Tuesday, 14 January 2014

गोरे लोग मना रहे हैं ारत में 1857 का विजय पर्व

: डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
दिनांक: 29 सितंबर 2007
स्थान: नई दिल्ली

1857 में इस देश के लोगों ने ईस्ट इंडिया कंपनी यानि कंपनी बहादुर की सरकार के खिलाफ एकजुट होकर आजादी की पहली लड़ाई लड़ी थी। आज लोगों को यह सुनकर हैरानी हो सकती हैकि पूरा देश एक व्यापार करने वाली साधारण कंपनी के खिलाफ लड़ रहा था। आज के हिसाब से देखा जाए तो यह चूहे और शेर की लड़ाई ही कहलाएगी तो व्यापार करने वाली एक साधारण कंपनी की औकाद चूहे से ज्यादा क्या हो सकती है? लेकिन यह इस देश का ही कमाल है कि इंग्लैण्ड से व्यापार करने वाली आई एक कंपनी कुछ सालों में ही उस बड़े देश की मालिक बन बैठी जिस देश में इंग्लैण्ड जैसे सैकड़ों देश एक साथ समा जाए। परंतु इतिहास तो इतिहास है। इतिहास कटु होता है। ईस्ट इंडिया कंपनी और ारत के रिश्तों का यही कटु इतिहास है। कंपनी बहादुर को हिन्दुस्थान पर राज करते हुए लगग 100 साल हो गए थे। तब देश के लोगों ने उसको ललकारा। इतना मानना पड़ेगा कि देश में हिम्मत की कमी तो नहीं है। अलबŸाा एकता की कमी जरूरी खटकती है परंतु इस बार देश की सारी जनता ने अूतपूर्व एकता दिखाई । यह अलग बात है कि इस लड़ाई में देश के रियासती राजा, इक्का दुक्का को छोड़कर फिरंगी राजा कंपनी बहादुर के साथ ही मिल गए। ठीक ी है। जनता-जनता है राजा-राजा हैं। चाहे वो फिरंगी हो चाहे काला हो। राजा प्रजा की पंगत में तो बैठ नहीं सकता । वह राजा की ही पंगत में बैठेगा।
यंकर लड़ाई हुई । कंपनी बहादुर की सेना ने लड़ाई करने वालों से तो लड़ाई की ही दिल्ली के गली-मोहल्ले में जाकर निहत्थे लोगों को गाजर-मूली की तरह काटा । लेकिन ारतीयों की बहादुरी की ी लोककथाएं बनी । दिल्ली और मेरठ में अनेक स्थानों पर अंग्रेजी सैनिकों की कब्रगाहें बनी । विदेशियों को मौत के घाट उतार दिया गया।
इस लड़ाई को हुए डेढ़ सौ साल बीत गए हैं। ारत के लोग आजादी की इस पहली लड़ाई में शहीदों को जगह-जगह श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। जाहिर है कंपनी बहादुर को बुरा लगता और उसे शायद बुरा लगा ी । कंपनी बहादुर को मरे हुए तो अरसा हो गया। उसके बाद महारानी विक्टोरिया आ गई थी। लेकिन कंपनी बहादुर और महारानी विक्टोरिया एक ही सिक्के के दो पहलू थे। अब महारानी विक्टोरिया ी मर गई है । उसके साथ ही बंदरों जैसे ललमुहें अंग्रेजों की विक्टरी ी मर गई है। बची हुई है तो केवल साम्राज्यवाद की वही पुरानी ावना जो गोरी जातियों की धमनियों में खून बनकर बह रही है। शायद लंदन में ी यह खबर पहुँची होगी कि कल के गुलाम अपनी आजादी की पहली लड़ाई के जश्न मना रहे हैं। गोरे रक्त में एक बार फिर उबाल आया होगा। दुनिया र में की न डूबने वाला ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य तो अस्त हो चुका है। लेकिन मन का सूर्य अी ी शायद एशिया को गुलाम के रूप में ही देखता है। फिर ारत तो ऐसा देश है जिसके शासकों की आँखें ब्रिटिश साम्राज्य के डूब चुके सूर्य के तेज से अी ी पूरी तरह खुल नहीं पा रहे हैं। इसलिए इंग्लैण्ड ने एक बार फिर निर्णय लिया कि 1857 का जवाब 2007 में ारतीयों को उसी मेरठ और लालकिला की ूमि पर जाकर देना चाहिए। पिछले दिनों द्विवंगत कंपनी बहादुर के द्विवंगत सैनिकों के पारंगत पुत्र-पौत्र दिल्ली पहुँचे। उन्होंने दिल्ली में और मेरठ में उन अत्याचारी अंग्रेजी सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की जो 1857 में स्वतंत्रता संग्रामियों के हाथों मारे गए थे। इतना ही नहीं उन्होंने उन तथाकथित गोरे शहीदों की याद में विजय का शिलालेख लगाया जिसमें 1857 को ब्रिटिश साम्राज्य विजय पर्व घोषित किया गया।
स्वतंत्र ारत के चेहरे पर 2007 में यह कलंक गाथा लिखने का साहस अंग्रेजों में आखिर कैसे आया होगा? लंदन से चलते समय शायद उनके मन में यह ाव उत्पन्न हुआ होगा कि जो ारत 1947 में गोरी जातियों प्रुत्व से मुक्त हो गया था उस ारत पर अंततः गोरी जाति की सोनिया गांधी ने ही कब्जा जमा लिया है। जो अंग्रेज ारत की धरती पर 1857 का विजय पर्व मनाने आए थे क्या इसे वे घर वापसी का अियान समझ कर आए थे? कोने-कोने की दुर्गंध सूंघने वाला मीडिया इन गोरे षड्यंत्रकारियों के आगे मौन हो गया। रामसेतु को तोड़ने के लिए वजिद सोनिया गांधी इन गोरों को पकड़ने के लिए चिंतित क्यों नहीं हो रही । क्या उन्हें ी क्वात्रोची की तरह ागने के हजार रास्ते प्रदान किए जाएंगे? आज जब देश 1857 को याद कर रहा है और गत सिंह के जन्मदिन के 100 साल मना रहा है तो ललमुँहे गोरों का दिल्ली में आकर इस प्रकार का आचरण मंगल पाण्डे और गत सिंह का अपमान है। यह सारे ारत वर्ष का अपमान है। इस अपमान का सवाल देश में किससे किया जाए। सोनिया गांधी से?, मनमोहन सिंह से? लेकिन लगता है अमेरिका से परमाणु समझौता करके जो पहले ही इस देश का अपमान करने पर तुले हुए हैं वे इस प्रश्न का उŸार क्या देंगे। यह प्रश्न ारत की जनता से है। उस जनता से है जिसने 1857 में आजादी की लड़ाई लड़ी थी। 1947 में देश से अंग्रेजों को गा दिया था। इस प्रश्न का उŸार इसी जनता से मिलेगा ।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)


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