Saturday, 8 February 2014

भारत की संघर्ष गाथा और मेहरानगढ का क़िला --डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री


      कुछ दिन पहले जोधपुर गया था । वहाँ के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के विधि संकाय में 1-2 फरवरी को एक विचार गोष्ठी थी । उसी में मुझे भाग लेना था । मेरा काम तो पहले दिन के उद्घाटन सत्र में बीज भाषण देकर समाप्त हो गया । गोष्ठी के निदेशक प्रो० सुनील असोपा ने जोधपुर के प्रसिद्ध स्थान देखने दिखाने की व्यवस्था कर दी थी । मैं जोधपुर राजवंश का क़िला मेहरानगढ देख रहा था । जिस चट्टानी पहाड़ी पर यह क़िला बना है , उसे चिड़िया टोंक कहते हैं , अर्थात चिड़िया की चोंच जैसी पहाड़ी । क़िला राजवंश के लोगों की व्यक्तिगत सम्पत्ति है । रखरखाव बहुत ही सुन्दर है । अलबत्ता क़िले के अन्दर घुसने के साठ रुपये देने पडते हैं । लेकिन क़िले की भव्यता और उसकी संभाल देख कर साठ रुपये चुभते नहीं हैं । मेरे साथ श्रीमती डा० रंजनी गंगाहर भी हैं । ( संदेह न रहे , वे मेरी पत्नी हैं) वे बहुत साल पहले अपने कालिज के दिनों में कभी चित्तौड़ और उदयपुर के क़िले देख चुकीं हैं । कहने लगीं कि चित्तौड़ और उदयपुर के क़िले तो ध्वस्त हो चुकें हैं , लेकिन मेहरानगढ क़िला तो बिलकुल सुरक्षित और भव्य है । मैंने कहा , इतिहास का यही न्याय होता है । चित्तौड़ उदयपुर के लोग और राजा देश की स्वतंत्रता के लिये विदेशी मुगलशासकों से निरन्तर युद्ध करते रहे ,तो उनके क़िले कैसे बच सकते थे ? उन्होंने क़िले गँवाकर यशकीर्ति अर्जित की है । यही कीर्ति उनकी पूँजी है । लेकिन जयपुर जोधपुर के राजा विदेशी मुग़लों के साथ मिल गये थे ।  इसलिये उन्होंने अपने क़िले तो बचा लिये , लेकिन यश कीर्ति खो दी ।  उदयपुर विश्वविद्यालय के प्रो० क्षेत्रपाल सिंह हमारे साथ थे । दरअसल वे ही क़िला दिखा रहे थे । उनकी व्याख्या में जयपुर जोधपुर के राजपरिवारों के मुग़लों से मैटरीमोनियल एलांसस हो गये थे । मुझे यह व्याख्या सचमुच अच्छी लगी । अंग्रेज़ी भाषा की यही ख़ूबी है । बह बड़े आदमी के अपमान जनक कृत्य को भी छिपाने का काम करती है । जो देसी भाषा में अश्लील है वह अंग्रेज़ी में साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नमूना है । अंग्रेज़ी काल में भी जो ताउम्र गोरों के तलवे चाटते रहे उसे अंग्रेज़ी में एडमिनस्ट्रेटिव स्किलस कह कर महिमामंडित किया गया । टोडी बच्चा गुड एडमिनस्ट्रेशन का सर्वोत्तम उदाहरण बन गया । लेकिन आम आदमी को क्या कहा जाये ? उसकी भाषा भी अपनी है और व्याख्या भी अपनी । यही कारण है कि राजस्थान का आम आदमी जयपुर और जोधपुर के राजपरिवारों की मुग़लों के साथ इन रिश्तेदारियों को अपनी साधारण भाषा में इसे मैटरीमोनियल एलांसस नहीं कहता । वह तो केवल इतना जानता है कि जयपुर जोधपुर के राजपरिवारों ने अपनी रक्षा के लिये अपनी लड़कियाँ मुग़लों को दे दीं थीं । लेकिन यह कहते कहते शायद उसके मुँह में कडवडाहट होती है और वह थूक देता है । चित्तौड़ के पास महाराणा प्रताप भी है और पद्मिनी भी है । एक की अपनी हल्दीघाटी है और दूसरी का अपना जौहर है । लेकिन इधर जोधावाई है । वह पद्मिनी न बन कर बच गई और उसका राजपरिवार महाराणा प्रताप न बन कर क़िले को सुरक्षित निकाल कर ले आया । मुझे लगा कि जयपुर जोधपुर के राजपरिवार असली बुद्धिजीवी थे , जिन्होंने विदेशी शासकों के साथ मैटरीमोनियल एलायंसस करके अपने क़िले भी बचा लिये और अभी तक उन्हीं क़िलों से पैसा कमाने का रास्ता भी निकाल लिया । चित्तौड़ के क़िले खंडहर तो हो गये , लेकिन वहाँ के जनसंघर्ष से जो लोकगीत पैदा हुये , वे आज भी चित्तौड़ की कीर्ति को घर घर में गाते हैं । मेहरानगढ से ऐसा कोई लोकगीत नहीं जन्म ले पाया । कीर्ति के लोकगीत चित्तौड़ से ही जन्म ले सकते हैं , मेहरानगढ से नहीं ।
                          मेहरानगढ में चामुण्डा का एक प्राचीन मंदिर भी है । लेकिन उसका क्या लाभ ? जिन दिनों मध्यकालीन भारतीय दशगुरु परम्परा के दशम् गुरु श्री गोविन्द सिंह जी सारे देश में ,"देहु शिवा वर मोहे " का निनाद कर रहे थे , शायद उन दिनों भी जोधपुर राजपरिवार के लोग विदेशी शासकों से सन्धियों के प्रस्ताव इसी मंदिर में बैठ कर तैयार कर रहे होंगे । माँ चामुण्डा ने भी मेहरानगढ में क्या क्या नहीं देखा होगा ? ऐसा नहीं कि इन राजपरिवारों में शौर्य की कमी थी या वे कायर थे । जयपुर और जोधपुर के राजा आपस में ख़ूब युद्ध करते थे । मेहरानगढ के क़िले में भी जयपुर के साथ युद्ध की एक गाथा अंकित की गई है । लेकिन विदेशी मुग़ल शासकों से लड़ने की इच्छा उनमें नहीं थी ।
                          इसका यह अर्थ नहीं कि सारा देश ही विदेशी मुग़ल शासकों के आगे नतमस्तक हो गया था या फिर जयपुर जोधपुर हो गया था ।  जयपुर और जोधपुर तो राजस्थान के भी और भारत के भी अपवाद हैं । ऐसे अपवाद और भी मिल जायेंगे । लेकिन देश का आम जनमानस तो संघर्षरत था । उसने विदेशी मुग़लों के आगे पराजय नहीं स्वीकारी । गुरु नानक देव जी ने तो हार जीत की परिभाषा ही बदल दी । उन्होंने कहा,"मन के हारे हार है , मन के जीते जीत ।" भारत के लोगों ने मन से पराजय कभी नहीं स्वीकारी । जहाँ भी उसे सही नेतृत्व मिल गया , उसने विदेशियों के छक्के छुड़ा दिये । गुरु गोविन्द सिंह जी " चिड़ियों से बाज लड़ाने " का प्रयोग कर रहे थे । इसमें वे बहुत सीमा तक सफल भी हुये । यह पूरी दश गुरु परम्परा साधारण परिवारों से ही निकली थी । दक्षिण में शिवाजी महाराज जनसाधारण को संगठित कर रहे थे । उन्होंने भी विदेशी शासन की चूलें हिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । महाराणा प्रताप तो महाराणा न रह कर रेगिस्तान की साधारण संतानों से एकाकार हो गये थे और उसी जनसाधारण से प्राप्त ऊर्जा से मुग़लों को ललकार रहे थे ।
                   जब जोधपुर और जयपुर मैटरिमोनियल एलांसस से भारत माता के माथे पर कलंक कलंक की गाथा लिख रहे रहे थे , तो अपने प्राण देकर उसे मिटाने का प्रयास भी सुदूर स्यालकोट में एक छोटा बालक हक़ीक़त राय कर रहा था ।  बन्दा वैरागी ,जो अब व्यक्तिगत वैराग्य की कामना छोड़कर राष्ट्रमुक्ति के लिये सिंह बन चुका था , वह कहीं न कहीं अपने प्राण देकर भी इतिहास की इन्हीं कलंक गाथाओं का प्रायश्चित्त ही तो कर रहा था । जयपुर नरेश राम सिंह जब औरंगज़ेब की सेना का नेतृत्व करते हुये असम को जीतने के लिये डेरा डाले बैठा था तो लचित बडफूकन के नेतृत्व में ब्रह्मपुत्र की संतानें  अपना रक्त बहाकर राष्ट्रसाधना ही तो कर रही थीं । गुरु तेग़ बहादुर अपने परिवार को पाटलिपुत्र में छोड़ कर राम सिंह को इस राष्ट्रघाती काम से विमुख करने का प्रयास असम तक जाकर कर रहे थे । ब्रह्मपुत्र के तट पर धुबडी में उन्होंने राष्ट्रसाधना की जो अलख  जगा दी थी,उसकी ज्योति आज तक प्रज्वलित है । सुभद्रा कुमारी चौहान ने बहुत बाद में पूछा था ," वीरों का कैसा हो बसन्त ? " लेकिन भारत माता के पुत्रों ने तो सिकन्दर के आक्रमणों से लेकर , मुग़लों के शासन काल से होते हुये जलियाँवाला बाग़ के नरसंहार तक हर वार इसका उत्तर अपना शीश कटा कर दिया । मैं आज मेहरानगढ के क़िले में घूमता हुआ उस इतिहास को याद करता हूँ तो चिड़िया टोंक पर खड़ा मेहरानगढ शायद स्वयं ही लज्जा से मुँह छिपा रहा है । राठौड़ों की धवल कान्ति को कलंकित करने वाले राजपरिवार तो इतिहास हो गये , लेकिन मेहरानगढ किसके आगे अपना दुख रोये ?

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