डा. कुलदीप चन्द
अग्निहोत्री
यूपीए का प्रमुख घटक साम्यवादी टोला धीरे-धीरे अपने असली एजेंडे को लागू करने
के लिए एक सोची समझी योजना के अंतर्गत सधे हुए शिकारी की तरह आगे बढ़ रहा है।
सीपीएम चीन के हितों की रक्षा के लिए लोक लाज त्याग कर सीधे-सीधे गोटियाँ बिछाने
लगा है।
यह तो सी के ध्यान में है ही की सीपीएम की स्थापना ही ारत चीन युद्ध के
पश्चात चीन की पक्षधरिता की पुष्टि के लिए हुई थी। उन दिनों में ी जब ारत युद्ध ूमि
में चीन से जूझ रहा था। तो सीपीएम के शीर्ष पुरूष सुन्दरैया, हरे कृष्ण कोनार और अन्य
प्रतिष्ठित कामरेड़ चीन के पक्ष में नारे लगाते घूम रहे थे। सीपीएम के लोगों को
माओ और उनके चीन पर ज्यादा विश्वास था ,ारत और ारत के लोगों पर
कम। शायद इसीलिए वे चीन की सहायता से सशó क्रांति को अंजाम देने में लगे थे और चीन के हाथों
तिब्बत मुक्ति की तरह ही ारत मुक्ति का रास्ता देख रहे थे। इसे देश का दुर्ाग्य
कहना चाहिएऔर सीपीएम का सौाग्य की 1962 की लड़ाई में ारत हार गया और चीन जीत गया। चीन ने ारत
की हजारों किलोमीटर ूमि पर कब्जा ी कर लिया इतना ही नहीं वह अी ी अरुणाचल
प्रदेश और लद्दाख के अधिकांश क्षेत्रों को चीनी क्षेत्र ही मानता है।
14 नवंबर 1962 को ारत की संसद में सर्वसम्मति से एक संकल्प पारित किया गया था जिसमें ारत
की जनता ने और संसद ने संकल्प लिया था कि जब तक चीन के कब्जे से एक-एक इंच ारतीय ूमि
छुड़ा नहीं ली जाती तब तक सरकार चैन से नहीं बैठेंगे।
इसे इतिहास की त्रासदी ही कहना चाहिएकि लगग पाँच दशक बाद उसी चीन के
राष्ट्रपति हू जिन ताओ नवंबर मास में ही ारत की यात्रा पर आ रहे हैंऔर ारत में
इस समय सीपीएम की ही अप्रत्यक्ष सरकार है, ऐसा माना जा सकता है। चीन ने अी तक ारत की जमीन
छोड़ी नहीं है और न ही ारतीय ूमि पर अपने दावों को त्यागा है। लेकिन फिर ी
सीपीएम की अगवाई में ारत सरकार हू जिन ताओ के लिए पलक पाँवड़े बिछा कर तैयार बैठी
है। सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी अी पिछले दिनों ही चीन की यात्रा कर
आए हैं। 1962 की लड़ाई के पहले ी कम्युनिस्ट
पार्टी के ही हरे कृष्ण कोनार बीजिंग गए थे और वापिसी में आकर अंत काल तक चिल्लाते
रहे कि ारत ने चीन पर आक्रमण कर दिया है और चीन जिस ारतीय ूमि पर अपना कब्जा
जता रहा है वह ूमि वास्तव में चीन की ही है। चीन सरकार हरे कृष्ण कोनार का प्रयोग
ारत में अपने समर्थकों से संवाद बनाने में करती रही। अब हू जिन ताओ की यात्रा से
पहले सीताराम येचुरी बीजिंग की गलियों का चक्कर लगा आए हैं और वापिस आकर उन्होंने ी
उसी शैली में कहना शुरू कर दिया है कि ारत सरकार चीन की कंपनियों को ारत में
अपना जाल बिछाने की अनुमति क्यों नहीं देती ? ारत सरकार में शायद अी ी
कुछ पुराने लोग मौजूद होंगे जिन्होंने नेहरू के हिन्दी चीनी ाई-ाई के दौर के बाद
चीनी आक्रमण को झेला था और देखा था। इसलिए वे लोग चीनी कंपनियों का इस आधार पर
विरोध कर रहे हैंकि उनके जाल से ारत में सुरक्षा संबंधी कई समस्याएँ पैदा हो सकती
हैं। पर सीताराम येचुरी को इस सुरक्षा से कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि वे शायद अी
ी मानते हैैं कि चीन से ारत को कोई खतरा नहीं है । जहाँ तक चीन द्वारा कब्जे में
की गई ारतीय ूमि का प्रश्न है, सीताराम येचुरी और उनकी पार्टी के लिए न तो 1962 में यह मुद्दा था और न
ही आज 2006 में है।
सीपीएम के लोग यह चाहते हैं कि चीन के राष्ट्रपति को ारतीय संसद को संबोधित
करने के लिए निमंत्रित किया जाए और इसके लिए वे दबाव ी बना रहे हैं। ारत के
लोगों को खतरा हैकि सोनिया गांधी की कांग्रेस इस दबाव में या बिना दबाव के ी हू
जिन ताओ को संसद में बुलाने का राष्ट्रीय अपमान कर सकती है। जिस संसद ने यह संकल्प
पारित किया हुआ है कि चीन से एक-एक इंच ूमि वापिस छुडाएंगे, उसी संसद को चीन के
राष्ट्रपति क्या संबोधित करेंगे? ऊपर से और अपमानजनक बात यह है कि चीन उसी कब्जाई गई ूमि को
छोड़ने की बात तो दूर अतिरिक्त ारतीय ूमि पर ी दावा कर रहा है। हमारे साम्यवादी
मित्र इसी बात पर तालियाँ बजा-बजाकर नाच रहे हैं कि चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा
पर शांति रखना स्वीकार कर लिया है। जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वास्तविक
नियंत्रण रेखा का अर्थ है - ारतीय ू-ाग चीन के हवाले कर देना और अरुणाचल प्रदेश
व लद्दाख को विवादास्पद स्वीकार कर लेना। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सीपीएम की
बैसाखियों पर चलने वाली कांग्रेस की सरकार ी क्या अब वास्तविक नियंत्रण रेखा को
ही स्वीकार करने के स्तर पर उतर आई है? जब तिब्बत गुलाम हुआ था तो किसी ने राममनोहर लोहिया
से पूछा था कि क्या अब तिब्बत की आजाद हो पाएगा? तो लोहिया ने उŸार दिया था कि दिल्ली की
गद्दी पर सदा नपुंसकों का ही राज नहीं रहेगा। लगता है लोहिया की यह विष्यवाणी
तिब्बत के साथ-साथ ारत पर ी लागू हो रही है। प्रश्न यह है कि क्या चीन के कब्जे
में गया हुआ ू-ाग की स्वतंत्र हो पाएगा? दिल्ली की गद्दी ने न जाने कितने
परिवर्तन देखे हैं, लेकिन लोहिया की इच्छा शायद अी ी अधूरी है। राष्ट्रीय अपमान का विषय तो यह
है कि कांग्रेस और सीपीएम दोनों मिलकर हू जिन ताओ को ारतीय संसद में सम्मानित
करने के मंसूबे बना रहे हैं। यदि ऐसा होता हैतो इसे ारतीय इतिहास का अपमान पर्व
कहा जाएगा और इसके लिए केवल मात्र कांग्रेस ही जिम्मेवार होगी। क्योंकि सीपीएम ने ारत
के मान-अपमान से की अपने आप को बाँधा नहीं है । उनका मान-अपमान अपने जन्मकाल से
ही चीन से बँधा हुआ है। बंगाल की सड़कों पर लाल सलाम चिल्लाते हुए ‘‘चीन का चैयरमैन हमारा
चेयरमैन’’ का नाद करते हुए साम्यवादियों को जिन लोगों ने सुना और देखा है वे इसे अच्छी
तरह समझते हैं। लेकिन सŸाा के लालच में कांग्रेस के नेताओं ने ी अपने आँख, कान और मुँह बंद कर लेने
का संकल्प कर लिया है-यही दुःख का कारण है।
14 नवंबर को पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन है और इसी दिन संसद ने ारतीय ू-ाग
को चीनी कब्जे से मुक्त करवाने का संकल्प लिया था। चीन के हाथों हुए इसी अपमान से
पंडित नेहरू की मृत्यु ी हो गई थी। सोनिया गाँधी अपने आप को इसी नेहरू विरासत की
सबसे बड़ी पहरेदार बता रही है और विरासत के बल पर उन्होंने सैकड़ों वर्ष पुरानी
कांग्रेस पर कब्जा करने की अपनी योजना में सफलता ी प्राप्त की हैऔर उसी विरासत के
बल पर वे पर्दे के पीछे से सŸाा के समस्त सूत्रों का नियंत्रण कर रही हैं। क्या उन्हें
नहीं लगता कि इसी विरासत का तकाजा है कि जिस चीन ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को
अपमानित कर निराशा और हताशा की स्थिति में यमपुरी पहुँचा दिया, उस चीन के राष्ट्रपति से
वे खरी-खरी बात करें, तिब्बत के मसले पर ी और कब्जाई गई ारतीय ूमि के मसले पर ी। लेकिन ऐसा ती
हो सकता है यदि वह सचमुच हृदय से इस विरासत से जुड़ी हुई हों । फिलहाल तो लगता है
कि वह सीपीएम के माध्यम से चीन के ज्यादा नजदीक दिखाई दे रही हैं और नेहरू की
विरासत के कम। ारत सरकार चीन के राष्ट्रपति के लिए अूतपूर्व स्वागत की तैयारियों
में जुटी हुई है। इसलिए इस समय न उसे नेहरू दिखाई दे रहा है, न तिब्बत, न अरुणाचल प्रदेश और न
ही लद्दाख ।
(हिन्दुस्थान समाचार)
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