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Wednesday, 29 January 2014
हुर्रियत कान्फ्रेंस का कश्मीर विरोधी चेहरा नंगा हुआ -- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
अरविंद केजरीवाल के धरने की शव परीक्षा- डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले दिनों 20 जनवरी को दिल्ली के
मुख्यमंत्री, आम आदमी पार्टी के प्रधान अरविंद केजरीवाल रेलभवन के सामने
धरने पर बैठ गए थे। वे गृह मंत्रालय के आगे धरना देना चाहते थे लेकिन वहां तक
पुलिस ने उनको पहुंचने नहीं दिया इसलिए उन्होंने रेलभवन के आगे ही अपना धरना
जमाया। वैसे पुलिस ने उन्हें बता दिया था कि इस क्षेत्र में धारा 144 लगी हुई है
इसलिए यहां धरना देना कानून के खिलाफ है लेकिन इस प्रकार की धाराएं और इस प्रकार
के कानून आम आदमी के लिए होते हैं। निश्चय ही अरविंद केजरीवाल अपने को आम आदमी से
और आम कानून से उपर समझते हैं इसलिए उन्होंने इस छोटे—मोटे कानून
की कोई चिंता नहीं की। अलबत्ता जब उन्हें यह याद दिलाया गया कि एक निर्वाचित
मुख्यमंत्री के इस प्रकार के व्यवहार से अराजकता फैल सकती है तो उन्होंने अपनी
पार्टी की नीति स्पष्ट करते हुए यह स्पष्ट किया कि देश में इस प्रकार की अराजकता
फैलाना ही तो उनका उद्देश्य है।
इस स्वीकारोक्ति पर दिल्ली के
मुख्यमंत्री का धन्यवाद किया जाना चाहिए लेकिन असली प्रश्न यह है कि यदि देश् में
अराजकता फैलेगी तो उसका लाभ किसको मिलेगा? पिछले कुछ दशकों से, जैसे-जैसे
भारत के भी एक क्षेत्रिए शक्ति बनने की चर्चा बढती जा रही है वैसे वैसे कुछ देशी—विदेशी
शक्तियां भारत में अराजकता फैलाकर इस प्रगति को अवरूद्ध करना चाहती हैं। इस्लामी—तालिबानी
शक्तियां अराजकता पैदा करने की त्रिकोण का एक बिंदू है। देश में लाल गलियारा बनाकर
अराजकता पैदा करने वाली माओवादी शक्तियां अराजकता के इस त्रिकोण का दूसरा बिंदू
है। और अब आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने अराजकता फैलाने की सार्वजनिक
घोषणा कर के अराजकता के इस त्रिकोण को पूरा कर दिया है। यदि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री
ना होते तो शायद अराजकता फैलाने की उनकी इस घोषणा को गंभीरता से न लिया जाता लेकिन
अब क्योंकि सोनिया गांधी की पार्टी ने सबकुछ जानते बुझते हुए भी केजरीवाल को
दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया है तो यह संशय भी गहराता है कि कहीं सोनिया गांधी की
पार्टी भी सत्ता से चित्त होने से पहले अराजकतावादी शक्तियों को प्रोत्साहन तो
नहीं दे रही? अरविंद केजरीवाल की अराजकता फैलाने की घोषणा और सुरक्षा
स्वीकार न करने की नीति को एक दूसरे के साथ जोड़कर देखना होगा। गुप्तचर एजेंसियों
को ऐसी आशंका है कि इस्लामी आतंकवादी केजरीवाल का अपहरण कर सकते हैं ताकि उसके
बदले में कुख्यात आतंकवादी यासिन भटकल को छुड़वाया जा सके। इस्लामी आतंकवादी
शक्तियां ऐसा एक प्रयोग जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और उस समय देश के
गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सैयद की बेटी का अपहरण करके सफलतापूर्वक कर चुकी हैं।
इसके बावजूद केजरीवाल सुरक्षा को द्यता बता रहे हैं। मान लीजिए इस माहौल में कल
सचमुच इस्लामी आतंकवादी शक्तियां उनका अपहरण कर लेती हैं, तो एक
राज्य के मुख्यमंत्री के अपहरण के बाद जो अराजकता फैलेगी और उसके जो परिणाम
निकलेंगे उससे इस देश में किन ताकतों को लाभ होगा?
इस पूरे प्रकरण में अरविंद केजरीवाल के विधि मंत्री सोमनाथ भारती की एक चाल
को भी उसके गहरे परिपेक्ष्य में समझना लाजमि है। सोमनाथ भारती पर आरोप है कि
उन्होंने अफ्रीकी देशों की कुछ महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार ही नहीं किया बल्कि
उनके चरित्र को लेकर उनपर लांछन भी लगाएं। सोमनाथ भारती इससे भी एक कदम आगे गएं, उन्होंने
कहा कि दिल्ली स्थित युगांडा के दूतावास के एक अधिकारी ने बकायदा उनको एक पत्र
देकर यह कहा कि दिल्ली में युगांडा की लड़कीयों को वेश्यावृति में धकेला जा रहा है।
युगांडा के दूतावास ने तो सोमनाथ भारती की इस गलत बयानी का तुरंत खंडन किया ही, वैसे भी
जिसको विदेशी दूतावासों के कामकाज की थोड़ी बहुत भी समझ है वे यह जानते हैं कि
दिल्ली स्थित विदेशी दूतावास किसी भी राज्य से सीधे बातचीत नहीं करते बल्कि वे
भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के माध्यम से ही करते हैं।
लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि अफ्रीकी देशों की महिलाओं को लेकर अरविंद
केजरीवाल की पार्टी ने यह सारा गैरकानूनी प्रकरण क्यों किया? इसके लिए
थोड़ा पीछे जाना होगा। कुछ अरसा पहले न्यूयार्क में अमेरिका की पुलिस ने भारत की
डिप्टी कांउसलर जनरल देवयानी खोबड़गड़े को गिरफ्तार कर लिया था, गिरफ्तारी
के बाद उसके साथ बहुत ही आपत्तिजनक व्यवहार किया गया। भारत में अमेरिका के इस
व्यवहार को लेकर बहुत तेज और तीखी प्रतिक्रिया हुई। मीडिया ने भी अमेरिका के खिलाफ
जनभावनाओं को अभिव्यक्त करने में प्रमुख भूमिका निभाई। अमेरिका की किरकिरी ही नहीं
हो रही थी बल्कि देश में अमेरिका के विरोध में एक वातावरण भी बनता जा रहा था। इस
लिए जरूरी हो गया था कि किसी ढ़ग से इस जनआक्रोश को अमेरिका से हटाकर किसी दूसरे
देश की ओर मोड़ा जाए। इस मामले में अफ्रीकी देशों का सरलता से शिकार किया जा सकता
था और अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने भी बहुत ही चालाकी से जनआक्रोश को अफ्रीका के
काले देशों की ओर मोड़ने की कोशिस की। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय डा.
चन्द्रशेखर ने कभी लिखा था-
उन्होंने
बड़ी होशियारी से
तलवार का जुर्म,म्यान के
सिर मढ़ दिया है।
अरविंद केजरीवाल ने तलवार का जुर्म म्यान के सिर मढ़ते वक्त यह नहीं सोचा कि
इससे अफ्रीकी देशों में भारतीयों के खिलाफ प्रतिक्रिया हो सकती है। किसी विदेशी
नागरिक को किसी अपराध में लिप्त होने पर उस पर बकायदा मुकदमा चलाना एक बात है
लेकिन सारी अफ्रीकी महिलाओं को बदनाम करना और भीड़ को लेकर उनके खिलाफ हंका लगाना
बिल्कुल दूसरी बात है। दुर्भाग्य से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के 20
जनवरी 2014 को दिल्ली में दिए गए धरने को
इसी पृष्ठभूमि में समझना होगा।
इस धरने से अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली का एक दूसरा पहलू भी उजागर हुआ
है। केजरीवाल ने धरने के दौरान धमकी दी थी कि यदि उनकी मांगे ना मानी गई तो वे
इंडिया गेट पर 26 जनवरी को
गण्तंत्र दिवस का उत्सव नहीं होने देंगे और राजपथ को लाखों लोगों से भर देंगे। यह
कार्यशैली एक उदहारण से समझी जा सकती है। मान लीजिए कोई किरायदार मकान मालिक के
बार-बार आग्रह करने पर भी मकान खाली नहीं करता तो मकान मालिक धमकी देता है कि यदि
तुम मकान खाली नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे बेटे का अपहरण कर लूंगा। अरविंद
केजरीवाल भी कुछ कुछ उसी भाषा में 26 जनवरी के उत्सव का अपहरण करने की ही धमकी दे रहे थे।
Thursday, 16 January 2014
ओड़िशा के सांस्कृतिक प्रतीकों पर आक्रमण की साजिश - डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
मकरसंक्रांति का उत्सव देश भर में किसी न किसी रूप में बहुत
ही उत्साह से मनाया जाता है। लेकिन ओड़िशा में इस दिन का चयन मुस्लिम कट्पंथियों
ने वहां के सांस्कृतिक गौरव और अस्मिता के प्रतीक उत्कलमणी गोपबंधु की मुर्ति
तोड़ने के लिए किया। कटक में गोपबंधु की मुर्ति तोड़ कर ही वे शांत नहीं हुए बल्कि
प्रदेश के कुछ दूसरे शहरों में भी उन्होंने हिंसक प्रदर्शन किए और एक जाने माने
मीडिया समूह को निशाना बनाते हुए उसके कार्यालय को आग के हवाले कर दिया। इन
आक्रमणों में लोगों ने भाग कर अपनी जान बचाई। ओड़िशा में सांप्रदायिक धृणा या तनाव
का कोई इतिहास नहीं है। प्रदेश के मुसलमान भी कभी मुस्लमानी सत्ताकाल में हिंदुओं
से ही मतांतरित हुए हैं। इसलिए ईश्वर की इबाददत का तरीका बदल लेने के बावजूद
उन्होंने बहुत बड़ी हद तक अपनी पूरानी परंपराएं और तौर तरीके बदले नहीं है। ओड़िशा
वैसे भी जगन्नाथ संस्कृति का क्षेत्र है। इसी कारण ओड़िशा में जाति या मजहब को लेकर
भेदभाव या आपसी तनाव के उदहारण बहुत ही कम हैं। ओड़िशा के मुसलमानों के बारे में
प्रसिद्ध है कि वे सालबेगी परंपरा को मानने वाले हैं। मुस्लिम संत कभी सालबेग ने
भगवान जगन्नाथ की स्तुति में अनेक पदों की रचना की थी और आज भी मंदिर में वे पद
गाए जाते हैं। वहां के मुसलमान गोपबंधु को उसी प्रकार अपनी सांस्कृतिक परंपरा का
स्लाका पुरूष मानते रहें हैं, जिस प्रकार वे सालबेग को मानते हैं।
तब प्रश्न
पैदा होता है कि ऐसी स्थिति में वहां के मुसलमानों ने गोपबंधु की मुर्ति तोड़ कर, अप्रत्यक्ष
रूप से ओड़िशा की सांस्कृतिक पहचान को, हिंसक चुनौती क्यों
दी ? इस प्रश्न पर
माथापच्ची करने से पहले इस घटना की पृष्टभूमि जान लेना भी आवश्यक होगा। इसे संयोग ही कहना चाहिए कि इस
बार मकरसंक्रांति और ईद-मिलादु-नवी एक ही दिन आए। ओडिया भाषी एक समाचार पत्र में मकरसंक्रांति
की सांस्कृतिक महत्ता बताने के साथ साथ इस्लाम पंथ के संस्थापक हजरत मुहम्मद के, मानवता के
लिए किए गए योगदान का सकारात्मक उल्लेख किया। इसमें कुछ अनोखापन भी नहीं था। विचार
भिन्नता रहते हुए भी सभी महापुरूषों के
प्रति श्रद्धा अर्पित करना भारतीय परंपरा है। समाचार पत्र में एक छोटा सा चित्र भी
प्रकाशित हुआ, जिसके बारे में स्थानीय मुस्लमानों के एक गुट ने यह कहना शुरू
कर दिया कि यह चित्र हजरत मुहम्मद का ही है। रिकॉर्ड के लिए बता दिया जाए कि
दूनिया भर में हजरत मुहम्मद का कोई भी चित्र उपलब्ध नहीं है। इसलिए जिस चित्र को
उपद्रवियों ने हजरत मुहम्मद का चित्र बताना शुरू किया, जरूर उनके
मन में कोई न कोई बड़ी साजिश रही होगी। राज्य का गुप्तचर विभाग पिछले कुछ अरसे से
प्रदेश सरकार को, यह खबर पहुंचाता रहा है, कि राज्य
में कुछ उग्रवादी समूह मुसलमानों को भेड़काने के काम में लगे हुए हैं। लेकिन जैसा
कि अपने यहां रिवाज बन चुका है कि मुसलमानों के संबंध में कोई भी इस प्रकार की
सूचना प्राप्त करने के बाद सरकारें आंख, कान,नाक बंद कर
लेन ही श्रेयकर मानती हैं। इस मामले में भी ओड़िशा सरकार ने शायद यही किया।
कट्रपंथियों को जो बहाना चाहिए था , वह उन्होंने किसी
चित्र को हजरत मुहम्मद का चित्र बता कर स्वयं ही प्राप्त कर लिया और उसके बाद
उन्होंने पिछले कुछ अरसे से की गई तैयारियों के बलबूते, ओड़िशा में
अपनी आगे की रणनीति का खुलास भी कर दिया। मीडिया समूह की करोड़ों की संपत्ति नष्ट
कर दी गई, पत्रकारों को धमकियां दी गई और बहुत से लोगों को चोटे आईं। इतना
तो जरूर है कि सरकार के चुप्पी साध
लेने के कारण भय का वातावरण बना।
तर्क के लिए मान भी लिया
जाए कि जिस चित्र को ये कटरपंथी हजरत मुहम्मद का बता रहे हैं, उसे भी
समाचार को छापना नहीं चाहिए था। इन कटरपंथी समूहों का कहना है कि इस चित्र के छपने
से उनकी मजहबी भावना को ठेस पहुंची है। तर्क के लिए हम इसे भी स्वीकार कर लेते
हैं। इसके बाद प्रश्न पैदा होता है कि भावना को ठेस पहुंचने की प्रतिक्रिया में
मुसलमानों को क्या करना चाहिए था? यदि यह सारा हंगामा खड़े करने वाले कटरपंथी
मुसलमानों के तर्क का ही सहारा लिया जाए तो कहा जा सकता है कि उन्हें ओड़िशा के
विभिन्न शहरों में इसके खिलाफ प्रदर्शन करने का अधिकार था और वह उन्होंने किए भी।
इससे भी आगे जाकर कहा जा सकता है कि उन्हें हिंसक प्रदर्शन करने का भी अधिकार था
और वह भी उन्होंने किया। उन्हें अखबार के दफ्तर पर हमला करने, वहां के
लोगों से मार-पीट करने और अखबार के दफ्तर को जलाने का भी अधिकार था और वह भी
उन्होंने किया।
लेकिन इस सब के
अतिरिक्त इन कटरपंथी मुस्लिम समूहों ने एक और काम किया, जिसका
उन्हें किसी भी दृष्टि से अधिकार नहीं था। उन्होंने ओड़िशा की सामरस्य संस्कृति के
प्रतीक पुरूष उत्कलमणी गोपबंधु की प्रतिमा को तोड़ दिया। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही
है कि ओड़िशा के इन कटरपंथी मुस्लिम समूहों का सीधा-सीधा कहना है कि ओड़िशा के
लोगों ने हमारे अराध्य हजरत मुहम्मद का तथाकथित अपमान किया है। इस लिए उसका बदला
हमनें आप की संस्कृति और विरासत के प्रतीक गोपबंधु की मुर्ति को तोड़ कर ले लिया
है। परोक्ष रूप से ओड़िशा के इन कटरवादी मुसलमानों ने अपने आप को ओड़िशा की संस्कृति, विरासत और
इतिहास से तोड़ दिया है अब वे ओडिशा की विरासत को अस्वीकार करते हैं। अभी यह कहना
मुश्किल है कि इन कटरपंथी समूहों के पीछे प्रदेश के आम मुसलमान हैं या नहीं? लेकिन एक
बात निश्चित है कि पिछले दो दशकों से अरब का बहावी आंदोलन यहां के स्थानीय
मुस्लमानों को ओड़िशा की विरासत से तोड़ने का जो आंदोलन चला रहा था उसकी पहली झलक
देखने को मिल गई है। गोपबंधु की मुर्ति का तोड़ा जाना उसका पुख्ता प्रमाण है। सरकार
को अभी से इन राष्ट्र विरोधी तत्वों की शिनाख्त करनी चाहिए नहीं तो यह कैंसर फैलता
ही जाएगा।
सबसे आश्चर्य की बात
यह है कि ओड़िशा सरकार ने कटरपंथियों के निशाने पर आयी अखबार के एक उपसंपादक को इस
मामले में गिरफ्तार कर लिया है । अखबार ने भी उस बेचारे को नौकरी से निकालने में
एक क्षण की देरी नहीं की। यदि सरकार को सचमुच यह लगता है कि कटरपंथियों के एक समूह
द्वारा किसी भी चित्र को हजरत मुहम्मद का चित्र घोषित कर दिए जाने मात्र से ही
मुसलमानों की भावनाएं घायल हो जाती हैं तो फिर गिरफ्तार अखबार के संपादक को किया
जाना चाहिए था ना कि उप संपादक को। लेकिन सरकार ने भी शायद ईद की परंपरा का ही
निर्वाह किया है। खुदा के रास्ते में अपनी सबसे प्यारी चीज का बलिदान देना चाहिए।
लेकिन किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे प्यारी चीज कौन होती है। इस्लाम का इतिहास
ही कहता है कि यह सबसे प्यारी चीज उसका अपना बेटा ही होता है। लेकिन बेटे को
बलिदान में देना शायद सचमुच मुम्किन नहीं होता इसलिए बकरी का बलिदान दे कर ही काम
चला लिया जाता है। खुदा इस चालबाजी को कितना समझ पाते हैं या कितना नहीं ये तो वही
जानते होंगे लेकिन लगता है नवीन पटनायक की सरकार अपने प्रिय संपादक को बचाकर
कटरपंथियों के आगे, उप संपादक
नाम की बकरी का बलिदान देकर ही काम चला लेना चाहती है। लेकिन सरकार को ध्यान रखना
चाहिए कि यदि इन मुस्लिम कटरपंथियों को एकबार बली के लहू की गंध लग गई तो वे केवल
ये छोटी सी बली लेकर ही चुप नहीं बैठेंगे। इसलिए जरूरी है कि बलि मांगने वाले इन
कटरपंथी तालिबानी मुसलमानों की भी शिनाख्त कर ली जाए और उन्हें इस देश के कानून के
अनुसार दंड दिया जाए। बीजू पटनायक होते तो शायद यह कर पाते। नवीन पटनायक कितना कर
पाएंगे यह भी खुदा ही जानता होगा। लेकिन एक बात ध्यान रखनी चाहिए ओड़िशा में
कटरपंथियों को पहले लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के मामले में और अब गोपबंधु
की(यदि मुर्ति तोडने को भी प्रतिकात्मक हत्या कहा जा सकता है तो)के हत्या के मामले
में अपनाई जा रही तुष्टीकरण की नीति भविष्य में बहुत ही घातक सिद्ध हो सकती है।
Tuesday, 14 January 2014
मनमोहन सिंह की स्वायत्तता और कश्मीर का फरमान
- डॉ0
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह और कश्मीर के इस्लामी आतंकवादियों के ब्यान
लगभग कुछ दिनों के अन्तराल से मानों एक साथ आये। मनमोहन सिंह आतंकवादियों से
कश्मीर का स्वायत्तता पर गंभीर बातचीत के लिये तैयार हैं। उसके तुरन्त बाद इस्लामी
आतंकवादियों ने फरमान जारी कर दिया कि सिक्ख या तो इस्लाम को स्वीकार करें या फिर
कश्मीर घाटी छोड़ दें। मनमोहन सिंह स्वायत्तता का क्या अर्थ लेते हैं, वे तो वही जानते होंगेए
लेकिन पिछले कुछ दशकों से जो लोग कश्मीर घाटी पर नियंत्रण किये हुऐ हैं, उनकी दृष्टि में
स्वायत्तता के क्या मायने हैं, यह उन्होंने इस फरमान के जरिए स्पष्ट कर दिया है।
आखिर मनमोहन सिंह कश्मीर घाटी के लिये जिस स्वायत्तता की बात करना चाहते हैं,
उसकी सीमा रेखाएं
क्या हैं, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। फिलहाल कश्मीर के लिये भारतीय संविधान में धारा
370 है,
इससे अधिक और
स्वायत्तता क्या हो सकती है? कश्मीर का अपना अलग से संविधान है। अपनी अलग नागरिकता है।
संसद का बनाया हुआ कोई भी कानून कश्मीर पर लागू नहीं होता। जम्मू-कश्मीर की
विधानसभा में भी कश्मीरियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से कहीं ज्यादा
प्रतिनिधित्व दिया गया है। जो जम्मू-कश्मीर का नागरिक नहीं है, वह राज्य में बस नहीं
सकता। भारत-विभाजन के बाद पाकिस्तान से आकर जिन लाखों हिन्दू-सिक्खों ने राज्य में
बसेरा बनाया, उनको राज्य की विधानसभा के लिये मतदान करने का साठ साल के बाद भी कोई अधिकार
नहीं हैं। उनके बच्चों को राज्य में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। इससे ज्यादा किस
स्वायत्तता पर मनमोहन सिंह कश्मीर धाटी के इस्लामी आतंकवादियों से बात करना चाहते
हैं?
इस्लामी आतंकवादियों की बात तो छोड़ें, वे तो ‘शायद राज्य को पाकिस्तान के साथ
मिलाने को ही स्वायत्तता का नाम दे रहे हैं, लेकिन कश्मीर घाटी के वे
राजनैतिक दल, जो अपने आप को मुख्य धारा का दल कहते हैं, मसलन नैशनल कान्फ्रैंस और
पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी, भी स्वायत्तता का अर्थ राज्य में 1953 से पहली वाली स्थिति से लेते
हैं। 1953
से पहले वाली स्थिति का अर्थ है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा
जाये, राज्यपाल
को राष्ट्रपति की तर्ज पर सदर-ए-रियासत कहा जाये। प्रदेश को उच्चतम् न्यायालय के
अधिकार क्षेत्र से बाहर किया जाये। प्रदेश में भारत के चुनाव आयोग व महानियंत्रक
का दखल समाप्त किया जाये। कुल मिलाकर केन्द्र का राज्य में दखल केवल रक्षा,
डाकतार, और मुद्रा इत्यादि गिने
चुने क्षेत्रों में ही हो। क्या मनमोहन सिंह कश्मीर घाटी के अलगाववादियों से इस
स्वायत्तता पर बात करना चाहते हैं ?
‘शायद घाटी में इस्लामी आतंकवादियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इसी
प्रस्ताव से उत्साहित होकर बातचीत से पहले घाटी के पूर्ण इस्लामीकरण का अभियान
छेड़ दिया है ताकि बातचीत के अवसर पर विरोध का स्वर सुनाई दे।
उन्होंने घाटी के सिक्खों को अल्टीमेटम दिया है। या तो इस्लाम स्वीकार करो या
फिर कश्मीर छोड़ दो। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि कश्मीर में अब मुसलमानों के
अतिरिक्त केवल सिक्ख ही बचे हैं, जिनकी संख्या साठ हजार के आसपास है। इससे पहले हिन्दुओं को
यह अल्टीमेटम दिया गया था। उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और घाटी छोड़ कर चले
गये। अब यही अल्टीमेटम सिक्खों को दिया गया है। कश्मीर में तलवार के जोर पर इस्लाम
में दीक्षित करने की परम्परा सात आठ सौ सालों से चल रही है। लगभग साढ़े तीन सौ साल
पहले भी कश्मीर में हिन्दुओं को यह अल्टीमेटम दिया गया था। ‘या इस्लाम स्वीकार करो या फिर
३३३.’। तब
वे सहायता के लिये आनन्दपुर में नवम् गुरु श्री तेगबहादुर जी के पास आये थे।
तेगबहादुर जी ने अपना बलिदान देकर उनकी रक्षा की थी। उन्हें दिल्ली के चाँदनी चैक
में ‘शहीद
कर दिया था। लेकिन इस बार जब हिन्दुओं को अल्टीमेटम दिया गया तो कोई तेगबहादुर
उन्हें बचाने बाला नहीे था। अतः उन्होंने कश्मीर छोड़ दिया।
और अब यह अल्टीमेटम सिक्खों को दिया गया है! वे किसके पास जायें? गृहमंत्रंी पी0 चिदम्बरम गला साफ करते
हुए दहाड़ रहे है कि देश को खतरा हिन्दु आतंकवादियों से है और सुरक्षा वलों को
हिन्दु आतंकवाद को समाप्त करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उधर लोक सभा में प्रणव
मुखर्जी दहाड़ते हुये कह रहे थे कि कश्मीर में सभी सिक्खों की रक्षा की जायगी।
उन्हें डरने की जरुरत नहीं है। और इसके लिये वे राज्य के मुख्यमंत्री उमर
अब्दुल्ला का हवाला दे रहे थे। यानि उनका रक्षा का आश्वासन उमर अब्दुल्ला पर
आश्रित है। वे उमर अब्दुल्ला जिनका प्रशासन राज्य के सचिवालय के बाहर कहीं नहीं
है। यदि है तो जम्मू में लोगों पर लाठियां बरसाने भर के लिए है। चिदम्बरम और प्रणव
मुखर्जियों का कुनवा कश्मीर में न हिन्दुओं की रक्षा कर पाया और न ही अब सिक्खों
की कर पायेगा। यह मुखर्जी बाबू भी जानते हैं और सिक्ख भी अच्छी तरह जानते हैं। यह
कुनवा इस्लामी आतंकवाद की मूल अवधारणा को स्वीकार करने के लिये ही तैयार नहीं है
तो सिक्खों की रक्षा क्या कर पायेगा। उनकी प्राथमिकता तो काल्पनिक हिन्दु आतंकवाद
से लडने की है। चिदम्बरमों और मुखर्जियों की धारणा है कि इस्लामी आतंकवादी गुंडों
के गिरोह हैं जिन्हें बल से काबू किया जा सकता है। वे यह नहीं मानते कि इनके पीछे
इस्लाम का पूरा दर्शन और योजना है। यदि केवल कश्मीर की आजादी की बात होती तो
आतंकवादियों का अल्टीमेटम होना चाहिए था या तो कश्मीर की आजादी का नारा लगाओ या
कश्मीर छोड़ो। लेकिन आतंकवादियों ने तीसरा विकल्प दिया है दृ इस्लाम स्वीकार करो।
चिदम्बरम और मुखर्जी बाबू को तो इस्लाम स्वीकार करो में ‘शायद कुछ भी आपत्तिजनक
नहीं दिखाई देता होगा। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तो लोकसभा में सब कुछ
देख रहे थे। क्या अर्थशास्त्र की किताबें पढ़ते पढ़ते वे श्री तेगबहादुर जी के
बलिदान की स्वर्णिम गाथा को भूल चुके हैं या फिर उन्हें उसकी याद है? कहीं वे ऐसा तो नहीं
मानने लगे कि इक्कीसवीं ‘शताब्दी तो वैश्वीकरण की ‘शताब्दी है, इस लिये इसमें ‘इस्लाम स्वीकार करो’
जैसे अल्टीमेटमों
पर माथा पच्ची करने की कोई जरुरत नहीं है। यदि कोई मुसलमान बन भी जाता है तो क्या
फरक पड़ता है। ये तुच्छ प्रश्न हैं जो आज के युग में अप्रासंगिक हो गये हैं।
लेकिन आम आदमी, आम जनता के लिये ये प्रश्न अभी भी प्राथमिक हैं, तुच्छ प्रश्न नहीं हैं। इसीलिये
अकाली दल के सांसद अजनाला के श्री रतन सिंह ने लोक सभा में पंजाब के इतिहास को
उद्धृत करते हुये सिंह गर्जना की कि कश्मीर घाटी में सिक्ख मर जायेंगे लेकिन
इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे। कश्मीर में इस्लाम में मतान्तरण का अभियान बहुत लम्बे
अरसे से चला हुआ है। सिक्खों को दिया गया अल्टीमेटम इस अभियान का अंतिम अध्याय है।
लेकिन इतिहास गवाह है इस्लाम के लिये यह अंतिम अध्याय ही सर्वाधिक कठिन चुनौती
बनने वाला है। इतिहास यह भी लिखेगा कि जब इस अध्याय के रक्त रंजित पन्ने लिखे जा
रहे थे तो दिल्ली की सल्तनत पर कोई औरंगजेब नहीं बल्कि मनमोहन सिंह विराजमान थे।
लेकिन सिक्खों को जारी इस फरमान को लेकर राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व
गिलानी जैसे राजनीतिज्ञों की ओर से जो स्पष्टीकरण आ रहे हैं वे चैंकाने वाले हैं।
उनका कहना है कि घाटी में इस प्रकार का फरमान जारी करने वाले ‘शरारती तत्व हैं,
सिक्खों को डरने
की कोई जरूरत नहीं है। अब पिछले चालीस सालों में घाटी में जो कुछ हो रहा है,
वह यही ‘शरारती तत्व ही तो करवा
रहे हैं। इन ‘शरारती तत्वों ने सारी घाटी को अशान्त कर रखा है, प्रशासन को बन्धक बना रखा है।
सरकार खुद इन ‘शरारती तत्वों से घबराती है और मनमोहन सिंह इन ‘शरारती तत्वों से स्वायत्तता
जैसे गंभीर मसले पर बातचीत करने को तैयार हैं। सिक्खों को नसीहत दी जा रही है कि
इन ‘शरारती
तत्वों से डरने की जरूरत नहीं है। यह फरमान ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ वाला ‘शोर नहीं है।
दरअसल भेडि़या आ चुका है और उमर अब्दुल्ला सिक्खों से आग्रह कर रहे हैं कि इसे
देखो मत। आँखें बन्द कर लो। भय समाप्त हो जायगा। उमर अब्दुल्ला की दिक्कत यह है कि
वे स्वयं भेडि़ये को पकड़ नहीं सकते और मनमोहन सिंह इस भेडि़ये से स्वायत्तता पर
बात करना चाहते हैं।
सिक्ख भेडि़ये से डर जायेंगे ऐसा नहीं है। पंजाब का इतिहास ही इसकी साक्षी देता
है। वे डर से इस्लाम स्वीकार कर लेंगे इसकी सम्भावना भी नहीं है। वे कश्मीर घाटी
छोड़ देंगे यह भी संभव नहीं है। लेकिन इस्लाम आतंकवादियों के फरमान के परिणाम घातक
हो सकते हैं दृ जैसे कि पंजाब के मुख्यमंत्री श्री प्रकाश सिंह बादल ने संकेत दिया
है।
क्या मनमोहन सिंह स्वायत्तता का राग बन्द करके आतंकवादियों के इस फरमान की ओर
ध्यान देंगे? घाटी के सिक्ख तो फिर भी अपनी रक्षा कर ही लेंगे लेकिन इतिहास मनमोहन सिंह को
माफ नहीं करेगा!
क्या सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी कोई दिल्ली में सुनने वाला है ?;
डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
सर्वोच्च न्यायालय ने दारा सिंह को फांसी देने की केन्द्रीय सरकार की अपील को
नामंजूर कर दिया है । कुछ साल पहले ओडिशा में आस्ट्रेलिया के एक मिशनरी ग्राहम
स्टेन्स की जंगल में हत्या हो गई थी । वह अपनी गाडी में था कि कुछ लोगों ने उसकी
आग लगा दी । बाद में पुलिस ने इस घटना के लिए जिम्मेदार बता कर कुछ लोगों को
गिरफ्तार किया और उसमें दारा सिंह नामका व्यक्ति प्रमुख था । ग्राहम स्टेन्स पर यह
आरोप था कि वह विदेशी स्रोतों से प्राप्त धन के बल पर भोले भाले जनजातीय समाज के
लोगों का मतांतरण कर रहा था । इसके लिए वे अनेक प्रकार के अमानवीय व निंदनीय
तरीकों का इस्तमाल करता था । जनजातीय समाज की परंपराओं को तोडने के लिए वे
मतांतरित लोगों को भडकाता था और उन लोगों की आस्थाओं व विश्वासों का मजाक उडाता था
। कबीले के लोगों इसाई मजहब की फौज में शामिल करवाने के लिए वे लगभग उन सभी तरीकों
को इस्तमाल करता था जिनका उल्लेख जस्टिस नियोगी की अध्यक्षता में गठित आयोग ने
किया है । इन्हीं परिस्थितियों में उसकी हत्या हुई और ओडिशा हाइकोर्ट ने दारा सिंह
को हत्या का आरोपी मान कर उसे उम्र कैद की सजा सुनाई । ओडिशा हाइकोर्ट के इस फैसले
से भारत में मतांतरण के काम में जुटा हुआ चर्च अति क्रोध में था और वह दारा सिंह को किसी भी हालत में जिंदा
नहीं देखना चाहता था । इसलिए केन्द्रीय सरकार की जांच एजेंसी सीबीआई ने दारा सिंह
को फांसी पर लटकाये जाने की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई । उस
वक्त कुछ मानवाधिकारप्रेमियों ने इस बात पर आपत्ति भी जाहिर की थी । लेकिन सीबीआई
अंततः दारा सिंह के लिए फांसी की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गई । इसी
बीच ग्राहम स्टेन्स की आस्ट्रेलियाई पत्नी ग्लैडिस भारत को छोड कर वापस अपने देश
चली गई ।
अब उच्चतम न्यायालय ने इस बहुचर्चित केस में अपना निर्णय सुना दिया है ।
न्यायालय ने भारत सरकार की अपील को खारिज करते हुए दारा सिंह को फांसी देने से
इंकार कर दिया है । सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि ग्राहम स्टैंस की हत्या
जघन्यतम अपराधों की श्रेणी में नहीं आती । सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि
लोग ग्राहस स्टैंस को सबक सिखाना चाहते थे क्योंकि वह उनके इलाके में मतांतरण के
काम में जुटा हुआ था । इस विषय पर टिप्पणी
करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत ही महत्नपूर्ण टिप्पणी की है जो मतांतरण के
काम में लगी हुई अलग अलग मिशनरियों के लिए मार्गदर्शक हो सकती है । सर्वोच्च
न्यायालय ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति की आस्था व विश्वासों में दखलदाजी करना और
इसके लिए बल का प्रयोग करना, उत्तेजना का प्रयोग करना, लालच का प्रयोग करना या किसी को
यह झुठा विश्वास दिलवाना कि एक मजहब दूसरे से अच्छा है और इन सभी तरीकों का
इस्तमाल करते हुए किसी व्यक्ति का मतांतरण करना, इसको किसी भी आधार पर उचित नहीं
ठहराया जा सकता । सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इस प्रकार के मतांतरण से हमारे
समाज की उस आधारभित्ति पर चोट होती है जिसकी रचना संविधान के निर्माताओं ने की थी
।
सर्वोच्च न्यायालय के इस टिप्पणी से पहले भी अनेक न्यायालयों ने यह निर्णय
दिये हैं कि भारतीय संविधान में अपने मजहब का प्रचार करने का अधिकार तो दिया हुआ
है लेकिन किसी को भी अनुचित साधनों के प्रयोग से मतांतरण का अधिकार नहीं है । यही
कारण है कि ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश जनजातीय बहुल राज्यों ने मतांतरण को रोकने के
लिए कानून बनाया हुआ है । लेकिन दुर्भाग्य से इस कानून के होते हुए भी ग्राहम
स्टेंस जैसे विदेशी लोग अकेले ओडिशा में ही हजारों हजारों लोगों का मतांतरण करवा पाने
में सफल हो गये और राज्य सरकार आंखें मुंद कर सोयी रही । यही परिस्थितियां रही
होगी ओडिशा के लोगों ने राज्य सरकार के असफल हो जाने पर ग्राहम स्टेंस को सबक
सिखाने की सोची होगी । यद्यपि इस तरीके को अच्छा नहीं माना जा सकता लेकिन फिर भी
एक बात का ध्यान रखना चाहिए यदि जनजातीय समाज में मिशनरियों की इस प्रकार की
अमानवीय गतिविधियों को रोका न गया तो वह समाज इसे रोकने के लिए स्वयं किसी भी सीमा
तक जा सकता है । लेकिन दुर्भाग्य से केन्द्रीय सरकार खतरे की इस घंटी को सुनने के
बजाए दारा सिंह को ही फांसी पर लटकाने को ज्यादा सुविधाजनक मान कर चल रही है ।
ओडिशा में ही दो साल पहले चर्च के लोगों ने स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या
कर दी थी । ये भी जनजातीय समाज में मिशनरियों के उस मतांतरण आंदोलन का ही विरोध कर
रहे थे । स्वामी जी की हत्या के विरोध में जब पूरा कंध समाज ऊफान पर आ गया तो
राज्य सरकार एक बार फिर चर्च के साथ खडी दिखाई दी
और कंध समाज को प्रताडित और डराने धमकाने के कार्य में लगी रही । ग्राहम
स्टैंस के हत्यारों को पकडने के लिए राज्य सरकार ने जितनी तत्परता दिखाई थी उसकी
शतांश भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्यारों को पकडने और दंड दिलवाने में
नहीं दिखाई । अलबत्ता इस भीतर केन्द्रीय सरकार ने आस्ट्रेलिया से ग्राहम स्टेंस की
पत्नी ग्लैडिस को वापस बुला कर पद्मश्री से सम्मानित किया था । यह जनजातीय समाज के
मुंह पर एक और तमाचा था ।
अब समय आ गया है कि इस गंभीर मुद्दे पर गहरी चर्चा की जाए और भविष्य के लिए
ठोस रणनीति बनायी जाए ताकि विदेशी ताकतों से संचालित मिशनरियां मतांतरण के बल पर
भारत की पहचान और अस्मिता को समाप्त न कर सकें । इस रणनीति के लिए उच्चतम न्यायालय
द्वारा दिया गया यह दिशानिर्देश अत्यंत सहायक सिद्ध हो सकता है । लेकिन पिछले कुछ
सालों से केन्द्रीय सरकार के व्यवहार और आचरण से यह लगता है कि उसकी रुचि भारत में
छल और बल से किये जा रहे मतांतरण के आंदोलन को रोकने में उतनी नहीं है जितनी उसे
प्रोत्साहित करने में है । यही कारण है कि जब राजस्थान विधानसभा ने राज्य में
मतांतरण को रोकने के लिए विधेयक दो दो बार बहुमत से पारित किया तो उस समय की
राज्यपाल श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने ( जो अब राष्टपति पद पर विराजमान हैं) अनेक प्रकार के अडंगे लगा कर उसे कानून नहीं
बनने दिया । इसी प्रकार गुजरात विधानसभा ने जब इसी प्रकार के एक विधेयक को ज्यादा
प्रभावी बनाने के लिए उसमें संशोधन को बहुमत से स्वीकृत किया तो राज्यपाल ने
केन्द्रीय सरकार के निर्देशों के चलते उसमें अडंगे लगाये । जिन प्रदेशों में इस
प्रकार का कानून बना हुआ भी हैं वहां भी शायद ही कोई पादरी होगा जिसको इस कानून का
उल्लंघन करने के आरोप में सजा सुनायी गई है । सजा की बात तो दूर है किसी पर
मुकद्दमा ही चलाया गया हो, यह भी संदेहात्मक है । यही कारण है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश
जैसे राज्यों में मतांतरण रोकने संबंधी विधेयक प्रभावी होने पर भी वहां लाखों की
संख्या में जनजातीय समाज को मतांतरित किया जा चुका है ।
दुर्भाग्य से भारत में जिन लोगों के हाथों में सत्ता सूत्र आ गये हैं उनकी
वैटिकन के राष्ट्रपति में ज्यादा आस्था है, भारत के इतिहास, विरासत, आस्था व विश्वासों से कम
। पोप का यही मानना है कि अंतिम मोक्ष तक ले जाने के लिए ईसाई मजहब ही सर्वश्रेष्ठ
है बाकि सब मजहब शैतान के मजहब हैं । सत्ता के उच्च स्थानों पर बैठे हुए कुछ लोग
पोप के इसी एजेंडा को भारत में लागू करना चाहते हैं । चाहे उसके लिए दारा सिंह को
फांसी पर लटकाना पडे, त्रिपुरा के शांति काली जी महाराज और कंधमाल के स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को
उनके ही आश्रम में गोलियों से उडाना पडे । परंतु देश के सर्वोच्च न्यायालय ने
इतिहास के इस मोड पर एक बहुत ही सही और सामयिक चेतावनी दी है । क्या दिल्ली में
कोई सुनने वाला है ?
असम में बंगलादेशी मुसलमानों के बहाने की जा रही देशघाती राजनीति
-डाॅ0
कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले कुछ दिनों से असम में, विशेषकर बोडो क्षेत्रीय परिषद के अधिकार क्षेत्र में आने
वाले चार जिलों कोकराझार, बाकसा, उदालगुड़ी, चिरांग में असमिया लोगों
और बंगला देश से अवैध घुसपैठ करने वाले मुसलमानों में भंयकर टकराव हो रहा है। इस टकराव में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही
लगभग पचास लोगों की मृत्यु हो चुकी है जिनमें महिलाएं और बच्च्ेा भी शामिल है और चार
लाख से भी उपर लोग अपने घरों को छोड़कर भाग गए हैं। वे सहायता शिविरों में रह रहे
हैं। हजारों घरों को जला दिया गया है और
करोड़ों की सम्पŸिा स्वाहा हो गई है। बोडो क्षेत्रिय
परिषद के दो जिलों मसलन कोकराझार और चिरांग में तो स्थिति बहुत ही भयावह है।
असमिया लोगों और बंगलादेशी घुसपैठियों की लड़ाई अब धुबड़ी इत्यादि जिलों को पार
करके बांेगईगांवो, बरपेटा इत्यादि क्षेत्रों में फैलने लगी है।
यहाॅं तक असम सरकार का प्रशन है उसके लिए यह कोई महत्वपूर्ण प्रशन नहीं
है। असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई दावा
कर रहे हैं कि स्थिति नियंत्रण में आ चुकी है लेकिन शायद अन्दर ही अन्दर सुलग रहे
दावानल तो महसूस नहीं कर रहे। या फिर
महसूस तो कर रहे हैं लेकिन जानबूझ कर अनजान बने हुए हैं। असम के लोगों को गुस्सा तरूण गोगोई पर इसलिए भी
है कि पिछले विधान सभा चुनावों में जब सभी बंगला देशी मुसलमान बदरूददीन अजमल की
ए.यू.डी.एफ. पार्टी के झण्डे तल लामबद्ध हो गए थे तो अमस की हिन्दू जनता ने तरूण
गोगोई की सरकार को जिताया था। लेकिन अब वही तरूण गोगोई अपने आगामी राजनैतिक
हितों को पुनः पारिभाषित करते हुए अवैध
बंगलादेशी मुसलिम घुसपैठियों के प्रति नरम रवैया अपना रहें हैं और उन्हें असम के
लोगों की कीमत पर बसाने का प्रयास कर रहे हैं। दरअसल असम 1947 से ही मुसलिम लीग के
निशाने पर रहा है और मुसलिम लीग इसे भारत विभाजन की योजना के अन्तर्गत पाकिस्तान
में शामिल करवाना चाहती थी।
इसे मुसलिम लीग और अंग्रेज सरकार की सांझी योजना भी कहा जा सकता था। 1905 में जब अंग्रेज सरकार ने बंगाल का विभाजन किया और
मुसलिम बहुल पूर्वी बंगाल को अलग कर दिया तो पूरे बंगाल ने एकजुट होकर इसका विरोध
किया था। अंग्रेजों ने तभी से पूर्वी
बंगाल के साथ लगते असम के क्षेत्र को बंगाली मुसलमानों से भरने का निर्णय कर लिया
था। असम में बंगाली मुसलमानों के बसने का
यह सिलसिला 1930 तक निरन्तर चलता रहा। यही कारण था कि
आसाम का सिलहट इत्यादि क्षेत्र मुसलिम बहुल हो गया। आजादी से पहले जो अन्तरिम सरकारें बनी थी उसमें
असम के तकालिक मुख्य मंत्री गोपीनाथ बारदोलोई के त्यागपत्र देने पर मुसलिम लीग के
मुहम्मद सादुल्लाह मुख्य मंत्री बने थे। उन्होंने
इन बंगाली मुसलमानों को जमीन के स्थाई पट्टे दे दिए। मुसलिम लीग के अध्यक्ष
मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान में शामिल किए जाने वाले जिन क्षेत्रों का
मानचित्र इंगलैण्ड की सरकार को दिया था उस मानचित्र में पूरे का पूरा बंगाल और असम
का अधिकांश भाग शामिल था। डाॅ0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी की सूझ-बूझ के कारण पश्चिमी बंगाल
पाकिस्तान में शामिल होने से बच गया और गोपीनाथ बारदोलोई के प्रयासों से असम।
लेकिन इसके बावजूद असम का सिलहट क्षेत्र अंग्रेज सरकार ने पाकिस्तान में शामिल कर
दिया। भारत विभाजन के बाद भी मुसलिम लीग
और पाकिस्तान सरकार ने पूरे असम को पाकिस्तान में शामिल करवाने का अपना एजेण्डा
त्यागा नहीं। बंगला देश जब पाकिस्तान से
अलग हो गया तो पाकिस्तान की आई.एस.आई. के लिए असम को मुसलिम बहुल बनाकर उसे
हिन्दुस्तान से तोड़ने का एक और रास्ता मिल गया।
बंगला देश बनने के बाद लाखों की संख्या में अवैध बंगलादेशी मुसलिम घुसपैठिए
हिन्दुस्तान में आने लगे और उनमें से अधिकांश असम में स्थाईरूप से बसने लगे। यह
ठीक है कि इन बंगलदेशी घुसपैठियों ने अपने बिस्तार के लिए सारे हिन्दुस्तान को ही
अपना निशाना बनाया। एक मोटे अनुमान के
अनुसार हिन्दुस्तान में बसेे अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों की संख्या चार करोड़ के
लगभग है। जबकि संयुक्राष्ट्र संघ के अनेक
सदस्य देशों की आबादी चार करोड़ से कहीं कम है।
आज दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों में
लाखों की संख्या में अवैध बंगलादेशी घुसपैठिए मिल जाएंगे लेकिन अब उनका विस्तार
छोटे-छोटे शहरों तक में हो गया है। पूर्वोत्तर भारत में तो वे गांव तक पहुंच गए
है। मेघालय, त्रिपुरा और असम उनके विशेष
शिकार हुए हैं। दःुख की बात यह है कि ये बंगलादेशी
घुसपैठिए अपराध कर्म में तो लिप्त हो ही रहें हैं, इनकी मानसिकता भारत विरोधी है और
अनेक स्थानों पर आतंकवादी गतिविधियों में
भी इनकी संलिप्तता पाई गई है। भारत के अनेक स्थानों पर जो आतंकवादी विस्फोट हुए
हैं उनकी जांच में कई बंगलादेशी भी संदेह के घेरे में है। पूर्वोंत्तर भारत में आई.एस.आई. की गतिविधियों
को बढ़ावा देने में संलिप्त लोगों की शरणस्थली भी बंगलादेश रही है। दुर्भाग्य से इन बंगलादेशियों को इस देश में,
खासकर असम में,
स्थाई रूप से
बसाने में और उन्हें जरूरी कानूनी कागजात मुहैया करवाने में पश्चिमी बंगाल की
पूर्ववर्ती सी.पी.एम. सरकार और असम की सोनिया
कांग्रेस सरकार की महत्पूर्ण भूमिका रही है। बंगलदेशी अवैध घुसपैठियों के कारण असम में जो
जनसांख्यिकी परिवर्तन आ रहा है उस पर गुवाहाटी उच्च न्यायाल्य और उच्चतम न्यायालय
भी अनेक बार चिन्ता प्रकट कर चुका है।
न्यायालय ने केन्द्र सरकार को ऐसे आदेश भी दिए हैं कि अवैध बंगलादेशियों की
शिनाखत करके उन्हें तुरन्त देश से बाहर निकाला जाए। लेकिन सी.पी.एम. और सोनिया
कांग्रेस दोनों के ही राजनैतिक हित इन बंगलादेशियों से जुड़ गए हैं, इसलिए कानून का निर्धारण इस प्रकार किया गया जिससे कानूनी
प्रक्रिया में किसी अवैध बंगलादेशी को इस देश से निकालना लगभग असम्भव हो जाए।
केन्द्र सरकार का आई.एम.डी.टी. एक्ट ऐसा ही कानून था, जिसे बाद में उच्तम न्यायालय ने
निरस्त किया।
शुरू-शुरू में जब बंगलादेशी मुसलमानों ने असम में डेरा जमाना शुरू किया था और
सोनिया कांग्रेस ने खुशी-खुशी उन्हें मतदाता सूचियों में दर्ज कराना शुरू किया था
तो ये नये मतदाता सोनिया कांग्रेस को ही मत देते थे और असम की सोनिया कांग्रेस सरकार इन नये बढ़ते
मतों के उत्साह में बंगलादेशियों को निकालने के वजाए उन्हें और अधिक संख्या में
असम में बसाने के प्रयास कर रही थी। अब जब इन बंगलादेशी मुसलिम घुसपैठियों की
संख्या अनेक जिलों और विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक स्थिति में पहुंच चुकी है
तो उन्होंने अपनी ही एक राजनैतिक पार्टी ए.यू.डी.एफ. असम यूनाईटेड डैमोक्रेटिक
फ्रंट बना ली हैं और पिछले विधान सभा चुनाव में 18 सीटें प्राप्त करके वह मुख्य
विपक्षी दल बनने की स्थिति में आ गई हैं। इन दिनों, क्योंकि दिल्ली में देश की सबसे
कमजोर, दिशाहीन
और निर्णय लेने में अक्षम सरकार काबिज है जो सŸाा की खातिर मुसलमानों के
तुष्टीकरण में लगी हुई है। इसलिये आइ.एस.आई. और अवैघ बंगलादेशी घुसपैठियों को लेकर
लम्बी रणनीति चलाने वालों ने असम में अपनी रणनीति का पहला प्रयोग करने का निर्णय
कर लिया है। आसाम के कोकराझार, चिरांग, धुबड़ी और दूसरों जिलों
में जो हो रहा है वह उसी प्रयोग का प्रतिफल है। यह रणनीति इतनी गहरी है कि ज्यों ही असम में असमिया लोगों और अवैध
बंगलादेशी मुसलमानों का टकराव शुरू हुआ त्यों ही दिल्ली में केन्द्रिय सरकार पर
दबाव बनाने के लिए मुसलमानों ने, जिनमें से अधिकांश अवैध बंगलादेशी ही थे असम भवन और
केन्द्रिय गृह मंत्री के घर के बाहर यह कहते हुए प्रदर्शन करने शुरू कर दिए कि असम
में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है जबकि असलियत यह है कि असम में यह झगड़ा
असमिया लोगों और अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों में है न कि असम के हिन्दू और
मुसलमानों में। केन्द्रिय सरकार, और अभी भी मुसलिम लीग की
रणनीति को मन में पाले हुए कुछ नेता इसे हिन्दू मुसलिम दंगों का रूप देने की कोशिश
कर रहे हैं। रणनीति बिल्कुल साफ है यदि
इसे हिन्दू मुसलिम दंगे का नाम दे दिया जाए तो विदेशी पैसों पर पल रही तमाम एन.
जी. ओ. हिन्दुओं के खिलाफ मोर्चा खोल सकती है। लेकिन यदि यह झगड़ा असम के लोगों और अवैध बंगलादेशी
घुसपैठियों के बीच है तो तथाकथित सैक्युलरिस्टों के लिये अवैध बंगलादेशियों का
समर्थन करना मुशिकल हो जाएगा। बोडो लैंण्ड
क्षेत्रीय परिषद के मुखिया ने बार-बार केन्द्र सरकार और असम सरकार से मांग कि भारत
और बंगला देश की सीमा को तुरन्त सील किया जाए क्योंकि दंगों का लाभ उठाकर बहुत
से बंगलादेशी मुसलमान सरहदपार से असम में
घुस रहे हैं और जलती में घी का काम कर रहे हैं। यह मांग भी की गई कि धुबड़ी और
कोकराझार की सीमा को भी सील किया जाये क्योंकि धुबड़ी से अवैध बंगलादेशी घुसपैठिए
कोकराझार में घुसकर स्थिति को खराब कर रहे हैं लेकिन असम सरकार के कानों पर जूं
नही रेंगीं। असम में स्थिति कितनी खराब हो चुकी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा
सकता है कि मेघालय के राज्यपाल रणजीत शेखर ने भी सार्वजनिक रूप से यह कहा कि असम
सरकार स्थिति पर नियंत्रण रखने में सफल हुई है।
उन्हें यह तब कहना पड़ा जब उन्हें अपने ही गांव के मूल निवासियों को खदेड़
दिया गया।
लेकिन असम के कुछ हल्कों में बोडो क्षेत्र में हुए इन दंगों को लेकर प्रचारित
किए जा रहे आंकड़े भी विवाद का विषय बने हुए हैं।
सरकारी प्रचार माध्यम यह दावा कर
रहे हैं कि इन दंगों में लगभग पाॅंच लाख लोग विस्थापित हुए हैं। बोर्डो साहित्य सभा का कहना है कि जिस जिले से
अवैध बंगलादेशी घूसपैठिए शरणार्थी कैंपों में गये है उस कोकराझार जिले में
मुसलमानों की कुल जनसंख्या ही दो लाख है।
इन दो लाख में भी अवैध बंगलादेशी मुसलमानों के अतिरिक्त असम के मूल मुसलिम
भी हैं। यदि यह भी मान लिया जाए कि कोकराझार जिले के सभी मुसलमान भाग कर शरणार्थी
कैंपो में चले गये हैं तभी भी उनकी संख्या पांच लाख कैसे हो सकती है। ऐसा कहा जा
रहा है कि बंगलादेश से बहुत से अवैध मुसलमान आ रहे हैं और अब वे अपने आप को इन
राहत कैंपों में पनाह लेने वालों में शामिल करके सरकारी सहायता से ही असम में अवैध
रूप से बस जायेंगे। असम के तटास्थ विशलेषक
यह मानते हैं कि पूर्नवास की व्यवस्था उन्हीं के लिए की जाए जो असमीया मुसलमान है। बंगलादेशी मुसलमानों की शिनाखत करके उन्हें
वापिस बंगला देश भेजा जाये। लेकिन लगता है असम की सोनिया कांग्रेस सरकार इस
त्रासदी का भी राजनैतिक लाभ उठाना चाहती है।
यही कारण है कि इस दंगों के नाम पर नये आने वाले बंगलादेशी मुसलमानों को
बसाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार पर
मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने और कहीं वह जन दबाव के चलते बंगलादेशी मुसलमानों की
शिनाखत करना शुरू न कर दे, शायद इसी को टालने के लिए ईसलामी आतंकवादी समूहों ने
गोपालपाड़ा में भारतीय सेना पर भी आक्रमण किया।
मुसलिम यूनाईटेड लिवरेशन आॅफ असम ने भी सरकार पर बंगलादेशियों घुसपैठियों
को सरकारी सहायता से बसाने का दबाव डालना शुरू कर दिया है। सोनिया कांग्रेस के सबसे बड़े सिपहसलार
दिग्विजय सिंह जिसको सोनिया गांधी ने असम का इंचार्ज बनाया हुआ है ने स्पष्ट किया
कि असम में बंगलादेशी अवैध मुसलिम घुसपैठिए नहीं है बल्कि ये यहाॅं के मूल मुसलिम
समुदाय से ही तालुक रखते हैं। जब उनसे
प्रशन किया गया कि यदि अवैध बंगलादेशी मुसलिम घुसपैठिए आसाम में नहीं आ रहे हैं तो
पिछले कुछ दशकों से असम में मुसलमानों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि कैसे हुई
है। इसके उत्तर में दिग्विजय ने जो कहा वह
शायद कांग्रेस वालों को भी चैंकाने के लिए काफी हो। उन्होंने कहा कि असम में भी मुसलमानों की
जनसंख्या में उसी दर से वृद्धि हुई है जिस दर से भारत के अन्य प्रान्तों में। इसलिए असम में मुसलिम जनसंख्या में अप्रत्याशित
वृद्धि पर शोर मचाना बेकार है। दिग्विजय
सिंह का दंगों के अवसर पर दिया गया यह ब्यान काफी चतुराई भरा है। उनके इस ब्यान का अर्थ है कि दंगों की आड़ में
नये आने वाले बंगलादेशी मुसलमानों को, या फिर ऐसे बंगलादेशी मुसलमानों को जो काफी अर्से से
असम में रह रहे हैं लेकिन उनके पास स्थाई निवासी होने के कागज पत्र नहीं है,
को सरकारी सहायता
पर बसा दिया जाए और उनके नाम मतदाता सूचियों में दर्ज करवा दिए जायें। जबकि असम
में असली स्थिति यह है कि विधानसभा के कुल 126 क्षेत्रों में से 56 क्षेत्र ऐसे बन गये हैं,
जहाॅं चुनाव में
वही विधायक जीत सकता है जिसका समर्थन बंगलादेशी मुसलमान करेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि सत्ताधारी सोनिया कांग्रेस
का समर्थन पाकर एक दिन बंगलादेशी मुसलमान राज्य के शासन के सूत्रधार भी बन सकते
हैं। बंगलादेशी मुसलमानों की राजनीति करने
वाले राजनैतिक दल असम यूनाईटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट के मालिक बदरूददीन अजमल ने
सोनिया कांग्रेस की इस सत्ता लिप्सा को आसानी से पहचान लिया। उसने बंगलादेशी मुसलमानों के दम पर विधानसभा की
18 सीटों
पर कब्जा करके बंगलादेशी मुसलमानों की ताकत का भी ऐहसास करवा दिया और असम की तरूण
गोगोई सरकार का समर्थन करना भी शुरू कर दिया ताकि कांग्रेस इसी लालच में प्रदेश
में अपनी बंगलादेशी घुसपैठियों को समर्थन देने की नीति जारी रख सके। शायद यही कारण है कि आज जब असमिया लोगों और
अवैध विदेशी बंगलादेशियों के बीच में झगड़ा हुआ तो सरकारी प्रशासन बंगलादेशियों के
पक्ष में खड़ा दिखाई देता है न कि असम के लोगों के पक्ष में। स्थिति यहां तक खराब
हो गई है कि असमिया स्वयं को असम में ही
बेगाने महसूस कर रहे हैं। अस्सी के दशक
में इस स्थिति को बदलने के लिए और असम को अवैध बंगलादेशी मुसलमानों से मुक्त
करवाने के लिए असम के छात्रों ने बेमिसाल अहिंसक आन्दोलन चलाया था। उससे प्रान्त
की सरकार भी बदली परन्तु केन्द्रिय सरकार
की नीतियों, अन्तर्राष्ट्यि षड्यन्त्रों और मुसलिम लीग की 1947 की रणनीति को साकार करने में
लगी घर की भेदी शक्तियों के सम्मिलित प्रयासों ने असम के लोगों की इस लड़ाई को एक
बार फिर पराजित कर दिया। कांग्रेस इस
लड़ाई में असम के लोगों के साथ इसलिए न खड़ी हो सकी क्योंकि उसे सत्ता में रहने के
लिए बंगलादेशी मुसलमानों के मतों की जरूरत थी और ये नये मतदाता इसके लिए सहर्ष
तैयार थे और यदि बाबा साहब आम्बेडकर के शब्दों की नव व्याख्या करनी हो तो मुसलिम ब्लाॅक को असम में बंगलादेशी
मुसलमानों को बसाने की इसलिए जरूरत थी ताकि पूर्वोत्तर भारत को देश से अलग किया जा
सके। आज भी जब लड़ाई का असली केन्द्र असम
ही है तब भी बंगलादेशी मुसलमानों के आधार पर असम का जनसंख्या चरित्र परिवर्तित
करने के लिए इन शक्तियों ने अपनी सहायता के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में भी
बंगलादेशी मुसलमानों की पिकटें तैयार कर लीं हैं ताकि भविष्य में दबाव बनाने के
लिए काम आए। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि असम में अभी जो दंगाफसाद हुआ है,
तरूण गोगोई सरकार
इसका उपयोग और भी ज्यादा बंगलादेशियों को असम में बसाकर करने जा रही है।
सेना में मुसलमान सच्चर की गिनती से लश्कर तक :
डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले दिनों सोनिया गांधी की सरकार ने वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देने के लिये
राजेन्द्र सच्चर के जिम्मे एक विशेष काम लगाया था। वह काम था प्रत्येक स्थान पर इस
बात की जांच करना की वहां कितने मुसलमान हैं, उनके साथ वहां क्या व्यावहार हो
रहा है ? यदि
किसी स्थान पर मुसलमान कम हैं तो इसका क्या कारण है? क्या उन्हें इस स्थान पर उचित
अवसर व वातावरण न देकर उनके अधिकारों को ठेस नही पहुंचाई जा रही? ऊपर मैंने वर्ग संघर्ष
शब्द का जान-बूझकर प्रयोग किया है। क्योंकि आज कल सरकार माक्र्सवादियों के दिये
गये माक्र्स पर ही फल फू ल रही है और माक्र्सवादी जहां ी जाते हैं और जिस देश
में ी रहते हैं यह मान कर ही चलते हैं कि
वहां दो वर्ग अवश्य ही विद्यमान हैं। दोनों में निरंतर संघर्ष ी चलता रहता है।
यदि कहीं नही ी चलता तो माक्र्सवादियों की दृष्टि में वह समरसता नही है बल्कि एक
वर्ग का बल पूर्वक दूसरे वर्ग को दबाय रखने का साम्राज्यवादी, पूंजीवादी और संर्कीण
राष्ट्रवादी ष्ड्यन्त्र है। माक्र्सवादियों की दृष्टि में ारत वर्ष में दो स्पष्ट
वर्ग हैं। एक हिन्दू और दूसरा मुस्लिम । उनकी दृष्टि में इन दोनों की राष्ट्रीयता ी
अलग-अलग है। अपने देश में जब इस प्रकार के प्रश्नों पर विवाद खड़ा होता है तो
ज्यादा विद्वान प्रमाण के लिये वेदों और पुराणों की ओर ागते हैं। लेकिन
माक्र्सवादी ऐसे संकट काल में तर्क और प्रमाण के लिये माक्र्स, लेनिन और माओ की पोथियों
को उलटते पलटते हैं । इन पोथियों में ारत वर्ष में हिन्दुओं और मुसलमानों की
राष्ट्रीयता को अलग-अलग बताने वाले ढेरों प्रमाण मिल जाते हैं। इन प्रमाणों के बाद
माक्र्सवादियों के लिये चिंतन और मनन का दरवाज बन्द हो जाता है। इसीलिये जब
मुस्लिम लीग ने द्वि राष्ट्र के सिद्धांत की कल्पना करके मुस्लिम राष्ट्रीयता के
लोगों के लिये अलग देश की मांग की तो माक्र्सवादी उनके सर्मथन में जी जान से जुट
गये। अलग देश की मांग करने के कारण माक्र्सवादियों की दृष्टि में मुस्लिम लीग
कार्ल माक्र्स और लेनिन के ज्यादा नजदीक हो गई। इस नजदीकी के कारण कम्युनिस्टों की
नजर में मुस्लिम समाज शोषित वर्ग बन गया। महात्मा गांधी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के स्वयंसेवकों द्वारा ारत विाजन का विरोध करने के कारण हिन्दू वर्ग
पूंजीवाद और शोषक के पाले में आ गया। ारत विाजन के लिये कूटनीति ब्रिटिश सरकार
ने दी, गुण्डा
बल मुस्लिम लीग ने मुहैया करवाया और उसके लिये तर्किक आधार की रचना माक्र्सवादियों
ने की।
माक्र्सवादी उसी तर्किक आधार रचना पर खड़े हो कर बचे खुचे ारत में ी उसी
प्रकार हिन्दू वर्ग और मुस्लिम वर्ग में संघर्ष निर्माण के कार्य में लगे हुये
हैं। उनकी दृष्टि में अब ी हिन्दू शोषक है और मुसलमान शोषित, जिसे ारत में न तो समान
अवसर उपलब्ध हो रहे हैं और न ही उन्हें सामान्य मानव अधिकार दिये जा रहे हैं।
माक्र्सवादियों के लिये यह सारा ‘‘सैद्धांतिक फे्रम वर्क’’ है। उन्होंने अपने थीसिस में
विशेष परिस्थितियों की कल्पना कर ली है और यदि यथार्थ में ऐसी परिस्थितियां नही
हैं तो वे वैसी पैदा करने में जुट गयें हैं। ऐसा नही है कि यह कार्य उन्होंने अी
शुरू किया है। वे अरसे से इस काम में लगे हुये हैं। इसे देश का दुर्ाग्य कहना
चाहिये कि उन्हें पहली बार केन्द्रीय सरकार के आपरेट्स पर कब्जा करने का मौका मिल
गया है। इससे ी बड़ा दुर्ाग्य यह है कि
जिसने 150
साल से ी पुरानी कांग्रेस पार्टी पर कब्जा कर लिया है, वह एक विदेशी महिला है। जिन
माक्र्सवादियों के बल बूते पर वह सरकार चला रही हैं वे विदेशों से संचालित होते
हैं। बहुत साल पहले ारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद् के सदस्य रहे
रमेश शर्मा ने लिखा था कि जब चीन की शह पर सी.पी.एम. बनी थी तो पीकिंग ने उसे जो तीन
महत्वपूर्ण काम दिये थे उन में से एक ारत सरकार और उसकी सŸाा को ीŸार से कमजोर करना ी था। सोनिया
गांधी और माक्र्सवादी आज इक्कठे हो गये हैं। यह एक बार फिर ारत के लिये दर्रा
खैवर के पुराने इतिहास के खुल जाने का डर पैदा करता है। राजेन्द्र सच्चर इसी सरकार
के कहने पर ारतीय सेना में मुसलमानों की गिनती करवा रहे थे। इसके पीछे उनके
मनसूबे क्या हैं, ये तो सोनिया गांधी जानती होंगी या फिर सीताराम येचुरी । राजेन्द्र सच्चर ने
तो अी अपने इस ऐतिहासिक शोध के आंकड़े ी प्रस्तुत नही किये हैं, परन्तु उसके परिणाम आने
शुरू हो गये हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सहलाकार नारायणन् ने सी प्रदेशों के पुलिस
प्रमुखों को सावधान किया है। कि ारतीय सेना में लश्करे तोयबा के लोग सफलता पूर्वक
घुसपैठ कर चुके हैं। संसद में इसका खंडन करते हुये गृह मंत्री शिवराज पाटिल का
चेहरा देखकर क्रोध कम आ रहा था और तरस ज्यादा। क्योंकि उधर जम्मू कश्मीर में सेना
के लोग उन काली ेडों को पकड़ने में लगे हुये थे जो ारतीय सेना में रह कर ी
लश्करे तोयबा के साथ हम बिस्तर थे। राजेन्द्र सच्चर को क्या इस विषय में कुछ कहना
है ? यकीन
मानिए चन्द हफ्तों बाद मानवाधिकारवादी इन गिरफ्तार किये गये सैनिकों के पक्ष में
खड़े हो ही जायेंगे, क्योंकि ये आखिर मुसलमान हैं। मुसलमान हैं तो सीताराम येचुरी के हैवज नाॅट
हैं। इनकी रक्षा करना दोनों का कर्तव्य है। सोनिया गांधी का ी और सीता राम येचुरी
का ी। लेकिन प्रश्न है-ारत की रक्षा कौन करेगा?
प्रश्न मुसलमानों पर शक करने का नही है और न ही मुसलमानों की निष्ठा पर संदेह
का है। मुसलमान शायद उस दृष्टि से कटघरे में ी नही खड़े हैं। सबसे बड़ा प्रश्न
चिन्ह तो उन लोगों, दलों और गिरोहों की मंशा पर है जो जानबूझकर मुसलमानों के मनोविज्ञान को बदलने
का प्रयास कर रहे हैं। उनके साथ अन्याय हो
रहा है, और
वह ी इसलिये हो रहा है क्योंकि वे मुसलमान हैं-सबसे पहले उनके मन में यह ावना री
जा रही है जिस वक्त उनके अन्दर यह ावना र जाती फिर उनके तुष्टीकरण के प्रयास
किये जाते हैं। पहले यह कार्य अंग्रेज सरकार करती थी अब उनकी विरासत को संाले
शासक वर्ग ने शुरू कर दिया है। मुसलमानों के तुष्टीकरण कर यह प्रयास महात्मा गांधी
ने ी ारत में खिलाफत आंदोलन को स्वीकार करके दिया था। लेकिन महात्मा गांधी के बारे में कम से कम इतना
तो कहा ही जा सकता है कि उनका तरीका गलत था किन्तु मंशा गलत नही थी। मुसलमानों के
इन डोंगी रहबरों की तो मंशा ही संदेहास्पद है। बाबा साहब अम्बेडकर ने अरसा पहले यह
प्रश्न उठाया था कि ारतीय सेना में लश्करे तोयबा की ज़हनियत वाले लोग रहेंगे तो
शत्रु के आक्रमण पर देश की रक्षा की स्थिति क्या होगी ? उस वक्त लश्करे तोयबा नही था,
इसलिये उन्होंने
इस शब्द का प्रयोग नही किया था। लेकिन इस ज़हनियत को वे अच्छी तरह पहचान गये थे ।
दुर्ाग्य है कि आज कुछ लोग इसे पहचान ही नही रहें हैं, कुछ पहचान कर अनजान ी बन रहें
हैं और कुछ अपने निहित स्वार्थों या फिर
अपने आकाओं के स्वार्थों की खातिर इसे हवा दे रहें हैं।
(हिन्दुस्थान समाचार)
देश के संकट में कम्युनिस्टों की भूमिका
: डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
वंदे मातरम के गान को लेकर देश में बहस गहराती जा रही है। सोनिया गांधी की
सरकार अड़ी हुई है, यदि कोई ारत माता की वंदना नहीं करना चाहता, तो उसे पूरा अधिकार है। किसी से
जबरदस्ती वंदे मातरम नहीं कहलवाया जा सकता। कम्युनिस्ट इस स्थिति से प्रसन्न हैं।
वे कांग्रेस से ी ऊंचे स्वर में बोल रहे हैं-वंदे मातरम साम्प्रदायिक है।
कम्युनिस्टों का पूरा इतिहास देश के संकट काल में देश के खिलाफ खड़े हो जाने और
शत्रु पक्ष का स्तुति गान करने का रहा है। ारत ने 1950 से लेकर 1962 तक वििन्न प्रकार से
चीन के आक्रमण को झेला था। इस पूरे काल में कम्युनिस्ट चीन के साथ खड़े दिखाई दे
रहे थे।
माओ ने 1949 में चीन की सŸाा पर कब्जा कर लिया। माओ के इस मुक्ति .युद्ध में वैचारिक ूमिका में महात्मा
बुद्ध नहीं थे बल्कि कार्ल माक्र्स थे । वही कार्ल माक्र्स जिन्होंने कहा था कि
धर्म अफीम होता है । चीन में माओ के नेतृत्व में कार्ल माक्र्स ने एक प्रकार से
बुद्ध वचनों को परास्त किया था । बीजिंग के थ्यानमेन चैक में माओ ने घोषणा की-चीन
अब उठ खड़ा हुआ है। माओ की इस घोषणा से बहुत अरसा पहले स्वामी विवेकानन्द कह चुके
थे कि चीन एक सोया हुआ राक्षस है। उसे सोया ही रहने दो। यदि वह उठ खड़ा हुआ तो
सारी दुनिया के लिये खतरा पैदा हो जाएगा। लेकिन ारत की कम्युनिस्ट पार्टी शायद
विवेकानन्द के साथ नहीं थी। उस ने माओ द्वारा चीन में सŸाा संलने से पूर्व ही उसे अपना
मसीहा मान लिया था और उसके रास्ते को अपना कर ारत की सŸाा को उखाड़ फेंकने का संकल्प ी
दोहरा दिया था। फरवरी 1948 में कोलकाता में एशियाई कम्युनिस्ट कांग्रेस का सम्मेलन
हुआ। जिसमें दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में हिंसक जनांदोलन और गृह
युद्ध प्रारं करने का निर्णय लिया गया। जाहिर है ारत में यह शुरुआत कम्युनिस्टों
को ही करनी थी।
तेलंगाना में सशó क्रांति में संलग्न आंध्र प्रदेश के कम्युनिस्टों की रणनीति के अनुसार तो ‘‘सी.पी.आई को ारत में
माओ की रणनीति के आधार पर सŸाा पर कब्जा कर लेना चाहिये। ारतीय कम्युनिस्टों को चीनी
कम्युनिस्ट पार्टी के रास्ते का ही अनुसरण करना होगा । ऐतिहासिक चीनी मुक्ति
संघर्ष के नेता माओ ने नये लोकतंत्र का सिद्धांत सूत्र बद्ध किया हैऔर वही
उपनिवेशों और अर्ध उपनिवेशों के लिये अनुसरण योग्य है।’’(हेमन राय, पीकिंग एण्ड दी इंडियन
कम्युनिस्ट, पृष्ठ-8) ध्यान रहे कि कम्युनिस्टों की दृष्टि में स्वतंत्र ारत की सरकार सामंतवादी और
अर्ध उपनिवेशवादी थी। सी.पी.आई के महासचिव बी.टी. रणदिवे ने चीनी जनगणतंत्र की
स्थापना पर 1 अक्तूबर 1949 को माओ कोलिखा-ारतीय जनता आपकी विजय से हर्ष विोर है क्योंकि इससे उसे अपनी
मुक्ति की आशा बंधती है।(पीकिंग एण्ड दी इंडियन कम्युनिस्ट, पृष्ठ-16) जाहिर है कि ारत के कम्युनिस्ट,
चीन और माओ के
माध्यम से सŸाा पर कब्जा जमाने के स्वप्न देख रहे थे और इसी राष्ट्रघाती रणनीति को वे लोक
मुक्ति का नाम दे रहे थे।
1959 में तिब्बत में स्वतंत्रता के दीवानों ने जन विद्रोह किया। दलाई लामा को ारत
में शरण लेनी पड़ी। इसका विरोध करने वालों में ारत के कम्युनिस्ट सबसे आगे थे ।
उनको चीन का आक्रमण दिखाई नहीं दे रहा था । ारत में दलाईलामा के रहने पर आपŸिा हो रही थी । चीन ारतीय
सीमा में ी घुसपैठ कर रहा था। लेकिन ारत के कम्युनिस्ट यही प्रचार कर रहे थे कि ारतीय
सेना चीन पर आक्रमण कर रही है। सी.पी.आई की राष्ट्रीय परिषद् की बैठक 1959 में मेरठ में हुई। सारे
देश की आंखे इस बैठक पर ही लगी हुई थीं। उस बैठक में क्या हुआ, उसका वर्णन बाद में
परिषद् के एक सदस्य रमेश सिन्हा ने किया , ‘‘मेरठ में राष्ट्रीय कोंसिल की
बैठक हुई। तमाम ाषण हुये । साथी पी. सुन्दरैया जैसे बड़े नेता ने सामने दीवार पर
एक बड़ा नक्शा लगाकर एक लम्बी स्केल की सहायता से यह बताने की चेष्टा की थी कि
हमला चीनियों ने नहीं बल्कि हिन्दुस्थानी सैनिकों ने किया है।’’(जीवन संघर्ष, रमेश सिन्हा, पृष्ठ-189)। जाने-माने कम्युनिस्ट
नेता मोहित सेन ने इसी प्रसंग पर लिखा है-‘‘ारत ूमि पर चीनी दावे
की वैधता को उचित ठहराने के लिए सुंदरैया ने काफी संख्या में मानचित्र और अिलेखागारीय
सामग्री एकत्रित की थी और वे इस बात पर जोर दे रहे थे कि साम्यवादी चीन की हमला
कर ही नहीं सकता। बुर्जुआवादी ारत सरकार यह कर सकती है ताकि वह अपने
साम्राज्यवादी आकाओं से ला ले सके।’’ (ए ट्रेवलर एंड दी रोड-द जर्नी आॅफ एन इंडियन कम्युनिस्ट,
मोहित सेन,
पृष्ठ 201)
31 मार्च, 1959 को सी.पी.आई ने चीन को इस बात के लिये बधाई दी कि उसने तिब्बत को मध्य युगीन
अंधेरे से बाहर निकाला है। सी.पी.आई के अनुसार तिब्बत में हुए जन विद्रोह के लिये ू-स्वामी
उŸारदायी
हैं, जिनकी
सहायता ारत की प्रतिक्रियावादी शक्तियां और पश्चिमी साम्राज्यवादी कर रहे
हैं।(न्यू एज, नई दिल्ली, 5 अप्रैल, 1959) सी.पी.आई के महासचिव अजय घोष ने तिब्बत के जन विद्रोह को निर्दयता पूर्वक
कुचलने के चीनी दमन का खुला समर्थन किया। घोष ने कहा-‘‘गिने चुने प्रतिगामियों द्वारा
किये गये विद्रोह का हश्र उसकी पराजय में हो गया है और तिब्बत के लोग अब प्रगति पथ
पर अग्रसर हो सकते हैं।(न्यू एज, नई दिल्ली, 10 मई, 1959) बी.टी. रणदिवे तो एक कदम और आगे बढ़ गये उनके अनुसार
ारत के सांसद चीन पर दोषारोपण कर रहे हैं और उसे आक्रांता कह रहे हैं, ‘‘यदि ारतीयों को
विस्तारवादी कहा जाता है तो उन्हें ठेस पहुंचती है। तो क्या चीनियों को ठेस नहीं
पहुंचनी चाहिये जब उनकी सरकार को आक्रमणकारी कहा जाता है।’’ (न्यू एज, नई दिल्ली, 3 मई, 1959)
6 मई 1959 को चीन सरकार के अखबार पीपुल्स डेली ने ‘‘तिब्बती क्रांति और नेहरू का दर्शन’’
नामक एक लम्बा
आलेख प्रकाशित किया, जिसमें ारत पर तिब्बत में दखलंदाजी का आरोप लगाया। सी.पी.आई के मुख्य पत्र
न्यू एज ने अपने 17 मई के अंक में इसका अनुवाद प्रकाशित किया और देशर में इसको बांटा। 25 अगस्त, 1959 को लांगजु की घटना हुई।
अरूणाचल प्रदेश में चीनी सेना लांगजु में घुस आई और वहां उसने असम राइफल्ज के तीन
जवानों को मार दिया। इस घटना की सी.पी.आई के पोलित ब्यूरो सदस्य मोहित सेन ने
निम्न प्रकार से व्याख्या की। ‘‘ारत जिस मैकमहोन रेखा को
(ारत-तिब्बत के बीच) वैधानिक सीमा बता रहा है उसकी की ी निशान देही नहीं हुई।
वैसे ी उसकी रचना एक तरफा मनमाने तरीके से की गई थी। इसलिये लांगजु की घटना के
लिये चीन सरकार उŸारदायी नहीं है।(न्यू एज, नई दिल्ली, 13 सितम्बर, 1959) ए. के. गोपालन और पी. राममूर्ति
ने तो सी सीमाएं लांघ दीं। उन्होंने कहा-‘‘हमें लांगजु की इस घटना पर ही
विश्वास नहीं है। यह ारत सरकार ने गढ़ी है।’’(पीकिंग एण्ड दी इंडियन
कम्युनिस्ट, पृष्ठ-60) उधर कम्युनिस्ट, तिब्बत पर चीनी आक्रमण के पक्ष में खुल कर आ गये थे। ‘‘दस सितम्बर, 1959 को सी.पी.आई ने कोलकाता
में एक जनसा की जिसमें खुल्लमखुल्ला चीन का समर्थन किया। सा की अध्यक्षता ज्योति
बसु ने की । बसु ने कहा कि चीन को आक्रमणकारी नहीं कहा जा सकता। साम्यवादी
कार्यकर्ता नारे लगा रहे थे कि चीन आक्रमणकारी नहीं है। (आर्गेनाइजर, 28 दिसम्बर, 1959)
कम्युनिस्ट पार्टी के इसी अारतीय स्वरूप पर तत्कालीन ारतीय जनसंघ के दीनदयाल
उपाध्याय ने टिप्पणी की। ‘‘तिब्बत की घटनाओं और उस संबंध में ारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
द्वारा बनाई गई नीति ने इस पार्टी के अारतीय रूप को ही एक बार पुनः प्रकट कर दिया
है। चाहे तिब्बत में जो ी आर्थिक या राजनीतिक पद्धति प्रचलित हो, किसी ी बाहरी देश को
उसे जबरदस्ती परिवर्तित करने का अधिकार नहीं है। अगर ारत के कम्युनिस्ट चीनी राग
में स्वर मिलाते हुए इस आधार पर तिब्बत पर चीनी आक्रमण को उचित ठहरा सकते हैं कि
दलाई लामा की सरकार प्रतिक्रियावादी है, तो वे ारत पर चीनी आक्रमण का ी स्वागत कर सकते
हैं। यह विशुद्ध विश्वासघात के सिवा और कुछ नहीं है।’’ (कमल किशोर गोयनका, पंडित दीनदयाल उपाध्याय
व्यक्ति दर्शन, पृष्ठ 200)
सारा देश चीन के विस्तार वादी रवैये की निन्दा कर रहा था लेकिन कम्युनिस्ट अी
ी अपनी उसी 1942 वाली रणनीति पर आगे बढ़ रहे थे। वे अंतर्राष्ट्रियवाद के झंडाबरदार बनकर घूम
रहे थे और इसमें वे ारत की बजाए चीन के साथ स्वयं को ज्यादा नजदीक पा रहे थे।
सीपीआई के हरे कृष्ण कोनार अक्टूबर 1960 में वियतनाम होते हुए चीन गए और वहां चेयर मैन माओ
से मिले। ‘‘और वहां से लौटने के बाद वे सबसे मुखर चीन समर्थक सिद्ध हुए और ारत चीन युद्ध
में उन्होंने खुलकर चीन का समर्थन किया। कोनार के माध्यम से ही चीन की कम्युनिस्ट
पार्टी ने पश्चिमी बंगाल के चीन समर्थक धड़े से प्रत्यक्ष संपर्क बनाए रखा। (हेमन
राय, पृष्ठ
73) और चीन
के इसी आक्रमण की पृष्ठूमि में जाने माने कम्युनिस्ट नेता रमेश सिन्हा ने अपने
जीवन संघर्ष मंे लिखा जो साथी माक्र्सवादी पार्टी में गए थे उन्होंने चीनी पार्टी
की रीति नीति को पूरे तौर पर मान लिया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सीपीएम के सामने
मुख्य तौर पर तीन काम रखे जिनमें प्रमुख थे-प्रथम ारत सरकार की सŸाा और शक्ति को कमजोर
करना, द्वितीय
यदि हो सके तो जवाहरलाल नेहरू को उसी तरह कैद कर लेना जिस तरह च्यांग काई शेक को
चीनियों ने एक जमाने में किया था।
इस असाईनमेंट के चार दशकों बाद कम्युनिस्ट ारत सरकार में ागीदारी निाने की
स्थिति में आ गए हैं। वंदे मातरम का विरोध क्या उस अधूरे काम को पूरा करने की दिशा
में उठा हुआ महत्वपूर्ण कदम तो नहीं है।
(हिन्दुस्थान समाचार)
कैकेयी की शिनाख्त की नरेन्द्र मोदी ने तो मची आपाधापी:न
डा. कुलदीप चन्द
अग्निहोत्री
गुजरात को लेकर पत्रकारिता जगत दुविधा में है। वह दो खेमों में बंटा हुआ है।
एक खेमा वह है जिसकी धारा गुजरात की जनता के बीच में से होकर गुजरती है। इस कारण
से उसके सुख-दुःख से आप्लावित होती है। यह धारा उन तमाम गुण दोषों को अपने साथ
लेकर चलती हैजो गुण दोष गुजरात की जनता में पाए जाते है। साधारणीकरण किया जाए तो
गुजरात की जनता से ारत की जनता ही अिप्रेत है। इस खेमे में पत्रकार और
पत्रकारिता का वह समूह है जो अपनी ाषा में लिखता ी हैऔर अपनी ाषा में सोचता ी
है।
पत्रकारों का दूसरा खेमा वह है जो ारतीय जनता के सुख-दुःख के बीच से होकर
नहीं गुजरता। इसलिए इसकी अिव्यक्ति में सामान्य जनता का हर्ष-शोक, सुख-दुःख, उल्लास-निराशा ऐसा कुछ ी
नहीं है। लेकिन वह चाहता कि ारतीय जन उसकी अवधारणाओं के अनुसार ही आचरण करे। यदि
वह ऐसा नहीं करता तो इनकी दृष्टि में वह सबसे बड़ा अपराधी है। यह खेमा अपने बनाए
हुए या किसी के सिखाए हुए या फिर लम्बे प्रशिक्षण से प्राप्त चिन्तन के स्वनिर्मित
धरातल पर दृढ़ता से अवस्थित है। इस खेमे की कुछ अपनी निश्चित अवधारणाएं हैं,
दिशाएं हैं और
दृष्टि है। यह खेमा ारतीयता का ोक्ता नहीं हैंबल्कि दूर बैठा द्रष्टा है जो केवल
देखता हैऔर वह ी तटस्थ ाव से । ारतीय जनता का आचरण और व्यवहार उसके लिए दोनों
ही हेय हैं। इस जनता के लिए यह समूह आमतौर पर अनपढ़ ारतीय जनता, पिछड़ी हुई ारतीय जनता,
अन्धविश्वासों से
घिरी हुई ारतीय जनता, और कहीं ऐसे समूह को बहुत क्रोध आ गया। तो मूर्ख ारतीय
जनता जैसे शब्दों का प्रयोग ी करता है। यदि इस खेमे के लिए किसी को प्रतीक के रूप
में चुनना होतो नीरद चैधुरी से अच्छा प्रतीक और कोई नहीं मिलेगा। इनकी दृष्टि में ारत
लोकतंत्र के काबिल है ही नहीं । लेकिन इनका दुर्ाग्य है कि इन बेचारों को
लोकतंत्र झेलना पड़ रहा है। जिस प्रकार की माॅल, माॅडल टाउन और वाईट क्लब में
बैठे फिरंगियों को फटे हाल ारतीय जनता को झेलना पड़ता था। लोकतंत्र का तो ये लोग
कुछ बिगाड़ नहीं सकते लेकिन नरेन्द्र मोदी को तो घेर ही सकते हैं। क्योंकि
नरेन्द्र मोदी इसी लोक की शक्ति से उपजा है। यदि किसी ढंग से नरेन्द्र मोदी को घेर
लिया जाए तो कालांतर में लोक को मारना ी आसान हो जाएगा। ेजरा कल्पना कीजिए जब
दिल्ली से ये पत्रकार वाशिंगटन पोस्ट या न्यूयार्क टाइम्स को ये खबर ेजेंगेतो
वहां किस प्रकार खुशी का आलम छा जाएगा।
लेकिन इतनी बड़ी लड़ाई बोरी बंदर की बुढिया या फिर अंग्रेजी की पुडि़या अकेले
थोड़े ही लड़ सकती है। गोरों का धर्म हैकि वे रणूमि में अपने सिपाहियों को अकेला
नहीं छोड़ते। हर संकट में उनका साथ देते है। जब तक निता रहे तब तक पर्दे के पीछे
से और जब संकट गहरा हो जाएतो टाट का पर्दा ी उठा देते है। न्यूयार्क टाइम्स के
देश ने ऐसा ही किया है। अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी को वीजा देने से इन्कार कर दिया
था। चाहे यह घटना पुरानी हो गई है परन्तु इसके पीछे के कारण पुराने नहीं हुए है।
वे अी ी उतने प्रासंगिक हैं और शायद आने वाले समय में और ी अधिक प्रासंगिक हो
जाएंगे। अमेरिका का कहना है कि नरेन्द्र मोदी गुजरात में उस ढंग से राज्य नहीं कर
रहे जिस ढंग से अमेरिका चाहता है। आखिर अमेरिका बड़ा देश है। वह बाकी देशों को
इतना बताने का अधिकार तो रखता ही है कि उन्हें किस प्रकार से राज्य चलाना चाहिए।
अमेरिका ारत के राज्यों में बने कानूनों का पुनरीक्षण करने का अधिकार ले रहा है।
नरेन्द्र मोदी को वीजा न देने में एक कारण गुजरात विधानसा में पारित कुछ
अधिनियमों को हवाला ी दिया गया थाऔर शायद गुजरात की पाठ्य पुस्तकों में शामिल कुछ
अध्यायों पर आपŸिा ी की गई थी। आखिर अमेरिका को ारत के कानूनों के पुनरीक्षण का अधिकार
किसने दिया? ारतीयों को लग रहा था कि ारत सरकार एक मत से
अमेरिका को स्पष्ट चेतावनी दे देगी कि अमेरिका ारत के आंतरिक मामलों में
हस्तक्षेप न करे। लेकिन लोग स्तब्ध रह गए जब कांग्रेस, साम्यवादी और पत्रकार जगत की
बोरी बंदर वाली लाॅबी हिजड़ों की तरह हाथ हिला-हिला कर प्रसन्नता जाहिर करने लगी -
अब पता चलेगा नरेन्द्र मोदी को । अब उसका वास्ता पड़ा हैअमेरिका से । महमूद गजनबी
की सेनाएं जब गुजरात में सोमनाथ मंदिर की ओर बढ़ रहीं थीं तो रास्ते के छोटे-छोटे
राजा ी हिजड़ों की तरह ही तालियां बजा रहे थे- अब पता चलेगा सोमनाथ नरेश ीमपाल
को ।
यदि अमेरिका केवल बंदर घुड़की ही दे रहा होता तो शायद लोग उसकी अवहेलना ी कर
देते। लेकिन उसकी घुड़की के पीछे तो बम बरसाते जहाज हैं और बुश के हाथ का इंतजार
कर रहे बटन हैं। अब बहुत लोगों को यह रहस्य समझ में आ रहा है कि बुश अिवादन करते
हुए हाथ क्यों हिलाते हैं। जानकारों का कहना है कि हाथ दिखाते हैं। ईराक धोखा खा
गया। अमेरिका ने उसे बताया कि राज्य किस प्रकार करना चाहिए। सद्दाम हुसैन नहीं
माना । ईराक का जो हश्र अमेरिका ने किया है उससे अनेक देश हिलने लगे हैं। अलबŸाा यह निर्णय प्रत्येक
देश को स्वयं ही करना है कि ऐसे संकट काल में उसे हिलना है या स्थिर खड़े रहना है।
चीन स्थिर खड़ा है। लेकिन दुर्ाग्य से ारत हिलने लगा है। विश्वास नहीं होता कि
इतना पुराना राष्ट्र जिसका इतना गौरवशाली इतिहास है, वह ेइस प्रकार हिलना शुरू कर
देगा। ेअमेरिका ी यह जानता होगा इसलिए उसने इसका बंदोबस्त ी समय रहते ही कर लिया
था। उसने पहले ही ऐसे समय की कल्पना करके ारत की बागडोर सोनिया गांधी के हाथों
में थमा दी थी। अब यह ारत चंद्रगुप्त और चाणक्य का ारत नहीं है। विजय नगर
साम्राज्य के संस्थापकों का ारत नहीं है। शिवाजी और महाराणा प्रताप का राज्य नहीं
है। लचित बडफूकन और गुरू गोबिन्द सिंह का ारत नहीं है। सरदार पटेल और लाल बहादुर
शाóी का ारत
ी नहीं है। यह ारत सोनिया गांधी का ारत है। इसे सोनिया गांधी का ारत बनाया ही
इसलिए गया है ताकि ठीक समय पर यह हिलना शुरू कर दे। सचमुच ारत हिल रहा है।
अमेरिका की छाया में हिल रहा है। जब गुरू गोबिन्द सिंह और लाल बहादुर शाóी का ारत पाकिस्तान के
आतंकवाद से रोज लहू-लुहान हो रहा हैऔर जी जान से उसका मुकाबला कर रहा ेहै तो
सोनिया गांधी का इंडिया पाकिस्तान के परवेज मुशर्रफ के साथ मिलकर आतंकवाद के खिलाफ
लड़ने का पाखंड ेकर रहा है। अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत है, इंग्लैण्ड को ी
पाकिस्तान की जरूरत है, चीन को ी पाकिस्तान की जरूरत है। इसलिए ये देश पाकिस्तान
को गोद में लिए घूमेंगे। रही बात आतंकवाद की । अमेरिका ने मुशर्रफ को स्पष्ट बता दिया
है कि इधर अमेरिका की ओर आतंकवादी क्यों ेजते हो? साहब की नींद में खलल पड़ता है।
उधर पड़ोस में हिन्दुस्तान है न, उसमें खेलो। परवेज मुशर्रफ आदमी समझदार है। वह जानता है कि
गोरों ने पाकिस्तान बनाया ही इसलिए था ताकि वह ारत के आंगन में खेल-खेलकर बम
फोड़ता रहे। इसलिए उसने अंक्ल सैम के सामने कान पकड़े और फिर अपने पुराने ेखेल में
मशगूल हो गया । अंक्ल सैम का दिल बहुत बड़ा है। एक बार गलती मान ली तो उन्होंने
फिर गोदी में उठा लिया। उधर वह बेवकूफ सद्दाम हुसैन। अंक्ल सैम को ही आँखे दिखाने
लगा । अब कम्बख्त जेल में सड़ रहा है।
साहब के बच्चे को सब प्यार करते हैं। पाकिस्तान गोरे साहिबों का बच्चा है ।
गोरी नस्ल के तौर तरीकों को सोनिया गांधी से ज्यादा कौन जान सकता है। इसलिए सोनिया
गांधी का ारत और अंक्ल सैम की गोद में खेल रहे परवेज मुशर्रफ का पाकिस्तान मिलकर
आतंकवाद के खिलाफ लड़ेंगे। लगता है अमेरिका की रणनीति ठीक उसी प्रकार चल रही है
जैसे उसने बहुत साल पहले बनाई होगी। लेकिन बीच में नरेन्द्र मोदी आ गया। जब सोनिया
गांधी का ारत अमेरिका के एक इशारे पर हिलता है तो नरेन्द्र मोदी सोमनाथ के आगे
अटल खड़ा रहता है । अपने लोकसा वाले सोमनाथ दा नहीं बल्कि गुजरात ही नहीं,
सारे ारत खंड के
श्रद्धा केन्द्र सोमनाथ । वही ोले शिव बाबा । नरेन्द्र मोदी हिलता नहीं है । यह
अमेरिका की समस्या ी है, इटली की सोनिया गांधी की समस्या ी हैऔर बोरी बंदर की
बुढिया की समस्या ी है । नरेन्द्र मोदी आतंकवाद से सचमुच लड़ रहा है और सोनिया
गांधी की योजना आतंकवाद से पाकिस्तान से मिलकर लड़ने की है। नरेन्द्र मोदी ने चोर
को पहचान लिया हैऔर वह री दोपहरी में चिल्लाता हुआ सड़कों पर उतर आया है। चोर की
शिनाख्त हो जाने के बाद सोनिया गांधी की सरकार उस चोर को छिपाना ी चाहती है और
बचाना ी। मुम्बई के बम धमाकों में पुलिस को पाकिस्तान के शामिल होने के प्रमाण
मिल रहे हैं। लेकिन अपने प्रधानमंत्री पाकिस्तान के साथ मिलकर संयुक्त रूप से
आतंकवादी गतिविधियों की जांच के समझौते कर रहे है। हो सकता हैकल सोनिया गांधी की
सरकार आई.एस.आई. को ही मुम्बई के बम धमाकों की जांच के लिए बुला ले। आखिर अमेरिका
ने आदेश जो दिया हैकि तुम ारत और पाकिस्तान मिलजुलकर आतंकवादियों की जांच पड़ताल
करो। नरेन्द्र मोदी की यही समस्या है। वे आतंकवादियों को पकड़ने के लिए आई.एस.आई.
की सहायता लेने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए इस लड़ाई में जैसा कि हमने पहले ऊपर
जिक्र किया है पत्रकारों के ी दो खेमे बन गए हैं। एक ऐसा खेमा जो पहले ही
न्यूयार्क या मास्को की गर्मी सर्दी से नजले जुकाम का शिकार होता थाऔर दूसरा खेमा
जो ारत की मिट्टी से ही मटमैला रहता है। मटमैले लोग नरेन्द्र मोदी के साथ हैं और
गोरे लोग अमेरीका और सोनिया गांधी के साथ हैं । याद रखें अमेरिका पाकिस्तान के साथ
है। गोरी नसलों ने ारत का जो हश्र किया है अी उसको बीते बहुत ज्यादा अरसा नहीं
हुआ है। नरेन्द्र मोदी इस नई लड़ाई में व्यक्ति नहीं प्रतीक बनकर उरे हैं। दशरथ
के वनगमन का प्रसंग पुनः उर रहा है। लोग कैकेयी की ेतलाश कर रहे हैं। लो इधर
हल्ला मचा कि कैकेयी की शिनाख्त हो गई है। डर के मारे दलालों की एक पूरी फौज
नरेन्द्र मोदी को घेरने में जुट गई है क्योंकि पक्की खबर है कि यह शिनाख्त
नरेन्द्र मोदी ने ही की है। ारत की जनता पकड़ो-पकड़ो का शोर मचा रही है। चारों ओर
आपाधापी मची हुई है।
(हिन्दुस्थान समाचार)
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