- डॉ0
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह और कश्मीर के इस्लामी आतंकवादियों के ब्यान
लगभग कुछ दिनों के अन्तराल से मानों एक साथ आये। मनमोहन सिंह आतंकवादियों से
कश्मीर का स्वायत्तता पर गंभीर बातचीत के लिये तैयार हैं। उसके तुरन्त बाद इस्लामी
आतंकवादियों ने फरमान जारी कर दिया कि सिक्ख या तो इस्लाम को स्वीकार करें या फिर
कश्मीर घाटी छोड़ दें। मनमोहन सिंह स्वायत्तता का क्या अर्थ लेते हैं, वे तो वही जानते होंगेए
लेकिन पिछले कुछ दशकों से जो लोग कश्मीर घाटी पर नियंत्रण किये हुऐ हैं, उनकी दृष्टि में
स्वायत्तता के क्या मायने हैं, यह उन्होंने इस फरमान के जरिए स्पष्ट कर दिया है।
आखिर मनमोहन सिंह कश्मीर घाटी के लिये जिस स्वायत्तता की बात करना चाहते हैं,
उसकी सीमा रेखाएं
क्या हैं, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। फिलहाल कश्मीर के लिये भारतीय संविधान में धारा
370 है,
इससे अधिक और
स्वायत्तता क्या हो सकती है? कश्मीर का अपना अलग से संविधान है। अपनी अलग नागरिकता है।
संसद का बनाया हुआ कोई भी कानून कश्मीर पर लागू नहीं होता। जम्मू-कश्मीर की
विधानसभा में भी कश्मीरियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से कहीं ज्यादा
प्रतिनिधित्व दिया गया है। जो जम्मू-कश्मीर का नागरिक नहीं है, वह राज्य में बस नहीं
सकता। भारत-विभाजन के बाद पाकिस्तान से आकर जिन लाखों हिन्दू-सिक्खों ने राज्य में
बसेरा बनाया, उनको राज्य की विधानसभा के लिये मतदान करने का साठ साल के बाद भी कोई अधिकार
नहीं हैं। उनके बच्चों को राज्य में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। इससे ज्यादा किस
स्वायत्तता पर मनमोहन सिंह कश्मीर धाटी के इस्लामी आतंकवादियों से बात करना चाहते
हैं?
इस्लामी आतंकवादियों की बात तो छोड़ें, वे तो ‘शायद राज्य को पाकिस्तान के साथ
मिलाने को ही स्वायत्तता का नाम दे रहे हैं, लेकिन कश्मीर घाटी के वे
राजनैतिक दल, जो अपने आप को मुख्य धारा का दल कहते हैं, मसलन नैशनल कान्फ्रैंस और
पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी, भी स्वायत्तता का अर्थ राज्य में 1953 से पहली वाली स्थिति से लेते
हैं। 1953
से पहले वाली स्थिति का अर्थ है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा
जाये, राज्यपाल
को राष्ट्रपति की तर्ज पर सदर-ए-रियासत कहा जाये। प्रदेश को उच्चतम् न्यायालय के
अधिकार क्षेत्र से बाहर किया जाये। प्रदेश में भारत के चुनाव आयोग व महानियंत्रक
का दखल समाप्त किया जाये। कुल मिलाकर केन्द्र का राज्य में दखल केवल रक्षा,
डाकतार, और मुद्रा इत्यादि गिने
चुने क्षेत्रों में ही हो। क्या मनमोहन सिंह कश्मीर घाटी के अलगाववादियों से इस
स्वायत्तता पर बात करना चाहते हैं ?
‘शायद घाटी में इस्लामी आतंकवादियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इसी
प्रस्ताव से उत्साहित होकर बातचीत से पहले घाटी के पूर्ण इस्लामीकरण का अभियान
छेड़ दिया है ताकि बातचीत के अवसर पर विरोध का स्वर सुनाई दे।
उन्होंने घाटी के सिक्खों को अल्टीमेटम दिया है। या तो इस्लाम स्वीकार करो या
फिर कश्मीर छोड़ दो। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि कश्मीर में अब मुसलमानों के
अतिरिक्त केवल सिक्ख ही बचे हैं, जिनकी संख्या साठ हजार के आसपास है। इससे पहले हिन्दुओं को
यह अल्टीमेटम दिया गया था। उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और घाटी छोड़ कर चले
गये। अब यही अल्टीमेटम सिक्खों को दिया गया है। कश्मीर में तलवार के जोर पर इस्लाम
में दीक्षित करने की परम्परा सात आठ सौ सालों से चल रही है। लगभग साढ़े तीन सौ साल
पहले भी कश्मीर में हिन्दुओं को यह अल्टीमेटम दिया गया था। ‘या इस्लाम स्वीकार करो या फिर
३३३.’। तब
वे सहायता के लिये आनन्दपुर में नवम् गुरु श्री तेगबहादुर जी के पास आये थे।
तेगबहादुर जी ने अपना बलिदान देकर उनकी रक्षा की थी। उन्हें दिल्ली के चाँदनी चैक
में ‘शहीद
कर दिया था। लेकिन इस बार जब हिन्दुओं को अल्टीमेटम दिया गया तो कोई तेगबहादुर
उन्हें बचाने बाला नहीे था। अतः उन्होंने कश्मीर छोड़ दिया।
और अब यह अल्टीमेटम सिक्खों को दिया गया है! वे किसके पास जायें? गृहमंत्रंी पी0 चिदम्बरम गला साफ करते
हुए दहाड़ रहे है कि देश को खतरा हिन्दु आतंकवादियों से है और सुरक्षा वलों को
हिन्दु आतंकवाद को समाप्त करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उधर लोक सभा में प्रणव
मुखर्जी दहाड़ते हुये कह रहे थे कि कश्मीर में सभी सिक्खों की रक्षा की जायगी।
उन्हें डरने की जरुरत नहीं है। और इसके लिये वे राज्य के मुख्यमंत्री उमर
अब्दुल्ला का हवाला दे रहे थे। यानि उनका रक्षा का आश्वासन उमर अब्दुल्ला पर
आश्रित है। वे उमर अब्दुल्ला जिनका प्रशासन राज्य के सचिवालय के बाहर कहीं नहीं
है। यदि है तो जम्मू में लोगों पर लाठियां बरसाने भर के लिए है। चिदम्बरम और प्रणव
मुखर्जियों का कुनवा कश्मीर में न हिन्दुओं की रक्षा कर पाया और न ही अब सिक्खों
की कर पायेगा। यह मुखर्जी बाबू भी जानते हैं और सिक्ख भी अच्छी तरह जानते हैं। यह
कुनवा इस्लामी आतंकवाद की मूल अवधारणा को स्वीकार करने के लिये ही तैयार नहीं है
तो सिक्खों की रक्षा क्या कर पायेगा। उनकी प्राथमिकता तो काल्पनिक हिन्दु आतंकवाद
से लडने की है। चिदम्बरमों और मुखर्जियों की धारणा है कि इस्लामी आतंकवादी गुंडों
के गिरोह हैं जिन्हें बल से काबू किया जा सकता है। वे यह नहीं मानते कि इनके पीछे
इस्लाम का पूरा दर्शन और योजना है। यदि केवल कश्मीर की आजादी की बात होती तो
आतंकवादियों का अल्टीमेटम होना चाहिए था या तो कश्मीर की आजादी का नारा लगाओ या
कश्मीर छोड़ो। लेकिन आतंकवादियों ने तीसरा विकल्प दिया है दृ इस्लाम स्वीकार करो।
चिदम्बरम और मुखर्जी बाबू को तो इस्लाम स्वीकार करो में ‘शायद कुछ भी आपत्तिजनक
नहीं दिखाई देता होगा। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तो लोकसभा में सब कुछ
देख रहे थे। क्या अर्थशास्त्र की किताबें पढ़ते पढ़ते वे श्री तेगबहादुर जी के
बलिदान की स्वर्णिम गाथा को भूल चुके हैं या फिर उन्हें उसकी याद है? कहीं वे ऐसा तो नहीं
मानने लगे कि इक्कीसवीं ‘शताब्दी तो वैश्वीकरण की ‘शताब्दी है, इस लिये इसमें ‘इस्लाम स्वीकार करो’
जैसे अल्टीमेटमों
पर माथा पच्ची करने की कोई जरुरत नहीं है। यदि कोई मुसलमान बन भी जाता है तो क्या
फरक पड़ता है। ये तुच्छ प्रश्न हैं जो आज के युग में अप्रासंगिक हो गये हैं।
लेकिन आम आदमी, आम जनता के लिये ये प्रश्न अभी भी प्राथमिक हैं, तुच्छ प्रश्न नहीं हैं। इसीलिये
अकाली दल के सांसद अजनाला के श्री रतन सिंह ने लोक सभा में पंजाब के इतिहास को
उद्धृत करते हुये सिंह गर्जना की कि कश्मीर घाटी में सिक्ख मर जायेंगे लेकिन
इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे। कश्मीर में इस्लाम में मतान्तरण का अभियान बहुत लम्बे
अरसे से चला हुआ है। सिक्खों को दिया गया अल्टीमेटम इस अभियान का अंतिम अध्याय है।
लेकिन इतिहास गवाह है इस्लाम के लिये यह अंतिम अध्याय ही सर्वाधिक कठिन चुनौती
बनने वाला है। इतिहास यह भी लिखेगा कि जब इस अध्याय के रक्त रंजित पन्ने लिखे जा
रहे थे तो दिल्ली की सल्तनत पर कोई औरंगजेब नहीं बल्कि मनमोहन सिंह विराजमान थे।
लेकिन सिक्खों को जारी इस फरमान को लेकर राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व
गिलानी जैसे राजनीतिज्ञों की ओर से जो स्पष्टीकरण आ रहे हैं वे चैंकाने वाले हैं।
उनका कहना है कि घाटी में इस प्रकार का फरमान जारी करने वाले ‘शरारती तत्व हैं,
सिक्खों को डरने
की कोई जरूरत नहीं है। अब पिछले चालीस सालों में घाटी में जो कुछ हो रहा है,
वह यही ‘शरारती तत्व ही तो करवा
रहे हैं। इन ‘शरारती तत्वों ने सारी घाटी को अशान्त कर रखा है, प्रशासन को बन्धक बना रखा है।
सरकार खुद इन ‘शरारती तत्वों से घबराती है और मनमोहन सिंह इन ‘शरारती तत्वों से स्वायत्तता
जैसे गंभीर मसले पर बातचीत करने को तैयार हैं। सिक्खों को नसीहत दी जा रही है कि
इन ‘शरारती
तत्वों से डरने की जरूरत नहीं है। यह फरमान ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ वाला ‘शोर नहीं है।
दरअसल भेडि़या आ चुका है और उमर अब्दुल्ला सिक्खों से आग्रह कर रहे हैं कि इसे
देखो मत। आँखें बन्द कर लो। भय समाप्त हो जायगा। उमर अब्दुल्ला की दिक्कत यह है कि
वे स्वयं भेडि़ये को पकड़ नहीं सकते और मनमोहन सिंह इस भेडि़ये से स्वायत्तता पर
बात करना चाहते हैं।
सिक्ख भेडि़ये से डर जायेंगे ऐसा नहीं है। पंजाब का इतिहास ही इसकी साक्षी देता
है। वे डर से इस्लाम स्वीकार कर लेंगे इसकी सम्भावना भी नहीं है। वे कश्मीर घाटी
छोड़ देंगे यह भी संभव नहीं है। लेकिन इस्लाम आतंकवादियों के फरमान के परिणाम घातक
हो सकते हैं दृ जैसे कि पंजाब के मुख्यमंत्री श्री प्रकाश सिंह बादल ने संकेत दिया
है।
क्या मनमोहन सिंह स्वायत्तता का राग बन्द करके आतंकवादियों के इस फरमान की ओर
ध्यान देंगे? घाटी के सिक्ख तो फिर भी अपनी रक्षा कर ही लेंगे लेकिन इतिहास मनमोहन सिंह को
माफ नहीं करेगा!
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