डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
सर्वोच्च न्यायालय ने दारा सिंह को फांसी देने की केन्द्रीय सरकार की अपील को
नामंजूर कर दिया है । कुछ साल पहले ओडिशा में आस्ट्रेलिया के एक मिशनरी ग्राहम
स्टेन्स की जंगल में हत्या हो गई थी । वह अपनी गाडी में था कि कुछ लोगों ने उसकी
आग लगा दी । बाद में पुलिस ने इस घटना के लिए जिम्मेदार बता कर कुछ लोगों को
गिरफ्तार किया और उसमें दारा सिंह नामका व्यक्ति प्रमुख था । ग्राहम स्टेन्स पर यह
आरोप था कि वह विदेशी स्रोतों से प्राप्त धन के बल पर भोले भाले जनजातीय समाज के
लोगों का मतांतरण कर रहा था । इसके लिए वे अनेक प्रकार के अमानवीय व निंदनीय
तरीकों का इस्तमाल करता था । जनजातीय समाज की परंपराओं को तोडने के लिए वे
मतांतरित लोगों को भडकाता था और उन लोगों की आस्थाओं व विश्वासों का मजाक उडाता था
। कबीले के लोगों इसाई मजहब की फौज में शामिल करवाने के लिए वे लगभग उन सभी तरीकों
को इस्तमाल करता था जिनका उल्लेख जस्टिस नियोगी की अध्यक्षता में गठित आयोग ने
किया है । इन्हीं परिस्थितियों में उसकी हत्या हुई और ओडिशा हाइकोर्ट ने दारा सिंह
को हत्या का आरोपी मान कर उसे उम्र कैद की सजा सुनाई । ओडिशा हाइकोर्ट के इस फैसले
से भारत में मतांतरण के काम में जुटा हुआ चर्च अति क्रोध में था और वह दारा सिंह को किसी भी हालत में जिंदा
नहीं देखना चाहता था । इसलिए केन्द्रीय सरकार की जांच एजेंसी सीबीआई ने दारा सिंह
को फांसी पर लटकाये जाने की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई । उस
वक्त कुछ मानवाधिकारप्रेमियों ने इस बात पर आपत्ति भी जाहिर की थी । लेकिन सीबीआई
अंततः दारा सिंह के लिए फांसी की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गई । इसी
बीच ग्राहम स्टेन्स की आस्ट्रेलियाई पत्नी ग्लैडिस भारत को छोड कर वापस अपने देश
चली गई ।
अब उच्चतम न्यायालय ने इस बहुचर्चित केस में अपना निर्णय सुना दिया है ।
न्यायालय ने भारत सरकार की अपील को खारिज करते हुए दारा सिंह को फांसी देने से
इंकार कर दिया है । सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि ग्राहम स्टैंस की हत्या
जघन्यतम अपराधों की श्रेणी में नहीं आती । सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि
लोग ग्राहस स्टैंस को सबक सिखाना चाहते थे क्योंकि वह उनके इलाके में मतांतरण के
काम में जुटा हुआ था । इस विषय पर टिप्पणी
करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत ही महत्नपूर्ण टिप्पणी की है जो मतांतरण के
काम में लगी हुई अलग अलग मिशनरियों के लिए मार्गदर्शक हो सकती है । सर्वोच्च
न्यायालय ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति की आस्था व विश्वासों में दखलदाजी करना और
इसके लिए बल का प्रयोग करना, उत्तेजना का प्रयोग करना, लालच का प्रयोग करना या किसी को
यह झुठा विश्वास दिलवाना कि एक मजहब दूसरे से अच्छा है और इन सभी तरीकों का
इस्तमाल करते हुए किसी व्यक्ति का मतांतरण करना, इसको किसी भी आधार पर उचित नहीं
ठहराया जा सकता । सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इस प्रकार के मतांतरण से हमारे
समाज की उस आधारभित्ति पर चोट होती है जिसकी रचना संविधान के निर्माताओं ने की थी
।
सर्वोच्च न्यायालय के इस टिप्पणी से पहले भी अनेक न्यायालयों ने यह निर्णय
दिये हैं कि भारतीय संविधान में अपने मजहब का प्रचार करने का अधिकार तो दिया हुआ
है लेकिन किसी को भी अनुचित साधनों के प्रयोग से मतांतरण का अधिकार नहीं है । यही
कारण है कि ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश जनजातीय बहुल राज्यों ने मतांतरण को रोकने के
लिए कानून बनाया हुआ है । लेकिन दुर्भाग्य से इस कानून के होते हुए भी ग्राहम
स्टेंस जैसे विदेशी लोग अकेले ओडिशा में ही हजारों हजारों लोगों का मतांतरण करवा पाने
में सफल हो गये और राज्य सरकार आंखें मुंद कर सोयी रही । यही परिस्थितियां रही
होगी ओडिशा के लोगों ने राज्य सरकार के असफल हो जाने पर ग्राहम स्टेंस को सबक
सिखाने की सोची होगी । यद्यपि इस तरीके को अच्छा नहीं माना जा सकता लेकिन फिर भी
एक बात का ध्यान रखना चाहिए यदि जनजातीय समाज में मिशनरियों की इस प्रकार की
अमानवीय गतिविधियों को रोका न गया तो वह समाज इसे रोकने के लिए स्वयं किसी भी सीमा
तक जा सकता है । लेकिन दुर्भाग्य से केन्द्रीय सरकार खतरे की इस घंटी को सुनने के
बजाए दारा सिंह को ही फांसी पर लटकाने को ज्यादा सुविधाजनक मान कर चल रही है ।
ओडिशा में ही दो साल पहले चर्च के लोगों ने स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या
कर दी थी । ये भी जनजातीय समाज में मिशनरियों के उस मतांतरण आंदोलन का ही विरोध कर
रहे थे । स्वामी जी की हत्या के विरोध में जब पूरा कंध समाज ऊफान पर आ गया तो
राज्य सरकार एक बार फिर चर्च के साथ खडी दिखाई दी
और कंध समाज को प्रताडित और डराने धमकाने के कार्य में लगी रही । ग्राहम
स्टैंस के हत्यारों को पकडने के लिए राज्य सरकार ने जितनी तत्परता दिखाई थी उसकी
शतांश भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्यारों को पकडने और दंड दिलवाने में
नहीं दिखाई । अलबत्ता इस भीतर केन्द्रीय सरकार ने आस्ट्रेलिया से ग्राहम स्टेंस की
पत्नी ग्लैडिस को वापस बुला कर पद्मश्री से सम्मानित किया था । यह जनजातीय समाज के
मुंह पर एक और तमाचा था ।
अब समय आ गया है कि इस गंभीर मुद्दे पर गहरी चर्चा की जाए और भविष्य के लिए
ठोस रणनीति बनायी जाए ताकि विदेशी ताकतों से संचालित मिशनरियां मतांतरण के बल पर
भारत की पहचान और अस्मिता को समाप्त न कर सकें । इस रणनीति के लिए उच्चतम न्यायालय
द्वारा दिया गया यह दिशानिर्देश अत्यंत सहायक सिद्ध हो सकता है । लेकिन पिछले कुछ
सालों से केन्द्रीय सरकार के व्यवहार और आचरण से यह लगता है कि उसकी रुचि भारत में
छल और बल से किये जा रहे मतांतरण के आंदोलन को रोकने में उतनी नहीं है जितनी उसे
प्रोत्साहित करने में है । यही कारण है कि जब राजस्थान विधानसभा ने राज्य में
मतांतरण को रोकने के लिए विधेयक दो दो बार बहुमत से पारित किया तो उस समय की
राज्यपाल श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने ( जो अब राष्टपति पद पर विराजमान हैं) अनेक प्रकार के अडंगे लगा कर उसे कानून नहीं
बनने दिया । इसी प्रकार गुजरात विधानसभा ने जब इसी प्रकार के एक विधेयक को ज्यादा
प्रभावी बनाने के लिए उसमें संशोधन को बहुमत से स्वीकृत किया तो राज्यपाल ने
केन्द्रीय सरकार के निर्देशों के चलते उसमें अडंगे लगाये । जिन प्रदेशों में इस
प्रकार का कानून बना हुआ भी हैं वहां भी शायद ही कोई पादरी होगा जिसको इस कानून का
उल्लंघन करने के आरोप में सजा सुनायी गई है । सजा की बात तो दूर है किसी पर
मुकद्दमा ही चलाया गया हो, यह भी संदेहात्मक है । यही कारण है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश
जैसे राज्यों में मतांतरण रोकने संबंधी विधेयक प्रभावी होने पर भी वहां लाखों की
संख्या में जनजातीय समाज को मतांतरित किया जा चुका है ।
दुर्भाग्य से भारत में जिन लोगों के हाथों में सत्ता सूत्र आ गये हैं उनकी
वैटिकन के राष्ट्रपति में ज्यादा आस्था है, भारत के इतिहास, विरासत, आस्था व विश्वासों से कम
। पोप का यही मानना है कि अंतिम मोक्ष तक ले जाने के लिए ईसाई मजहब ही सर्वश्रेष्ठ
है बाकि सब मजहब शैतान के मजहब हैं । सत्ता के उच्च स्थानों पर बैठे हुए कुछ लोग
पोप के इसी एजेंडा को भारत में लागू करना चाहते हैं । चाहे उसके लिए दारा सिंह को
फांसी पर लटकाना पडे, त्रिपुरा के शांति काली जी महाराज और कंधमाल के स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को
उनके ही आश्रम में गोलियों से उडाना पडे । परंतु देश के सर्वोच्च न्यायालय ने
इतिहास के इस मोड पर एक बहुत ही सही और सामयिक चेतावनी दी है । क्या दिल्ली में
कोई सुनने वाला है ?
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