की हत्या इन शक्तियों की भविष्य की रणनीति का संकेत देती हैं। भारत में आतंकवाद से निपटने में सोनिया कांग्रेस का दोहरा आचरण तो स्पष्ट है कि अमेरिका का दोगला व्यवहार भी स्पष्ट दिखायी देता है। अमेरिका स्वयं तो पाकिस्तान के भीतर घुसकर ओसामा बिन लादेन को मारने के अपने अधिकार की वकालत करता है, लेकिन पाकिस्तान में बैठकर भारत में आतंक फैला रहे आतंकी संगठनों के खिलाफ इसी प्रकार की कार्यवाही के भारतीय अधिकार का विरोध करता है। अलबत्ता जहां तक भारत में संघ परिवार और राष्ट्रवादी शक्तियों पर आक्रमण करने का प्रश्न है, उसमें सोनिया कांग्रेस और अमेरिका एक ही धरातल पर खडे़ नजर आते हैं।
पंजाब के इतिहास में भी मीर मन्नू का उदाहरण सामने आता है। इस विदेशी आक्रांता ने पंजाबियों पर अमानुषिक अत्याचार किए और उन पर अमानुषिक अत्याचार किये। तब पंजाब में एक लाोकउक्ति है-

मन्नू असाडी दातरी, असी मन्नू दे सोये।
ज्यूं -ज्यूं मन्ने बड्ढ दा, असी दूणे चौणे होए।
सोया सरसो की जाति का एक पौधा होता है उसे जितना काटा जाता है वह उतना ही फलता फूलता है। इसी तरह मन्नू पंजाबियों को जैसे मारता-काटता था वैसे -वैसे उनका उत्साह बढ़ता, वे फलते -फूलते जाते थे।
सरकार ज्यों -ज्यों संघ पर प्रहार करेगी त्यो -त्यों संघ फलेगा -फूलेगा। यह भारतीय इतिहास की परम्परा है। लेकिन दुर्भाग्य से साम्यवादियों का भारतीय इतिहास से कुछ लेना -देना नहीं है और कांग्रेस का उद्देश्य ही भारतीय पहचान व इतिहास को नकारना है। सरकार द्वारा संघ पर किया गया यह प्रहार भारतीय परम्परा पर किया गया प्रहार है और निश्चय ही भारतीय परम्परा इस प्रहार को निष्प्रभावी कर देगी।
उपसंहार
जिन दिनों भारत सरकार और कांग्रेस मिलकर विश्व में हिन्दु आतंकवाद अथवा भगवा आतंकवाद की अवधारणा का नाम करण प्रचारित -प्रसारित करने के प्रारम्भिक प्रयास कर रही थी। उन्हीं दिनों अभिनव भारत नाम की संस्था के प्रमुख सूत्रधारों की गोपनीय बातचीत के कुछ अंश दिल्ली से प्रकाशित तहलका पत्रिका ने प्रकाशित किये थे। इसी अभिनव भारत को आगे करके एक समूह हिन्दु आतंकवाद की अवधारणा को लोगों के गले उतराने में जुटा हुआ है। अब लगभग यह माना जाने लगा है कि अभिनव भारत भी कांग्रेस की उसी प्रकार की नई किश्ती है, जिस प्रकार की एक और कश्ती भिंडरावाले के नाम से पंजाब में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्थापित की थी। यद्यपि कांग्रेस का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से परम्परा और विरासत के लिहाज से कुछ लेना देना नहीं है। कांग्रेस सोनिया माईनो के नेतृत्व में स्थापित एक नया राजनैतिक दल है जिसने अत्यन्त चतुराई से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ढांचे पर कब्जा कर लिया है ताकि भारत के लोग धोखे में आ सके। इसी षड्यंत्र और चतुराई से कांग्रेस को हिन्दुस्तान में ही हिन्दु आतंकवाद की अवधारणा को प्रचारित करने की जरूरत थी। इससे सोनिया माईनो के नेतृत्व में काम कर रही शक्तियों के गुप्त एजेंडे की पूर्ति हो सकती थी। इस पृष्ठभूमि में अभिनव भारत के सूत्रधारों की वह गोपनीय बातचीत अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि अभिनव भारत सोनिया कांग्रेस के एक बड़े एजेंडे के लिए शतरंज का एक मोहरा भर है। बातचीत से मुख्य मुद्दे और संकेत उभर कर सामने आते हैं वह सोनियां कांग्रेस की भविष्य की राजनीति का संकेत देते है। बातचीत के अनुसार -
1. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दु विरोधी संगठन है और वह हिन्दुओं के हितों की रक्षा करने में असफल हुआ है।
2. संघ मुसलमानों के तुष्टीकरण में लगा है और इसमें पाकिस्तान की आईएसआई के भी लोग हैं।
3. इसलिए जरूरी है कि संघ के प्रमुख लोगों यथा मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार की हत्या की जाये।
4. अभिनव भारत की इस योजना में कुछ समविचारी ईसाई और ईसाई संस्थाएं भी शामिल हैं।
जिन दिनों अभिनव भारत के सूत्रधारों की यह बातचीत प्रकाशित हुई थी उन दिनों ऐसी ईसाई संस्थाओं की शिनाख्त को लेकर बहुत हो हल्ला हुआ था। परन्तु सोनिया कांग्रेस ने बहतु चतुराई और खुबसूरती से मीडिया के उस वर्ग की सहायता से, जिस पर विदेशी कम्पनियां का कब्जा है, इस मुद्दे को मीडिया से बिल्कुल ब्लैक आउट कर दिया। अलबत्ता भारत सरकार की जांच ऐजसियों ने कांग्रेस के इशारे पर हिन्दु आतंकवाद को प्रचारित करने की अपनी गुप्त योजना मंे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी आरोप लगाने शुरू कर दिये। कांग्रेस के लिए अभिनव भारत तो लांचिग पैड था अन्ततः उस संघ को ही आतंकवादी घोषित करना था। लेकिन इसमें इसाई संस्थाओं की भूमिका को लेकर अभी भी रहस्य बना हुआ था।
अब उस रहस्य की परते धीरे धीरे उठने लगी हैं। इसका पहला संकेत तब मिला जब सरकार ने समाझौता एक्सप्रैस इत्यादि बम विसफोटों मंे गुजरात के स्वामी असीमानंद का नाम घसीटना शुरू किया गुजरात के जनजातिय क्षेत्रों में कार्य कर रहे असीमानंद एक लम्बे अर्से से चर्च की आंख की किरकिरी बने हुए थे। जहां तक कि वेटिकन में भी असीमानंद के कार्यकलापों को लेकर चिंता जताई जा रही थी। विदेशी पैसे के बल पर चर्च गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में लम्बे अरसे से मतांतरण आंदोलन चला रहा है। असीमानंद के सांस्कृतिक जनजागरण अभियान के कारण उस आंदोलन की गति मंद पड़ गई थी। इसलिए चर्च किसी भी प्रकार से असीमांनद को मार्ग से हटाने के रास्ते ढूंढ रहा था। जब अचानक सरकार की जांच एजेंसियों असीमानंद को आतंकवाद से जोड़ने लगी तो भारत के लोगों को तभी लगने लगा था कि शायद चर्च की योजना को पूरा करने के लिए असीमानंद की बलि दे रही है।
लेकिन हाल के संकेतों से यह बिल्कुल ही स्पष्ट होने लगा है कि इस मामले में चर्च और सरकार केवल मिले हुए ही नही हैं बल्कि एक सांझी रणनीति के तहत कार्य भी कर रहे हैं। इसके कुछ पुष्ट प्रमाण पिछले दिनों मिले। जान दयाल नाम के एक सज्जन ने अखिल भारतीय इसाई परिषद के नाम से एक संस्था चला रखी है यह संस्था इधर उधर से काफी पैसा भी इकट्ठा करती रहती है। जॉन दयाल की गतिविधियां सदा ही संदेहास्पद रही हैं और उनकी जांच करवाने की मांग होती रहती है। इसी प्रकार की एक दूसरी संस्था ग्लोबल ईसाई परिषद के नाम से किसी जॉर्ज नाम के व्यक्ति ने चला रखी है। उसकी संस्था के धन सत्रांे को लेकर भी उगलियां उठती रहती हैं। जॉन दयाल और जॉर्ज में विरोधी भाव भी विद्यमान रहता है। इसका कारण जर जमीन कुछ भी हो सकता है। जॉन दयाल भारत में हिन्दुओं के खिलाफ इधर-उधर चिट्ठियां लिखते रहते हैं और जॉर्ज भी यही धंधा करते हैं। चर्च द्वारा पोषित मीडिया का एक वर्ग इन दोनों को खूब उछालता रहता है। पिछले दिनों जॉन दयाल ने भारत की राष्ट्रपति को एक पत्र लिखकर कहा कि उड़ीसा में 2008 में हुई स्वामी लक्ष्माणनंद सरस्वती की हत्या के बाद हुए दंगों को भड़काने में इन्द्रेश कुमार का हाथ था। उसके कुछ दिनों बाद ग्लोबल ईसाई परिषद के जार्ज भुवनेश्वर में एक धरने पर ही बैठ गये और उन्होंने भी राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख मारी कि इन दंगों में स्वामी असीमांनद और इन्द्रेश कुमार दोनों का ही हाथ था। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की उड़ीसा के कंधमाल जिला में हत्या 2008 में हुई थी और उसके तुरन्त बाद वहां ईसाईयों और हिन्दुओं में झड़पें हुई थीं जिसमें अनेक लोग मारे गये थे। उड़ीसा सरकार ने दंगों की जांच के लिए जस्टिस महापात्र आयोग स्थापित किया है। दंगों के तीन साल बाद अचानक कुछ ईसाई संस्थाएं इसमें इन्द्रेश कुमार को लपटने में क्यों और कैसे सक्रिय हो गई, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। यह ध्यान रहे कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या चर्च ने माओवादियों की सहायता से करवा दी थी।
सरस्वती भी उड़ीसा के जनजातीय क्षेत्रों मेें चर्च के मतांतरण आंदोलन का उसी प्रकार विरोध कर रहे थे जिस प्रकार गुजरात में स्वामी असीमांनद कर रहे थे। सरस्वती के हत्या करवाये जाने पर जनजातीय क्षेत्र अत्यन्त क्रोधित थे लकिन चर्च की योजना का दूसरा चरण शायद दंगे भड़काकर वहॉं से हिन्दुओं को निर्वासित करना या डरा कर खामोश करना था। इसी जॉन दयाल और इसके एक और साथी राधा कांत नायक जो मतांतरण करके इसाई हो चुके हैं, जिन्होंने अपनी नौकरी के दौरान चर्च के मतांतरण आंदोलन को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग दिया और बाद में जिनको सोनिया कांग्रेस ने राज्यसभा का सदस्य बना दिया ताकि वे मतांतरण आंदोलन को और भी शक्ति से चला सके, ने सरस्वती की हत्या के बाद क्षेत्र का व्यापक दौरा किया और उसके तुरंत बाद वहां दंगे भड़क उठे। लेकिन इन दंगों में हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए जॉन दयाल एंड कम्पनी ने यह आरोप भी लगाया कि हिन्दुओं ने एक नन के साथ सामूहिक ब्लात्कार किया। यह अलग बात है कि जब यह कैसे कचहरी में चला गया तो उसी नन ने इसको लटकाने के लिए न जाने के लिए कितने प्रयास किये। सरकार की मिली भगत से कंध जन जाति के न जाने कितने हिन्दू अभी भी इन दंगों के नाम पर जेलों में सड़ रहे हैं। लेकिन सोनिया कांग्रेस की रणनीति हिन्दू आतंकवाद को केवल मुस्लिम समुदाय से जोड़ कर पूरी नहीं हो जाती, उसको इसे चर्च से जोड़ना हैं, ताकि हिन्दू आतंकवाद के भूत को पूरे यूरोप और अमेरिका में घुमाया जा सके। जॉन दयाल और जार्ज द्वारा इकट्ठे होकर इन्द्रेश कुमार का इन दंगों में नाम लेना इस बात की और संकेत भी करता है कि किसी तीसरी शक्ति ने, जो इन ईसाई संस्थाओं को धन मुहैया करवाती है, इन दोनों को आपसी मतभेद भुला कर संघ के खिलाफ मिलकर मोर्चा खोलने के लिए कहा होगा ताकि कांग्रेस के गुप्त एजेंडे मंे असानी से रंग भरे जा सके। अभिनव भारत के सूत्रधार अपनी गोपनीय बातचीत में अपनी पूरी योजना में जिन इसाई संस्थाओं की भागीदारी की बात की है, जॉन दयाल और जार्ज की गतिविधियों से उसका रहस्य कुछ सीमा तक खुलता नजर आ रहा है। माओवादी भी चर्च की इसी योजना का एक हिस्सा हैं, वैसे तो यह स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या से ही स्पष्ट हो गया था, लेकिन पिछले दिनों उड़ीसा के गजपति में प्रमुख माओवादी महिला नेत्री आरती ने एक प्रैस कांफ्रेंस में माओवादी आंदोलन से अपने मोहभंग का जिक्र करते हुए कहा कि माओवादी भी चर्च की सहायता से हिन्दुओं का मतांतरण कर रहे हैं और उन्हें वैचारिक आधार पर गौ मांस खाने के लिए विवश किया जा रहा है। जाहिर है कांग्रेस - चर्च-माओवादी आंदोलन का सांझा गुप्त एजेंडा भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करना है। हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा उसी गुप्त एजेंडा की आईटम है और इसके लिए चर्च की सहायता से इसको विश्वव्यापी भी बनाया जा सकता है। और कल को विदेशी शक्तियों द्वारा भारत में हस्तक्षेप का बहाना भी।
पिछले दिनों राजीव मल्होत्रा और अरबिंदन नीलकंदन की पुस्तक ब्रेकिंग इंडिया प्रकाशित हुई है। यह ग्रंथ वर्तमान परिस्थितियों में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। राजीव मल्होत्रा के अनुसार, ‘भारत के टुकड़े कर देने की साजिश में लगे अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मिशनरियों ने अपने जाल रच रखे हैं। कई स्वयंसेवी संगठनों, एनजीओ, मानवाधिकार संगठन और मिशनरी संस्थाओं की बताई दिशाधारा में चलने वाले बु(िजीवी इसी तंत्र का हिस्सा हैं। इन सबके जरिए भारत को कम से कम 12 देशों में तोड़ने का षड्यंत्र हैं। इन टुकडों में मुस्लिम बहुल, ईसाई बहुल, द्रविड़, दलित, आदिवासी, पर्वतीय, सीमांत क्षेत्रीय आदि इलाके हैं। देश को जितने टुकड़ों में बांटने की मंशा है यदि वह पूरी हो जाए तो भारत और भारतीय संस्कृति कहीं बचे ही नहीं। ;अमर उजाला, 17 जुलाई, 2011, ज्योतिर्मय से बातचीतद्ध इससे आगे एक और परिकल्पना पर विचार कर लेना भी उचित रहेगा। अभी शायद यह परिकल्पना दूर की कौड़ी लग सकती है। लेकिन विश्व राजनीति में जिस प्रकार की घटनाएं घटित हो रही है उनसे इंकार नहीं किया जा सकता। मध्य एशिया के तेल के भंडारों वाले कई देशों में पिछले दिनांे जन विद्रोह हुए हैं और कुछ में अभी भी हो रहेे हैं। ये जन विद्रोह वहां के सरकारों के स्वरूप को लेकर हैं। इन देशों में राजशाही के स्वरूप वाली सरकारें विद्यमान हैं और अमेरिका अभी तक इन सरकारों का सख्ती से समर्थन करता रहा है। लेकिन अभी जो जन विद्रोह हुए हैं उनके बारे में विद्वानों में विभिन्न-विभिन्न राय हैं। विश्व राजनीति में गहरी परख रखने वाले कुछ विद्वानों का मानना है कि ये विद्रोह अमेरिका के इशारे पर ही करवाए जा रहे हैं। लेकिन देश में सरकार के स्वरूप को लेकर जो विद्रोह मध्य एशिया के इन तेल बहुल इस्लामी देशों में हुए उसके बाद अमेरिका और उसके समूह में शामिल देश तुरंत प्रदर्शनकारियों के पक्ष में ही नहीं उतर आए बल्कि सरकार से लड़ने के लिए प्रदर्शनकारियों को युद्ध सामग्री मुहैया करवाने लगे।
इतना ही नहीं अमेरिका और उसके समर्थक देशों का सैन्यबल भी प्रत्यक्ष ही समर्थनकारियों की सहायता के लिए उपस्थित हो गया। मिस्र, लीबिया और सीरिया सब जगह अमेरिका यही कहानी दोहरा रहा है। इससे पहले आतंकवाद से लड़ने के नाम पर वह यह प्रयोग इराक में कर ही चुका है। पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश नहीं मानता लेकिन अपनी राजनैतिक सुविधा के अनुसार अफगानिस्तान पर उसका अप्रत्यक्ष कब्जा है हीं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अमेरिका अपनी सुविधा के अनुसार कभी आतंकवाद के नाम पर, कभी लोकतंत्र के नाम पर, कभी भ्रष्टाचार के नाम पर और कभी सांप्रदायिकता के नाम पर दूसरे देशों में प्रत्यक्ष दखलंदाजी करने का रास्ता स्वयं ही निर्धारित करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इन अवधारणाओं की व्याख्या भी अपनी राजनीति को ध्यान मंे रखकर करता है और किन देशों में दखलंदाजी करनी है इसका चयन भी अपने हितों को ध्यान में रखकर करता है। चीन में तानाशाही उसकी नजरों से ओझल है और मिस्र की तानाशाही उसके आत्मा को उद्वेलित करती है। चीन के श्यानमान चौक में मर रहे प्रदर्शनकारी और तिब्बत पर चीनी कब्जा उसकी दृष्टि में उपेक्षित है लेकिन सीरिया और लीबिया के प्रदर्शन लोकतंत्र की रक्षा के लिए अमेरिका बहुत महत्वपूर्ण मानता है। इतना भी स्पष्ट है कि जब किसी देश में वहां की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन होंगे तो प्रदर्शनकारियों में से कुछ लोग सहायता के लिए अमेरिका इत्यादि को आमंत्रित भी कर सकते हैं। खास कर के तब जब प्रदर्शन करवाने के पीछे भी अमेरिका की कुछ शक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हाथ हो।
इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए भारत के संबंध में इस परिकल्पना के बारे मंे विचार करना होगा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपदस्थ करके उसकी काया पर सोनिया गांधी ने कई साल पहले कब्जा कर ही लिया था। उसी कांग्रेस कालांतर में भारत की सत्ता पर कब्जा जमा लिया। अब कांग्रेस और देशी विदेशी सहायक भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कठघरेे में खडा करने के लिए हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद का हौवा खडा कर रही है। इतना स्पष्ट है कि भारत मंे राष्ट्रवादी शक्तियों के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे हुए अन्य राजनैतिक, श्रमिक और विद्यार्थी समूहों को माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी भारत की राजनीति के कंेद्र बिंदु में स्थापित हो चुकी है। यह तथ्य कांग्रेस और चर्च केे लॉबी के प्रभाव में अपना सांस्कृतिक एजेंडा तय करने वाले अमेरिका इत्यादि देशों की आंख में खटकता है। इसलिए कांग्रेस भारत में हिंदू आतंकवाद का शोशा उछालती है और अमेरिका इसे अपने माध्यमों से दुनिया भर में स्थापित करता है। इतना ही नहीं वह अपने अंतर्राष्ट्रीय मजहबी अधिनियम की सहायता से इस मामले में कांग्रेस की सहायता भी करता है। इस मामले में कांग्रेस और अमेरिका एक ही स्वर में बोलते हैं। अमेरिका द्वारा मजहबी अधिनियम के अंतर्गत जारी की गई पिछले सात-आठ साल की रपटें इसका प्रमाण है। भारत में अमेरिकी राजदूतावास और अनेक शहरों में फैले उसके कॉउंस्लेट देशभर में राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ असंतोष फैलाने का कार्य करते रहते हैं। भारत सरकार के कुछ उच्च पदस्थ अधिकारी भी देश की भीतरी रपटें अमेरिकी राजदूतावास को पहुंचाते रहते हैं।
मान लीजिए आने वाले कुछ वर्षों में भारत में राष्ट्रीय शक्तियों की सत्ता आ जाती है। कांग्रेस के लोग भारत सरकार पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर उसके खिलाफ प्रदर्शन करते हैं। कांग्रेस यह घोषणा करती है कि राष्ट्रवादियों शक्तियों की सत्ता का अर्थ है कि देश की सरकार हिन्दू आतंकवादियों के हाथ में चली गई है। गहराई से सोचने पर यह आभास मिलता है कि हिन्दू आतंकवाद शब्द का आविष्कार भी भविष्य की इसी संभावना को ध्यान में रखकर किया गया है। दिल्ली स्थित अमेरिका का दूतावास कांग्रेस के इस आरोप की पुष्टि कर देता है।
अमेरिका की जो लॉबी भारत में इस समय सक्रिय है वह प्रदर्शनकारियों के बहाने अमेरिका से प्रार्थना करती है कि वह इस मामले में दखलंदाजी करे और देश को हिन्दू आतंकवादियों से मुक्त करवाए। तब अमेरिका को भारत में प्रत्यक्ष दखलंदाजी करने का अवसर प्राप्त हो जाता है और वह इस देश में आकर बल प्रयोेग से सत्ता अपने समर्थकों को संभाल देता है। वैसे भी अमेरिका ने यह घोषणा कर रखी है कि दुनिया में जहां भी आतंकवाद होेगा अमेरिका वहीं उससे लडे़गा। इसके लिए उसे किसी से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। इराक में वह ऐसा कर चुका है। आतंकवाद कहां है और आतंकवाद से उसका क्या अभिप्राय है यह निर्णय अमेरिका स्वयं करेगा। फिलहाल यह संभावना बहुत दूर की लगती है लेकिन राजनीति में किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता और स्टेट्समैन इसी प्रकार की दूर की संभावनाओं की देखते हुए उससे बचाव के लिए अपनी रणनीति तैयार करते हैं। सोनिया कांग्रेस द्वारा भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ छेड़ा गया अभियान और काल्पनिक हिन्दू आतंकवाद को स्थापित करने की छटपटाहट भविष्य की इस संभावना की ओर भी संकेत करती है। 13 जुलाई को मुंबई में सायं को एक साथ 3 बम विस्फोट अलग अलग स्थानों पर हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसमें 30 लोग मारे गये और 130 से भी ज्यादा लोग घायल हुए। भारत सरकार के गृहमंत्री चिदम्बरम का कहना है कि इसे गुप्तचर संस्थाओं की असफलता नहीं माना जा सकता क्योंकि गुप्तचर संस्थाओं के पास इस प्रकार के धमाकों की कोई पूर्व सूचना नहीं थी। यदि इसकी व्याख्या की जाये तो इसका अर्थ तो यही हो सकता है कि आतंकवादियों को अपने षड्यंत्रों की पूर्व सूचना चिदम्बरम के विभाग को दे देनी चाहिए, उसके बाद वे उसकी रोकने की कोशिश करेंगे। वैसे इन बम विस्फोटों के लेकर सरकारी रवैये और सरकारी नीति का खुलासा युवराज राहुल गांधी ने विस्फोटों के तुरंत बाद स्वयं ही कर दिया था। उनके अनुसार ऐसे आतंकवादी हमलों को भारत जैसे बड़े देश में रोकना संभव नहीं है। जाहिर है कि इस सरकारी नीति की घोषणा करने से पहले सोनिया कांग्रेस के इस महासचिव ने पार्टी की अध्यक्षा और अपनी मां सोनिया गांधी से सलाह मशविरा किया ही होगा। सोनिया कांग्रेस के छोटे बड़े सभी नेताओं को आतंकवादी हमलों को लेकर अपनी पार्टी के दृष्टिकोण का स्पष्ट संकेत मिल गया तो उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर बाकायदा इसकी घोषणा भी शुरू कर दिया। एक मंत्री ने कहा कि मुम्बई में पूरे 31 महीने बाद बम विस्फोट हुए हैं। बीच के समय में मुम्बई शांत रही। यह यूपीए सरकार की सबसे बड़ी सफलता है। दूसरा मंत्री तो उससे भी दो कदम आगे निकल गया उसने कहा, कांग्रेस के राज में आतंकवादी हमलों के मामले में भारत की स्थिति पाकिस्तान से कहीं बेहतर है। पाकिस्तान में तो हर हफ्ते विस्फोट होते हैं और मुंबई में पूरे 31 महीने बाद हुए है। तीसरे ने दूसरे को भी पछाड़ा। उसने कहा एक अरब से भी ज्यादा आबादी वाला मुल्क है। हर जगह तो पुलिस भेजी नहीं जा सकती। इसलिए इन विस्फोटों को रोकना संभव नहीं है। चौथे ने तो अमेरिका को ही चुनौती दे दी। उसने कहा जब अमेरिका, इराक और अफगानिस्तान में आंतकवादियों के बम धमाकों को रोकने में असफल हो रहा है तो भारत में विस्फोटों को सरकार की असफलता कैसे कहा जा सकता है।
सोनिया कांग्रेस के और भारत सरकार के इतने अधिक नेताओं और मंत्रियों द्वारा आतंकवाद को लेकर कांग्रेसी नीति को स्पष्ट किये जाने के बाद प्रश्न उठा कि यदि भारत सरकार आतंकवादियों के षड्यंत्रों और बम विस्फोटों को रोक नहीं सकती तो वह आकर देश की जनता के लिए क्या कर सकती है। इसका उत्तर तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही देना था क्योंकि आखिर वे ही युवराज राहुल गांधी के राजनैतिक रूप से बालिग हो जाने तक कुर्सी संभाले हुए हैं। देश को उनका धन्यवाद करना चाहिए कि वे इस प्रश्न उत्तर देने के लिए स्वयं मुम्बई पहुंचे और वहां उन्होेंने घोषणा की कि सरकार आतंकवादी विस्फोटों में मरने वालों को दो लाख रूपये और घायल होने वालों को पचास हजार रूपये दे सकती है। भाव कुछ इसी प्रकार का था कि इससे ज्यादा सरकार आपके लिए कुछ नहीं कर सकती।
विस्फोटों को रोकने में सरकारी दायित्व की नीति की घोषणा तो राहुल गांधी पहले ही कर चुके थे।
आखिर सरकार के इस रवैये का कारण क्या है। सरकार ने आंतकवादियों पर नियंत्रण पाने में अपने कर्तव्य से सार्वजिनक रूप से हाथ क्यों खींच लिये हैं। दरअसल प्रश्न अपनी अपनी प्राथमिकताओं का है। सरकार के लिए प्राथमिकता आंतकवादियों से लड़ने की नहीं है, उसके लिए प्राथमिकता किसी भी ढंग से बाबा रामदेव को घेरने की है। विकीलीक्स ने पहले ही खुलासा कर दिया था जब राहुल गांधी ने भारत में अमेरिका के राजदूत को बताया था कि भारत को खतरा लश्कर- ए- तोयबा जैसे संगठनों से नहीं है बक्लि गुस्से में आ रहे हिन्दुओं से हैं। इसलिए जब सरकार की सभी गुप्तचर एजेंसिया बाबा रामदेव और उसके अनुयायियों की घेराबंदी के काम में लगी हुई थीं, आधी रात को शिवर में सौ रहे सत्याग्रहियों पर कब लाठीचार्ज करना है, आंसु गैस के कितने गोले छोड़ने है और बाबा राम देव को मारने के लिए मंच में आग किस जगह लगानी है, उस समय आतंकवादी संगठन मुम्बई में बम विस्फोट करने की अपनी योजना बना रहे थे। चिदम्बरम का कहना है कि गुप्तचर एजेंसियों के पास आतंकवादी हमले की कोई सूचना नहीं थी, लेकिन आश्चर्य है कि इन्हीं गुप्तचर एजेंसियोे के पास बाबा रामदेव और उनके शिष्यों की हर गतिविधि की पूरी सूचना थी। कांग्रेस की प्राथमिकता बाबा रामदेव से लड़ने की है आतंकवादियों से लड़ने की योजना उसके एजेंडा में नहीं है। जाहिर है सरकार को अपनी नीति बनाने के लिए जिस प्रकार की सूचनाएं चाहिए गुप्तचर एजेंसिया उसी प्रकार की सूचनाएं मुहैया करवायेंगी।
गुप्तचर एजेंसियों की अपनी कठिनाइयां हैं। उन्हें आतंकवादी संगठनों और बम विस्फोटों की जांच करते समय दो धरातलों पर काम करना होता है। प्रथम धरातल पर तो उन्हें प्रोफेशनल दृष्टिकोण से बम विस्फोटों की जांच करनी होती है। इस दृष्टिकोण से विस्फोटों की जांच करते हुए जांच एजेंसिया लश्कर-ए-तोयबा, इंडियन मुजाहीदीन और सिमी तक पहुंचती हैं। मुम्बई के बम विस्फोटों में भी ऐसा ही हो रहा है। लेकिन इन एजेंसियो के आंख और कान कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह और अजीज बर्नी की जोड़ी की ओर भी लगे रहते हैं। कहा जाता है दिग्विजय सिंह के कंठ से जो आवाज निकलती है वह कांग्रेस की अध्यक्षा का प्रतिनिधित्व करती है। दिग्विजय सिंह का मानना है कि उनके पास भी इस प्रकार की आतंकवादी घटनाओं की जांच करने के लिए एक पूरा तंत्र है। वे ये भी कहते हैं कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी इस प्रकार की घटनाओं की जानकारी उन्हें देते रहते हैं। हेमंत करकरे के बार में भी उनका यही कहना हे कि मरने से कुछ घंटे पूर्व उन्होंने उन्हें फोन पर बता दिया था कि उन्हें कोन मारने वाला है। अब जब जांच एजेंसियां यह कह रही है कि हेमंत करकरे को पाकिस्तान से आई आतंकवादियों की कसाब टोली ने मारा था तो दिग्विजय सिंह का कहना है कि उन्हें हिन्दुओं ने मारा था। इसी प्रकार दिल्ली के बाटला हाउस में हुई मट्ठभेड़ में जांच एजेंसियों का तो यह कहना है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मोहन चन्द्र शर्मा को आतंकवादियों ने मार दिया लेकिन दिग्विजय सिंह की जांच का खुलासा है कि शर्मा का दिल्ली पुलिस ने ही मारा है। मुंबई में 26/11 आक्रमण पाकिस्तानी आतंकवादियों ने किया ऐसा दुनिया भर की जांच एजेंसिया कह रही हैं लेकिन दिग्विजय सिंह और अजीज बर्नी की जोड़ी कह रही है कि यह आक्रमण आरएसएस ने करवाया था। ऐसे हालात में जांच एजेंसियों को फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। उन्हें दो प्रकार से जांच करनी पड़ती है पहली प्रोफेशनल दृष्टिकोण से और दूसरी दिग्विजय सिंह एंड कम्पनी द्वारा बताई गई कांग्रेस के राजनैतिक दृष्टिकोण से, जिसमें कुछ हिन्दुओं को लपेटना जरूरी होता है। आखिर राजनैतिक संतुलन का प्रश्न है। मुंबई के ताजा बम विस्फोट के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। जांच एजेंसियां सिमी जैसे संगठनों को पकड़ने से डरेगी क्योंकि राहुल गाधी अरसा पहले ही उसे दोषमुक्त घोषित कर चुके हैं और दो दिन के उहापोह के बाद दिग्विजय सिंह ने भी जांच एजेसियों को संकेत दे दिया है कि मुम्बई के इन बम विस्फोटों में हिन्दुओं का भी हाथ हो सकता है।
अब जांच एजेंसियों की भी अपनी अपनी प्राथमिकता है। राजनैतिक जांच अव्वल दर्जे पर आ गयी है और प्रोफेश्नल जांच दोयम दर्जे पर। आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि कल दिग्विजय सिंह इन विस्फोटों मंे भी स्वामी असीमांनद और इन्द्रेश कुमार का नाम बताना शुरू कर दे। जांच कर रही पुलिस का एक और संकट भी है यदि वे इस लड़ाई में आतंकवादियों को मार गिराते हैं तो निश्चित है उन्हें जेल में सड़ना पड़ेगा। देश के अनेक पुलिस अधिकारी आतंकवादियों को इस लड़ाई में परास्त करने के दोष मंे अनेक राज्यों की जेलों मंे सड़ रहे हैं। यदि मुंबई के इन ताजा बम विस्फोटों में संलिप्त कुछ आंतकवादी पकड़े भी जाते हैं तो जाहिर है वे अफजल गुरू और कसाब की श्रेणी में वृद्धि ही करेंगे और हो सकता है कि उन्हें पकड़ने और तंग करने के अपराध में पलिस अधिकारी कटघरे में खड़े नजर आयें। इन बम विस्फोटों में संलिप्त होने के शक में रांची मंे एक आतंकवादी के बारे में पूछताछ करने गई पुलिस को लेकर ही जो बवाल उठ खड़ा हुआ उससे स्पष्ट है कि तथाकथित मानवाधिकारवादी लश्कर-ए-तोयबा, इडियन मुजाहीदीन, और सिमी जैसे संगठनों की रक्षा पर उतर ही आयेंगे। दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी जैसे लोग अप्रत्यक्ष रूप से किस की सहायता कर रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अंत में प्रश्न फिर अपनी अपनी प्राथमिकता है। भारत सरकार की प्राथमिकता बाबा रामदेव को घेरने की है न कि आतंकवादियों को। सोनिया कांग्रेस भारत और भारतीयता के तमाम प्रतीकों और अवधारणाओं को नष्ट कर इस देश की नई पहचान बताना चाहती है। यही कारण है वह सामी सम्प्रदायों की आतंकवादी गतिविधियों और चर्च के मतान्तरण आंदोलन को प्रश्रय प्रदान करती है।
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  भारत की पहचान बदलने का षड्यंत्र
Monday 14 November 2011 | Category: आपकी बात - विश्वb की समस्याप | 129 Views
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
रत की सुरक्षा को दोहरा खतरा है। बाहरी शत्रु से खतरा और द्वितीय आंतरिक षड्यंत्रों से खतरा। यह खतरा भारत की मूल पहचान पर ही आ रहा है।
सोनिया कांग्रेस का वैचारिक खोखलापन-भारत में आतंकवाद के मूल में या तो इस्लामी शक्तियां हैं या फिर चर्च का अधूरा एजेंडा है। आतंकवादी घटनाएं कुछ निराश एवं हताश लोगों द्वारा की जा रही एकाकी घटनाएं नहीं हैं बल्कि इनके मूल में वैचारिक आधार है। वही वैचारिक आधार जिसे सैयद अहमद खान, मुहम्मद अली जिन्ना और डॉ. मुहम्मद इकबाल ने 1947 में भारत विभाजन के लिए प्रयुक्त किया था। 1947 में भी कांग्रेस इस इस्लामी आतंकवाद का वैचारिक एवं व्यावहारिक स्तर पर मुकाबला करने से पीछे हट गई थी या फिर उसके आगे पराजित हो गई थी। कांग्रेस ने उस समय इस्लामी आतंकवाद का वैचारिक स्तर पर सामना करने की बजाये भय की स्थिति में हिन्दु कट्टरवाद की दुहाई मचानी शुरू कर दी थी। कांग्रेस का मानना था कि इस्लामी कट्टरवाद या आतंकवाद इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि हिन्दु महासभा हिन्दु कट्टरता फैला रही है। कांग्रेस ने उस समय भी प्रतिक्रिया को क्रिया घोषित करके शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छुपाने का प्रयास किया था और सोचा था कि शायद विभाजन टल जाये। उस समय ब्रिटिश सरकार भी चाह रही थी कि कांग्रेस इसी रास्ते पर चले क्योंकि वह जानती थी कि यह रास्ता अन्ततः विभाजन की ओर ही जाता है। भारत का विभाजन ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य था। एक तो खंडित भारत कमजोर होता है दूसरे विभाजित भारत के एक खंड में गोरी शक्तियों की दखलअंदाजी पूर्ववत् बनी रहती।
भारत विभाजन के लगभग साठ साल बाद फिर लगता है कि इतिहास अपने को दोहराने की स्थिति में पहॅंुच गया है। इस्लाम खतरे में है, हिन्दु बहुल भारत में मुस्लिम समुदाय सुरक्षित नहीं है, उसके साथ मतभेद हो रहा है, इत्यादि जुमले एक बार फिर प्रयोग में लाये जा रहे हैं। इस बार यह अभियान कश्मीर से छेड़ा गया है। पिछली बार सिंध, बलोचिस्तान और पश्चिमी पंजाब इत्यादि से छेड़ा गया था। कश्मीर से अभियान छेड़ने का भी खास उद्देश्य है। क्योंकि कश्मीर घाटी मुस्लिम बहुल है और चीन व पाकिस्तान की सीमा से जुड़ी हुई है। 1947 से पूर्व नोआखली इत्यादि में डायरेक्ट एक्शन छेड़ कर वहॉ से हिन्दुओं को भगाने की साजिश की गई थी। इसी प्रकार इस बार कश्मीर से सभी हिन्दुओं को इस अभियान के शुरूआती दौर में ही भगा दिया गया। असम में यह प्रयोग अभी भी जारी है। कांग्रेस का व्यवहार इस बार लगभग उसी तर्ज पर है जिस तर्ज पर उसने 1947 में विभाजन के समय किया था। कांग्रेस की प्रड्डति, स्वभाव और प्रशिक्षण इस्लामी आतंकवाद का सामना करने का नहीं है। इसलिए उसको अपनी अकर्मण्यता से उपजे अपराध बोध के चलते मानसिक रूप से मुक्त होने के लिए आतंकवाद में हिन्दुओं की जरूरत है। एक बार यदि हिन्दु आतंकवाद का आविष्कार कर लिया जाये तो कांग्रेस को अपने कार्यकर्ताओं को यह समझाने में सुविधा हो जायेगी कि देश में जो हो रहा है इसमें सारा दोष इस्लामी ताकतों का नहीं है। ये बेचारे हिन्दु आतंकवाद से डरे हुए लोग हैं और प्रतिक्रिया के कारण ही आतंकवाद में संलिप्त हो जाते हैं। कांग्रेस का सामान्य मतदाता और कार्यकर्ता भी आखिर हिन्दु ही है। इस्लामी आतंकवाद की वैचारिक साजिश को वह भी देख और समझ सकता है। कांग्रेस की यही चिन्ता है। अपने कार्यकर्ता को समझाने के लिए भी उसे हिन्दु आतंकवाद की जरूरत है। इसके साथ ही हिन्दु आतंकवाद एक और फ्रंट पर भी हथियार का काम कर सकता है। देश का सामान्य मुसलमान जो आंतकवादियों की गतिविधियों के कारण शक के घेरे में आ रहा था उसे प्रत्युत्तर में वार करने के लिए एक ढाल की जरूरत है ताकि वह इस्लामी आतंकवाद से उपजे प्रश्नों का उत्तर दे सके। कांग्रेस ने उसे हिन्दु आतंकवाद की यह काल्पनिक ढाल प्रदान कर दी है। संकट की इस घड़ी में और लम्बी वैचारिक लड़ाई में मुस्लिम समाज को जो ढाल कांग्रेस ने दी है उससे वह ड्डतज्ञ तो होगा ही और इसी ड्डतज्ञता में वह कांग्रेस को वोट देगा।
भारत में अमेरिका की रणनीति और कांग्रेस की भूमिका- चर्च और अमेरिका मिलकर भारत को घेरने की साजिश में जुटे हुए हैं। चर्च का उद्देश्य बहुत स्पष्ट है। वेटिकन के राष्ट्रपति के अनुसार इस शताब्दी में उन्हें भारत का काम निपटाना है। क्योंकि पिछली दो सहस्राब्दियों में चर्च ने पूरे यूरोप और अफ्रीका के इतिहास, विरासत और संस्ड्डति को नष्ट करके वहॉं ईसाई मत को स्थापित कर दिया है। एशिया के अधिकांश हिस्से पर भी चर्च ने अपना मजहबी आधिपत्य जमा लिया है। शुरू में तो यूरोप ने ईसाइकरण का विरोध किया लेकिन कालांतर में वही यूरोप अफ्रीका और एशिया में मजहबी साम्राज्यवाद का हरावल दस्ता बना। जिन लोगों ने चर्च के इन अभियानों का विरोध किया उन्हें निर्दयतापूर्वक कुचल दिया गया। चर्च के दुर्भाग्य से भारत उसके इस विश्वव्यापी अभियान के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ा हो गया। अपनी इस सम्राज्यवादी लिप्सा में बींसवी शताब्दी में ही भारत के संदर्भ में चर्च और अमेरिका एक जुट हो गये थे। इसलिए बचे खुचे देशों में ईसाई मजहब को स्थापित करने में अमेरिका अ्रग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया है। परन्तु अमेरिका को इस प्रकार के देशों में दखलअंदाजी के लिए कोई न कोई तार्किक बहाना चाहिए। कोई ऐसा बहाना जिस पर लोग सहज ही विश्वास कर लें। अमेरिका ने इसके लिए आतंकवाद को बहाना भी बनाया और हथियार भी। अमेरिका का ऐसा कहना है कि दुनियां इस्लामी आतंकवाद का प्रहार झेल रही है और अमेरिका क्योंकि नवविचार और नवचेतना का देश है इसलिए वह इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझता है। चाहे इसमें उसके अपने सैनिक भी मर रहे हैं परन्तु इसके बावजूद अमेरिका मानवता के हित में इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहा है। केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में। वैसे , केवल रिकार्ड के लिए, अमेरिका का अपना इतिहास भी निर्दोष नहीं है। सी0आई00 ने कितने लोगों की हत्या करवाई और कितने देशों की सरकारों को उल्टा-पुल्टा इसका लेखा-जोखा उसकी पुरानी फाइलों में से निकल आयेगा। आज जिस इस्लामी आतंकवाद को लेकर इतना हल्ला मचा हुआ है उसका जन्म भी अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस को उत्तर देने के लिए दिया था। बाद में इसी आतंकवाद के बहाने अमेरिका अपने आर्थिक हितों के लिए ईराक में धुसा, फिर अफगानिस्थान में और अब उसकी सेनाएं आतंकवाद की खोज करते करते अपनी इच्छा से पाकिस्तान में भी चली जाती हैं। लेकिन चर्च और अमेरिका का निशाना तो भारत है। पर इस्लामी आतंकवाद के बहाने अमेरिका भारत में नहीें घुस सकता क्योंकि भारत इस्लामी आतंकवाद से पीड़ित देश है। भारत में घुसने के लिए अमेरिका को हिन्दु आतंकवाद की जरूरत है, इस्लामी आतंकवाद की नहीं। जब तक भारत में कांग्रेस की निर्बाध सत्ता है तब तक न अमेरिका को चिंता है न ही चर्च को क्योंकि भारत को मतांतरित करने की चर्च की योजनाओं में कांग्रेस सरकार सहायक है, बाधक नहीं। परन्तु पिछले तीन दशकों से भारत का राजनैतिक घटना क्रम तेजी से परिवर्तित हुआ है। कांग्रेस के केन्द्रीय सत्ता में बने रहने की निरंतरता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। इसी अरसे में राष्ट्रवादी शक्तियां भारतीय राजनीति के केन्द्र में पहुॅंच गई। अमेरिका और चर्च दोनांे को लगता है यदि देर सबेर राष्ट्रवादी ताकतें फिर भारत की सत्ता के केन्द्र में स्थापित हो गई तो भारत के ईसाइकरण में निश्चय ही बाधा उपस्थित हो जायेगी। इसी मरहले पर ईतालवी मूल की सोनिया गॉंधी कांग्रेस के केन्द्र में स्थापित होती हैं। यह ताकतें अपनी इस रणनीति में तो कामयाब हो गई लेकिन इनके दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वयं ही सत्ता के केन्द्र से विच्युत होने की स्थति में पहुंच रही है। यदि कल चर्च और अमेरिका के आगे ऐसा संकट उपस्थित हो जाता है तो उनके आगे भारत में दखलअंदाजी का कौन सा रास्ता बचता है? यह रास्ता भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करने का ही है। भविष्य में यदि राष्ट्रवादी शक्तियां भारत का शासन सूत्र संभाल लेती हैं तो अमेरिका को यह कहने का अवसर मिल जायेगा कि भारत में आतंकवादी शक्तियों ने कब्जा कर लिया है। यह अमेरिका ने स्वयं ही घोषित किया हुआ है कि दुनियां में जहां भी आतंकवादी शक्तियां होंगी अमेरिका उनका पीछा करते हुए वहॉ तक जायेगा। और वैसे भी सोनिया ब्रिगेड और चर्च को अमेरिका के आगे यह गुहार लगाते हुए कितनी देर लगेगी कि अमेरिका आगे बढ़ कर भारत को आतंकवादी शक्तियों के चगुंल से मुक्त करे।
अमेरिका की यही नीति है कि किसी भी तरह से भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कटघरे में खड़ा कर उन्हें नकारात्मक चित्रित किया जाये। अमेरिका की सरकार और अमेरिका का मीडिया इस काम में लम्बे अरसे लगा हुआ है। अमेरिकी सरकार के संस्थान सी0आई00 की आधिकारिक साईट पर संघ परिवार से जुड़े संस्थानों को हिन्दु मिलीटैंट आरगेनाइजेशन घोषित किया हुआ है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को वीजा न देने का एक उद्देश्य राष्ट्रवादी शक्तियों को कट्टरपंथी के रूप में चित्रित करना भी था। अमेरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिन्दुत्व की नकारात्मक व्याख्या को लेकर व्यापक शोधकार्य करवाया जा रहा है। यहां यह कहना असंगत नहीं होगा कि 80-90 के दशक में ही अमेरिका में संघ परिवार को लेकर लगभग 200 शोध कार्य हुये जिनमें किसी प्रकार से संघ की मिलीटेंट एवं नकारात्मक घोषित करना ही उद्देश्य रहा।
ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ लार्डस में इस बात को लेकर बहस हुई कि आरएसएस आतंकवादी संगठन है या नहीं। बहुत से लोग इस बात पर प्रसन्न हैं कि बहस के बाद ब्रिटिश सरकार ने संघ परिवार से जुड़े संगठनों को आतंकवादी स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इस बात पर प्रसन्न होना भूल होगी। षड्ंयत्रकारियों का मूल उद्देश्य पहले चरण में केवल विश्वभर में यह बहस चलाना ही है कि संघ परिवार आतंकवादी संगठन है या नहीं। पक्ष - विपक्ष में तर्क दिये जाते रहेंगे और कल यदि भारत के लोग सत्ता राष्ट्रवादी शक्तियों को सौंप देते हैं और अमेरिका सहित अन्य गोरे साम्राज्यवादियों को यह अपने हितों के विपरीत लगता है तो वह किसी भी क्षण नई बहस में इसे आतंकवादी संगठन घोषित कर सकते हैं। पहले अमेरिका को इराक के सद्दाम हुसैन की नीतियां अमेरिका के हित में लगती थी, इसलिए अमेरिकी मीडिया और राज्य सत्ता सद्दाम हुसैन और उनकी बाथ पार्टी को उदारवादी और प्रगतिवादी बता रहा था। लेकिन जब अमेरिका को लगा कि अब सद्दाम हुसैन की नीतियां अमेरिका के हित में नहीं है तो उसे हुसैन और उसकी बाथ पार्टी को आतंकवादी घोषित करते हुए एक क्षण भी नहीं लगा। अमेरिका की लम्बी रणनीति के तहत यही भारत और संघ परिवार के साथ भी हो सकता है। अभी शायद यह दूर की कौड़ी लगती है। इसका अर्थ यह नहीं कि अमेरीका भारत पर सशस्त्र आक्र्रमण कर सकता है। आज के युग में आक्रमण के और भी अनेक ढंग विद्यमान हैं।
गोरे साम्राज्यवादियों की भारत को लेकर एक और समस्या है। ब्रिटिश सरकार लगभग दो सौ वर्ष तक भारत पर राज्य करने और उसकी मूल पहचान को परिवर्तित करने की आधारभूत संरचना तैयार करने के बाद पूरे आत्मविश्वास से सत्ता उन्हीं लोगों अथवा समूहों को सौंप कर गई थी जिन पर उन्हें पूरा विश्वास था कि वे भारत में उनकी नीति अथवा दर्शन को निरंतर आगे बढ़ाते रहेगे। अमेरिका अब उसी ब्रिटिश परंपरा का उत्तराधिकारी है। लेकिन दुर्भाग्य या सौभाग्य से सरकार एवं मोमबत्ती ब्रिगेड के पूरे प्रयासों के बावजूद भारत की मूल पहचान तो नहीं बदली बल्कि इसके विपरीत संास्ड्डतिक पुर्नजागरण की लहर दिखाई देने लगी। इसका प्रभाव राजनीति के क्षेत्र में भी दिखाई देने लगा है। संघ परिवार से संबधित संस्थाओं द्वारा अनेक राज्यों की सत्ता संभाल लेना एवं केन्द्र तक पहुंच जाना इसका प्रमाण है।
इसलिए ब्रिटिश - अमेरिकी नीति सपष्ट है कि जब तक भारत को भी यूनान, मिश्र, रोम ;जिनकी अपनी पहचान समाप्त हो चुकी हैद्ध की श्रेणी में नहीं ला दिया जाता तब तक दिल्ली में सत्ता उन्हीं लोगों के हाथों में रहनी चाहिए जिनके हाथों में वे 1947 में छोड़ गये थे। जब तक पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री रहे तब तक तो अमेरिका व ब्रिटिश सरकार संतुष्ट थी। नेहरू राजनैतिक क्षेत्र में अमेरिका के विरोधी थे और उन्होंने अमेरिका की सरपरस्ती में नाटो इत्यादि गठबंधन में जाने की बजाये गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरूआत की थी। इस दृष्टि से वह समाजवादी-वामंपथी खेमे के ज्यादा नजदीक माने जाते थे। लेकिन जहां तक उनकी संास्ड्डतिक दृष्टि का प्रश्न था वह वही थी जिसकी घुट्टी ब्रिटिश सरकार उन्हें पिला गई थी। गोरी साम्राज्यवादी शक्तियां जानती हैं कि राजनीति चंचला है। वह पलपल रंग बदलती है लेकिन सांस्ड्डतिक प्रभाव एंव परिवर्तन स्थाई व दीर्घ होता है। अतः नेहरू इस दृष्टि से ब्रिटिश - अमेरिकी गुट के अनुकूल पड़ते थे। लेकिन नेहरू की मृत्यु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने जो निश्चय ही भारतीयता के पोषक थे और सांस्ड्डतिक दृष्टि से नेहरू के विपरीत ध्रुव थे लेकिन उनकी 18 मास बाद ही मौत हो गई। शास्त्री की मृत्यु के बाद भारत के सत्ता सूत्र एक बार फिर नेहरू परिवार के हाथ में ही चले गये। श्रीमती इंदिरा गान्धी देश की प्रधानमंत्री बनी। अमेरिका समेत पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतें इंदिरा गांधी को कमजोर मानकर चल रही थी। इंदिरा गांधी चतुर राजनीतिज्ञ थी। उन्हें किसी भी विचारधारा से नेहरू की तरह कोई मोह नहीं था। लेकिन उन्होंने अपनी राजनैतिक सुविधा के लिए विचारधाराओं को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। इंदिरा गांधी नेहरू की तरह आदर्शवादी नहीं थी बल्कि वह यथार्थवाद के धरातल पर रहती थी। उन पर न अमेरिका विश्वास कर सकता था और न ही ब्रिटिश सरकार राजनैतिक दृष्टि से तो बिल्कुल ही नहीं।
श्रीमती इंदिरा गांधी वैचारिक धरातल पर पश्चिमोन्मुखी नहीं थी। उनके शासनकाल में ही पोखरण का परमाणु विस्फोट हुआ था। परन्तु उनके इर्द -गिर्द जिन दृश्य और अदृश्य शक्तियों ने अपना तानाबाना बुना हुआ था , वे उनके भीतर के तानाशाही राक्षस को दानापानी खिलाकर जागृत करने में लगे रहते थे। श्रीमती गांधी स्वभाव से अंतर्मुखी थीं और इसके कारण असुरक्षा की भावना से घिरी रहती थीं। इस प्रकार की भावना से ग्रस्त लोगों के भीतर तानाशाही प्रवृत्तियों का पनप जाना बहुत आसान होता है। श्रीमती गांधी के साथ भी ऐसा ही हो रहा था। तानाशाही और फासीवादी मूल्य भारतीय परम्पराओं के बिल्कुल खिलाफ हैं। इन मूल्यों का पश्चिम में हिटलर और मुसोलिनियों ने अनेक बार रक्षण और पोषण किया है। भारतीय अथवा हिन्दू प्रड्डति मूलतः लोकतांत्रिक है। अतः जब श्रीमती गांधी में ये तानाशाही प्रवृत्तियां स्पष्ट ही दिखाई देनी लगी और उसका कुप्रभाव इधर -उधर परिलक्षित होने लगा तो जाहिर है श्रीमती गांधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से टकराव होता क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय लोकतांत्रिक सांस्ड्डतिक थाती का पक्षधर है। इंदिरा गांधी ने उसी पर प्रहार करना शुरु कर दिया था। इस मरहले पर खांटी गांधीवादी जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ आ खडे़ हुए। जयप्रकाश नारायण और उनके समाजवादियों का यह वही खेमा था जो कांग्रेस के भीतर भारतीयता के प्रश्न पर धीरे-धीरे नेहरू से दूर होता गया था और महात्मा गांधी के नजदीक होता गया था। आज वह खेमा अपनी इस यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ खड़ा था। जिसका स्वाभाविक अर्थ था कि भारतीयता की इस यात्रा में संघ इस प्रकार की शक्तियों का स्वाभाविक साथी था। इंदिरा गांधी जिस तानाशाही रास्ते पर चल रही थी, उस पर तर्क से बातचीत करना सम्भव ही नहीं होता। भारतीय स्वभाव तर्क और शास्त्रार्थ का है। इसलिए संघ देश भर में इसी शास्त्रार्थ को प्रोत्साहित कर रहा था। जयप्रकाश नारायण उसके साथ थे। लेकिन जैसा तानाशाही शासनों का स्वभाव होता है वे तर्क का उत्तर हिंसा और शक्ति सेे देते हैं। इंदिरा गांधी ने देश में आंतरिक आपात स्थिति लागू कर दी और संघ को नेहरू के बाद एकबार फिर प्रतिबंधित घोषित कर दिया। जयप्रकाश नारायण और दूसरे लोग जेलों में ठूंस दिए। परदे के पीछे की शक्तियां भारतीय अस्मिता के प्रतीक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी का प्रयोग कर रही थीं और श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता के मोह में उनका खिलौना बन गयी थी। संघ ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के खातिर सारे देश में सत्याग्रह प्रारम्भ किया और उसके लाखों स्वयंसेवक जेल गए उनमें से अनेकों की मृत्यु भी हुई और अंततः भारतीय जनता जीती। भारतीय मूल्यों की विजय हुई। इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध से लड़ रही थी, जहा तक तो ठीक था लेकिन यह लड़ाई राजनैतिक थी सांस्ड्डतिक नहीं। 1976 में चुनावों मे पराजित होने पर पद छोड़ने से पहले इंदिरा गांधी ने स्वय प्रतिबन्ध हटाया था। क्योंकि संघ से वह राजनैतिक धरातल पर वह लड़ रही थी और वहा पराजित होने पर उन्होने उसे गरिमा से स्वीकार किया।
इंदिरा गांधी को लेकर ब्रिटिश- अमेरिका की समस्या केवल राजनैतिक ही नहीं थी सांस्ड्डतिक भी थी। इंदिरा गांधी अपने पिता की तरह समाजवादी भी नहीं थी। इसके विपरीत उसका झुकाव भारतीयता की ओर ज्यादा था जो उम्र के साथ साथ बढ़ता जा रहा था। इसका कारण शायद उन पर अपनी मॉं कमला नेहरू का प्रभाव था, जिसका उत्पीड़न अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। कमला कौल भारतीयता की जीवंत प्रतिमा थी। इसलिए इंदिरा गांधी अपने जीवन के अन्तिम दौर में अमेरिका-ब्रिटेन के लिए राजनैतिक व सांस्ड्डतिक दोनों दृष्टियों से ही असहनीय हो गई थी। इंदिरा गांधी भारत को अमेरिका या रूस का पिछलग्गू बनाने की बजाए उसे शक्तिशाली देश के रूप में देखना चाहती थी। पोखरन में पहली बार परमाणु धमाका कर उन्होंने भविष्य के भारत का संकेत भी अमेरिका को दे दिया था। उसके बाद तो इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को ही खंडित कर दिया। निक्सन ने इंदिरा गांधी के लिए जिन अभद्र शब्दों को प्रयोग किया है उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
लेकिन गोरी साम्राज्यवादी ताकतों के लिये प्रश्न था कि नेहरू परिवार की विरासत कौन संभाले जो राजनैतिक एवं सांस्ड्डतिक दोनों दृष्टियों से अमेरिका-ब्रिटिश समूह के अनुकूल हो। नेहरू परिवार उस मोड़ पर पहुॅच गया था जिस पर अमेरिका -ब्रिटिश समूह उसकी भविष्य की उपयोगिता को लेकर चिंतित दिखाई दे रहे थे। वैसे भी 1967 के बाद से नेहरू परिवार के नेतृत्व को दूसरे राजनैतिक दलों से गंभीर चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई थी और आगे भविष्य में कांग्रेस का एकछत्र सम्राज्य समाप्त हो सकता था- ऐसी संभावनाएं दिखाई देने लगी थी। समाजवादी एंव राष्ट्रवादी जनसंघ के संयुक्त प्रयासों के प्रयोग दीनदयाल उपाध्याय व राममनोहर लोहिया ने प्रारंभ कर ही दिये थे। इसलिए ब्रिटिश - अमेरिका की नीति यही थी कि भारत में कांग्रेस का एकछत्र साम्राज्य भी बना रहे और साथ ही कांग्रेस पर ऐसे लोगों का कब्जा भी बना रहे जो उसी सांस्ड्डतिक नीति का अनुसरण करें जो 1947 में अंग्रेज उन्हें दे गये थे। इसी काल में नेहरू परिवार में इटली की एडविन एण्टोनियो अल्बिना माइनों का प्रवेश होता है जो बाद में सोनिया गांधी के नाम से प्रसिद्व हुई।
कांग्रेस में एडविज एण्टोनियो अल्बिना माइनो का प्रवेश
भारत में यह लम्बा नाम अटपटा न लगे इसलिए इसका नाम सोनिया गांधी बना दिया गया। सोनिया गांधी का जन्म 9 दिसम्बर 1946 को इटली के बेनितो प्रांत में लुजियाना नामक एक गांव में हुआ था। इनकी बचपन की पढ़ाई और लालन -पालन एक कट्टर रोमन परिवार में हुआ और वहीं एक कैथोलिक स्कूल में इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। इनके पिता का नाम स्टेफेनो और माता का नाम पायोला माईनो था। परिवार में सोनिया समेत तीन लड़कियां ही थीं और सोनिया गांधी की बाकी दो बहनें अभी भी इटली में रहती हैं। 18 साल की उम्र में सोनिया इंग्लैंड चली आयीं और कैम्ब्रिज शहर में एक ग्रीक रेस्तरां में महिला वेटर का काम करने लगीं। भाषा की दिक्कत के कारण सोनिया अंग्रेजी सिखाने वाली किसी संस्था में अंग्रेजी भाषा भी सीखने लगीं। उन्हीं दिनों राजीव गांधी कैम्ब्रिज में ही ट्रिनिटी कालेज में पढ़ते थे। राजीव गांधी की 1965 में इसी ग्रीक रेस्तरां में सोनिया गांधी से मुलाकात हुई और देखते-देखते मामला शादी तक आ पहुंचा। तीन साल बाद ही 1968 में दोनों की शादी हो गयी। ऐसा कहा जाता है कि इस शादी का शुरु में तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने विरोध किया लेकिन बाद में उन्होंने इसे स्वीड्डति दे दी। भारत के पूर्व केन्द्रीय विधि मंत्री सुब्रह्मण्यन स्वामी का मानना है कि नेहरू परिवार में सोनिया गांधी का दाखिला एक षड्यंत्र के तहत है ताकि भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल पर कब्जा कर लिया जाये और उसके माध्यम से देश के सत्ता सूत्र संभाल लिये जाये। सोनिया गांधी की नेहरू परिवार में घुसपैठ कैसे हुई, यह रहस्य अभी तक तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा हुआ है लेकिन इतना निश्चित है कि सोनिया गांधी के नेहरू परिवार में आ जाने से ब्रिटिश-अमेरिकी समूह निश्ंिचत हो गया क्योंकि यदि किसी भी तरह से सोनिया गांधी कांग्रेस पर कब्जा कर लेती हैं और उसके माध्यम से देश की सत्ता के केन्द्र में आ जाती हैं तो यह स्थति ब्रिटिश अमेरिकी समूह को राजनैतिक व सांस्ड्डतिक दोनों ही दृष्टियों से अनुकूल पड़ती है। सोनिया गांधी की भारत में उपस्थिति वैटिकन के लिए तो और भी ज्यादा अनुकूल है क्योंकि सोनिया की सहायता से चर्च का मतांतरण आंदोलन भारत में ज्यादा बल पकड़ सकता है।
कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की विरासत का अंत -सोनिया गांधी के नेहरू परिवार में प्रवेश के बाद घटनाएं तेजी से घटित हुई। संजय गांधी की मृत्यु हो गई। संजय गांधी इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के तौर पर उभर रहे थे। उसके बाद मेनिका गांधी का इंदिरा गांधी के घर से निष्कासन हुआ। मेनिका गांधी भविष्य में इंदिरा की भारतीय बहू के रूप में नेहरू परिवार की विरासत संभाल सकती थी। संजय -मेनका प्रकरण के समाप्त हो जाने के बाद इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। कई जांच आयोगों की स्थापना के बाद भी शक की सुई अभी भी घूम रही है कि इंदिरा गांधी की हत्या किन शक्तियों ने करवाई। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नेहरू -गांधी परिवार में वारिस के नाते केवल राजीव गांधी ही बचे थे। इसलिए राष्ट्रपति ने उन्हीं को प्रधानमंत्री बना दिया। राजीव गांधी के शासनकाल में बोफोर्स स्कैण्डल हुआ जिसमें इटली के एक व्यवसायी क्वात्रोची, जो सोनिया गांधी के दोस्त बताए जाते थे, मुख्य अपराधी के रूप में सामने आए। राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गयी। राजीव गांधी पर हिन्दुत्ववादी होने का शक होने लगा था। उनकी सांस्ड्डतिक दृष्टि संदेह के घेरे में आ रही थी। अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास की शुरूआत उन्हीं के राज्यकाल मंे हुई थी। अगले चुनावों में जब वे चुनाव अभियान में थे तो तमिलनाडु में लिट्टे आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। यह एक संयोग ही था कि सोनिया गांधी उनके साथ नहीं थी।
देश का राजनैतिक वातावरण अशांत एवं अस्थिर था। क्या इस स्थिति में सोनिया गांधी देश की सत्ता संभाल सकती थी। शायद नहीं। राजनीति में धैर्य एवं सही वक्त की पहचान बहुत जरूरी होती है। सोनिया गांधी से ज्यादा सही समय व सही स्थान की पहचान भला कौन कर सकता है। राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और सीताराम केसरी अध्यक्ष बने राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस पर ऑक्टोपस की तरह शिकंजा कस लिया और कांग्रेस में उनके साथ रायबहादुरों एवं रायसाहबों की फौज अपने आप ही खड़ी हो गयी क्योंकि इस देश में रायबहादुरों एवं रायसाहबों की परम्परा ब्रिटिश शासनकाल में ही स्थापित हो गयी थी।
विवशता में नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बनाये गये। नरसिम्हा राव कांग्रेस को सोनिया गांधी के शिकंजे से निकाल कर सच मुच भारतीय राजनैतिक दल की स्थिति में लाना चाहते थे। भारतीय इतिहास, विरासत और संस्ड्डति को लेकर उनकी दृष्टि भी राष्ट्रवादी दृष्टि थी। उनकी आस्था एवं विश्वास की जड़ें भारतीयता में से ही प्राण तत्व ग्रहण करती थी। स्वाभाविक है कि नरसिम्हा राव के रहने से कांग्रेस के भीतर सोनिया गांधी की स्थिति पतली हो रही थी। यदि ज्यादा देर ऐसा चलता रहा तो गांधी को नेहरू परिवार में लाने और कांग्रेस पर कब्जा करने की उपयोगिता पर प्रश्न चिह्न लग जाता।
इसलिए नरसिम्हा राव के खिलाफ कांग्रेस के भीतर से ही एक विश्वासी गुट के माध्यम से जोरदार अभियान चलाया गया। उनकी भारतीय सांस्ड्डतिक दृष्टि को ही उनका नकारात्मक पक्ष बताया जाने लगा। लेकिन मुख्य प्रश्न यह था कि ऐसे समय में जब सोनिया गांधी के पास न सत्ता में कोई पद है और न ही कांग्रेस पार्टी के भीतर, तब उनकी महत्ता एवं आतंक को कैसे बरकार रखा जाये। इसके लिए अमेरिका सहित अन्य यूरोपीय शक्तियों ने एक नया रास्ता निकाला।
जब भी अमेरिका अथवा अन्य यूरोपीय देशों से भारत सरकार के निमंत्रण पर सत्ताधीश, प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री दिल्ली आते थे तो वे बाकायदा सोनिया गांधी से भी मिलने जाते थे। इसका मीडिया में भी प्रचार प्रसार किया जाता था। यह भारत के भीतर यूरोप की सोनिया गांधी की महत्ता स्थापित करने का यूरोपीय प्रयास था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मृत्यु और कांग्रेस का उदय
1997 में श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य बनीं और प्राथमिक सदस्य बनने के 62 दिनों के बाद ही उन्होंने सीताराम केसरी को अपदस्थ करके कांग्रेस के प्रधान का पद संभाला। कांग्रेस पर सोनिया गांधी के कब्जे की रणनीति में किस प्रकार भारत स्थित अमेरिकी समर्थित तत्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, यह किसी से छिपा नहीं है। अब एक पुख्ता रणनीति तैयार की गयी। भारत से बाहर हिंदुत्व पर पश्चिमी शक्तियां प्रहार करेंगी और भारत के भीतर कांग्रेस के अंदर गैर लोकतांत्रिक तिकड़मों से कब्जा किए हुए सोनिया गांधी का जत्था करेगा। तभी एक दिन कांग्रेस के भीतर अपने कुछ चुने हुए विश्वस्त साथियों की सहायता से सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को अवैधानिक ढंग से हटाकर कांग्रेस पर कब्जा कर लिया। सीताराम केसरी ने बहुत हो हल्ला मचाया लेकिन सोनिया गंाधी ने अपने इर्द गिर्द जिन लोगों का घेरा बना लिया था उन्होंने उनकी एक नहीं चलने दी। इस प्रकार एक सोची समझी साजिश के तहत सोनिया कांग्रेस का जन्म हुआ। लेकिन भारत के लोगों को धोखा देने के लिये यह आभास दिया गया, मानों यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अस्तित्व सीताराम केसरी को बलपूर्वक हटाने पर समाप्त हो गया उसके बाद कुछ साल तक केन्द्र की राजनीति में अस्थिरता का दौर चलता रहा। सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस पर कब्जा करने के बाद भी वह भारत में अपना प्रभाव नहीं जमा सकी। केन्द्र की सत्ता अन्य अन्य राजनैतिक दलों के समूहों में बंटती रही। लेकिन अन्ततः धमाका तो तब हुआ जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबधंन ने केन्द्र में सरकार बना ली। अब अमेरिकी -ब्रिटिश समूह के लिए सचमुच खतरा पैदा हो गया था। यदि संघ परिवार सेे उपजी भारतीय जनता पार्टी ज्यादा देर सत्ता में रह जाती तो निश्चय ही भारत के सांस्ड्डतिक पुनर्जागरण को बल मिलता क्योंकि भाजपा ने नेहरू की यूरोपीय सांस्ड्डतिक नीति को परिवर्तित कर उसे भारतीय स्वरूप देना प्रारम्भ कर दिया था।
इसलिए भाजपा को परास्त करके किसी भी तरह से इस नये दल सोनिया कांग्रेस के हाथों में भारत के सत्ता सूत्र देना ही ब्रिटिश-अमेरिकी समूह की नीति रही। तभी भारत को नियंत्रित ढंग से चलाया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य से यूरोपिय शक्तियां जिस सोनिया गांधी पर दाबव लगा रही थीं, उसने उनकी सहायता से और उनके संास्ड्डतिक दूतों के माध्यम से कांग्रेस पर तो कब्जा कर लिया था, लेकिन वह भारतीय जनमानस को अपनी पकड़ में नहीं ले सकी थी। सत्ता के चाटुकार, जैसा कि इस देश में इस्लामी और ब्रिटिश काल में भी हुआ है, उसके इर्दगिर्द जुट गये थे। लेकिन भारतीय जनमानस ने सोनिया गांधी को स्वीकार नहीं किया। 2004 के चुनावों में सोनिया गांधी के तमाम प्रयासों के बावजूद कांग्रेस लोकसभा की 540 सीटों में से केवल 144 सीटें ही जीत पाई। लेकिन इस बार वे शक्तियां जिनकी मंशा थी कि किसी प्रकार भी भारत की सत्ता राष्ट्रवादी शक्तियों के हाथ में नहीं जानी चाहिए, कोई चांस नहीं लेना चाहती थी। इसी को ध्यान में रखते हुए साम्यवादी शक्तियों की सहायता से यूपीए का गठन किया गया। कांग्रेस और साम्यवादी दलों में ऐतिहासिक या वैचारिक समानता नहीं है। लेकिन दोनों का भारतीय संस्ड्डति, इतिहास व विरासत से विरोध जगजाहिर है। साम्यवादी दल भी जानते हैं कि यदि उन्होंने भारत को पश्चिमी दृष्टि के साम्यवादी दर्शन के अनुकूल ढालना है तो यहां के जनमानस मे से भारतीय दृष्टि, दर्शन व संस्ड्डति की जड़ें काटनी होंगी। इसी प्रकार सोनिया गांधी भी जानती है कि यदि भारत को पश्चिमी दृष्टि व चर्च के दर्शन के लिए उर्वरा भूमि के तौर पर तैयार करना है तो यहां से भारतीयता को समाप्त करना होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोनों दल एकत्रित हो गये और उन्होंने अल्प मत में होते हुए भी सत्ता के केन्द्र से राष्ट्रवादी शक्तियों को अपदस्थ करने में सफलता हासिल की। लेकिन इस सारे द्रविड़ प्राणायाम में इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि सोनिया गांधी के बलबूते पश्चिम की गोरी शक्तियां भारत की सत्ता पर कब्जा नहीं कर सकती।
इस तथ्य को दृष्टिकोण में रखते हुए गोरी साम्राज्यवादी शक्तियों को लगा कि भारत में सोनिया गांधी के साथ मिलकर राष्ट्रवादी शक्तियों पर प्रत्यक्ष प्रहार करना होगा। कुछ ही महीनों में भारतीय संसद के लिए चुनाव होने वाले हैं। इसलिए उससे पहले ही भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों पर प्रहार करना जरूरी हो गया।
यही कारण है कि भारत सरकार आतंकवाद व आतंकवादियों से लड़ना तो चाहती है लेकिन आतंकवाद के इस आंदोलन और इसके उद्देश्य और इसमें संलग्न व्यक्तियों व ताकतों की शिनाख्त करने से बचना चाहती है। हो सकता है कि भारत सरकार ने शिनाख्त कर ली हो, लेकिन राजनीतिक कारणों से वह उनका नाम भी नहीं लेना चाहती और वह उनसे प्रत्यक्ष रूप से लड़ना भी नहीं चाहती। आखिर बिना ऐसा किये इस इस्लामी आतंकवाद से कैसे लड़ा जाएगा? आतंकवाद का यह इस्लामी जेहादी आंदोलन है। भारत इसका शिकार आठवीं शताब्दी से ही हो रहा है। जब इस्लाम की अरबी सेनाओं ने भारत पर आक्रमण किया था। यह आक्रमण उस समय और उसके बाद के वर्षों में सैनिक दृष्टि से सफल रहा और भारत पर इस्लामी ताकतों का कब्जा हो गया। सात-आठ सौ सालों में उसने भारत के जितने हिस्से का इस्लामीकरण कर दिया, 1947 में उतने हिस्से को भारत से अलग करवा दिया। लेकिन यह आक्रमण रुका नहीं। इसका स्वरूप बदलता गया। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब इस्लाम का यह आंदोलन पूरी दुनिया में पुनः जागृत हो गया तो भारत पर उसने अपना आक्रमण पुनः प्रारंभ कर दिया। यह आक्रमण भारत को इस्लामी देश बनाने के लिए किया गया आक्रमण है और जिहादी इसके लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार हैं। यह कुछ सिरफिरे दुःसाहसी मुसलमान युवकों का आतंक मचाने के लिए किया गया कारनामा मात्र नहीं है जैसा कि भारत सरकार और अंग्रेजी पत्रकारिता के संपादक विश्वास करने के लिए कहते हैं। इस आंदोलन के पीछे एक पूरा वैचारिक दर्शन है, यह इस्लाम का दर्शन है। इस दर्शन के पीछे उसे क्रियान्वित करने के लिए मुसलमान युवकों की सेना है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राण देने तक के लिए नहीं हिचकती। यह उद्देश्य भारत को दारुल हरब की श्रेणी से निकाल कर दारुल इस्लाम की श्रेणी में लाना है। जब तक ऐसा हो नहीं जाता तब तक 8वीं शताब्दी से चला हुआ इस्लामी आक्रमण का यह आंदोलन सफल नहीं कहला सकता। इस्लामी आक्रामक सेना दुनिया के जिस देश में भी गई, उसे कुछ ही वर्षों में इस्लामी देश में परिवर्तित कर दिया। परंतु भारत में उसे आंशिक सफलता ही मिली। भारत के कुछ हिस्से तो इस्लामी हो गये, लेकिन भारत का बडा हिस्सा इस्लामीकरण से बचा रहा और अपने मूल भारतीय स्वरूप में ही बना रहा। इस्लामी आतंकवाद का यही दर्द है। पुराने युग में बाकायदा इस्लाम की सेनाएं इस काम को पूरा करने के लिए भारत में आती थीं, लेकिन आधुनिक युग में आक्रमण का स्वरूप व स्वभाव दोनों ही बदल गये हैं। अब इस्लाम की शक्तियां आतंकवाद के माध्यम से भारत पर परोक्ष आक्रमण कर रही है।
क्या भारत सरकार की इच्छा आक्रमणकारियों को पहचानने और उनके वैचारिक आधार पर आक्रमण करने की है। इन आतंकवादी हमलों के कारण और उद्देश्य इस्लामिक इतिहास में ही देखने होंगे। क्या भारत सरकार की संकल्प शक्ति है? शायद ऐसा नहीं है। अभी भी भारत सरकार इस्लाम के मूल स्वरुप को पहचान नहीं सकी है। सरकार की और कांग्रेस की अपनी राजनीतिक विवशता हो सकती है। इतना ही नहीं वह कुछ व्यक्तियों की सत्य असत्य गतिविधियों को प्रचारित करके यथार्थ इस्लामी आतंक के मुकाबले काल्पनिक हिन्दू आतंकवाद का हौआ खड़ा कर रही है। हो सकता है कांग्रेस को कुछ वोटें मिल जाए लेकिन देश मुंबई बनने की ओर अग्रसर हो जाएगा। भारत सरकार मुंबई को तो बचाना चाहती है लेकिन इस्लामी आतंकवाद के राक्षस से लड़ने से कतरा रही है। इतना ही नहीं वह उसे आतंकवादी मानने से ही कुछ सीमा तक इंकार कर रही है। शायद यही कारण था जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफगानिस्तान गए तो वहां बाबर की कब्र पर भी वह श्र(ा सुमन अर्पित कर आए। भारत तो बच ही जाएगा। उसने 800 सालों तक इस्लामी आतंकवाद को झेलते हुए अपनी अस्मिता को बचाए रखा और अपनी निरंतरता में विद्यमान है। भारत अपनी भीतरी ऊर्जा से बचेगा लेकिन भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी की कलंक गाथा इतिहास में उसी तरह अमर हो जाएगी जिस तरह जयचंद और मीरजाफर की कलंक गाथा अमर हो गई है। लड़ाई अंततः भारत के लोगों को ही लडनी है और मुंबई के आक्रमण के समय भारतीयों ने उसी संकल्प शक्ति का परिचय दिया है। यकीनन भारत विजयी होगा और इस्लामी आतंकवाद पराजित होगा।
चर्च द्वारा भारत की पहचान बदलने का षड्यंत्र -संघ परिवार रास्ते की बाधा
जिस प्रकार पाकिस्तान अपने आतंकवादियों को कश्मीर में घुसाने के लिए सीमा पर गोलीबारी करता है और उसकी आड़ में आतंकवादी भारत में घुस आते हैं उसी प्रकार सोनिया बिग्रेड भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों पर सम्प्रदायिक और अल्पसंख्यक विरोधी होने का प्रहार करती हैं और पश्चिमी शक्तियां उसी की आड़ में भारत स्थित विदेशी चर्च मिशनरियों को धन मुहैया करवाती है। भारत में सोनिया गांधी के नेतृत्व में प्रशासन चर्च को अपने क्रियाकलापों के लिए उर्वरा भूमि प्रदान करता है और देश में मतांतरण का काम निर्बाध चलता रहता है। मतंातरण से राष्ट्रांतरण होता है धीरे धीरे भारत की पहचान धंुधली पड़ती है और एक नए राष्ट्र की पहचान उभरने लगती है। भारत में सोनिया गांधी द्वारा सत्ता सूत्र सम्भाल लेने के बाद चर्च और सोनिया काग्रेस की एक नई सांझेदारी विकसित हुई है। इसमें निश्चित ही वेटिकन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस पूरे षड्यंत्र के रास्ते में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्रवादी शक्तियां बाधा हैं। अतः संघ परिवार की राष्ट्रवादी पहचान पर सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस भीतर से प्रहार करती है और पश्चिमी शक्तियां बाहर से। कांग्रेस और चर्च का भारत की पहचान धुंधली करने का यह संयुक्त षड्यंत्र है। चर्च की रणनीति को समझने के लिए उसकी पृष्टभूमि को जानना अनिवार्य है।
चर्च की आक्रामक पृष्ठभूमि
ईसा की मृत्यु के लगभग 300 साल में उनके कुछ तथा कथित अनुयायियों ने स्वयं को संगठित कर लिया था और उन्होंने अपने इस संगठन के बल पर विश्व विजय के साम्राज्यवादी सपने देखने शुरू कर दिये थे। उन्हें अपने इस प्रयास में सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने रोम के तात्कालिक बादशाह कोन्स्टेन्टाईन को ईसाई मजहब में दीक्षित कर लिया और राजा ने ईसाई मत को सरकारी मजहब घोषित कर दिया। पादरियों के प्रभाव में रोम संस्ड्डति को समाप्त किया जाने लगा और मन्दिरों व देव मूर्तियों को नष्ट किया जाने लगा। राजा ने अपने पुत्र एवं महारानी को भी मरवा दिया। रोम साम्राज्य की वंश परम्परा समाप्त हो गई और पोप का राज्य स्थापित होने का रास्ता खुल गया। अब चर्च ने इससे उत्साहित होकर दुनिया भर में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिये। इसमें उसे सफलता भी मिली लेकिन ‘‘चर्च द्वारा ईसाई रीलिजन की स्थापना के लिए डेढ सौ करोड़ से अधिक लोगोें की हत्या की गई। पश्चिम के अंग्रेज इतिहासकारों ने अति परिश्रमपूर्वक इन हत्याओं को विवरण उपलब्ध किया है। चर्च द्वारा सौ से अधिक संस्ड्डतियों -सभ्यताओं, पन्द्रह सौ से अधिक विशिष्ट पहचान वाली जातियों तथा एक करोड़ से अधिक महिलाओं का सामूहिक कत्ल किया गया। विश्व के इतिहास में किसी भी पंथ अथवा सम्प्रदाय द्वारा सुव्यवस्थित रूप से इतनी हत्याएं नहीं की गई। हत्याओं का यह सिलसिला पहली शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक चला है। ”;शिवदत त्रिपाठी, कामेश्वर उपाध्याय, सम्पादक, इसाईयत का इतिहास वाराणसी, संवाद प्रकाशन 2008, पृष्ठ ग्टद्ध
भारत में चर्च की अमानवीय भूमिका
पोप ने जब विश्व भर में ईसाई मत का प्रचार करने के लिए पुर्तगाल और स्पेन को अधिकार दे दिये तो भारत में इस आंदोलन की शुरूआत के लिए पुर्तगाल ने प्रयास किये। जब पुर्तगाल ने गोवा पर अधिकार जमा लिया तो वहां भयंकर नरसंहार प्रारम्भ हुआ और मंदिरों को गिराया जाने लगा। पुर्तगालियों के लिए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। क्योंकि ईस्वी सन की शुरूआत की शताब्दियों में स्थापित रोम और यूनान की संस्ड्डति को नष्ट करने के लिए चर्च ने इसी कार्य पद्धति का सहारा लिया था। यूरोपीय देशों की मूल संस्ड्डति को नष्ट करके पोप की सत्ता स्थापित करने के लिए चर्च ने सर्वत्र इसी प्रणाली को अपनाया था। दरअसल ईसा मसीह की निर्मम हत्या के बाद उनके नाम को आधार बनाकर चर्च और पोप जिस साम्राज्य की रचना कर रहे थे उसमें आध्यात्मिकता नहीं थी। चर्च के असली स्वरूप को पहचानते हुए महात्मा गांधी ने कालांतर में कहा था कि आधुनिक चर्च में ईसा मसीह नहीं है, बाकी सब कुछ है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज के चर्च का ईसा मसीह और उन द्वारा सत्य और न्याय की रक्षा के लिए दिये जाने वाले बलिदान से कोई ताल्लुक नहीं है। कालांतर में तो यह चर्च अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय साम्राज्यवादी हवस का हरावल दस्ता सि( होने लगा। अफ्रीका और एशिया में लोगों का ईसाई मत में मतान्तरण वहां के सांस्ड्डतिक आधार को नष्ट करने के लिए किया जाने लगा ताकि चर्च द्वारा स्थापित नये सांस्ड्डतिक परिवेश में इन देशों के लोग यूरोप के शासन और वहां के सांस्ड्डतिक प्रवाह को सहज भाव से मानसिक रूप में स्वीकार कर लें। यूरोप की साम्राज्यवादी लिप्सा की पूर्ति के लिए चर्च अफ्रीका और एशिया के देशों में एकरूपता स्थापित करने के कार्य में जुट गया। मध्य काल में और उसके बाद भी अफ्रीका और एशिया में यूरापीय देशों के सेना करती थी, व्यावहारिक स्थितियां बदल जाने के कारण कालांतर में वही कार्य चर्च ने शुरू कर दिया।
पुर्तगाल द्वारा भारत में लाये जा रहे ईसाई आंदोलन के उपरान्त 19वीं शताब्दी में भारत में अंग्रेजी राज्य के साथ ही चर्च एक हरावल दस्ते के रूप में भारत में आया। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि जिस प्रकार भारतवर्ष में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं के लिए अनुकूल मानसिक वातावरण तैयार करने के लिए सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वही भूमिका चर्च अंग्रेजी शासन के लिए भारत में निभा रहा था। प्रसि( उपन्यासकार मुंशीप्रेम चन्द ने अपने उपन्यास रंग भूमि में इसका यथार्थ चित्रण किया है। 1947 में अंग्रेजों को परिस्थिति वश भारत से जाना पड़ा। इंगलैंड और चर्च दोनों के लिए ही यह चिन्ता का विषय था कि उसके उपरान्त भारत में चर्च की गतिविधियां किस प्रकार अबाध रूप से चलती रहें। क्योंकि इंगलैंड ने भारत से अपना प्रत्यक्ष शासन तो समेट लिया था परन्तु चर्च अपने उस साम्राज्यवादी आंदोलन को किसी प्रकार भी त्याग नहीं सकता था, जिसके परिणामस्वरूप उसने कुल मिलाकर दो हजार साल में यूरोप, अफ्रीका और अधिकांश एशिया की संस्ड्डति, इतिहास, विरासत और पूजा प्रणाली को समाप्त कर उसे चर्च साम्राज्य में समाविष्ट कर लिया था। इंगलैंड का हित भी चर्च के इसी हित से जुड़ा हुआ था। अब तक चर्च के इस आंदोलन में सहायक के रूप में अमेरिका भी कूद पड़ा था। क्यांेकि द्वितीय विश्व यु( के बाद विश्व राजनीति में इंग्लैंड का रूतबा कहीं कम हो गया था और अमेरिका अग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया था। चर्च और ब्रिटिश शासन की तमाम कोशिशों के वावजूद भारत की मुख्य संास्ड्डतिक धारा अक्षुण्ण ही नहीं रही बल्कि भारत के साधु संतों और योगियों ने विश्व भर में हिन्दु धर्म के मूल्यों की पताका फहराना भी प्रारम्भ कर दिया है।
चर्च द्वारा स्वामी विवेकानंद का विरोध
चर्च शुरू से ही भारत में मतांतरण का तार्किक आधार पर विरोध करने वाले विद्वानों, साधु सन्तों और स्वामियों को उत्तर देता रहा है। लेकिन उसका उत्तर देने का तरीका समय स्थान और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। अपने समय में चर्च स्वामी विवेकानन्द के हिन्दुत्व के अभियान से भी चिंतित था। स्वामी जी का बढ़ता प्रभाव चर्च को विचलित कर रहा था। ईसाई मिशनरी अमेरिका व यूरोप से आकर भारतीयों को ज्ञान देने का दंभ पाल रहे थे। उधर स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका व यूरोप के ईसाईयों को ही हिन्दुत्व की ओर आकर्षित कर लिया था। चर्च की चिन्ता यह थी,”जब मिशनरी प्रचारक भारत के स्कूलों व बाजारों में बाईबल का संदेश देने लगते तो पूरे विश्वास के साथ लोग स्वामी विवेकानन्द का नाम आगे कर देते थे। स्वामी जी ईसाईयत पर हिन्दुत्व की विजय के प्रतीक बन गये। यह विश्वास घर करता जा रहा था कि अब स्वामी जी आ गये हैं इसलिए ईसाई मिशनरी अवश्य पराजित हो जायेगे“ ;ए हिस्टरी ऑफ मिशन इन इंडिया पृष्ठ 388 द्ध
मिशनरियों की चिन्ता थी कि स्वामी जी के बढ़ते प्रभाव को कैसे रोका जाये? उनकी दृष्टि में स्वामी जी पाखंडी थे। ‘‘स्वामी जी का आचरण हिन्दुओं की पवित्र पुस्तकों की शिक्षाओं के विपरीत था। उन्होेंने समुद्र यात्रा की थी जिसके कारण वे जाति से बहिष्ड्डत हो सकते थे। अमेरिका में वे होटलों मे जाते थे वहॉं शु(-अशु( भोजन करते थे और बेतहाशा सिगरटें पीते थे’’ ;वही-पृष्ठ 387द्ध ताज्जुब है कि चर्च जिन अंधविश्वासों के आधार पर हिन्दुत्व को गाली दे रहा था अब उन्हीं को नकारने पर स्वामी विवेकानन्द को पाख्ंाडी बता रहा था। लेकिन चर्च की चिंता का कारण कहीं और गहरा था। चर्च का मानना था कि स्वामी जी ईसाई मिश्नरियों की तर्ज पर हिन्दु मिशनरी स्थापित करने का विचार कर रहे थे जो भारत के साथ साथ पश्चिमी देशों में हिन्दुत्व का प्रचार करे। वे हिमालय में एक मठ में चले गये और वहॉं अपनी इस योजना के लिए शिष्य एकत्रित करने लगे। लेकिन ईश्वर ऐसा कैसे होने दे सकता था। अचानक ही 4 जुलाई 1902 को 39 साल की उम्र में कोलकाता में उनकी मृत्यु हो गई ;वही-पृष्ठ 388द्ध इस उ(रण में स्वामी जी की मृत्यु पर चर्च की छिपी हुई प्रसन्नता स्पष्ट झलकती है। यूरोप और अमेरिका की इस मानसिकता को समझने के लिए एक-दो और घटनाओं का सही परिप्रेक्ष्य में विवेचन करना आवश्यक है। जैसा कि शुरू में संकेत किया गया है कि भारत विश्व के ईसाईकरण के एजेंडा में एक प्रकार से लेट ओवर एजेंडाहै, जिसको चर्च 21वीं शताब्दी में हर हालत में पूरा कर लेना चाहता है। इसमें यूरोप के देश तो उसके साथ है हीं। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, अमेरिका और कनाडा जैसे देश ;जिन पर यूरोपीय जातियों ने 17वीं शताब्दी के बाद कब्जा कर लिया था और वहां के जनजाति समाज को या तो मार ही दिया था या फिर उनका ईसाईकरण कर लिया थाद्ध भी चर्च के इस लेट ओवर एजेंडा को पूरा करने में सक्रिय सहायता कर रहे हैं। यूरोपीय जातियों की यह अजीब स्थिति है कि वे चर्च के राजनीतिक आधिपत्य को तो नकारती है लेकिन विश्व भर मे। उसके सांस्कृतिक आधिपत्य की समर्थक हैं। इतिहास में यूरोप ने चर्च के इस राजनैतिक आधिपत्य के खिलाफ विद्रोह किया और वहीं से सेक्युलर स्टेट की अवधारणा का विकास हुआ। ऐसी स्टेट जिसके राजनीतिक क्रियाकलापों में चर्च का हस्तक्षेप बिल्कुल न हो। लेकिन यूरोप यह जरुर चाहता है कि चर्च का सांस्कृतिक आधिपत्य सारे विश्व में कायम हो। क्योंकि चर्च का सांस्कृतिक आधिपत्य प्रकारांतर से यूरोप और अमेरिका की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को आगे बढाने में सहयोग करता है। चर्च की सत्ता जिस प(ति से स्थापित की गई, वह प्रक्रिया और आंदोलन आध्यात्मिक न रह कर एक प्रकार का राजनैतिक आंदोलन बन गया और चर्च का स्वरूप एक संगठित राजनैतिक दल के रूप में विकसित होने लगा। चर्च ने राष्ट्रीयता का विरोध करके पैन-ईसाई की अवधारणा को विकसित किया और पोप इस विश्व साम्राज्य का नियन्ता बना।
ओशो रजनीश का निष्कासन और इस्कान पर आरोप --इसलिए अमेरिका ने अरसा पहले ओशो रजनीश को अमेरिका से निष्कासित कर दिया था। इस घटना को चर्च के इसी मतांतरण अभियान के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। चर्च भारत में मतांतरण कर रहा है। उसके लिए पाखंड, लोभ, लालच, भय और अज्ञानता का सहारा ले रहा है। इसके विपरीत ओशो रजनीश ने चर्च को अमेरिका में जाकर लताडा। उन्होंने बाईबल की स्थापनाओं, मान्यताओं और विश्वासों पर तार्किक आधार पर सवाल उठाये। ओशो रजनीश का हथियार चर्च की तरह पाखंड और लालच नहीं था बल्कि ज्ञान का मूल आधार तर्क था। अमेरिका की ईसाई युवा पीढी में ओशो रजनीश की मान्यता बढती जा रही थी। उनके तार्किक प्रश्नों से बाईबल का अवैज्ञानिक और अतार्किक आधार खंडित होने लगा था। अमेरिका को लगा कि आचार्य रजनीश ईसा के मत को कटघरे में खडा कर रहे हैं। अमेरिका लोकतंत्र, बोलने की स्वतंत्रता, लिखने की स्वतंत्रता और प्रचार करने की स्वतंत्रता की बात उसी सीमा तक करता है जिस सीमा में चर्च को आघात न लगे। क्योंकि अमेरिका विश्व भर में अपनी राजनीतिक प्रभुत्ता स्थापित करना चाहता है और चर्च की सांस्कृतिक प्रभुता। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मध्ययुगीन चर्च के रोमन साम्राज्य के स्थान पर आधुनिक युग का यह अमेरिकी साम्राज्य प्रारंभ हुआ है जिसमें चर्च और स्टेट एक दूसरे के पूरक बन कर उभरे हैं। रजनीश ने इसी पाखंड पर प्रहार किया था और अमेरिका ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।
केस स्टडी के लिए दूसरा उदाहरण हरे राम- हरे कृष्ण ;इस्कानद्ध का लिया जा सकता है। ओशो रजनीश ने चर्च को ज्ञान के स्तर पर चुनौती दी थी। स्वामी प्रभुपाद ने उसे भक्ति के स्तर पर चुनौती दी। स्वामी प्रभुपाद का यह आंदोलन ओशो रजनीश से भी दो कदम आगे था। इसमें तर्क की शायद इतनी तपिश नहीं थी। गोरे लोग आस्था के स्तर पर वैष्णव विश्वासों से जुड़ने लगे। ज्ञान के स्तर पर भी, आचरण और संस्कार के स्तर पर भी। कमाल की बात यह है कि यह आंदोलन देखते देखते पूरे विश्व में फैल गया और अमेरिका की युवा पीढी भी इसकी चपेट में आने लगी। इसे क्या इतिहास का संयोग कहा जाए कि भारत में वृंदावन के बाद न्यू वृंदावन की स्थापना अमेरिका में हुई। अमेरिका और यूरोपीय सरकारों के लिए प्रभुपाद का यह आंदोलन असहनीय होने लगा। ओपस दाई और सीआईए के प्रयासों से आंदोलन में दलाल घुसाने की एक लंबी साजिश चली और इन दलालों ने इस्कान के सन्यासियों पर दुराचार और यौन शोषण के आरोप लगाये। इस षड्यंत्र की परतें अब धीरे-धीरे खुल रही हैं। केस स्टडी में ये उदाहरण इस लिए लिये गये हैं क्योंकि यूरोप व अमेरिका में जब चर्च की मान्यताओं को लेकर शास्त्रार्थ होता है तो सभी सरकारें सेक्युलरिज्म का लबादा उतार कर नंगे चिट्टे रुप में चर्च के सहायक के रुप में खडी हो जाती हैं।
अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय मजहबी स्वतंत्रता अधिनियमः-जब से अमेरिका की शक्ति बढ़ी है तो उसने अपने देश में एक नया विभाग स्थापित किया है। इसकी स्थापना 1998 में अंतरराष्ट्रीय मजहबी स्वतंत्रता अधिनियम के तहत हुई। यह विभाग दुनिया भर में यह देखता है कि कौन-कौन से देश चर्च के मतांतरण के आंदोलन में बाधा पहुंचा रहे हैं और उसके रास्ते में दीवार बन रहे हैं। उससे भी आगे उन संस्थाओं और व्यक्तियों की शिनाख्त की जाती है जो चर्च के इस अभियान के राह का रोडा हैं। अमेरिका ने बाकायदा इस कानून के अंतर्गत दूसरे देशों में स्थित अपने दूतावासों को स्पष्ट निर्देश दिया हुआ है कि वे सरकारों को चर्च की मतांतरण की कार्रवाइयों का विरोध करने से रोकें। उन पर हर प्रकार से दबाव बनाएं और समय-समय पर उस देश के अधिकारियों को भी इस विषय पर आगाह करते रहें। साल के अंत में अमेरिका सरकार बाकायदा एक रपट प्रस्तुत करती है जिसमें चर्च के मतांतरण अभियान के विरोधियों का वर्णनन किया जाता है। यह प्रकारांतर से अमेरिका का उस देश को चेतावनी पत्र ही होता है।
इधर अमेरिका ने अपनी रणनीति को और तीखा व धारदार बनाया है। चर्च की मतांतरण की गतिविधियों का जो विरोध करते हैं उनको अमेरिकी सरकार ने आतंकवादियों के रुप में चिह्नित करना शुरु कर दिया है और पिछले कुछ सालों से यह उत्तरदायित्व भी अमेरिका ने खुद ही संभाल लिया है कि आतंकवादी कौन है और कहां है। इसकी शिनाख्त वह स्वयं करेगा और आतंकवाद को समाप्त करना भी उसी का कर्तव्य है। स्वंय के ओढे़ हुए इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए अमेरिका को किसी से अनुमति लेने की जरुरत नहीं है। संयुक्त राष्ट्रसंघ से भी नहीं। 9/11 की घटना के बाद तो अमेरिका का रवैया तो और भी खूंखार हो गया है। अफगानिस्तान में अमेरिका का प्रवेश आतंकवाद को समाप्त करने के लिए ही हुआ। इराक में भी अमेरिका का प्रवेश आंतक वाद को समाप्त करने के लिए ही था और अमेरिका पाकिस्तान के अंदर घुस रहा है। इसका कारण भी वह आतंकवादियों को नष्ट करना ही बता रहा है। पाकिस्तान और अमेरिका का साझा मकसद स्पष्ट हैं। अमेरिका पाकिस्तान का उपयोग भारत की घेराबंदी करना चाहता है। जाहिर है पाकिस्तान यह भूमिका निभाने के लिए सहर्ष तैयार है। इस धेराबंदी का मकसद भारत में राष्ट्रवादी ताकतों को आतंकवादी बताकर सोनिया बिग्रेड की सहायता करना है। सोनियां कांग्रेस भारत की सत्ता संभाले रहे, यह अमेरिका समेत पश्चिमी ताकतों का मकसद है। क्योंकि सोनिया की सरपरस्ती में चर्च को अपना मतांतरण आंदोलन चलाने में सहायता मिलती है। इसलिए अमेरिका ने भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को अपनी हिटलिस्ट में अगले निशाने पर रखा हो।
इसका अनुमान पिछले कुछ अरसे से अमेरिका की रीति नीति और उसके कृत्यों को समझ कर लगाया जा सकता है। अमेरिका की जासूसी संस्था सीआईए जो तृतीय विश्व के देशों में सरकारों को उखाडने व जमाने के लिए कुख्यात है, की आधिकारिक वेबसाइट पर राष्ट्रीय स्वंयंसेवक संघ कोे हिन्दू उग्रवादी संगठन बताया गया है। धीरे-धीरे संघ परिवार अमेरिका की दृष्टि में मिलिटैंट की श्रेणी में आता जा रहा है। अंग्रेजी मीडिया ने, जिसका संचालन अधिकांशतः चर्च से जुडी हुई संस्थाएं करती हैं, बजरंग दल को हिन्दू आतंकवादी संगठन बताना शुरू कर दिया है। अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी को वीजा देने से इंकार कर दिया। ऐसा करने का उसे अधिकार है। परंतु इस इंकार के साथ अमेरिका ने लंबे कारण गिनाएं हैं जिसका अधिकार अमेरिका को नहीं हैं। उन कारणों में से एक प्रमुख कारण यह भी है कि चर्च के मतांतरण कार्यक्रमों का विरोध गुजरात में हो रहा है। यह अमेरिका और वेटिकन की संयुक्त रणनीति ही है कि सोनिया गांधी ने पिछले कुछ सालों से किसी भी प्रांत की सरकार को मतांतरण रोकने के लिए कानून बनाने की अनुमति नहीं दी। राजस्थान विधानसभा ने मतांतरण रोकने के लिए दो दो बार कानून पास किया लेकिन राज्यपाल ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किये। यहां तक की वेटिकन के राष्ट्रपति पोप ने भारत के राजदूत अमिताभ त्रिपाठी को इसके लिए सार्वजनिक डांट भी लगाई। जिन प्रदेशों ने पूर्व में ऐसे अधिनियम बना भी लिये थे उनको इन विधेयकों को लागू करने से रोका गया। जैसे-जैसे संघ परिवार देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक चेतना के केन्द्र में आ रहा है त्यों-त्यों अमेरिका उसे कट्टरवादी, उग्रवादी और आतंकवादी सि( करने के लिए विश्व भर के मीडिया को जुटा रहा है। चर्च के आधिकारिक घोषणापत्र आपरेशन वर्ल्ड में स्पष्ट रुप से घोषणा की गई है कि राष्ट्रवाद चर्च के मतांतरण अभियान की सबसे बडी बाधा है। संघ परिवार भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक के रुप में ही देखा जाता है। शायद इसलिए चर्च और अमेरिका दोनों को ही लगता है कि संघ परिवार मतांतरण के रास्ते का रोड़ा है। अब अमेरिका और चर्च दोनों ही अपनी इस अवधारणा को छिपाते नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट ही इसकी घोेषणा कर दी है। उन्हें भारत में वह व्यवस्था अनुकूल लगती है जो राष्ट्रवाद की जगह पश्चिमीकरण के नाम पर चर्च को खुला खेल खेलने की अनुमति दे दे। इस व्यवस्था के सूत्रधार के रुप में चर्च और अमेरिका ने बड़ी मेहनत से सोनिया गांधी को स्थापित किया है।
चर्च स्वामी विवेकानन्द से लेकर स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती तक अपनी रणनीति समय अनुसार तैयार करता रहा है। उसने भारतीयता के इन सभी साधु संतों को उत्तर अवश्य दिया। स्वामी विवेकानंद को एक तरीके से और स्वामी लक्ष्मणानंद को दूसरे तरीके से। फर्क केवल इतना ही है कि 21 वीं शताब्दी तक आते आते चर्च का उत्तर देने का तरीका बदल गया।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या: भविष्य का संकेत
चर्च द्वारा त्रिपुरा में शान्तिकाली जी महाराज की हत्या और ओडीशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की पृष्ठ भूमि में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रहार करने की रणनीति को समझना आसान हो जायेगा। इन दोनों हत्याओं के मामले में कांग्रेस का रवैया आश्चर्यजनक रूप से चर्च के पक्ष में रहा। सोनिया गांधी और उनकी चर्च समर्थक शक्तियां किसी भी तरीके से शीघ्रातिशीघ्र राहुल गांधी को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बिठा देना चाहती हैं। देश में छोट मोटे राजनैतिक हितों वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का सहयोग उन्होंने किसी ने किसी तरीके से प्राप्त कर ही लिया है। लेकिन सोनिया और चर्च दोनों जानते है कि संघ परिवार और देश की राष्ट्रवादी शक्तियां किसी न किसी रूप में भारत की राजनीति के केन्द्र बिन्दु तक पहंुच गई हैं। इसलिए संघ को हटाये बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता और न ही भारत में चर्च की रणनीति सफल हो सकती है। यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनते तो सोनिया गांधी की 45 साल पहले इंग्लैंड के कैम्ब्रिज से दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर तक पहुंचने की सारी मेहनत बेकार जायेगी और चर्च के व पश्चिमी शक्तियों के भारत की पहचान बदलने के सारे स्वप्न धूलि धूसर हो जायेंगे। चर्च द्वारा स्वामी जी की हत्या की इस पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती बड़े-बड़े नगरों में भीड़ के सामने प्रवचन करने वाले स्वामी नहीं थे। उनके प्रवचन दृश्य माध्यमों से प्रसारित भी नहीं होते थे। वे उसके लिए प्रयास भी नहीं करते थे। और इस उद्देश्य के लिए विभिन्न चैनलों से किराये पर टाइम स्लाट भी नहीं लेेते थे। इसलिए शायद स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती शहरी समाज में और मीडिया में भी उस प्रकार चर्चित नहीं थे। स्वामी जी ने भारत के जनजाति समाज विशेषकर उड़ीसा के जनजाति समाज पर स्वयं को केन्द्रित किया हुआ था। वे इस समाज की आध्यात्मिक भूख को ही शान्त नहीं करते थे, बल्कि उनके आर्थिक विकास की चिंता भी करते थे। वे जनजातीय समाज के समग्र विकास के लिए प्रयत्नशील थे। वे उनमें साक्षरता व शिक्षा का प्रसार भी कर रहे थे। जनजातीय समाज की निरक्षरता और उसकी गरीबी ही चर्च के लिए सबसे उर्वरा शिकार भूमि है।चर्च ने उड़ीसा के संदर्भ में मतांतरण आंदोलन की समीक्षा करते हुए स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। उड़ीसा में मतांतरण रोकने का कानून भी बना हुआ है लेकिन हिन्दु कट्टरपंथियों के तमाम विरोध के बावजूद उड़ीसा में ईसाईयों और चर्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रदेश में बाईबल के संदेश के प्रति जनजाति समाज ही सबसे ज्यादा उत्सुक और उत्साही हैं ओरांव 40 प्रतिशत, खरीया 37 प्रतिशत, मुंडा 34 प्रतिशत बिनहजिया 6.4 प्रतिशत साओरा 6 प्रतिशत, किसान 5 प्रतिशत कोल 5 प्रतिशत और कंध 2 प्रतिशत मतांतरण के द्वारा इसाई मत में दीक्षित हो चुके हैं। इनके जो लोग अपना पंथ छोड़कर इसाई हो गये हैं उन्में 62 प्रतिशत जनजाति और 25 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं। मतांतरित होने वाले अधिकांश लोग सुन्दरगढ़, कंधमाल और गजपति जिलों के रहने वाले हैं। ईसाई मत में दीक्षित होने का मुख्य कारण इनकी निरक्षरता और गरीबी ही है। इस जनजाति समाज को मतांतरित करने के लिए उड़ीसा में अनेक इसाई उपसम्प्रदाय अभिकरण सक्रिय हैं। परन्तु उड़ीसा में स्वर्ण जाति के लोग चर्च के घेरे में नहीं आ रहे। अनुसूचित जातियों में भी एक को छोड़कर अन्य चर्च के घेरे में नहीं आ रहे। इस चुनौती का सामना करना लाजमी है ;आपरेशन बर्ल्ड, पैट्रिक जॉन स्टॉन, मिशिगन, जान्डरवन पब्लिशिंग हाउस, 1993, पृष्ठ 287द्ध जिस वक्त चर्च मतांतरण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए रणनीति तैयार कर रहा था, उसी वक्त स्वामी लक्ष्मणान्नद सरस्वती के नेतृत्व में भारतीय समाज भी इन राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए आगे आया। जाहिर है जनजाति समाज की जिस निरक्षरता, गरीबी और पिछड़ेपन की चर्च को सबसे ज्यादा जरूरत है स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उसी पर प्रहार कर रहे थे। दूसरे स्वामी जी प्रचार से परे रह कर जमीनी स्तर पर कर्मशील थे। यदि वे केवल प्रवचन या उपदेश देकर चुप रह जाते तो चर्च इतने क्रोध में न आता लेकिन स्वामी जी ने तो अपने आप को जनजाति समाज से एकाकार कर लिया था। यह चर्च के लिए असहनीय भी था और चुनौती भी। दरअसल स्वामी जी चर्च के मुंह से जनजाति समाज रूपी वह शिकार छिन रहे थे जो अंग्रेज जाने से पहले उसके हवाले कर गये थे और जिसे सोनिया कांग्रेस भी सेक्यूलरिज्म के नाम पर उसे चर्च के पास ही रहने देने की समर्थक है। इसलिए स्वामी लक्ष्मणानन्द चर्च के शत्रुओं की श्रेणी में सबसे उपर ठहरते थे। टी.वी. वाले स्वामियों से तो चर्च शब्द के स्तर पर ही निपट सकता था। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती से कैसे निपटा जाये स्वामी जी शब्द शूर नहीं कर्म शूर थे। इससे पहले भी चर्च ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तरीके से भारतीयता और हिन्दुत्व के पुनर्जागरण हेतु कार्य करने वाले तपस्वियों को अपमानित करने का प्रयास किया था ताकि उनकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाये।
कुछ साल पहले जब वेटिकन के राष्ट्रपति पोप महोदय भारत आये थे तो स्पष्ट घोषणा कर गये थे कि 21वीं शताब्दी भारत में चर्च की शताब्दी होगी और चर्च मतान्तरण की फसल काटेगा। लक्ष्मणानन्द सरस्वती पोप की उसी घोषणा के आगे कैलाश पर्वत बनकर खडे़ थे। चर्च ने उसका उत्तर दे दिया है। सरकार अपने राज धर्म का पालन करने की बजाए चर्च की कठपुतली बनकर वेटिकन का एजेंडा लागू कर रही है। लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी ने भविष्य के भारत के रक्षा यज्ञ में अपनी पहली आहुति डाल दी है।
भारत में चर्च का मतांतरण अभियान और विदेशी शक्तियां
भारत को, विशेषकर भारत के जनजाति सामज को ईसाई मजहब में मतांतरित करना चर्च के विश्वव्यापी अभियान का ही एक हिस्सा है। इस अभियान में उसे पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों, खास कर नागालैंड, मेघालय व मिजोरम में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है और वहां अधिकांश जनजातियां अपने पूर्वजों की विरासत और मान्यताओं को छोड़कर चर्च की विरासत से जुड़ गई। चर्च यह अभियान ओडीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात और बिहार के जनजाति क्षेत्रों में भी तेजी से चला रहा है। इसके विरोध में जो भी खड़ा हुआ चर्च ने उसे समाप्त करवा दिया। त्रिपुरा में स्वामी शान्तिकाली जी महाराज की इसी प्रकार हत्या की गई थी। और अब 2008 में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी को मार दिया गया। स्वामी जी की हत्या से चर्च ने दो स्पष्ट संकेत दिये। पहला संदेश तो यह कि जो भी चर्च के मतांतरण अभियान के रास्ते में बाधा बनेगा उसका हश्र भी वैसा ही होगा जैसा स्वामी शान्ति काली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती का हुआ है। दूसरा संदेश यह कि भारत सरकार या फिर प्रदेश सरकार चर्च का कुछ बिगाड़ नहीं पायेगी। अलबत्ता अप्रत्यक्ष रूप से उसकी मददगार ही होगी।
लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि चर्च का मतांतरण अभियान आईसोलेटिड एक्ट नहीं है बल्कि एक बहुत ही सुनियोजित और सुव्यवस्थित विश्व अभियान है, जिसमें भारत से बाहर की भी अनेक शक्तियां प्रमुख भूमिका में है। चर्च ने अब इन विदेशी शक्तियों को भारत में आमंत्रित करके तीसरा संदेश देने का प्रयास किया है कि चर्च को मतांतरण से रोकने पर यह विदेशी देश ही कूटनीतिक स्तर पर हस्तक्षेप कर सकते है। यूरोपीय संघ ने ओडीसा में अपना जांच दल भेज कर यही संदेश दिया है।
ओडीसा में कानून व्यवस्था की जांच करने के लिए यूरोपीय संघ ने 11 सदस्यीय जांच दल पिछले दिनों भेजा था। यह जांच दल 2 फरवरी से लेकर 5 फरवरी तक चार दिनों के लिए ओडीसा में घूमता रहा। जांच दल का नेतृत्व यूरोपीय संघ के राजनैतिक मामलों के अध्यक्ष क्रिस्टोफर मैनेट और ऐने वाउगीयर कर रहे थे। उन दोनों के अतिरिक्त इस जांच दल में स्पेन के गैराडो फियो बा्रेस, हंगरी के नोर बट्र रिवालवर, पोलैंड की क्रिस्टाना, आयरलैंड की लविना कोलिनस, नीदरलैंड के एलग्जैंडर जपुस्टरवीजक, इग्लैंड की रूथ वालेमी विलस, फिनलैंड की लैलसा बाल जैंटों, स्वीडन के एंडरज सयोवर्ग और इटली के डॉ. गरेवरिले आनिस थे। नौ देशों के ये प्रतिनिधि दिल्ली स्थित इन देशों के दूतावासों में या तो प्रथम सचिव के पद पर काम कर रहे हैं या फिर काउंसलर के पद पर। जाहिर है इन सभी व्यक्तियों के पास भारत में रहने के लिए कूटनीतिक वीजा ही होगा। कूटनीतिक वीजा के धारक भारत सरकार की लिखित अनुमति के बिना किसी स्थान पर नहीं जा सकते और उस देश की आंतरिक स्थिति अथवा आंतरिक मामलों में तो बिल्कुल ही हस्तक्षेप नहीं कर सकते। इससे इतना तो स्पष्ट है कि यूरोपीय संघ के इस जांच दल को भारत सरकार ने ही ओडीसा जाने के अनुमति दी होगी। यह जांच दल 2 तारीख को भुवनेश्वर के हवाई अड्डे पर रात्रि लगभग 9 बजे पहुंचा। अगले ही दिन इस जांच दल ने कटक में पुलिस मुख्यालय में प्रदेश के महत्वपूर्ण अधिकारियों की बैठक बुलाई और उन अधिकारियों से ओडीसा की कानून व्यवस्था के बारे में लम्बी बातचीत की। प्रदेश सरकार के पुलिस महानिदेशक सरकार की और से स्पष्टीकरण देने के लिए उपस्थित थे। 4 फरवरी को यह जांच दल सड़क मार्ग से प्रदेश के सर्वाधिक संवेदनशील कंधमाल जिले में पहुंचा। वहां इस जांच दल ने नंदगिरि के पुनर्वास केन्द्र में जाकर चर्च के लोगों से बातचीत की। ध्यान रहे यह पुनर्वास केन्द्र वही है जहां कुछ महीने पहले कुछ ईसाई उग्रवादी बम बनाते हुए मारे गये थे। इसके अतिरिक्त यह जांच दल हाटपाड़ा, नीलूगिया, पीरीगढ़, के नुआगांव, बालीगुड़ा राईकिया इत्यादि स्थानों पर गये। इस जांच दल के उद्देश्यों और गतिविधियों पर चर्चा करने से पहले ओडीसा के लोगों को बधाई देना जरूरी है क्योंकि ओडीसा के लोगों ने स्थान-स्थान पर इस जांच दल का विरोध किया, इसे ओडीसा का अपमान बताया और इसके खिलाफ प्रदर्शन किये। 2 तारीख को जांच दल के हवाई अड्डे पर उतरते ही प्रदर्शनों का यह सिलसिला शुरू हो गया था। 5 फरवरी को जब यह जांच दल कंधमाल के जिला मुख्यालय में न्यायालय के न्यायधीशों को मिलने का प्रयास कर रहा था तो वकीलों के भारी विरोध के कारण यह संभव नहीं हो पाया। जांच दल को जिलाधीश कृष्ण कुमार के साथ कानून व्यवस्था की समीक्षा बैठक करके ही संतोष करना पड़ा। यह जांच दल केवल चर्च के अधिकारियों, मतांतरित ईसाइयों से ही मिलता रहा। यहां तक कि मीडिया के गिने चुने और सावधानी से तय किये गये कुछ लोगों के साथ ही इस जांच दल ने एक पाश होटल में मीटिंग की। उड़िया भाषा के पत्रकारों को पास ही नहीं फटकने दिया बल्कि उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया गया। चर्च के अधिकारियों के साथ इस जांच दल ने एक गुप्त बैठक भी की जिसमें क्या बातचीत हुई इसका ब्यौरा किसी को नहीं दिया गया। राज्य सरकार ने जांच दल के लिए कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की हुई थी। प्रदर्शनकारियों के उग्रविरोध को देखते हुए होटल में जांच दल को पिछले दरवाजे से ही ले जाना पड़ा। निष्पक्ष जिला अधिकारियों का मानना था कि इस जांच दल के कंधमाल में जाने से जनजाति के लोगों और मतांतरित ईसाइयों के बीच में तनाव बढ़ने की आशंका है , लेकिन राज्य सरकार ने उनके आकलन पर कोई ध्यान नहीं दिया।
इसी बीच जब यह जांच दल ओडीसा के विभिन्न क्षेत्रों में घूम कर कानून व्यवस्था की जांच कर रहा था तो भुवनेश्वर में आर्कबिशप राफेल चिनाथ ने एक प्रैस वार्ता बुलाई। इसमें अखिल भारतीय क्रिश्चियन कौंसिल के अध्यक्ष जॉन दयाल भी उपस्थित थे। आर्कबिशप ने इस पत्रकार वार्ता में ओडीसा सरकार और भारत सरकार पर गंभीर आरोप लगाये। आर्कबिशप के अनुसार सरकार ने चर्चो का पुननिर्माण करने के लिए अभी तक धन मुहैया नहीं करवाया और न ही जिन ईसाई परिवारों के मकानों को दंगें के दौरान नुकसान हुआ था उनको उसका मुआवजा दिया गया। आर्कबिशप ने कहा कि सरकार ईसाइयों के साथ भेदभाव कर रही है। उसने न्यायालय पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि न्यायालय ज्यादातर तथाकथित अपराधियों को छोड़ रहा है। प्रैस वार्ता से पहले इस आर्कबिशप की यूरोपिय जांच दल से लम्बी बातचीत हुई थी। जांच दल ने अपने दौरे के बाद स्पष्ट कहा कि यदि यहां मतांतरित ईसाईयों के साथ कुछ होता है तो यूरोपीय देशों पर उसका असर पड़ता है। पत्रकारों ने यह पूछा कि पिछले डेढ़ साल से आप चुप थे और यूरोपीय संघ के जांच दल के आने पर क्यों बोल रहे हैं क्या यह भी कोई बड़ी योजना है? तो आर्कबिशप कन्नी काट गये।
इस जांच दल की गतिविधियों के बारे में विस्तृत जानकारी होने के बाद अब इसके उद्देश्यों और भविष्य की रणनीति पर विचार करना आवश्यक है। सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि यूरोप के इस जांच दल को ओडिसा में कानून व्यवस्था की जांच पड़ताल करने के लिए किसने निमंत्रित किया था? निमंत्रण भेजने वाली दो ही संस्थाएं हो सकती हैं या तो भारत सरकार या फिर ईसाई संगठन। भारत सरकार और ओडीसा सरकार दोनों ही फिलहाल इस मुद्दे पर चुप हैं। कटक और भुवनेश्वर के आर्कबिशप राफेल चिनाथ से यही प्रश्न ओडीसा के उत्तेजित पत्रकारों ने किया था। प्रश्न था कि आपने बाहर के देशों के जांच दल को ओडीसा में क्यों आमंत्रित किया है? भाव कुछ इस प्रकार का था कि यह जानबूझ कर ओडीसा को अपमानित करने की साजिश है। तब चिनाथ ने इस जांच दल को निमंत्रित किये जाने से अपनी भूमिका को लेकर इंकार किया। लेकिन उसने यह जरूर कहा कि जांच दल ने उसे पत्र लिख कर यह जरूर सूचित किया था कि वह उससे मिलना चाहता है और ओडीसा में ईसाइयों की स्थिति के बारे में जानकारी लेना चाहता है। यदि इस जांच दल को भारत सरकार ने निमंत्रित नहीं किया तो जाहिर है शक की सुई आर्क बिशप के इर्द गिर्द ही घूमेगी। आगे बढ़ने से पहले आर्कबिशप के पद के बारे में जान लेना जरूरी है। जिस प्रकार भारत सरकार देश के विभिन्न जिलों में जिलाधीश नियुक्त करती है उसी प्रकार वेटिकन देश का राष्ट्रपति भारत में विभिन्न क्षेत्रों के लिए आर्कबिशपों की नियुक्ति करता है। आर्कबिशप के नीचे बिशप का पद होता है और वह एक सीमित क्षेत्र अथवा डायकोजी का मुखिया होता है। बिशपों की नियुक्ति भी भारतवर्ष में वेटिकन के राष्ट्रपति ही करते है। आर्क बिशप के उपर कार्डिनल का पद होता है और उसकी नियुक्ति भी वेटिकन के राष्ट्रपति ही करते हैं। कार्डिनल का क्षेत्र कई प्रांतों के बराबर होता है। भारत में इस समय वेटिकन के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त पाचं कार्डिनल हैं। वेटिकन के राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने के बाद नये राष्ट्रपति का चुनाव भी यह कार्डिनल करते है। 2005 में जब वेटिकन के राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था तो इन पांच कार्डिनलों में से तीन ने मतदान किया था। दो इसलिए मतदान नहीं कर सके क्योंकि उनकी उमर 80 साल से ज्यादा हो चुकी थी और वेटिकन के संविधान के मुताबिक 80 साल से ज्यादा उमर के कार्डिनल का नाम उस देश की मतदाता सूची में दर्ज नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि वेटिकन के राष्ट्रपति भारत में एक समानांतर सरकार चला रहे हैं और ये आर्कबिशप इत्यादि उस सरकार के अधिकारी हैं। इसे सुविधा के लिए भारत में वेटिकन की प्रतिनिधि सरकार अथवा ईसाई सरकार भी कहा जा सकता है। भारत में इस ईसाई सरकार की प्रजा या फिर इसके प्रति आस्था रखने वाले लोग मतांतरित ईसाई हैं। इस सरकार के अपने नियम और कायदे कानून हैं। और अपनी प्रजा पर उसे लागू करवाने का एक तंत्र भी। कंधमाल में जनजाति समाज और मतांतरित ईसाइयों में दंगा फसाद हुआ तो जाहिर है दोनों पक्षों का नुकसान हुआ होगा। इस ईसाई सरकार का यह भी कहना है कि ओडीसा सरकार ने या फिर भारत सरकार ने ही इस मौके पर ईसाइयों की पूरी सुरक्षा नहीं की। इसलिए आर्कबिशप ने यूरोपीय संघ की सरकार को जांच पड़ताल के लिए बुला लिया है। कंधमाल के उन गांवों में जहां यह जांच दल गया था वहां के मतांतरित ईसाई बड़े उत्साह में भर कर जनजाति समाज के लोगों को ललकार रहे हैं कि हमारे पीछे तो यूरोप की सरकारें है। बिशपों के एक इशारे पर वे सात समुद्रपार से हमारे साथ आ खड़े हुए हैं। फिर वे पूछते है-आपके साथ कौन है? ओडीसा का जनजाति समाज भला इसका क्या उत्तर दे? उसे इस बात का विश्वास ही नहीं है कि ओडीसा सरकार या भारत सरकार उसके साथ है। जो उनके साथ था वह लक्ष्मणानन्द सरस्वती चर्च ने मरवा दिया। जब ओडीसा सरकार उसके हत्यारों को ही नहीं पकड़ रही तो वह जनजाति समाज का क्या साथ देगी?
यूरोपीय संघ का यह जांच दल मतांतरण के लिए 150 लाख यूरो की सहायता की बात करके गया है। ऊपरी तौर पर यह सहायता विकास और कल्याण के लिए कही जायेगी लेकिन सभी जानते हैं कि इसका मकसद भारत में मतांतरण को तेज करना ही होता है।
आर्कबिशप की प्रैस कान्फ्रैंस में जब किसी ने ऐसा आरोप लगाया तो आर्कबिशप भड़क उठे। जॉन दयाल तो उनके साथ थे ही। उन्होंने कहा यूरोपीय संघ पंथनिरपेक्ष देशों का संघ है। वह ईसाई देशों का संघ नहीं है। इसलिए उस पर यह आरोप लगाना की वह ओडीसा में मतांतरण के काम मंे तेजी लाने के लिए ही आया है, गलत होगा। आर्कबिशप अच्छी तरह जानते हैं कि तुर्की को यूरोपीय संघ में इसीलिए शामिल नहीं किया जा रहा है कि वह मुस्लिम देश है। तुर्की के राष्ट्रपति ने तो संघ के इस रवैये को देख कर कहा भी था कि यूरोपिय संघ इस प्रकार व्यवहार कर रहा है मानो वह ईसाई देशों का ही संघ हो। ओडीसा में संघ के जांच दल ने इस बात को और भी पुख्ता कर दिया है। ओडीसा के एक ईसाई पी0के0 थॉमस ने ही न्यू इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादक को लिखे एक पत्र में कहा है कि यदि यूरोपीय संघ को मानवाधिकारों के हनन की ही इतनी चिन्ता है तो उन्हें तिब्बत या अलजीरिया जाना चाहिए था। ओडीसा में आकर यह जांच दल यह स्थापित करने का प्रयास कर रहा है कि भारत के ईसाइयों की निष्ठा यूरोप के देशों के साथ है क्योंकि वहां भी ईसाई बसते हैं। दरअसल यूरोपीय संघ मजहब के आधार पर भारत के ईसाईयों की देश से पार निष्ठा स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।
यहीं से भारत सरकार की भूमिका प्रारम्भ होती है। पिछले दिनों मलेशिया में हिन्दुओं पर वहां की सरकार ने अनेक प्रकार के अत्याचार किये उन्हें जेलों में बंद कर दिया गया और मन्दिर तोड़ दिये गये। क्या भारत सरकार भारत से किसी जांच दल को वहां भेज सकती थी? या फिर यदि भेजती है तो मलेशिया सरकार उसे अपने देश में इस प्रकार से जांच करने की अनुमति दे देगी जिस प्रकार की अनुमति भारत सरकार ने इस जांच दल को ओडीसा में दी है? एक और उदाहरण दिया जा सकता है। कुछ साल पहले रूस ने अपने यहां के हिन्दुओं द्वारा बनाये गये एक मन्दिर को तोड़ दिया था और इस अत्याचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हिन्दुओं को बंदी बना लिया था। वही प्रश्न फिर खड़ा होता है कि क्या रूस सरकार भारत के किसी जांच दल को अपने देश में उस प्रकार की जांच और व्यवहार करने की अनुमति दे देती जिस प्रकार का व्यवहार यूरोपीय संघ के इस जांच दल ने ओडीसा में किया है।
क्या यह भारत की प्रभुसत्ता में विदेशी दखलअंदाजी नहीं है? संविधान भारत सरकार को इस देश की प्रभुसत्ता की रक्षा करने के लिए कहता है और अब भारत सरकार इसी प्रभुसत्ता में यूरोपीय संघ की सहायता से दरारें पैदा कर रही है। यह सब कुछ इसलिए किया जा रहा है ताकि यह किया जा सके कि भारत के ईसाइयों की जिम्मेदारी या तो यूरोपीय संघ की है या फिर वेटिकन की। आर्कबिशप शायद भारत सरकार को या फिर ओडीसा की सरकार को डराना चाहते है कि हम आपके भरोसे पर मतांतरण का यह आंदोलन नहीं चला रहे बल्कि हमारे पीछे यूरोपीय संघ की ताकत है। जिन लोगों को उनकी इस बात पर भरोसा नहीं था उनके लिए उन्होंने प्रमाण हेतु यूरोपीय संघ का जांच दल ओडीसा के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया है।
प्रश्न केवल यह है कि भारत सरकार सचमुच डरी हुई है या फिर वह अंदरखाते मतांतरण के मामले में यूरोपीय संघ और वेटिकन के साथ ही मिली हुई है। मनमोहन सिंह इसका जवाब दंे या न दें लेकिन सोनिया कांग्रेस को तो इसका जवाब देना ही होगा। यह नैतिकता का भी तकाजा है और भारत के हितों का भी। जाहिर है कांग्रेस और विदेशी धन के बलबूते पर फलफूल रही सशक्त सांठ-गांठ के सूत्र इस पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिखायी देने लगते हैं। भारत में चर्च को अपना मतांतरण आंदोलन चलाने में किसी प्रकार की बाधा का सामना न करना पड़े , यह सोनिया कांग्रेस का गुप्त एजंेडाहै। जिसको कुछ पत्रकारों हिडेन एजेंडाभी कहते हैं। इस मसले पर सोनिया कांग्रेस और संघ का टकराव स्पष्ट दिखलायी देता है। सोनिया कांग्रेस संघ परिवार का भारतीयता अथवा राष्ट्रीयता के क्षेत्र में मुकाबला नहीं कर सकते क्योंकि संघ परिवार की राष्ट्रीयता और उसके प्रति प्रतिबद्धता जगजाहिर है, और प्रामाणिक भी। चर्च की पूरी लड़ाई भी इस भारतीयता अथवा राष्ट्रीयता के खिलाफ है। इसलिए कांग्रेस इस लडाई में चर्च को अपने तरीके से कुमुक पहुंचाने का कार्य कर रही है। यह तभी संभव है यदि संघ परिवार को किसी भी ढंग से अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों में अलिप्त बताकर जनता की नजर में बदनाम किया जाए। आतंकवादी घटनाओं में राष्ट्रवादी शक्तियों की तथाकथित संलिप्तता को लेकर जांच एजंेसियों और विदेशी मीडिया के एक समूह की सहायता से चलाए जा रहे अभियान को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
विकीलीक्स खुलासे से पुष्ट हुई राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध की रणनीति
विकीलीक्स के खुलासों से भारत को लेकर कांग्रेस और अमेरिका दोनों की रणनीति का कुछ सीमा तक खुलासा हुआ है। संघ परिवार और भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करने व हाशिए पर ले जाने के रणनीति पर सोनिया कांग्रेस व अमेरिका एक ही दिशा में चल रहे हैं। राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करने की रणनीति मूलतः वेटिकन की है। जिसको पूरा करने में ये दोनों सहयोग करते नजर आ रहे हैं।
विकीलीक्स ने अमेरिका सरकार के लाखों संदेश सार्वजनिक कर दिये हैं , जिसको लेकर दुनिया भर में तहलका मचा हुआ है। अमेरिका के अलग अलग देशों में जो दूतावास हैं, वे वहां से वाशिंगटन को समय समय पर संदेश भेजा करते हैं। यह संदेश उस देश की आंतरिक अवस्था के बारे में टिप्पणियां या आकलन होते हैं। जाहिर है जमीनी स्तर से मिली हुई इन जानकारियों से ही अमेरिका अपनी विदेश नीति बनाता है। और दूसरे देशों में अपनी भावी राजनीति को अंतिम रूप देता है। मीडिया, भारत में इन खुलासों को लेकर इतना शोर मचा रहा है कि उसकी आवाज में सोनिया कांग्रेस और अमेरिकी सरकार के भारत सम्बन्धी षड्यंत्र से ध्यान हटता जा रहा है। हो सकता है मीडिया के एक वर्ग की, जो मुख्य तौर पर विदेशी मालिकों से संचालित है, यह भी एक सोची समझी योजना हो। इसलिए जरूरी है कि विकीलीक्स के इन खुलासों की पृष्ठ भूमि में भारत को लेकर रचे जा रहे षड्यंत्र को ठीक ढंग से समझा जा सके। सबसे पहले गुजरात में वहॉं के मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी को खत्म करने के लिए एक बड़े षड्यंत्र की रूपरेखा। इन खुलासों से स्पष्ट हो गया है कि नरेन्द्र मोदी को मारने के लिए लश्कर-ए-तोयबा एक लम्बे समय से अपना जाल बुन रहा है, जिसकी पूरी जानकारी अमेरिका को थी और है। भारत सरकार का कहना है कि अमेरिका ने इसकी सूचना उसको नहीं दी। फिलहाल तर्क के लिए भारत सरकार की इस बात को स्वीकार किया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका चाहता था कि लश्कर-ए-तोयबा मोदी को मारने के अपने इस अभियान में सफल हो जाये। अमेरिका का अपना एक एजेंट भी भारत में इसी प्रकार की आतंकवादी योजनाओं में तालमेल बिठाने और उन्हें निष्पादित करने में सक्रिय था। हेडली नाम का यह व्यक्ति पाकिस्तान की आईएसआई के लिए भी काम कर रहा था और अमेरिका की सीबीआई के लिए भी। ऊपर से देखने पर लगता है कि हेडली डबल क्रास कर रहा था। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। क्योंकि पाकिस्तान की आईएसआई और अमेरिका की सीआईए व्यवहारिक रूप में एक दूसरे से सहयोग करके ही चल रहे हैं। डेविड कोलमैन हेडली इस सहयोग का उत्ड्डष्ट नमूना है। इसका वास्तविक नाम दाऊद सैयद गिलानी है और यह मूलतः पाकिस्तान का रहने वाला है। बाद वह अमेरिका का नागरिक बन गया। स्वाभाविक है कि यदि वह अपने असली नाम से बार बार भारत के चक्र लगाता तो निश्चय ही सुरक्षा एजेंसियों की नजर में आ सकता था। इसलिए अमेरिका ने उसे हेडली के नाम से पासपोर्ट प्रदान किया। अमेरिकी पासपोर्ट और उपर से हेडली नाम। कोई भी कल्पना कर सकता है कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नजर आसानी से उस पर नहीं पड़ेगी। इसलिए वह लम्बे समय तक भारत में आतंकवादी योजनाएं बनाने में और उनको निष्पादित करने के लिए आवश्यक संरचनागत ढांचा तैयार करने के काम में लगा रहा। लेकिन सी0आई00 के दुर्भाग्य से वह अमेरिका में ही पकड़ा गया और मीडिया के चलते यह खबर छिपी भी नहीं रह सकी। अब अमेरिका की चिन्ता बढ़ना स्वाभाविक था। यदि नियमानुसार उसे भारत को सौंपना पड़ा तो न जाने वह अमेरिका के कितने राज उगल दे। इसलिए अमेरिकी सरकार ने उससे तुरंत अपने अपराधों की स्वीड्डति करवाई और उसे जेल में बंद कर दिया। यानी एक प्रकार से उसे भारत की जांच एजेंसियों की पहंुच से बाहर कर दिया। वैसे भारत सरकार की रूचि भी हेडली से बचने की ही रही क्योंकि यदि जांच एजेंसियां उससे गहन पूछताछ करती तो हो सकता था, भारत सरकार की आतंकवादियों से लड़ने की अपनी नीति की राजनीति के ढोल की पोल खुल जाती।
अमेरिका सरकार जानती थी कि लश्कर-ए-तोयबा भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी की हत्या की तैयारियां कर रहा है। इसके बावजूद वह लश्कर-ए-तोयबा को इस हत्या के लिए एक काल्पनिक साम्प्रदायिक और उन्मादित आधार प्रदान करने के काम में जुटी हुई थी। नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा न देना इसी बड़ी योजना का एक हिस्सा था। किसी को वीजा देना या न देना अमेरिका की सरकार का अपना अधिकार है। इसके लिए उस पर उगली नहीं उठाई जा सकती और न ही किसी को अमेरिका की पर्दे के पीछे की भूमिका पर शक हो सकता था। परन्तु नरेन्द्र मोदी को वीजा न देने के कारणों की आड़ में अमेरिका ने जो प्रवचन दिया, वह अप्रत्यक्ष रूप से लश्कर-ए-तोयबा और अन्य आतंकवादी संगठनों को मोदी की हत्या के लिए प्रेरित करने जैसा ही था। अमेरिका ने मोदी पर मुस्लिम विरोधी होने, मुसलमानों का नरसंहार करनवाने इत्यादि के न जाने कितने आरोप मढ़े। यह ठीक है कि अमेरिकी सरकार द्वारा दिये गये कारण कुतर्क की श्रेणी में आते हैं। परन्तु अमेरिका भी जानता है कि लश्कर-ए-तोयबा जैसे संगठनों को आतंकवाद की प्रेरणा के लिए कुतर्कों की ही जरूरत होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका मोदी की हत्या होते चुपचाप देखते रहने का इच्छुक था। यदि उसकी ऐसी इच्छा न होती तो निश्चय ही वह यह सूचना भारत सरकार को देता। अब दूसरी संभावना पर भी विचार कर लेना चाहिए। मान लीजिये अमेरिका ने भारत सरकार को यह सूचना मुहैया करवा दी थी। तब भारत सरकार ने इस छिपा कर रखा इससे भी भारत सरकार की मंशा पर प्रश्न चिन्ह लगता है। यहॉं तक ही बस नहीं गुजरात की सुरक्षा एंव जांच एजेसियां अपने बलबूते गुजरात में आतंकवाद को लेकर की जाने वाली घटनाओं की जानकारी हासिल करती है और जान हथेली पर रख कर पुलिस के लोग आतंकवादियों से टक्कर लेते हैं। जब किसी आतंकवादी की इस टक्कर मेें मौत हो जाती है तो कुछ लोग तुरन्त मरे हुए आतंकवादियों के पक्ष में और आतंकवाद का मुकाबला करने वाले पुलिस बल के खिलाफ मानवाधिकार के नाम पर मोर्चा लगा लेते है। तीस्ता सीतलवाड़ तो गुजरात में आतंकवादियों के खिलाफ की गई कार्यवाहियों को अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाओं में उठाती रहती है। यहॉं तक कि न्यायालय को भी उसके इस व्यवहार पर आपत्ति करनी पड़ी। सीतलवाड़ पर गवाहों को डराने धमकाने के आरोप भी न्यायालय में लगते रहे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि लश्कर-ए-तोयबा गुजरात में नरेन्द्र मोदी को मारने का प्रयास करेगा और कुछ लोग उससे पहले वहॉं के पुलिस बल को हतोत्साहित करने का प्रयास करेंगे। इशरतजहां और सोहराबुद्दीन के मामलों से ऐसे ही संकेत मिलते हैं। दुर्भाग्य से भारत सरकार तीस्तासीतलवाड़ों के साथ खड़ी दिखाई देती है न कि लश्कर-ए-तोयबा का साजिशों को विफल करने वालोें के साथ।
आतंकवाद के प्रति दृष्टि-सरकार के इस व्य्ावहार से दो स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। प्रथम तो य्ाह कि वह देश की आतंकवादिय्ाों से सुरक्षा करने में ही अक्षम है। द्वितीय्ा य्ाह कि वह मुस्लिम वोटों के लालच में उनका तुष्टिकरण करने के लालच में आतंकवाद को समाप्त ही नहीं करना चाहती बल्कि उसका मजहबी दोहन करना चाहती है। इसलिए वह आतंकवाद से सख्ती से निपटना ही नहीं चाहती। तीसरा यह कि सोनिया कांग्रेस मतांतरण के काम में लगी विदेशी ईसाई मिशनरियों की भीतरी सांठगांठ है। यह मिशनरियां जनजातीय समाज में मसीही आतंकवाद फैलाने के काम मे लगी हुई हैं और सरकार इनका साथ दे रही है। त्रिपुरा में शांतिकाली जी महाराज और ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या व गुजरात में अब स्वामी असीमानंद की तथाकथित आरोपों में गिरफ्तारी इसी का प्रमाण है।
देश के लिए य्ाह तीनों स्थितिय्ाां घातक हैं। लेकिन एक चौथे मोर्चे पर सरकार का व्य्ावहार चौंकाता भी है और उसकी भविष्य्ा की रणनीति का संकेत भी करता है। जैसे ही विश्व जनमत का पाकिस्तान पर दबाव बढने लगता है कि वह भारत में आतंकी गतिविधिय्ाां समाप्त करे और भारत में हुए आतंकी कारनामों में जिम्मेदार लोगों और संगठनों से सख्ती से निपटने लगी भारत सरकार इन विस्फोटों में हिन्दु आतंकवाद का हौआ खड़ा करके पाकिस्तान की आक्रमक होने की एक स्वनिर्णय्ा अवसर प्रदान कर देती है। समझौता एक्सप्रेस में हुआ विस्फोट इसका ताजा उदाहरण है। सिम्मी के अध्य्ाक्ष नागौरी ने नोटंकी तौर में कबूल किया है कि यह कारनामा उसके संगठन ने लश्करे तोयबा की सहायता से किया था और इसमें पाकिस्तान का हाथ है, अब भारत सरकार इतने सालों बाद स्वयं की सिमी और लश्करे-तोयबा को इन विस्फोट में क्लीन चिट दे रही है।
प्रत्येक आतंकी घटना में सोनिया कांग्रेस ने एक खास पैटर्न विकसित कर लिया है। जैसे ही किसी आतंकी घटना में सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में आतंकी मारे जाते हैं वैसे ही सोनिया कांग्रेस के जिम्मेदार लोग और तथाकथित मानवाधिकार संगठनों के उनके सहाय्ाक तुरंत मुठभेड़ को नकली घोषित कर देते हैं और सुरक्षा बलों के खिलाफ कार्रवाई की मांग शुरू कर देते हैं। दिल्ली में बाटला हाउस मुठभेड़ कांड में मारे गए मुस्लिम आतंकवादिय्ाों का पक्ष लेते हुए सोनिया कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय्ा सिंह ने शहीद हुए पुलिस अधिकारी मोहन चंद्र शर्मा की शहादत को लांछित किय्ाा। य्ाही कायर््ा उन्होंने 26/11 में शहीद हुए हेमंत करकरे को लेकर किय्ाा। य्ाह अलग बात है कि दोनों केसों में शहीद के परिवार वालों ने शहीदों की चिताओं पर राजनीति करने के लिए सार्वजनिक रूप से सोनिया कांग्रेस महासचिव दिग्विजय्ा सिंह की भर्त्सना की। लेकिन दिग्विजय्ा सिंह य्ाहीं तक नहीं रुके। वे मारे गए आतंकवादिय्ाों के गृह क्षेत्र आजगमढ़ में उनके परिवारों को अपना समर्थन देने के लिए पहुंचे। वोटों की खातिर मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कोई संगठन इस हद तक जाएगा इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी।
दोनों सामी सम्प्रदायों मसलन इस्लाम व ईसाइयत के विदेशी उपासकों ने भारत पर लम्बे अरसे तक राज किया है। लेकिन उनका दर्द यह है कि वे भारत की मूल पहचान को समाप्त नहीं कर सके। बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में ये दोनों, अपनी नई रणनीति बनाकर इस काम में जुटे तो रास्ते में संघ परिवार खड़ा है इसलिये ये शक्तियां संघ को अपने रास्ते की बाधा मानती हैं। इसलिए उन्होंने संघ को प्रहार का निशाना बनाया हुआ है। पिछली कुछ अरसे से चर्च द्वारा प्रमुख साधु-संयासियों की हत्या इन शक्तियों की भविष्य की रणनीति का संकेत देती हैं। भारत में आतंकवाद से निपटने में सोनिया कांग्रेस का दोहरा आचरण तो स्पष्ट है कि अमेरिका का दोगला व्यवहार भी स्पष्ट दिखायी देता है। अमेरिका स्वयं तो पाकिस्तान के भीतर घुसकर ओसामा बिन लादेन को मारने के अपने अधिकार की वकालत करता है, लेकिन पाकिस्तान में बैठकर भारत में आतंक फैला रहे आतंकी संगठनों के खिलाफ इसी प्रकार की कार्यवाही के भारतीय अधिकार का विरोध करता है। अलबत्ता जहां तक भारत में संघ परिवार और राष्ट्रवादी शक्तियों पर आक्रमण करने का प्रश्न है, उसमें सोनिया कांग्रेस और अमेरिका एक ही धरातल पर खडे़ नजर आते हैं।
पंजाब के इतिहास में भी मीर मन्नू का उदाहरण सामने आता है। इस विदेशी आक्रांता ने पंजाबियों पर अमानुषिक अत्याचार किए और उन पर अमानुषिक अत्याचार किये। तब पंजाब में एक लाोकउक्ति है-

मन्नू असाडी दातरी, असी मन्नू दे सोये।
ज्यूं -ज्यूं मन्ने बड्ढ दा, असी दूणे चौणे होए।
सोया सरसो की जाति का एक पौधा होता है उसे जितना काटा जाता है वह उतना ही फलता फूलता है। इसी तरह मन्नू पंजाबियों को जैसे मारता-काटता था वैसे -वैसे उनका उत्साह बढ़ता, वे फलते -फूलते जाते थे।
सरकार ज्यों -ज्यों संघ पर प्रहार करेगी त्यो -त्यों संघ फलेगा -फूलेगा। यह भारतीय इतिहास की परम्परा है। लेकिन दुर्भाग्य से साम्यवादियों का भारतीय इतिहास से कुछ लेना -देना नहीं है और कांग्रेस का उद्देश्य ही भारतीय पहचान व इतिहास को नकारना है। सरकार द्वारा संघ पर किया गया यह प्रहार भारतीय परम्परा पर किया गया प्रहार है और निश्चय ही भारतीय परम्परा इस प्रहार को निष्प्रभावी कर देगी।
उपसंहार
जिन दिनों भारत सरकार और कांग्रेस मिलकर विश्व में हिन्दु आतंकवाद अथवा भगवा आतंकवाद की अवधारणा का नाम करण प्रचारित -प्रसारित करने के प्रारम्भिक प्रयास कर रही थी। उन्हीं दिनों अभिनव भारत नाम की संस्था के प्रमुख सूत्रधारों की गोपनीय बातचीत के कुछ अंश दिल्ली से प्रकाशित तहलका पत्रिका ने प्रकाशित किये थे। इसी अभिनव भारत को आगे करके एक समूह हिन्दु आतंकवाद की अवधारणा को लोगों के गले उतराने में जुटा हुआ है। अब लगभग यह माना जाने लगा है कि अभिनव भारत भी कांग्रेस की उसी प्रकार की नई किश्ती है, जिस प्रकार की एक और कश्ती भिंडरावाले के नाम से पंजाब में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्थापित की थी। यद्यपि कांग्रेस का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से परम्परा और विरासत के लिहाज से कुछ लेना देना नहीं है। कांग्रेस सोनिया माईनो के नेतृत्व में स्थापित एक नया राजनैतिक दल है जिसने अत्यन्त चतुराई से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ढांचे पर कब्जा कर लिया है ताकि भारत के लोग धोखे में आ सके। इसी षड्यंत्र और चतुराई से कांग्रेस को हिन्दुस्तान में ही हिन्दु आतंकवाद की अवधारणा को प्रचारित करने की जरूरत थी। इससे सोनिया माईनो के नेतृत्व में काम कर रही शक्तियों के गुप्त एजेंडे की पूर्ति हो सकती थी। इस पृष्ठभूमि में अभिनव भारत के सूत्रधारों की वह गोपनीय बातचीत अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि अभिनव भारत सोनिया कांग्रेस के एक बड़े एजेंडे के लिए शतरंज का एक मोहरा भर है। बातचीत से मुख्य मुद्दे और संकेत उभर कर सामने आते हैं वह सोनियां कांग्रेस की भविष्य की राजनीति का संकेत देते है। बातचीत के अनुसार -
1. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दु विरोधी संगठन है और वह हिन्दुओं के हितों की रक्षा करने में असफल हुआ है।
2. संघ मुसलमानों के तुष्टीकरण में लगा है और इसमें पाकिस्तान की आईएसआई के भी लोग हैं।
3. इसलिए जरूरी है कि संघ के प्रमुख लोगों यथा मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार की हत्या की जाये।
4. अभिनव भारत की इस योजना में कुछ समविचारी ईसाई और ईसाई संस्थाएं भी शामिल हैं।
जिन दिनों अभिनव भारत के सूत्रधारों की यह बातचीत प्रकाशित हुई थी उन दिनों ऐसी ईसाई संस्थाओं की शिनाख्त को लेकर बहुत हो हल्ला हुआ था। परन्तु सोनिया कांग्रेस ने बहतु चतुराई और खुबसूरती से मीडिया के उस वर्ग की सहायता से, जिस पर विदेशी कम्पनियां का कब्जा है, इस मुद्दे को मीडिया से बिल्कुल ब्लैक आउट कर दिया। अलबत्ता भारत सरकार की जांच ऐजसियों ने कांग्रेस के इशारे पर हिन्दु आतंकवाद को प्रचारित करने की अपनी गुप्त योजना मंे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी आरोप लगाने शुरू कर दिये। कांग्रेस के लिए अभिनव भारत तो लांचिग पैड था अन्ततः उस संघ को ही आतंकवादी घोषित करना था। लेकिन इसमें इसाई संस्थाओं की भूमिका को लेकर अभी भी रहस्य बना हुआ था।
अब उस रहस्य की परते धीरे धीरे उठने लगी हैं। इसका पहला संकेत तब मिला जब सरकार ने समाझौता एक्सप्रैस इत्यादि बम विसफोटों मंे गुजरात के स्वामी असीमानंद का नाम घसीटना शुरू किया गुजरात के जनजातिय क्षेत्रों में कार्य कर रहे असीमानंद एक लम्बे अर्से से चर्च की आंख की किरकिरी बने हुए थे। जहां तक कि वेटिकन में भी असीमानंद के कार्यकलापों को लेकर चिंता जताई जा रही थी। विदेशी पैसे के बल पर चर्च गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में लम्बे अरसे से मतांतरण आंदोलन चला रहा है। असीमानंद के सांस्कृतिक जनजागरण अभियान के कारण उस आंदोलन की गति मंद पड़ गई थी। इसलिए चर्च किसी भी प्रकार से असीमांनद को मार्ग से हटाने के रास्ते ढूंढ रहा था। जब अचानक सरकार की जांच एजेंसियों असीमानंद को आतंकवाद से जोड़ने लगी तो भारत के लोगों को तभी लगने लगा था कि शायद चर्च की योजना को पूरा करने के लिए असीमानंद की बलि दे रही है।
लेकिन हाल के संकेतों से यह बिल्कुल ही स्पष्ट होने लगा है कि इस मामले में चर्च और सरकार केवल मिले हुए ही नही हैं बल्कि एक सांझी रणनीति के तहत कार्य भी कर रहे हैं। इसके कुछ पुष्ट प्रमाण पिछले दिनों मिले। जान दयाल नाम के एक सज्जन ने अखिल भारतीय इसाई परिषद के नाम से एक संस्था चला रखी है यह संस्था इधर उधर से काफी पैसा भी इकट्ठा करती रहती है। जॉन दयाल की गतिविधियां सदा ही संदेहास्पद रही हैं और उनकी जांच करवाने की मांग होती रहती है। इसी प्रकार की एक दूसरी संस्था ग्लोबल ईसाई परिषद के नाम से किसी जॉर्ज नाम के व्यक्ति ने चला रखी है। उसकी संस्था के धन सत्रांे को लेकर भी उगलियां उठती रहती हैं। जॉन दयाल और जॉर्ज में विरोधी भाव भी विद्यमान रहता है। इसका कारण जर जमीन कुछ भी हो सकता है। जॉन दयाल भारत में हिन्दुओं के खिलाफ इधर-उधर चिट्ठियां लिखते रहते हैं और जॉर्ज भी यही धंधा करते हैं। चर्च द्वारा पोषित मीडिया का एक वर्ग इन दोनों को खूब उछालता रहता है। पिछले दिनों जॉन दयाल ने भारत की राष्ट्रपति को एक पत्र लिखकर कहा कि उड़ीसा में 2008 में हुई स्वामी लक्ष्माणनंद सरस्वती की हत्या के बाद हुए दंगों को भड़काने में इन्द्रेश कुमार का हाथ था। उसके कुछ दिनों बाद ग्लोबल ईसाई परिषद के जार्ज भुवनेश्वर में एक धरने पर ही बैठ गये और उन्होंने भी राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख मारी कि इन दंगों में स्वामी असीमांनद और इन्द्रेश कुमार दोनों का ही हाथ था। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की उड़ीसा के कंधमाल जिला में हत्या 2008 में हुई थी और उसके तुरन्त बाद वहां ईसाईयों और हिन्दुओं में झड़पें हुई थीं जिसमें अनेक लोग मारे गये थे। उड़ीसा सरकार ने दंगों की जांच के लिए जस्टिस महापात्र आयोग स्थापित किया है। दंगों के तीन साल बाद अचानक कुछ ईसाई संस्थाएं इसमें इन्द्रेश कुमार को लपटने में क्यों और कैसे सक्रिय हो गई, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। यह ध्यान रहे कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या चर्च ने माओवादियों की सहायता से करवा दी थी।
सरस्वती भी उड़ीसा के जनजातीय क्षेत्रों मेें चर्च के मतांतरण आंदोलन का उसी प्रकार विरोध कर रहे थे जिस प्रकार गुजरात में स्वामी असीमांनद कर रहे थे। सरस्वती के हत्या करवाये जाने पर जनजातीय क्षेत्र अत्यन्त क्रोधित थे लकिन चर्च की योजना का दूसरा चरण शायद दंगे भड़काकर वहॉं से हिन्दुओं को निर्वासित करना या डरा कर खामोश करना था। इसी जॉन दयाल और इसके एक और साथी राधा कांत नायक जो मतांतरण करके इसाई हो चुके हैं, जिन्होंने अपनी नौकरी के दौरान चर्च के मतांतरण आंदोलन को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग दिया और बाद में जिनको सोनिया कांग्रेस ने राज्यसभा का सदस्य बना दिया ताकि वे मतांतरण आंदोलन को और भी शक्ति से चला सके, ने सरस्वती की हत्या के बाद क्षेत्र का व्यापक दौरा किया और उसके तुरंत बाद वहां दंगे भड़क उठे। लेकिन इन दंगों में हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए जॉन दयाल एंड कम्पनी ने यह आरोप भी लगाया कि हिन्दुओं ने एक नन के साथ सामूहिक ब्लात्कार किया। यह अलग बात है कि जब यह कैसे कचहरी में चला गया तो उसी नन ने इसको लटकाने के लिए न जाने के लिए कितने प्रयास किये। सरकार की मिली भगत से कंध जन जाति के न जाने कितने हिन्दू अभी भी इन दंगों के नाम पर जेलों में सड़ रहे हैं। लेकिन सोनिया कांग्रेस की रणनीति हिन्दू आतंकवाद को केवल मुस्लिम समुदाय से जोड़ कर पूरी नहीं हो जाती, उसको इसे चर्च से जोड़ना हैं, ताकि हिन्दू आतंकवाद के भूत को पूरे यूरोप और अमेरिका में घुमाया जा सके। जॉन दयाल और जार्ज द्वारा इकट्ठे होकर इन्द्रेश कुमार का इन दंगों में नाम लेना इस बात की और संकेत भी करता है कि किसी तीसरी शक्ति ने, जो इन ईसाई संस्थाओं को धन मुहैया करवाती है, इन दोनों को आपसी मतभेद भुला कर संघ के खिलाफ मिलकर मोर्चा खोलने के लिए कहा होगा ताकि कांग्रेस के गुप्त एजेंडे मंे असानी से रंग भरे जा सके। अभिनव भारत के सूत्रधार अपनी गोपनीय बातचीत में अपनी पूरी योजना में जिन इसाई संस्थाओं की भागीदारी की बात की है, जॉन दयाल और जार्ज की गतिविधियों से उसका रहस्य कुछ सीमा तक खुलता नजर आ रहा है। माओवादी भी चर्च की इसी योजना का एक हिस्सा हैं, वैसे तो यह स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या से ही स्पष्ट हो गया था, लेकिन पिछले दिनों उड़ीसा के गजपति में प्रमुख माओवादी महिला नेत्री आरती ने एक प्रैस कांफ्रेंस में माओवादी आंदोलन से अपने मोहभंग का जिक्र करते हुए कहा कि माओवादी भी चर्च की सहायता से हिन्दुओं का मतांतरण कर रहे हैं और उन्हें वैचारिक आधार पर गौ मांस खाने के लिए विवश किया जा रहा है। जाहिर है कांग्रेस - चर्च-माओवादी आंदोलन का सांझा गुप्त एजेंडा भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करना है। हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा उसी गुप्त एजेंडा की आईटम है और इसके लिए चर्च की सहायता से इसको विश्वव्यापी भी बनाया जा सकता है। और कल को विदेशी शक्तियों द्वारा भारत में हस्तक्षेप का बहाना भी।
पिछले दिनों राजीव मल्होत्रा और अरबिंदन नीलकंदन की पुस्तक ब्रेकिंग इंडिया प्रकाशित हुई है। यह ग्रंथ वर्तमान परिस्थितियों में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। राजीव मल्होत्रा के अनुसार, ‘भारत के टुकड़े कर देने की साजिश में लगे अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मिशनरियों ने अपने जाल रच रखे हैं। कई स्वयंसेवी संगठनों, एनजीओ, मानवाधिकार संगठन और मिशनरी संस्थाओं की बताई दिशाधारा में चलने वाले बु(िजीवी इसी तंत्र का हिस्सा हैं। इन सबके जरिए भारत को कम से कम 12 देशों में तोड़ने का षड्यंत्र हैं। इन टुकडों में मुस्लिम बहुल, ईसाई बहुल, द्रविड़, दलित, आदिवासी, पर्वतीय, सीमांत क्षेत्रीय आदि इलाके हैं। देश को जितने टुकड़ों में बांटने की मंशा है यदि वह पूरी हो जाए तो भारत और भारतीय संस्कृति कहीं बचे ही नहीं। ;अमर उजाला, 17 जुलाई, 2011, ज्योतिर्मय से बातचीतद्ध इससे आगे एक और परिकल्पना पर विचार कर लेना भी उचित रहेगा। अभी शायद यह परिकल्पना दूर की कौड़ी लग सकती है। लेकिन विश्व राजनीति में जिस प्रकार की घटनाएं घटित हो रही है उनसे इंकार नहीं किया जा सकता। मध्य एशिया के तेल के भंडारों वाले कई देशों में पिछले दिनांे जन विद्रोह हुए हैं और कुछ में अभी भी हो रहेे हैं। ये जन विद्रोह वहां के सरकारों के स्वरूप को लेकर हैं। इन देशों में राजशाही के स्वरूप वाली सरकारें विद्यमान हैं और अमेरिका अभी तक इन सरकारों का सख्ती से समर्थन करता रहा है। लेकिन अभी जो जन विद्रोह हुए हैं उनके बारे में विद्वानों में विभिन्न-विभिन्न राय हैं। विश्व राजनीति में गहरी परख रखने वाले कुछ विद्वानों का मानना है कि ये विद्रोह अमेरिका के इशारे पर ही करवाए जा रहे हैं। लेकिन देश में सरकार के स्वरूप को लेकर जो विद्रोह मध्य एशिया के इन तेल बहुल इस्लामी देशों में हुए उसके बाद अमेरिका और उसके समूह में शामिल देश तुरंत प्रदर्शनकारियों के पक्ष में ही नहीं उतर आए बल्कि सरकार से लड़ने के लिए प्रदर्शनकारियों को युद्ध सामग्री मुहैया करवाने लगे।
इतना ही नहीं अमेरिका और उसके समर्थक देशों का सैन्यबल भी प्रत्यक्ष ही समर्थनकारियों की सहायता के लिए उपस्थित हो गया। मिस्र, लीबिया और सीरिया सब जगह अमेरिका यही कहानी दोहरा रहा है। इससे पहले आतंकवाद से लड़ने के नाम पर वह यह प्रयोग इराक में कर ही चुका है। पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश नहीं मानता लेकिन अपनी राजनैतिक सुविधा के अनुसार अफगानिस्तान पर उसका अप्रत्यक्ष कब्जा है हीं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अमेरिका अपनी सुविधा के अनुसार कभी आतंकवाद के नाम पर, कभी लोकतंत्र के नाम पर, कभी भ्रष्टाचार के नाम पर और कभी सांप्रदायिकता के नाम पर दूसरे देशों में प्रत्यक्ष दखलंदाजी करने का रास्ता स्वयं ही निर्धारित करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इन अवधारणाओं की व्याख्या भी अपनी राजनीति को ध्यान मंे रखकर करता है और किन देशों में दखलंदाजी करनी है इसका चयन भी अपने हितों को ध्यान में रखकर करता है। चीन में तानाशाही उसकी नजरों से ओझल है और मिस्र की तानाशाही उसके आत्मा को उद्वेलित करती है। चीन के श्यानमान चौक में मर रहे प्रदर्शनकारी और तिब्बत पर चीनी कब्जा उसकी दृष्टि में उपेक्षित है लेकिन सीरिया और लीबिया के प्रदर्शन लोकतंत्र की रक्षा के लिए अमेरिका बहुत महत्वपूर्ण मानता है। इतना भी स्पष्ट है कि जब किसी देश में वहां की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन होंगे तो प्रदर्शनकारियों में से कुछ लोग सहायता के लिए अमेरिका इत्यादि को आमंत्रित भी कर सकते हैं। खास कर के तब जब प्रदर्शन करवाने के पीछे भी अमेरिका की कुछ शक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हाथ हो।
इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए भारत के संबंध में इस परिकल्पना के बारे मंे विचार करना होगा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपदस्थ करके उसकी काया पर सोनिया गांधी ने कई साल पहले कब्जा कर ही लिया था। उसी कांग्रेस कालांतर में भारत की सत्ता पर कब्जा जमा लिया। अब कांग्रेस और देशी विदेशी सहायक भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कठघरेे में खडा करने के लिए हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद का हौवा खडा कर रही है। इतना स्पष्ट है कि भारत मंे राष्ट्रवादी शक्तियों के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे हुए अन्य राजनैतिक, श्रमिक और विद्यार्थी समूहों को माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी भारत की राजनीति के कंेद्र बिंदु में स्थापित हो चुकी है। यह तथ्य कांग्रेस और चर्च केे लॉबी के प्रभाव में अपना सांस्कृतिक एजेंडा तय करने वाले अमेरिका इत्यादि देशों की आंख में खटकता है। इसलिए कांग्रेस भारत में हिंदू आतंकवाद का शोशा उछालती है और अमेरिका इसे अपने माध्यमों से दुनिया भर में स्थापित करता है। इतना ही नहीं वह अपने अंतर्राष्ट्रीय मजहबी अधिनियम की सहायता से इस मामले में कांग्रेस की सहायता भी करता है। इस मामले में कांग्रेस और अमेरिका एक ही स्वर में बोलते हैं। अमेरिका द्वारा मजहबी अधिनियम के अंतर्गत जारी की गई पिछले सात-आठ साल की रपटें इसका प्रमाण है। भारत में अमेरिकी राजदूतावास और अनेक शहरों में फैले उसके कॉउंस्लेट देशभर में राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ असंतोष फैलाने का कार्य करते रहते हैं। भारत सरकार के कुछ उच्च पदस्थ अधिकारी भी देश की भीतरी रपटें अमेरिकी राजदूतावास को पहुंचाते रहते हैं।
मान लीजिए आने वाले कुछ वर्षों में भारत में राष्ट्रीय शक्तियों की सत्ता आ जाती है। कांग्रेस के लोग भारत सरकार पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर उसके खिलाफ प्रदर्शन करते हैं। कांग्रेस यह घोषणा करती है कि राष्ट्रवादियों शक्तियों की सत्ता का अर्थ है कि देश की सरकार हिन्दू आतंकवादियों के हाथ में चली गई है। गहराई से सोचने पर यह आभास मिलता है कि हिन्दू आतंकवाद शब्द का आविष्कार भी भविष्य की इसी संभावना को ध्यान में रखकर किया गया है। दिल्ली स्थित अमेरिका का दूतावास कांग्रेस के इस आरोप की पुष्टि कर देता है।
अमेरिका की जो लॉबी भारत में इस समय सक्रिय है वह प्रदर्शनकारियों के बहाने अमेरिका से प्रार्थना करती है कि वह इस मामले में दखलंदाजी करे और देश को हिन्दू आतंकवादियों से मुक्त करवाए। तब अमेरिका को भारत में प्रत्यक्ष दखलंदाजी करने का अवसर प्राप्त हो जाता है और वह इस देश में आकर बल प्रयोेग से सत्ता अपने समर्थकों को संभाल देता है। वैसे भी अमेरिका ने यह घोषणा कर रखी है कि दुनिया में जहां भी आतंकवाद होेगा अमेरिका वहीं उससे लडे़गा। इसके लिए उसे किसी से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। इराक में वह ऐसा कर चुका है। आतंकवाद कहां है और आतंकवाद से उसका क्या अभिप्राय है यह निर्णय अमेरिका स्वयं करेगा। फिलहाल यह संभावना बहुत दूर की लगती है लेकिन राजनीति में किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता और स्टेट्समैन इसी प्रकार की दूर की संभावनाओं की देखते हुए उससे बचाव के लिए अपनी रणनीति तैयार करते हैं। सोनिया कांग्रेस द्वारा भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ छेड़ा गया अभियान और काल्पनिक हिन्दू आतंकवाद को स्थापित करने की छटपटाहट भविष्य की इस संभावना की ओर भी संकेत करती है। 13 जुलाई को मुंबई में सायं को एक साथ 3 बम विस्फोट अलग अलग स्थानों पर हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसमें 30 लोग मारे गये और 130 से भी ज्यादा लोग घायल हुए। भारत सरकार के गृहमंत्री चिदम्बरम का कहना है कि इसे गुप्तचर संस्थाओं की असफलता नहीं माना जा सकता क्योंकि गुप्तचर संस्थाओं के पास इस प्रकार के धमाकों की कोई पूर्व सूचना नहीं थी। यदि इसकी व्याख्या की जाये तो इसका अर्थ तो यही हो सकता है कि आतंकवादियों को अपने षड्यंत्रों की पूर्व सूचना चिदम्बरम के विभाग को दे देनी चाहिए, उसके बाद वे उसकी रोकने की कोशिश करेंगे। वैसे इन बम विस्फोटों के लेकर सरकारी रवैये और सरकारी नीति का खुलासा युवराज राहुल गांधी ने विस्फोटों के तुरंत बाद स्वयं ही कर दिया था। उनके अनुसार ऐसे आतंकवादी हमलों को भारत जैसे बड़े देश में रोकना संभव नहीं है। जाहिर है कि इस सरकारी नीति की घोषणा करने से पहले सोनिया कांग्रेस के इस महासचिव ने पार्टी की अध्यक्षा और अपनी मां सोनिया गांधी से सलाह मशविरा किया ही होगा। सोनिया कांग्रेस के छोटे बड़े सभी नेताओं को आतंकवादी हमलों को लेकर अपनी पार्टी के दृष्टिकोण का स्पष्ट संकेत मिल गया तो उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर बाकायदा इसकी घोषणा भी शुरू कर दिया। एक मंत्री ने कहा कि मुम्बई में पूरे 31 महीने बाद बम विस्फोट हुए हैं। बीच के समय में मुम्बई शांत रही। यह यूपीए सरकार की सबसे बड़ी सफलता है। दूसरा मंत्री तो उससे भी दो कदम आगे निकल गया उसने कहा, कांग्रेस के राज में आतंकवादी हमलों के मामले में भारत की स्थिति पाकिस्तान से कहीं बेहतर है। पाकिस्तान में तो हर हफ्ते विस्फोट होते हैं और मुंबई में पूरे 31 महीने बाद हुए है। तीसरे ने दूसरे को भी पछाड़ा। उसने कहा एक अरब से भी ज्यादा आबादी वाला मुल्क है। हर जगह तो पुलिस भेजी नहीं जा सकती। इसलिए इन विस्फोटों को रोकना संभव नहीं है। चौथे ने तो अमेरिका को ही चुनौती दे दी। उसने कहा जब अमेरिका, इराक और अफगानिस्तान में आंतकवादियों के बम धमाकों को रोकने में असफल हो रहा है तो भारत में विस्फोटों को सरकार की असफलता कैसे कहा जा सकता है।
सोनिया कांग्रेस के और भारत सरकार के इतने अधिक नेताओं और मंत्रियों द्वारा आतंकवाद को लेकर कांग्रेसी नीति को स्पष्ट किये जाने के बाद प्रश्न उठा कि यदि भारत सरकार आतंकवादियों के षड्यंत्रों और बम विस्फोटों को रोक नहीं सकती तो वह आकर देश की जनता के लिए क्या कर सकती है। इसका उत्तर तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही देना था क्योंकि आखिर वे ही युवराज राहुल गांधी के राजनैतिक रूप से बालिग हो जाने तक कुर्सी संभाले हुए हैं। देश को उनका धन्यवाद करना चाहिए कि वे इस प्रश्न उत्तर देने के लिए स्वयं मुम्बई पहुंचे और वहां उन्होेंने घोषणा की कि सरकार आतंकवादी विस्फोटों में मरने वालों को दो लाख रूपये और घायल होने वालों को पचास हजार रूपये दे सकती है। भाव कुछ इसी प्रकार का था कि इससे ज्यादा सरकार आपके लिए कुछ नहीं कर सकती।
विस्फोटों को रोकने में सरकारी दायित्व की नीति की घोषणा तो राहुल गांधी पहले ही कर चुके थे।
आखिर सरकार के इस रवैये का कारण क्या है। सरकार ने आंतकवादियों पर नियंत्रण पाने में अपने कर्तव्य से सार्वजिनक रूप से हाथ क्यों खींच लिये हैं। दरअसल प्रश्न अपनी अपनी प्राथमिकताओं का है। सरकार के लिए प्राथमिकता आंतकवादियों से लड़ने की नहीं है, उसके लिए प्राथमिकता किसी भी ढंग से बाबा रामदेव को घेरने की है। विकीलीक्स ने पहले ही खुलासा कर दिया था जब राहुल गांधी ने भारत में अमेरिका के राजदूत को बताया था कि भारत को खतरा लश्कर- ए- तोयबा जैसे संगठनों से नहीं है बक्लि गुस्से में आ रहे हिन्दुओं से हैं। इसलिए जब सरकार की सभी गुप्तचर एजेंसिया बाबा रामदेव और उसके अनुयायियों की घेराबंदी के काम में लगी हुई थीं, आधी रात को शिवर में सौ रहे सत्याग्रहियों पर कब लाठीचार्ज करना है, आंसु गैस के कितने गोले छोड़ने है और बाबा राम देव को मारने के लिए मंच में आग किस जगह लगानी है, उस समय आतंकवादी संगठन मुम्बई में बम विस्फोट करने की अपनी योजना बना रहे थे। चिदम्बरम का कहना है कि गुप्तचर एजेंसियों के पास आतंकवादी हमले की कोई सूचना नहीं थी, लेकिन आश्चर्य है कि इन्हीं गुप्तचर एजेंसियोे के पास बाबा रामदेव और उनके शिष्यों की हर गतिविधि की पूरी सूचना थी। कांग्रेस की प्राथमिकता बाबा रामदेव से लड़ने की है आतंकवादियों से लड़ने की योजना उसके एजेंडा में नहीं है। जाहिर है सरकार को अपनी नीति बनाने के लिए जिस प्रकार की सूचनाएं चाहिए गुप्तचर एजेंसिया उसी प्रकार की सूचनाएं मुहैया करवायेंगी।
गुप्तचर एजेंसियों की अपनी कठिनाइयां हैं। उन्हें आतंकवादी संगठनों और बम विस्फोटों की जांच करते समय दो धरातलों पर काम करना होता है। प्रथम धरातल पर तो उन्हें प्रोफेशनल दृष्टिकोण से बम विस्फोटों की जांच करनी होती है। इस दृष्टिकोण से विस्फोटों की जांच करते हुए जांच एजेंसिया लश्कर-ए-तोयबा, इंडियन मुजाहीदीन और सिमी तक पहुंचती हैं। मुम्बई के बम विस्फोटों में भी ऐसा ही हो रहा है। लेकिन इन एजेंसियो के आंख और कान कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह और अजीज बर्नी की जोड़ी की ओर भी लगे रहते हैं। कहा जाता है दिग्विजय सिंह के कंठ से जो आवाज निकलती है वह कांग्रेस की अध्यक्षा का प्रतिनिधित्व करती है। दिग्विजय सिंह का मानना है कि उनके पास भी इस प्रकार की आतंकवादी घटनाओं की जांच करने के लिए एक पूरा तंत्र है। वे ये भी कहते हैं कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी इस प्रकार की घटनाओं की जानकारी उन्हें देते रहते हैं। हेमंत करकरे के बार में भी उनका यही कहना हे कि मरने से कुछ घंटे पूर्व उन्होंने उन्हें फोन पर बता दिया था कि उन्हें कोन मारने वाला है। अब जब जांच एजेंसियां यह कह रही है कि हेमंत करकरे को पाकिस्तान से आई आतंकवादियों की कसाब टोली ने मारा था तो दिग्विजय सिंह का कहना है कि उन्हें हिन्दुओं ने मारा था। इसी प्रकार दिल्ली के बाटला हाउस में हुई मट्ठभेड़ में जांच एजेंसियों का तो यह कहना है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मोहन चन्द्र शर्मा को आतंकवादियों ने मार दिया लेकिन दिग्विजय सिंह की जांच का खुलासा है कि शर्मा का दिल्ली पुलिस ने ही मारा है। मुंबई में 26/11 आक्रमण पाकिस्तानी आतंकवादियों ने किया ऐसा दुनिया भर की जांच एजेंसिया कह रही हैं लेकिन दिग्विजय सिंह और अजीज बर्नी की जोड़ी कह रही है कि यह आक्रमण आरएसएस ने करवाया था। ऐसे हालात में जांच एजेंसियों को फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। उन्हें दो प्रकार से जांच करनी पड़ती है पहली प्रोफेशनल दृष्टिकोण से और दूसरी दिग्विजय सिंह एंड कम्पनी द्वारा बताई गई कांग्रेस के राजनैतिक दृष्टिकोण से, जिसमें कुछ हिन्दुओं को लपेटना जरूरी होता है। आखिर राजनैतिक संतुलन का प्रश्न है। मुंबई के ताजा बम विस्फोट के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। जांच एजेंसियां सिमी जैसे संगठनों को पकड़ने से डरेगी क्योंकि राहुल गाधी अरसा पहले ही उसे दोषमुक्त घोषित कर चुके हैं और दो दिन के उहापोह के बाद दिग्विजय सिंह ने भी जांच एजेसियों को संकेत दे दिया है कि मुम्बई के इन बम विस्फोटों में हिन्दुओं का भी हाथ हो सकता है।
अब जांच एजेंसियों की भी अपनी अपनी प्राथमिकता है। राजनैतिक जांच अव्वल दर्जे पर आ गयी है और प्रोफेश्नल जांच दोयम दर्जे पर। आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि कल दिग्विजय सिंह इन विस्फोटों मंे भी स्वामी असीमांनद और इन्द्रेश कुमार का नाम बताना शुरू कर दे। जांच कर रही पुलिस का एक और संकट भी है यदि वे इस लड़ाई में आतंकवादियों को मार गिराते हैं तो निश्चित है उन्हें जेल में सड़ना पड़ेगा। देश के अनेक पुलिस अधिकारी आतंकवादियों को इस लड़ाई में परास्त करने के दोष मंे अनेक राज्यों की जेलों मंे सड़ रहे हैं। यदि मुंबई के इन ताजा बम विस्फोटों में संलिप्त कुछ आंतकवादी पकड़े भी जाते हैं तो जाहिर है वे अफजल गुरू और कसाब की श्रेणी में वृद्धि ही करेंगे और हो सकता है कि उन्हें पकड़ने और तंग करने के अपराध में पलिस अधिकारी कटघरे में खड़े नजर आयें। इन बम विस्फोटों में संलिप्त होने के शक में रांची मंे एक आतंकवादी के बारे में पूछताछ करने गई पुलिस को लेकर ही जो बवाल उठ खड़ा हुआ उससे स्पष्ट है कि तथाकथित मानवाधिकारवादी लश्कर-ए-तोयबा, इडियन मुजाहीदीन, और सिमी जैसे संगठनों की रक्षा पर उतर ही आयेंगे। दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी जैसे लोग अप्रत्यक्ष रूप से किस की सहायता कर रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अंत में प्रश्न फिर अपनी अपनी प्राथमिकता है। भारत सरकार की प्राथमिकता बाबा रामदेव को घेरने की है न कि आतंकवादियों को। सोनिया कांग्रेस भारत और भारतीयता के तमाम प्रतीकों और अवधारणाओं को नष्ट कर इस देश की नई पहचान बताना चाहती है। यही कारण है वह सामी सम्प्रदायों की आतंकवादी गतिविधियों और चर्च के मतान्तरण आंदोलन को प्रश्रय प्रदान करती है।