Tuesday, 14 January 2014

देश के संकट में कम्युनिस्टों की भूमिका

: डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

वंदे मातरम के गान को लेकर देश में बहस गहराती जा रही है। सोनिया गांधी की सरकार अड़ी हुई है, यदि कोई ारत माता की वंदना नहीं करना चाहता, तो उसे पूरा अधिकार है। किसी से जबरदस्ती वंदे मातरम नहीं कहलवाया जा सकता। कम्युनिस्ट इस स्थिति से प्रसन्न हैं। वे कांग्रेस से ी ऊंचे स्वर में बोल रहे हैं-वंदे मातरम साम्प्रदायिक है। कम्युनिस्टों का पूरा इतिहास देश के संकट काल में देश के खिलाफ खड़े हो जाने और शत्रु पक्ष का स्तुति गान करने का रहा है। ारत ने 1950 से लेकर 1962 तक वििन्न प्रकार से चीन के आक्रमण को झेला था। इस पूरे काल में कम्युनिस्ट चीन के साथ खड़े दिखाई दे रहे थे।

माओ ने 1949 में चीन की सŸाा पर कब्जा कर लिया। माओ के इस मुक्ति .युद्ध में वैचारिक ूमिका में महात्मा बुद्ध नहीं थे बल्कि कार्ल माक्र्स थे । वही कार्ल माक्र्स जिन्होंने कहा था कि धर्म अफीम होता है । चीन में माओ के नेतृत्व में कार्ल माक्र्स ने एक प्रकार से बुद्ध वचनों को परास्त किया था । बीजिंग के थ्यानमेन चैक में माओ ने घोषणा की-चीन अब उठ खड़ा हुआ है। माओ की इस घोषणा से बहुत अरसा पहले स्वामी विवेकानन्द कह चुके थे कि चीन एक सोया हुआ राक्षस है। उसे सोया ही रहने दो। यदि वह उठ खड़ा हुआ तो सारी दुनिया के लिये खतरा पैदा हो जाएगा। लेकिन ारत की कम्युनिस्ट पार्टी शायद विवेकानन्द के साथ नहीं थी। उस ने माओ द्वारा चीन में सŸाा संलने से पूर्व ही उसे अपना मसीहा मान लिया था और उसके रास्ते को अपना कर ारत की सŸाा को उखाड़ फेंकने का संकल्प ी दोहरा दिया था। फरवरी 1948 में कोलकाता में एशियाई कम्युनिस्ट कांग्रेस का सम्मेलन हुआ। जिसमें दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में हिंसक जनांदोलन और गृह युद्ध प्रारं करने का निर्णय लिया गया। जाहिर है ारत में यह शुरुआत कम्युनिस्टों को ही करनी थी।

तेलंगाना में सशó क्रांति में संलग्न आंध्र प्रदेश के कम्युनिस्टों की रणनीति के अनुसार तो ‘‘सी.पी.आई को ारत में माओ की रणनीति के आधार पर सŸाा पर कब्जा कर लेना चाहिये। ारतीय कम्युनिस्टों को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के रास्ते का ही अनुसरण करना होगा । ऐतिहासिक चीनी मुक्ति संघर्ष के नेता माओ ने नये लोकतंत्र का सिद्धांत सूत्र बद्ध किया हैऔर वही उपनिवेशों और अर्ध उपनिवेशों के लिये अनुसरण योग्य है।’’(हेमन राय, पीकिंग एण्ड दी इंडियन कम्युनिस्ट, पृष्ठ-8) ध्यान रहे कि कम्युनिस्टों की दृष्टि में स्वतंत्र ारत की सरकार सामंतवादी और अर्ध उपनिवेशवादी थी। सी.पी.आई के महासचिव बी.टी. रणदिवे ने चीनी जनगणतंत्र की स्थापना पर 1 अक्तूबर 1949 को माओ कोलिखा-ारतीय जनता आपकी विजय से हर्ष विोर है क्योंकि इससे उसे अपनी मुक्ति की आशा बंधती है।(पीकिंग एण्ड दी इंडियन कम्युनिस्ट, पृष्ठ-16) जाहिर है कि ारत के कम्युनिस्ट, चीन और माओ के माध्यम से सŸाा पर कब्जा जमाने के स्वप्न देख रहे थे और इसी राष्ट्रघाती रणनीति को वे लोक मुक्ति का नाम दे रहे थे।

1959 में तिब्बत में स्वतंत्रता के दीवानों ने जन विद्रोह किया। दलाई लामा को ारत में शरण लेनी पड़ी। इसका विरोध करने वालों में ारत के कम्युनिस्ट सबसे आगे थे । उनको चीन का आक्रमण दिखाई नहीं दे रहा था । ारत में दलाईलामा के रहने पर आपŸिा हो रही थी । चीन ारतीय सीमा में ी घुसपैठ कर रहा था। लेकिन ारत के कम्युनिस्ट यही प्रचार कर रहे थे कि ारतीय सेना चीन पर आक्रमण कर रही है। सी.पी.आई की राष्ट्रीय परिषद् की बैठक 1959 में मेरठ में हुई। सारे देश की आंखे इस बैठक पर ही लगी हुई थीं। उस बैठक में क्या हुआ, उसका वर्णन बाद में परिषद् के एक सदस्य रमेश सिन्हा ने किया , ‘‘मेरठ में राष्ट्रीय कोंसिल की बैठक हुई। तमाम ाषण हुये । साथी पी. सुन्दरैया जैसे बड़े नेता ने सामने दीवार पर एक बड़ा नक्शा लगाकर एक लम्बी स्केल की सहायता से यह बताने की चेष्टा की थी कि हमला चीनियों ने नहीं बल्कि हिन्दुस्थानी सैनिकों ने किया है।’’(जीवन संघर्ष, रमेश सिन्हा, पृष्ठ-189)। जाने-माने कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन ने इसी प्रसंग पर लिखा है-‘‘ारत ूमि पर चीनी दावे की वैधता को उचित ठहराने के लिए सुंदरैया ने काफी संख्या में मानचित्र और अिलेखागारीय सामग्री एकत्रित की थी और वे इस बात पर जोर दे रहे थे कि साम्यवादी चीन की हमला कर ही नहीं सकता। बुर्जुआवादी ारत सरकार यह कर सकती है ताकि वह अपने साम्राज्यवादी आकाओं से ला ले सके।’’ (ए ट्रेवलर एंड दी रोड-द जर्नी आॅफ एन इंडियन कम्युनिस्ट, मोहित सेन, पृष्ठ 201)

31 मार्च, 1959 को सी.पी.आई ने चीन को इस बात के लिये बधाई दी कि उसने तिब्बत को मध्य युगीन अंधेरे से बाहर निकाला है। सी.पी.आई के अनुसार तिब्बत में हुए जन विद्रोह के लिये ू-स्वामी उŸारदायी हैं, जिनकी सहायता ारत की प्रतिक्रियावादी शक्तियां और पश्चिमी साम्राज्यवादी कर रहे हैं।(न्यू एज, नई दिल्ली, 5 अप्रैल, 1959) सी.पी.आई के महासचिव अजय घोष ने तिब्बत के जन विद्रोह को निर्दयता पूर्वक कुचलने के चीनी दमन का खुला समर्थन किया। घोष ने कहा-‘‘गिने चुने प्रतिगामियों द्वारा किये गये विद्रोह का हश्र उसकी पराजय में हो गया है और तिब्बत के लोग अब प्रगति पथ पर अग्रसर हो सकते हैं।(न्यू एज, नई दिल्ली, 10 मई, 1959) बी.टी. रणदिवे तो एक कदम और आगे बढ़ गये उनके अनुसार ारत के सांसद चीन पर दोषारोपण कर रहे हैं और उसे आक्रांता कह रहे हैं, ‘‘यदि ारतीयों को विस्तारवादी कहा जाता है तो उन्हें ठेस पहुंचती है। तो क्या चीनियों को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिये जब उनकी सरकार को आक्रमणकारी कहा जाता है।’’ (न्यू एज, नई दिल्ली, 3 मई, 1959)

6 मई 1959 को चीन सरकार के अखबार पीपुल्स डेली ने ‘‘तिब्बती क्रांति और नेहरू का दर्शन’’ नामक एक लम्बा आलेख प्रकाशित किया, जिसमें ारत पर तिब्बत में दखलंदाजी का आरोप लगाया। सी.पी.आई के मुख्य पत्र न्यू एज ने अपने 17 मई के अंक में इसका अनुवाद प्रकाशित किया और देशर में इसको बांटा। 25 अगस्त, 1959 को लांगजु की घटना हुई। अरूणाचल प्रदेश में चीनी सेना लांगजु में घुस आई और वहां उसने असम राइफल्ज के तीन जवानों को मार दिया। इस घटना की सी.पी.आई के पोलित ब्यूरो सदस्य मोहित सेन ने निम्न प्रकार से व्याख्या की। ‘‘ारत जिस मैकमहोन रेखा को (ारत-तिब्बत के बीच) वैधानिक सीमा बता रहा है उसकी की ी निशान देही नहीं हुई। वैसे ी उसकी रचना एक तरफा मनमाने तरीके से की गई थी। इसलिये लांगजु की घटना के लिये चीन सरकार उŸारदायी नहीं है।(न्यू एज, नई दिल्ली, 13 सितम्बर, 1959) ए. के. गोपालन और पी. राममूर्ति ने तो सी सीमाएं लांघ दीं। उन्होंने कहा-‘‘हमें लांगजु की इस घटना पर ही विश्वास नहीं है। यह ारत सरकार ने गढ़ी है।’’(पीकिंग एण्ड दी इंडियन कम्युनिस्ट, पृष्ठ-60) उधर कम्युनिस्ट, तिब्बत पर चीनी आक्रमण के पक्ष में खुल कर आ गये थे। ‘‘दस सितम्बर, 1959 को सी.पी.आई ने कोलकाता में एक जनसा की जिसमें खुल्लमखुल्ला चीन का समर्थन किया। सा की अध्यक्षता ज्योति बसु ने की । बसु ने कहा कि चीन को आक्रमणकारी नहीं कहा जा सकता। साम्यवादी कार्यकर्ता नारे लगा रहे थे कि चीन आक्रमणकारी नहीं है। (आर्गेनाइजर, 28 दिसम्बर, 1959)

कम्युनिस्ट पार्टी के इसी अारतीय स्वरूप पर तत्कालीन ारतीय जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय ने टिप्पणी की। ‘‘तिब्बत की घटनाओं और उस संबंध में ारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा बनाई गई नीति ने इस पार्टी के अारतीय रूप को ही एक बार पुनः प्रकट कर दिया है। चाहे तिब्बत में जो ी आर्थिक या राजनीतिक पद्धति प्रचलित हो, किसी ी बाहरी देश को उसे जबरदस्ती परिवर्तित करने का अधिकार नहीं है। अगर ारत के कम्युनिस्ट चीनी राग में स्वर मिलाते हुए इस आधार पर तिब्बत पर चीनी आक्रमण को उचित ठहरा सकते हैं कि दलाई लामा की सरकार प्रतिक्रियावादी है, तो वे ारत पर चीनी आक्रमण का ी स्वागत कर सकते हैं। यह विशुद्ध विश्वासघात के सिवा और कुछ नहीं है।’’ (कमल किशोर गोयनका, पंडित दीनदयाल उपाध्याय व्यक्ति दर्शन, पृष्ठ 200)

सारा देश चीन के विस्तार वादी रवैये की निन्दा कर रहा था लेकिन कम्युनिस्ट अी ी अपनी उसी 1942 वाली रणनीति पर आगे बढ़ रहे थे। वे अंतर्राष्ट्रियवाद के झंडाबरदार बनकर घूम रहे थे और इसमें वे ारत की बजाए चीन के साथ स्वयं को ज्यादा नजदीक पा रहे थे। सीपीआई के हरे कृष्ण कोनार अक्टूबर 1960 में वियतनाम होते हुए चीन गए और वहां चेयर मैन माओ से मिले। ‘‘और वहां से लौटने के बाद वे सबसे मुखर चीन समर्थक सिद्ध हुए और ारत चीन युद्ध में उन्होंने खुलकर चीन का समर्थन किया। कोनार के माध्यम से ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने पश्चिमी बंगाल के चीन समर्थक धड़े से प्रत्यक्ष संपर्क बनाए रखा। (हेमन राय, पृष्ठ 73) और चीन के इसी आक्रमण की पृष्ठूमि में जाने माने कम्युनिस्ट नेता रमेश सिन्हा ने अपने जीवन संघर्ष मंे लिखा जो साथी माक्र्सवादी पार्टी में गए थे उन्होंने चीनी पार्टी की रीति नीति को पूरे तौर पर मान लिया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सीपीएम के सामने मुख्य तौर पर तीन काम रखे जिनमें प्रमुख थे-प्रथम ारत सरकार की सŸाा और शक्ति को कमजोर करना, द्वितीय यदि हो सके तो जवाहरलाल नेहरू को उसी तरह कैद कर लेना जिस तरह च्यांग काई शेक को चीनियों ने एक जमाने में किया था।

इस असाईनमेंट के चार दशकों बाद कम्युनिस्ट ारत सरकार में ागीदारी निाने की स्थिति में आ गए हैं। वंदे मातरम का विरोध क्या उस अधूरे काम को पूरा करने की दिशा में उठा हुआ महत्वपूर्ण कदम तो नहीं है।

(हिन्दुस्थान समाचार)


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