Tuesday, 14 January 2014

भारत को पहले विकास की अवधारणा पर करना होगा विचार


- डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

ारत में विकास की बहुत चर्चा हो रही है। कई बार अमेरिका के कुछ अखबार पत्र पत्रिकाएं या अर्थशास्त्री यह आकलन कर देते हैं आने वाले वर्षों में ारत विकास की .ष्टि से बडे-बडे देशों को पराजित कर देगा। अपने इधर के कुछ लोग जब ऐसा सुनते हैं तो नाच-गाना शुरू कर देते हैं। आखिर अमेरिका का प्रमाण-पत्र झूठा तो नहीं हो सकता। जब अमेरिका कह रहा है तो जाहिर है कि ारत विकास के रास्ते में दुडकी चाल से चलेगा ही। उसके बाद कुछ अरसे उपरांत अमेरिका के वही विशेषज्ञ दोबारा लिखते हैं कि ारत में विकास की चोटी पर पहुँचने की अपार संावनाएं तो विघमान है लेकिन उसके लिए ारत को कुछ नीतिगत निर्णय ी करने पडेंगे और वे निर्णय क्या होने चाहिए इसका स्पष्ट और अस्पष्ट संकेत ी अमेरिका के ये विशेषज्ञ दे देते हैं। अब प्रश्न आखिर विकास की चोटी पर पहुँचने का है। उसके लिए थोडी मेहनत की जाए तो उसमें कोई बुराई नहीं है। ारत को तो अमेरिका का धन्यवादी होना चाहिए कि अमेरिका के विद्वान इतनी मेहनत करके ारत को विकास के शिखर पर पहुँचाने के लिए रास्ते और नीतियाँ बता रहे हैं। और सचमुच ारत में कुछ लोग अमेरिका के इस एहसान से दबकर दोहरे हुए जा रहे हैं। अमेरिका दो कदम चलने को कहता है। अपने यहां छलांग लगाने की तैयारी हो जाती है।

ारत के साथ ऐसा अी से नहीं हो रहा है। पिछले 300 सालों से यही किस्सा दोहराया जा रहा है। जब यहां अंग्रेज शासक बनकर आए थे तो उनका यही कहना था कि ारत विकास की दौड में बहुत पिछड गया है। यहां के लोग अर्धविकसित हैं। इसलिए इसको विकसित करना उनका कर्तव्य है। अंग्रेजों के चले जाने के बाद और यूनियन जैक का तारा अस्त हो जाने के बाद यही काम अमेरिका ने संाल लिया। विकास की ारतीय और पश्चिमी अवधारणा में स्पष्ट ही अंतर है और यह अंतर काफी गहरा है विकास की ारतीय .ष्टि अंतर्मुखी है और पश्चिम की बर्हिमुखी है। मानव विकास की तमाम यात्राएं चाहेवे पूर्वी दर्शन की यात्रा हो या फिर पश्चिमी दर्शन की यात्रा हो यह मानकर चलती है कि मनुष्य के विकास की कहानी पशु के विकास से प्रारं होती हैं क्योंकि ारतीय चिंतकों ने ी मनुष्य को मूलतः पशु स्वीकार किया है। पश्चिम में जब जीव विज्ञान का विकास हुआतो वहां तो मनुष्य का वर्गीकरण पशुओं के साथ ही हुआ। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि विकास का अर्थ पशुता से प्रारं की गई उर्ध्वमुखी यात्रा है। यहां तक तो शायद मतेद की गुंजाइश नहीं है परंतु उसके बाद मतेद की गुंजाइश के आधार बढते जाते हैं। पश्चिम की .ष्टि में (अब तक की उसकी तमाम गतिविधियों, क्रियाकलापों और कर्मों को देखकर) विकास का ाव इस पशु को ज्यादा से ज्यादा ौतिक सुविधाएं प्रदान करने का है। उसे सजधज कर रहना है। उसके लिए बढिया मकान होने चाहिए, उसके लिए अन्य सी सुविधाएं होनी चाहिए जिससे उसे कम से कम श्रम करना पडे। उसके पास जितनी ज्यादा चीजों का अंबार है वह उतना ही ज्यादा विकसित है। नए-नए यंत्र, नए-नए उपकरण उसकी पहुँच में होने चाहिए। जाहिर है कि इसी .ष्टि से इन उपकरणों का उत्पादन ी होना चाहिए। अपरिमित उत्पादन और उसका अपरिमित ोग आधुनिक .ष्टि से पश्चिम इसी को विकास का मानदण्ड मानता है। उत्पादन और ोग में केवल वस्तुएं ही सम्मिलित नहीं है बल्कि विविध प्रकार की सेवाएं ी शामिल है। ज्यादा से ज्यादा सेवाओं का अधिग्रहण और उपोग पश्चिम के किसी व्यक्ति को विकसित बनाता है। यदि इसको सूत्र रूप में कहना हो तो ौतिक विकास ही पश्चिम की .ष्टि में विकास है। ौतिक विकास ती संव है यदि मानवीय इच्छाएं, इंद्रियां और महत्वकांक्षाएं अनियंत्रित हो जाएं। अतः विकास के लिए यह ी जरूरी है कि अतृप्त इच्छाएं ज्यादा से ज्यादा ोग की कामना करती रहें। यह विकास का ौतिक पक्ष है। पश्चिम के व्यक्ति को जिस देश में यह दिखाई नहीं देता उसकी .ष्टि में वह देश अविकसित हैऔर उसके रहने वाले लोग पिछडे हुए। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जिस समय इस देश में अंग्रेज शासक बन कर आए उस समय यह देश आर्थिक .ष्टि से शैक्षिक .ष्टि से और सामाजिक और सांस्.तिक .ष्टि से संपन्न देश था। (प्रो. धर्मपाल ने इसे आंकडों से स्थापित किया है, आर्थिक .ष्टि से इस देश की संपन्नता की चर्चा सोद्देश्य की गई है। परंतु इन सब के बावजूद अंग्रेजी शासकों, विद्वानों, और चिंतकों ने ारत को अविकसित और पिछडा हुआ देश माना। इसका अर्थ यह लिया जा सकता है कि उन्हें यहां के लोगों में ौतिक वस्तुओं के प्रति अपरिमित लालसा नजर नहीं आई होगी। जाहिर है इस एक ही कसौटी पर ारत अविकसित ठहरा दिया गया और इसको विकसित करने के उन्होंने अनेक प्रयास किए। हमारे विद्वान अी तक ी यह स्वीकार करते हैं कि ारत के विकास में अंग्रेजी शासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण ूमिका रही है।

ारत में विकास की अवधारणा इसके विपरीत है। यहां विकास का लक्षण है ज्यादा से ज्यादा ौतिक सुविधाओं की लालसा पर ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण रखना। उतना ोग करना जितना इस शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। ारत में विकास का लक्षण है ऐसा वातावरण और पर्यावरण बनाना जिसमें किसी को रोग न हो। पश्चिम में इस प्रकार का वातावरण बनाने के प्रयासों को पिछडापन कहा जाता है और बिमार के अस्पताल में आ जाने पर उसका सर्वाेŸाम इलाज ही विकास कहलाता है। ारत में विकास का अर्थ है कि व्यक्ति को अस्पताल में जाने की जरूरत न पडे। पश्चिम में विकास का अर्थ है अस्पताल में आने पर उसका सर्वाेŸाम इलाज किया जाए। विकास को लेकर दोनों अवधारणाओं का यह स्पष्ट अंतर है। लेकिन ऐसा मानना पड़ेगा कि पिछली लगग दो शताब्दियों से कम से कम ारत सरकार और उसके विशेषज्ञों ने विकास के उन्हीं मानदण्डों को स्वीकार किया है जो मानदण्ड पश्चिमी विशेषज्ञों ने निर्धारित किये हैं।

विकास की अवधारणा को लेकर यह लडाई देश की स्वतंत्रता के उषाकाल में ही प्रारं हो गई थी। आजादी से कुछ अरसा पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी में विष्य के ारत में विकास के माॅडल को लेकर गहरा विवाद छिड गया था। महात्मा गांधी ारत का विकास हिन्द स्वराज के माॅडल पर करना चाहते थे। यह माॅडल अपनी आत्मा, प्र.ति और स्वाव में ारतीय माॅडल कहा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने उसी सिरे से अस्वीकार ही नहीं किया बल्कि गांधी जी के लिए लगग अपमानजनक शब्दों का ी प्रयोगकिया। नेहरू ने गांधी जी को लिखा था कि बीस साल पहले जब मैंने हिन्दू स्वराज पढा था तब ी मुझे वह अप्रासंगिक ही लगा था अब आज 1947 में तो वह रद्दी की टोकरी में फेंकने के योग्य है। नेहरू जी का ाव कुछ-कुछ इस प्रकार का था कि उनकी .ष्टि में इस विषय पर महात्मा गांधी से बात करना ी समय की बर्बादी होगी। गांधी जी विकास के लिए गांव को ईकाई के रूप में स्वीकारते थे जबकि नेहरू ने लिखा . कि गांव के लोग तो वौद्धिक .ष्टि से पिछडे हुए होते हैं। यहां पंडित नेहरू और पश्चिम के विशेषज्ञ लगग एक ही ाषा बोलते हुए नजर आते हैं। यह जरूर आश्चर्य चकित करता है कि नेहरू ने पूरी ईमानदारी से गांधी के विकास के माॅडल को नकार दिया लेकिन गांधी इसके बावजूद नेहरू को नकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। नेहरू के मन को जान लेने के बाद महात्मा गांधी लीांति कल्पना कर सकते थे, (और उन्होंने की ी होगी- कि नेहरू तथाकथित विकास के जिस रास्ते पर देश का ले जाएंगे। उसमें आदमी बौना बनता जाएगा तंत्र और मशीन ीमकाय होती जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में मानवीय कर्मों में सृजनात्मक आनंद समाप्त हो जाएगाऔर मनुष्य ी धीरे-धीरे या चेतनाविहीन मशीन या फिर अतृप्त लालसाओं का पशु बन जाएगा। कई बार शंका होती है कि गांधी जी विकास के जिस माॅडल के बारे में क हते थे। उसके क्रियान्वयन के बारे में स्वयं कितने गंीर थे।

आज ी ारत विकास के उसी माॅडल पर चला हुआ है जो पश्चिम का माॅडल है, पंडित नेहरू का माॅडल है। विकास का यह माॅडल प्र.ति से लडने का माॅडल है। प्र.ति को पराजित करने का माॅडल है। उसी का प्राव है कि ओजोन परत में छेद हो रहा है ग्लेशियर पिघल रहेे हैं, तापमान बढ रहा है, नई बिमारियाँ आ रही हैं। लेकिन इसके बावजूद ारत तो आँखें मूँदकर विकास के मामले में अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है। ारत को ऊर्जा की आवश्यकता है। अमेरिका उसके लिए हमें अपने रियेक्टर बेच रहा है और साथ ही परमाणु संधि से विकलांग बना रहा है। हम अपनी जल ऊर्जा को छोडकर परमाणु ऊर्जा के पीछे ाग रहे हैं। ीमकाय अमेरीकी व्यवसायिक कंपनियाँ इस देश में आ रही है। कच्चा माल विदेश में जा रहा है। किसान को मालिक से मजदूर बनाया जा रहा है। की अंग्रेजों ने पुलिस के बल पर नील की खेती करवाई थी। हजारों किसान मारे थे और ुखमरी का शिकार हो गए थे। आज फिर अमेरिका के कहने पर ारत सरकार किसानों को कांट-ेक्ट फार्मिंग के लिए मजबूर कर रही है। यह नील की खेती का नया संस्करण है। विशालकाय माॅल बनाए जा रहे हैं। दूर जाने की जरूरत नहीं है विकास के नाम पर गांव उजड रहे हैं। शहर ारीरकम बनते जा रहे हैं, समाज को लक्वा मार रहा है और राज्य हिंसक बनता जा रहा है। इतना हिंसक कि नंदीग्राम में किसानों को दिन दिहाडे मारकर उनकी जमीन छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रहा है और यह सारा कुछ विकास के नाम पर किया जा रहा है।

विकास के तमाम दावों के बावजूद इस माॅडल में विकसित हुआ मनुष्य मूलतः वहीं खडा हुआ है जहाँ शिकारी युग का मनुष्य खडा था। पश्चिम में विकास के दो सिद्धांत जो सर्वाधिक प्रचलित है वे साम्यवादी सिद्धांत और पूंजीवादी सिद्धांत के नाम से जाने जाते हैं। ऊपर से देखने पर लगता है कि शायद इन दोनों माॅडलों में गहरा अंतर है लेकिन दोनों ौतिक दर्शन के सिद्धांत है। अबाध उत्पादन के सिद्धांत पर आधारित हैं। फर्क केवल इतना है कि पूंजीवाद में उत्पादन के साधनों पर कब्जा चंद व्यक्तियों का है। जब कि साम्यवाद में यही कब्जा राज्य का है।

विकास की ारतीय परिकल्पना पुरूषार्थ चतुष्टय पर आधारित है। ौतिक कामनाओं का निषेध नहीं है परंतु उस पर धर्म का नियंत्रण है। अंतिम लक्ष्य तो मोक्ष है ही। इसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के नाम से जाना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इसी के आधार पर विकास के एकात्म दर्शन की कामना की थी। गांधी ी मूलतः इसी के उपासक थे। प्रो. बजरंग लाल गुप्त ने इसी को विकास की सुमंगलम अवधारणा कहा है। परंतु इसे देश का दुर्ाग्य कहना चाहिए कि महात्मा गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक के शिष्यों ने उनकी मूर्तियों की स्थापना तो कर दी है लेकिन उनके विकास दर्शन को नहीं अपनाया। विकास एकात्म दर्शन की मानवीय रास्ता है इस रास्ते के सिवा और कोई रास्ता नहीं है जो ारत के मन और शरीर को स्वस्थ रख सके। 21वीं शताब्दी में इसी रास्ते का संधान करना होगा।


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