: डा. कुलदीप चन्द
अग्निहोत्री
पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच शंकर देव और तदोपरांत उनके शिष्य माधव
देव ने पूरे पूर्वाेŸार में वैष्णव क्ति की ऐसी पावन सलिला प्रवाहित की थी जिसने अरुणाचल प्रदेश,
नागालैंड और
मेघालय जैसे सीमांत क्षेत्रों को ी अपनी रस धारा से आप्लावित कर दिया था। पूर्वाेŸार के पर्वतीय क्षेत्रों
में पूरे देश की तरह प्रकृति के अनेक रूपों की उपासना होती है। श्रीमंत शंकर देव
के नाम घरों में ी केवल नाम का ही उद्घोष होता हैऔर उसी नाम से उस सर्वशक्तिमान
से संपर्क साधा जाता है। वैसे ी ईश्वर से संपर्क करने के लिए प्रकृति से बड़ा
माध्यम और क्या हो सकता है? शंकर देव ने इसमें वैष्णव तत्व को समाहित कर अहिंसा और करूणा
जैसे मानवीय गुणों का प्रचार प्रसार किया। यह आंदोलन पर्वतीय क्षेत्रों में इतना
फैला की गांव-गांव में नाम घरों की स्थापना हुईऔर इस आंदोलन को व्यवस्थित करने के
लिए और इसकी सामाजिक चेतना को देखते हुए सत्रों की स्थापना ी की गई। जो वििन्न
सत्रों के स्वामी हुए वे सत्राधिकार कहलाए और इस सत्राधिकार प्रणाली ने इन पर्वतीय
क्षेत्रों में आंतरिक एकता के सूत्र स्थापित किए। धीरे-धीरे सत्र दर्शन, सत्र नृत्य, सत्र साहित्य, सत्र व्यवस्था, सत्र कला ी विकसित हुई।
लेकिन इन सी का आधार क्ति ही रहा। संपूर्ण ारत वर्ष के मध्यकालीन क्ति आंदोलन
में पूर्वाेŸार के इस शंकर देव आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन दुर्ाग्य से क्ति
आंदोलन में पंजाब, राजस्थान, उŸार
प्रदेश, बिहार,
महाराष्ट्र,
गुजरात और जहां तक
की उड़ीसा, बंगाल तक की चर्चा होती है, उसमें असम के इस सत्र आंदोलन का उल्लेख प्रायः नहीं होता।
कालांतर में सत्र आंदोलन का प्राव और क्षेत्र दोनों ही सिकुड़ते गए। सत्रों
की संख्या तो बढ़ी, जो अब 700 के आस-पास पहुँच गई है लेकिन उनकी रस धारा मंद होती गई। ब्रह्मपुत्र में
स्थित माजुली में चार बड़े सत्राधिकार रहते हैं, लेकिन 1960 के आस-पास ी स्थिति यह थी कि
माजुली में रहते हुए ी उन में की अंतरसंवाद नहीं हुआ था। कालांतर में जब विश्व
हिन्दू परिषद ने असम प्रदेश में अपना सम्मेलन किया और परिषद के महासचिव दादा साहेब
आपटे उन चारों को सम्मेलन में लाने के लिए प्रयास करने लगे तो उन्हें यह जानकर
आश्चर्य ही हुआ कि सत्राधिकारों का एक दूसरे से परिचय ी कम ही है। जैसे-जैसे
सत्राधिकार सत्रों के ीतर सिमटते गए वैसे-वैसे इन पर्वतीय क्षेत्रों में चर्च के
पांव पसरते गए। परंतु दुर्ाग्य से चर्च न प्रकृति पूजा का समर्थक है और न ही क्ति
के अनेक रूपों की अनुमति देता है। वह ईश्वर और क्त के बीच एक एजेंट की अवधारणा पर
आधारित है। जबकि शंकरदेव का आंदोलन ईश्वर और क्त के बीच किसी मध्यस्थ की ूमिका
को स्वीकार नहीं करता और इसीलिए यह पर्वतीय जातियों की प्रकृति और अवधारणा दोनों
के ही अनुकूल है। इसलिए चर्च के प्रसार से पर्वतीय क्षेत्रों में अराजकता फैलने
लगी।
पिछले कुछ अरसे से सत्राधिकारों ने अपनी इस सामाजिक ूमिका को नए सिरे से
पहचाना हैऔर संवाद रचना के नए सेतुओं का निर्माण किया है। गुवाहाटी के दीपक
बड़ठाकुर का जब दिल्ली में मुझे फोन आया कि विवेकानंद केन्द्र राजधानी में सत्र
दर्शन पर दो दिवसीय (25-26 नवंबर 2006) विचार गोष्ठी का आयोजन कर रहा है, तो मेरे लिए यह सुखद
आश्चर्य था। उन्होंने बताया कि इस गोष्ठी में माजुली के चारों मुख्य सत्राधिकार ी
उपस्थित रहेंगे। जो सत्राधिकार माजुली में रहते हुए ी अपरिचित थे, वे चारों ब्रह्मपुत्र को
पार करके गंगा यमुना के मैदानों में इन्द्रप्रस्थ में यमुना के तट पर सत्र दर्शन
के लिए एकत्रित हो रहे हैं- ऐसा समाचार पाकर मुझे लगा ारत माता का ाग्य उदित हो
रहा है। ऊपर से देखने पर यह घटना महत्वहीन लग सकती है और यह विचारगोष्ठी ी दिल्ली
में होने वाली और अन्य विचार गोष्ठियों जैसे दिखाई दे सकती है लेकिन थोड़ा ीतर
झांकने पर इस संवाद रचना का महत्व सहज ही समझ में आ सकता है। ारत को जोड़ने के
लिए अंततः वही उपादान काम में आ रहे हैं जिन्होंने की पूर्व से पश्चिम तक उŸार से दक्षिण तक सारी ारत
ूमि को अपने पैरों से नाप डाला थाऔर संपूर्ण ारत की एकता की ध्वजा चारों कोनों
में फहराई थी। जब यह यात्रा मंद हुई तो एकता के सूत्रों पर तनाव बढ़ने लगा। यह
तनाव उन विदेशी शक्तियों का था जो ारत की एकता को छिन्न-िन्न करना चाहते हैं। अब
इस यात्रा में पुनः गति आ रही है। जाहिर है इस संवाद से आंतरिक एकता के तंतु ी
संपुष्ट होंगे। ब्रह्म पुत्र के किनारों पर दिया गया श्रीमंत शंकर देव का क्ति का
यह संदेश जब यमुना के किनारों पर गूंजेगा तो उस स्वर लहरी से किसका हृदय प्रसन्न
नहीं होगा? दीपक बड़ठाकुर इसके लिए बधाई के पात्र है कि उन्होंने इस राष्ट्रीय महायज्ञ की
रचना की है। परंतु इसमें एक सावधानी ी निहायत जरूरी है । देश में संवाद रचना के
लिए ारतीय ाषाओं का प्रयोग ही करना होगाक्योंकि ारतीयों में संवाद की ाषा ारतीय
ाषाएं ही हो सकती हैं। विदेशी ाषा में संवाद रचना से जो सेतु बनेंगे, उन पर दीर्घकाल के लिए रोसा
नहीं किया जा सकता ।
(हिन्दुस्थान समाचार)
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