ारत में अमेरिका की मुस्लिम नीति के पहरेदार: डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
सच्चर कमेटी ने अपना पूरा दिमाग लड़ाकर एक रपट ारत सरकार को सौंप दी है। यदि इस
रपट को स्वीकार कर लिया जाए तो देश के ीतर ही एक नया देश जन्म लेना शुरू कर देगा इसमें
कोई शक नहीं है। ारत के इतिहास में पहले ी ऐसा हो चुका है। पाकिस्तान उसी का परिणाम
है। उस समय इस प्रसव प्रक्रिया में ब्रिटेन सरकार मुख्य ूमिका में थी और दाई की ूमिका
मोहम्मद अली जिन्ना निा रहे थे। इस वक्त लगता हैदाई की यह ूमिका राजेन्द्र सच्चर
के जिम्मे आई हैऔर ब्रिटेन की ूमिका सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह निा रहे हैं। लेकिन
इस नए प्रयोग से जाहिर हैजच्चा और बच्चा दोनों ही खतरे में पड़ जाएंगे। इतना सहज सरल
विश्लेषण तो राजेन्द्र सच्चर और मनमोहन सिंह ी कर ही रहे होंगे या कम से कम अपने इस नए प्रयोग के दुषपरिणामों से
वे अनिज्ञ होंगे, ऐसा नहीं माना जा सकता। जहां
तक सोनिया गांधी का प्रश्न है उसको मनमोहन सिंह और राजेन्द्र सच्चर के समकक्ष नहीं
रखा जा सकता क्योंकि इस देश के लिए उनके मन में जो योजनाएं होंगी वे इन दोनों की योजनाओं
से तो अलग ही होनी चाहिएं, क्योंकि मनमोहन सिंह और राजेन्द्र
सच्चर का संस्कारों का धरातल निःसंदेह सोनिया गांधी के संस्कारों के धरातल से अलग है।
तब प्रश्न उठता हैकि आखिर मनमोहन सिंह और सच्चर जिस दिशा में बढ़ रहे हैं, वे उनका स्वेच्छा से अख्तियार किया गया रास्ता है या
फिर किसी दबाव के अंतर्गत? मनमोहन सिंह कह ही चुके हैं
कि इस देश पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। इधर यह ी सुनने में आया हैकि बैंकों को
ी यह निर्देश दिए जा रहे हैंकि ऋण वितरण में मुसलमानों को प्राथमिकता दी जाए। मजहब
के आधार पर आरक्षण के शगूफे को कांग्रेस ने पहले ही उछालना शुरू कर दिया हैऔर अब ारत
सरकार ने एक ऐसे आयोग की स्थापना ी कर दी है जो उस इस्लामी समाज में, जिसका आधार ही जाति विहीन समाज की रचना है, दूरबीन लेकर जातियों की तलाश करनी शुरू कर दी है। लेकिन
यह ारत सरकार का इस्लामी समाज को लेकर किया जाने वाला समाज शाóीय अध्ययन नहीं हैबल्कि इन धर्मान्तरित मुसलमानों को
आरक्षण का ला देने की एक सोची समझी लंबी साजिश है।
इधर राजेन्द्र सच्चर और मनमोहन सिंह मुसलामानों को लेकर एक विशेष ढंग से सक्रिय
हैऔर उधर अफजल गुरुओं की पूरी फौज हिन्दुस्तान में तबाही मचाने के लिए कटिबद्ध है।
राजेन्द्र सच्चर के ाई-बंधु इस दिशा में पूरी मुस्तैदी से अपनी सक्रियता निा रहे
हैं। जब आतंकवादी पुलिस या सेना की गिरफ्त में आ जाते हैंतो राजेन्द्र सच्चर मार्का
मानवाधिकारवादियों की पूरी फौज उनकी हिफाजत के लिए आ खड़ी होती है। सेना को दोहरी मार
झेलनी पड़ती है। एक ओर आतंकवादियों की गोलियां हैं और दूसरी ओर मानवाधिकारवादियों के
नोटिस हैं। आतंकवादियों के दोनों हाथों में लड्डू हैं। सरकारी तंत्र ने परोक्ष अथवा
प्रत्यक्ष रूप से उन्हें इतना विश्वास तो दिला ही दिया हैकि ारत में कोई अफजल गुरु
फांसी पर नहीं चढ़ने पाएगा। इस अयदान के बाद आतंकवादी गतिविधियां तेजी से ही बढ़ेगी-इसमें कोई शक नहीं है। कोढ़ में खाज यह कि ारत सरकार
आतंकवाद का मुकाबला पाकिस्तान सरकार के साथ मिलकर करना चाहती है। शायद पाकिस्तान सरकार
ी इस मामले में ारत सरकार के साथ पूरा सहयोग कर रही है। इसीलिए उन्होंने पिछले दिनों
शाहिद गफ्फूर के नेतृत्व में दिल्ली में यंकर तबाही मचाने का बंदोबस्त कर दिया था।
जिस प्रकार मनमोहन सिंह और राजेन्द्र सच्चर मुसलमानों की लाई के नाम पर अनेक मोर्चों
पर एक साथ काम कर रहे हैं, उसी प्रकार आतंकवादी ी अपनी
योजना के तहत अनेक मोर्चों पर एक साथ ही डटे हुए हैं। हैदर अली का किस्सा सबसे चैंकाने
वाला है। कुछ दिन पहले हैदर अली को ारतीय सेना ने गिरफ्तार किया था। वह असम राइफल्स
में विद्रोह ड़काने की एक लंबी योजना पर पता नहीं कितने लंबे अरसे से काम कर रहा था।
इसके लिए उसने प्रत्यक्ष रूप में बड़े निर्दाेष मुद्दों को चुना था। जवानों की तनख्वाह
और अन्य सुविधाओं की आड़ में हैदर अली अर्धसैनिक बलों में विद्रोह की तैयारियां कर
रहा था। ऊपर से तुर्राह यह की टीवी का एक चैनल हैदर अली को एक नायक के रूप में प्रस्तुत
करने की रसक कोशिश कर रहा था।
इन सारे घटनाक्रमों को देखकर एक महत्वपूर्ण प्रश्न पैदा होता हैकि जो परि॰श्य और
जो धड़कन आम ारतवासियों को सहज ही दिखाई और सुनाई दे जाती है, वह मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राजेन्द्र सच्चर को क्यों नहीं सुनाई देती ? राजेन्द्र सच्चर को इस लिस्ट में से खारिज ी किया जा
सकता है क्योंकि हो सकता है उनकी ूमिका सरकारी दरबार में किसी विशिष्ट कार्य को करवाने
के लिए बुलाए गए एक विशेषज्ञ मात्र की हो। ऐसी ूमिकाएं हर युग में हर सरकार के दरबार
में निाने वाले विशेषज्ञ मिलते ही रहते हैं। परंतु प्रश्न मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी
का बचता है। इस मरहले पर पश्चिमी बंगाल के पूर्व विŸामंत्री
डा. अशोक मित्रा की नई पुस्तक सहसा ही ध्यान आकर्षित करती है। डा. मित्रा ने अपनी पुस्तक
में लिखा हैकि पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहाराव ने मनमोहन सिंह की विŸामंत्री के तौर पर नियुक्ति अमेरिकी सरकार के दबाव में
की थी। मनमोहन सिंह अमेरिका द्वारा पोषित विŸा
संस्थानों में कार्य कर ही चुके थे। राजनीति में उनका कोई दखल नहीं था। लेकिन अमेरिका
जिन आर्थिक नीतियों को ारत वर्ष में लागू करना चाहता था, मनमोहन सिंह से बेहतर उनको कोई नहीं जानता था। अशोक मित्रा
की बात को सहज ही में खारिज नहीं किया जा सकता । वे देश के जाने माने अर्थशाóी हैऔर राष्ट्रीय सरोकारों के चलते उन्होंने ज्योति बसु
के मंत्रिमंडल से त्याग पत्र ी दे दिया था।
यदि मनमोहन सिंह को अमेरिका आगे लाया है तो सोनिया गांधी के पीछे कौन है? जो लोग सुब्रहृमण्यम स्वामी की बातों को गंीरता से नहीं
लेते उन्हें डा. अशोक मित्रा के मैदान में आ जाने से सारी परिस्थितियों पर पुनः विचार
करना ही होगा। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या अमेरिका ने अब ारत के लिए आर्थिक नीति तय
करने के साथ-साथ मुस्लिम नीति तय करने का जिम्मा ी संाल लिया है?
(हिन्दुस्थान समाचार)
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