Tuesday 29 April 2014

आतंकवादियों को चुनाव में पुकारता अब्दुल्ला परिवार-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री



                    शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार की एक ख़ूबी है जिसकी तारीफ़ करनी होगी । वे जो कुछ भी करते हैं डंके की चोट पर करते हैं और उसको कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते । परिवार के वर्तमान सदस्यों ने यह ख़ासियत यक़ीनन अपने पुरखे शेख़ अब्दुल्ला से ही पाई होगी । यह शेख़ अब्दुल्ला ही थे जिन्होंने प्रदेश की पहली विधान सभा के लिये १९५२ में हुये चुनावों में सभी विरोधियों के नामांकन पत्र रद्द करवा पर सभी ७५ सीटें बिना चुनाव के ही जीत ली थीं  और  लोकतंत्र का अब्दुल्लाकरण कर दिया था । पंडित नेहरु लोकतंत्र के इस सशक्तिकरण को देखकर दिल्ली में कई दिन नाचते रहे थे । दरअसल उसी दिन से देश में लोकतंत्र को शक्ति प्रदान करने के लिये नेहरु परिवार और शेख़ अब्दुल्ला परिवार में अटूट गठबंधन हो गया था । शेख़ के परिवार की बागडोर अब उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला और उससे भी नीचे उमर अब्दुल्ला तक पहुँच गई है और नेहरु परिवार की बागडोर अनेक घुमावदार रास्तों से होती हुई फ़िलहाल इटली की सोनिया गान्धी और उनकी संतानों के पास है । वैसे केवल रिकार्ड के लिये, विदेशी छौंक अब्दुल्ला परिवार में भी लग चुकी है । उमर के माता जी विदेशी मूल के हैं । ख़ैर यह शिजरा अब केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है । बात कर्म और कारनामों की ही महत्वपूर्ण है । जिन दिनों फ़ारूक़ अब्दुल्ला सक्रिय राजनीति में नहीं थे । विदेश में रह कर राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे थे , तो वे बिना किसी से छिपाये , पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर में जे के अल एफ़ के कार्यक्रमों में शामिल होते थे । अब यह किसी से छिपाने की जरुरत नहीं की जे के एल एफ़ ने उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करवाने के लिये अपना मोर्चा खोला था ।
                  लोकसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं , इस लिये देश की राजनीति का माहौल भी गर्म होने लगा है । चुनाव का यही लाभ होता है । जिन लोगों ने बहुत मेहनत से मुखौटे पहने होतें हैं , वे थोड़ा तनाव बढ़ने पर ही उतरने लगते हैं । फ़ारूक़ और उमर के साथ भी यही हो रहा है । फ़ारूक़ अब्दुल्ला पिछले दिनों कश्मीर घाटी में यह कहते घूम रहे हैं कि उन्हें इस बात का बहुत ही दुख है कि चुनाव में आतंकवादी उनके साथ नहीं हैं । यदि ऐसा होता और मैं कहीं से बंम्ब और पिस्तौल ले पाता तो विरोधियों को मज़ा चखा देता । पत्रकारों से बातचीत करते हुये उन्होंने कहा कि उनके विरोधी इसी क़ाबिल हैं कि उन्हें सबक़ सिखाया जाये और उनसे बदला लिया जाये । लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि वे विरोधियों को सबक़ आतंकवादियों की सहायता और पिस्तौल से सिखाना चाहते हैं । वैसे तो विरोधियों को निपटाने का आसान तरीक़ा अब्दुल्ला परिवार ने पहले ही खोज लिया था और उसका लम्बे अरसे तक फल भोग भी किया । वह था विरोधियों के थोक भाव से नामांकन पत्र ही रद्द करवा देना । लेकिन अब शायद इक्कीसवीं शताब्दी में ऐसा संभव नहीं है । चुनाव आयोग भी सख़्त हो गया है । इटली का फासीवाद भी अब मदद कर नहीं पायेगा । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अब्दुल्ला परिवार ऐसी स्थिति में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जायेगा । अब वह विरोधियों को निपटाने के लिये आतंकवादियों और बंम्ब पिस्तौलों की तलाश कर रहा है । यह विचार  जरुर फ़ारूक़ अब्दुल्ला को अपने जे के एल एफ़ के दिनों के अनुभव से मिला होगा ।
                   लेकिन फ़ारूक़ अब्दुल्ला को संकट की इस घड़ी में ,चुनावों में सहायता के लिये आतंकवादी क्यों नहीं मिल रहे , इसका उत्तर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने,जो इस वक़्त जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं , ने दिया है । उन्होंने बहुत दुख से , मानों एक प्रकार से शोक संदेश प्रसारित करते हुये कहा कि जिन दिनों नेशनल कान्फ्रेंस सत्ता में नहीं थी , उस समय प्रदेश सरकार ने तीस से भी ज़्यादा आतंकवादी मार गिराये थे । उमर ने इन आतंकवादियों को मार दिये जाने का एक ही कारण बताया कि वे आतंकवादी हम से बातचीत कर रहे थे । उनके अनुसार यह बातचीत उनके मुख्य धारा में वापिस आने को लेकर हो रही थी । वे आतंकवादी किस प्रकार की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते थे और फ़ारूक़-उमर उन को किस मुख्यधारा में शामिल करना चाहते थे , इसका ख़ुलासा तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चुनाव में बह रही विपरीत हवा को देख कर कर ही दिया है । आज यदि मुख्यधारा में लौट आये वे आतंकवादी ज़िन्दा होते तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला को विरोधियों से भिड़ने के लिये स्वयं बंम्ब पिस्तौल उठाने की इच्छा न ज़ाहिर करनी पड़ती । यह काम उन प्रशिक्षितों के हवाले आसानी से किया जा सकता था । ताज्जुब है कि बाप बेटा खुले आम चुनाव में आतंकवादियों का सहयोग न मिलने पर सिर पीट रहे हैं और चुनाव आयोग भी चुप है । लेकिन इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि घाटी में पसरे आतंकवाद के दिनों में नेशनल कान्फ्रेंस किस तरीक़े से चुनाव जीतती थी और सत्ता प्राप्त करती थी । नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता या तो नेहरु ख़ानदान की कृपा से मिलती रही या फिर आतंकवादियों की प्रत्यक्ष परोक्ष कृपा से । नेहरु के दबाव में महाराजा हरि सिंह ने बिना किसी लोकतांत्रिक चुनाव के शेख़ अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी थी । पहला चुनाव धाँधली से जीता , उसके बाद इंदिरा गान्धी की मदद से फिर सत्ता मिली । आपात् स्थिति के बाद हुये चुनावों में जरुर शेख़ अब्दुल्ला अपने बल बीते चुनाव जीते लेकिन इसके साथ ही यह भी दिन की तरह साफ़ हो गया कि कश्मीर घाटी के बाहर अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कान्फ्रेंस का सिक्का नहीं चलता । इतना ही नहीं पाँच साल के इस एक ही शासन काल में जनता को भी शेख़ अब्दुल्ला की असलियत पता चल गई । उनके पारिवारिक भ्रष्टाचार के चलते जनता उन्हें सबक़ सीखाने के लिये आमादा हो गई ।  उसके बाद फिर चुनावों में बदस्तूर धाँधलियाँ शुरु हो गईं । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि अब जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस मिल कर धाँधलियाँ कर रहे थे और सत्ता भी आपस में मिल बाँट कर खा रहे थे ।
                          लेकिन समय के अनुसार कश्मीर घाटी में ही सत्ता के दूसरे दावेदार उभरने लगे । इनमें से कुछ तो दबाव समूह हैं और कुछ राजनैतिक दल हैं । घाटी में गुज्जर  और बकरबाल राजनीति में ही हाशिए पर नहीं हैं बल्कि वहाँ के सामाजिक जीवन में भी उपेक्षित हैं । अब उन्होंने भी सत्ता में भागीदारी के लिये अपने वोट को तौलना शुरु कर दिया है । घाटी का शिया समाज सदा से मुसलमानों के निशाने पर रहता है । जब नेशनल कान्फ्रेंस ने घाटी में मुसलमानों की संख्या बढ़ा कर दिखाना होती है तो शिया समाज को मुसलमान बताया जाता है और जब वे राजनैतिक सत्ता में भागीदारी माँगते हैं तो उन्हें मूर्तिपूजक बताया जाता है । पी डी पी और आम आदमी पार्टी के भी मैदान में होने के कारण नेशनल कान्फ्रेंस का घाटी पर से एकाधिकार ख़त्म होने जा रहा है । इसलिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला बंम्ब पिस्तौल के लिये आहें भर रहे हैं और सहायता के लिये आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिये उन्हें आतंकवादी मिले या नहीं , यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे , लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस का विरोध करने वाले एक सरपंच की निर्मम हत्या जरुर हो गई है । वैसे भी जिन दिनों फ़ारूक़ स्वयं जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तो उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों पर आतंकवादियों से सम्बंध होने के आरोप लगते रहते थे । नेशनल कान्फ्रेंस को पिछले तीन दशकों में घाटी में भी कभी इतना जन समर्थन नहीं मिला की वे अपने बलबूते सरकार बना और चला सके । उसे कन्धों पर ढोकर सरकार चलाने का अधिकार सोनिया गान्धी की पार्टी ही देती  है । सोनिया गान्धी की पार्टी घाटी में से तो कोई सीट जीत नहीं पाती । वह जम्मू संभाग से मत प्राप्त करके , उन्हें नेशनल कान्फ्रेंस की झोली में डाल डाल कर जम्मू संभाग को घाटी का बंधुआ बना देती है जिसका दुष्परिणाम जम्मू व लद्दाख संभाग के अतिरिक्त घाटी के अल्पसंख्यकों , जनजातियों और शिया समाज को भुगतना पड रहा है । शेख़ अब्दुल्ला के परिवार को अपने कन्धों पर ढोने के पीछे नेहरु परिवार की क्या विवशता है , यह तो कोई नहीं जानता , लेकिन इतना स्पष्ट है कि फ़ारूक़-उमर बाप बेटे को विश्वास हो चला है कि इस बार सोनिया गान्धी की पार्टी भी उन्हें सत्ता की मंज़िल तक पहुँचा नहीं पायेगी , क्योंकि बक़ौल उमर अब्दुल्ला देश में नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है । इसलिये लगता है विरोधियों को केवल हराने के लिये ही नहीं , बल्कि उन्हें ज़िन्दगी भर का सबक़ सिखाने के लिये फ़ारूक़ अब्दुल्ला घाटी में पिस्तौल और आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं । गाढ़े वक़्त में वही काम आयेंगे । आमीन ।


22 April 2014 

Friday 4 April 2014

नरेन्द्र मोदी होने का सच-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों सोनिया माईनो गान्धी और उनके बेटे राहुल गान्धी ने अपने चुनाव प्रचार में दो अलग अलग स्थानों पर दो अलग अलगबातें कहीं । ऊपर से दोनों बयान सहती लगते हैं और एक दूसरे से असम्बधित भी । लेकिन भीतर कहीं गहरे से आपस में जुड़े हुये तो हैं हीं , साथ ही नरेन्द्र मोदी को लेकर जो पूरे भारत में लहर चल रही है , उसको लेकर सोनिया गान्धी परिवार और उनकी पार्टी की असली चिन्ताओं को भी उजागर करते हैं । असम में सोनिया गान्धी ने कहा कि सरकार चलाना और भारत का शासन चलाना कोई बच्चों का खेल नहीं है । उनका संकेत था कि नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को भारत का शासन चला लेने की अपनी इच्छा को त्याग देना चाहिये क्योंकि यह उन के वंश और योग्यता से बाहर की बात है । इससे कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में एक जन सभा को सम्बोधित करते हुये राहुल गान्धी ने कहा कि नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गान्धी की पार्टी की लड़ाई व्यक्तियों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह विचारधारा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाई है । राहुल गान्धी ने जो कहा वह बिल्कुल ठीक कहा है । आगामी लोकसभा के लिये जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह दो विभिन्न वैचारिक धरातलों पर खड़ी सेनाओं की लड़ाई है । इसमें एक धरातल तो भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व में लामबन्ध हुई राष्ट्रवादी शक्तियों का है और दूसरा धरातल सोनिया गान्धी और उनके शिविर में एकत्रित सेनानायकों का है । सोनिया गान्धी के शिविर का वैचारिक धरातल क्या है ? इसका संकेत उन्होंने असम में अपने उस बयान में दिया है , जिसका ज़िक्र ऊपर किया  गया है ।
                       सोनिया गान्धी ने जो कुछ कहा है , वह भारत के लोगों के बारे में पुरानी यूरोपीय धारणा को इंगित करता है । जब इस देश पर क़ब्ज़ा करने के लिये पुर्तगाली , डच, फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ अपनी चालें चल रहे थे तो जिस एक बात पर वे सहमत थे वह यही थी कि भारतीय अपना शासन स्वयं चलाने के योग्य नहीं है । अन्ततः अंग्रेज़ों ने इस देश पर क़ब्ज़ा कर लिया तो उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में ही यह पढ़ाना शुरु कर दिया कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है । इसके लिये योग्यता चाहिये । वह योग्यता भारत के लोगों में नहीं है । दरअसल यह वैचारिक आधार कैम्ब्रिज और आक्सफोर्ड में तैयार हुआ था , जिसने प्रत्यक्ष तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना को चिन्तित किया था और परोक्ष रुप से इस ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना में कहीं न कहीं सम्पूर्ण यूरोपीय साम्राज्यवादी चेतना भी प्रतिध्वनित होती थी । उस समय भी इस यूरोपीय वैचारिक धरातल को स्वीकारने वाले कुछ भारतीय उठ खड़े हुये थे , जिन्हें ब्रिटिश शासन तो रायबहादुर और रायसाहिब कहता था लेकिन आम भारतीय जन टोडी बच्चा कह कर हिक़ारत की नज़र से देखता था । सोनिया गान्धी के बयान से भी उसी यूरोपीय वैचारिक चेतना प्रतिबिम्बित होती दिखाई दे रही है । वे प्रकारान्तर से इस देश के लोगों से कह रही हैं कि इस देश का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है तो प्रत्युत्तर में उनसे पूछा जा सकताहै कि फिर क्या यह इटली और वेटिकन वालों का है ? इतालवी परिवार में ऐसी कौन सी योग्यता है जो वह भारत की गद्दी पर अपना दावा ठोंक रहा है ? सोनिया गान्धी ने एक और बात भी कहीं कि यदि नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा का शासन आ गया तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा । भारतीयों को ब्लैकमेल करने का यह भी पुराना यूरोपीय टोटका है । अंग्रेजशासक सदा ही यह कहते रहते थे कि यदि वे देश को छोड़ कर चले गये तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा । अंग्रेज़ों के साथ उन दिनों उनके राय बहादुर और रायसाहिब भी यही गीत गाया करते थे । आज भी सोनिया गान्धी की पार्टी में उनका झण्डा उठाये प्रमुख लोग यही चिल्ला रहे हैं । ब्रिटिश सरकार ने उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे लोगों को सबक़ सिखाने के लिये और अपने शासन को देर तक बनाये रखने के लिये मुस्लिम लीग की स्थापना करवा दी थी , जो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाते थे और गुंडई करते थे । आज सोनिया गान्धी की पार्टी ने भी अपने भीतर ऐसे लोगों की व्यवस्था कर ली है जो वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय हितों की बात करने वालों की बोटी बोटी करने की धमकियाँ देते हैं । मुस्लिम लीग भी इसी प्रकार के डायरैक्ट एक्शन की धमकियाँ ही नहीं देती थी बल्कि उसे अमल में भी लाती थी ।

                              सोनिया गान्धी के नेतृत्व में इक्कठे हुये लोग भारत पर शासन करने के लिये वही तर्क दे रहे हैं जो कभी ब्रिटिश सरकार के लोग भारत पर शासन करने के लिये देते थे । उस समय भी मुस्लिम लीग की विचारधारा को मानने वाले लोग ब्रिटिश सरकार के साथ थे और इस लडाईमें भी वे या तो सोनिया गान्धी के जमावड़े का हिस्सा बन गये हैं या फिर परोक्ष रुप से उस के लिये मददगार हो रहे हैं । राहुल गान्धी जिस वैचारिक लड़ाई की बात कर रहे हैं उस लड़ाई में उन समेत उन के संगी साथी उस वैचारिक प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं , जिस का ऊपर ज़िक्र किया गया है और जिस का संकेत सोनिया गान्धी ने स्वयं दिया है ।

                             इस वैचारिक लड़ाई में दूसरा खेमा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सन्नद्ध हो चुका है । नरेन्द्र मोदी की लड़ाई इस मुल्क को यूरोपीय मानसिक दासता से मुक्त करवाने की है , जिसका पाश सोनिया के नेतृत्व में दिन प्रतिदिन कसता जा रहा है । वैसे इस मानसिक पाश से भारत के लोगों को बाँधने का इतिहास तो पंडित नेहरु से ही शुरु हो गया था , जिन्होंने स्वयं ही घोषणा कर दी थी कि वे यूरोपीय सभ्यता और नीतियों के विरोधी नहीं हैं , केवल यूरोपीय शासकों के विरोधी हैं । नेहरु ने तो विदेशी मुग़ल शासकों को भी स्वदेशी ही मानने की नीति अपनाई थी । नेहरु से लेकर अब तक यही नीति भारत सरकार की आधिकारिक नीति रही । सोनिया गान्धी के शासन काल में इन यूरोपीय सांस्कृतिक नीतियों को इस देश में लागू करने का प्रयास ही नहीं हुआ बल्कि सत्ता की बागडोर ही एक प्रकार से फिर इंतक़ाल ी मूल की सोनिया गान्धी के हाथ आ गई । दस साल के अरसे बाद एक बार फिर देश के लोगों ने इस सांस्कृतिक दासता और दैन्यता से मुक्ति पाने के लिये नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अँगड़ाई ली है । देश के लोग ऐसी नीतियाँ चाहते हैं जिस से भारत विश्व का अग्रणी देश बने न की सोनिया गान्धी के नेतृत्व में यूरोप और अमेरिका का पिछलग्गू । पिछले दस साल में गहरे षड्यन्त्र के तहत सरकार ने लोगों का यह आत्मविश्वास तोड़ने का प्रयास किया था कि भारत में अग्रणी बन सकता है ।

                  नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो काम करके दिखाया उससे देश के लोगों में एक बार फिर यह आत्मविश्वास जागने लगा है कि यदि सुदृढ़ नेतृत्व मिल जाये और भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अपनी जड़ों से जुड़ जाये तो वह एक बार फिर विश्व की राजनीति में नीति निर्धारण बन सकता है । नरेन्द्र मोदी के कृतित्व ने लोगों में उनके प्रति आस्था को जगाया है । यूरोपीय लाबी के लिये इसीलिये नरेन्द्र मोदी सबसे बड़ा ख़तरा बन कर उभरे हैं । अब जब यह लड़ाई अपने अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गई है और उसके परिणाम के क़यास भी लगने शुरु हो गये हैं तो सोनिया गान्धी और उनको आगे करके अपनी गोटियां खेल रही देशी विदेशी ताक़तें अपना सब कुछ झोंक रही हैं । सोनिया गान्धी का असम में दिया गया बयान   इस कैम्प की इसी हडबडाहट को इंगित करता है ।

                           इस कैम्प के पास सबसे बड़ा एक ही हथियार था कि नरेन्द्र मोदी के कारण देश की दूसरी कोई भी पार्टी भाजपा का समर्थन नहीं करेगी । लेकिन दूसरी पार्टियों की बात तो दूर सोनिया के अपने कैम्प में से ही भाग कर मोदी की सेना में आ मिलने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । जदयू , बसपा और सपा इत्यादि के शिविर से भाग कर मोदी के शिविर में आने वालों में मानों प्रतियोगिता ही चल पड़ी हो । नये लोगों की बढ़ती संख्या देख कर जहाँ सोनिया गान्धी के शिविर में घबराहट और सन्नाटा है , वहीं भाजपा के भीतर से ही कुछ प्रश्न उठने लगे हैं । प्रश्न पूछना भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परम्परा है । यह परम्परा इतनी उदार है कि महाभारत के युद्ध में जब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गईं थीं , धनुष की प्रत्यंाचाएं तन गईं तोअर्जुन ने श्री कृष्ण से बीच रण भूमि में प्रश्न पूछने शुरु कर दिया कि आत्मा कहाँ से आती है और कहाँ जाती है ? उस समय तो अर्जुन के सारथी श्री कृष्ण थे । उन्होंने अर्जुन का समाधान कर उसे पुनः युद्ध के लिये प्रेरित कर दिया । लेकिन इस बार नरेन्द्र मोदी का सारथी कोई कृष्ण नहीं है बल्कि देश की सारी जनता ही उनकी सारथी है । लेकिन इस सारथीके पास किसी के भी अप्रासंगिक प्रश्नों का उत्तर देने का समय नहीं है । मोदी का निशाना भी मछली की आँख पर लगा हुआ है । ऐसे समय में ध्यान को भटकाना घातक हो सकता है । मोदी उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं दे रहे हैं जो इस देश की अस्मिता और उसके भविष्य से जुड़े हुये हैं । लोकसभा की इस लड़ाई में देश के भविष्य का निर्णय होने वाला है । मोदी स्वयं अरुणाचल प्रदेश जाकर भारत की चीन नीति की परोक्ष घोषणा कर आये हैं । जम्मू कश्मीर में उन्होंने पाकिस्तान और उसके परोक्ष समर्थकों को चेतावनी दे दी है । भाजपा के भीतर इस बार लड़ाई इस बात की नहीं होनी चाहिये कि टिकट किस को दिया जा रहा है और किस को नहीं दिया जा रहा । बहस इस बात पर होनी चाहिये कि राष्ट्रीय हितों को पलीता लगाने वाली फ़ौज के डैन को किस प्रकार समाप्त करना है । यह साधारण चुनाव नहीं है । यह एक प्रकार से स्वतंत्रता का दूसरा युद्ध है । मोदी इस समय जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जबकि सोनिया गान्धी और उन का खेमा अपने संकीर्ण हितों एवं देशी विदेशी दबाव समूहों के हितों की लड़ाई लड़ रहा है , जिसका लाभ या तो अमेरिका उठायेगा , या क्वात्रोची के वंशज या फिर राय बहादुरों और राय साहिबों की फ़ौज , जो इस वक़्त सोनिया के आस पास घूम रही है ।

                              नरेन्द्र मोदी का सच आज भारत का सच बन गया है । वे भारतीय जनमानस की राष्ट्रीय भावना के साथ एकाकार हो गये हैं । आन्ध्र , ओडीशा या अरुणाचल में विधान सभा के चुनावों में जो लोग दूसरे राजनैतिक दलों के लिये कार्य कर रहे हैं , वे भी लोक सभा के लिये नरेन्द्र मोदी का समर्थक होनी की बात कर रहे हैं । इस चुनाव में मोदी फ़ैक्टर ने राजनीति में एक नये समतल धरातल की रचना की है । इस धरातल पर विभिन्न राजनैतिक दलों से निरपेक्ष होकर साधारण मतदाता मोदी के पक्ष में खड़ा नज़र आता है । लेकिन ध्यान रखना चाहिये इस धरातल पर जो मोदी खड़ा दिखाई देता है , वह मोदी कोई व्यक्ति न होकर एक सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा का प्रतीक है । वह इस सासंकृतिक भारत का मानवीकरण कहा जा सकता है । इस सांस्कृतिक भारत से ही सोनिया गान्धी और उसके सिपाहसलारों को डर लगता है । क्योंकि सांस्कृतिक भारत का सच ही मोदीका सच है । अपनी सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर ही भारत आर्थिक क्षेत्र में भी लम्बी छलाँग लगा सकता है । लेकिन इसी से भयभीत होकर यूरोप एक बार फिर दिल्ली में आकर चिल्ला रहा है कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं । मोदी के नेतृत्व में भारत को यूरोप की इसी गाली का उत्तर देना है ।


(2.4.2014 )