: डा. कुलदीप
अग्निहोत्री
दिनांक: 4 जुलाई 2007
स्थान: नई दिल्ली
चीन ने पिछले कुछ अरसे से अरुणाचल प्रदेश को लेकर अपना आंदोलन तेज कर दिया है।
वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा तो जता ही रहा है, इसके साथ ही उसने अरुणाचल प्रदेश
में एक मनोवैज्ञानिक युद्ध ी छेड़ दिया है। ज्यों-ज्यों चीन का मनोवैज्ञानिक
युद्ध तेज होता जा रहा है त्यों-त्यों अरुणाचल को लेकर ारत सरकार की पराजय नीति
की परतें ी खुलने लगी हैं। वैसे तो अरुणाचल पर चीन के दावे का मुंह तोड़ जवाब ारत
सरकार ने की नहीं दिया लेकिन अब लगता है कि इस मुद्दे पर ारत सरकार की पराजय
नीति की परतें ी धीरे-धीरे खुल रही है। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी का एक वक्तव्य
पिछले दिनों देशर के मीडिया में प्रसारित किया गया है। प्रणव मुखर्जी ने अरुणाचल
प्रदेश की स्थिति को स्पष्ट किया है ।
उन्होंने कहा है कि अरुणाचल प्रदेश चीन को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि संविधान इसकी
अनुमति नहीं दे सकता। इससे ी आगे अरुणाचल प्रदेश से दो सदस्य ारतीय लोकसा के
लिए जनप्रतिनिधि के तौर पर चुने जाते हैं। अरुणाचल प्रदेश चीन को दिए जाने के
रास्ते में यह ी सबसे बड़ी बाधा है। प्रणव मुखर्जी का ऐसा ी कहना है कि यह
स्थिति केवल कांग्रेस सरकार के लिए नहीं है । किसी और दल की सरकार ी आ जाती है तब
ी संविधान के उपबंधों के चलते अरुणाचल प्रदेश चीन के हवाले नहीं किया जा सकता।
प्रणव दा ने ये सारी बातें चीन के विदेशमंत्री को ी बता दी हैं। चीन क्योंकि
कम्युनिस्ट देश है इसलिए वह संविधान वगैरह की बातें कितना समझ पाया कितना नहीं,
इसे तो चीनी नेता
ही जानते होंगे। लेकिन प्रणव दा ने पूरी ईमानदारी से अरुणाचल प्रदेश के मामले में ारतीय
कठिनाइयों से चीन सरकार को अवगत कराने का प्रयास किया है।
अब यदि ारतीय विदेश मंत्री के इस बुद्धिमतापूर्ण वक्तव्य का कूटनीतिक
विश्लेषण किया जाए तो दो-तीन बातें अत्यंत स्पष्ट होती है।
1ण् अरुणाचल प्रदेश चीन को देने के
मामले में ारत सरकार के सामने सबसे बड़ी कठिनाई ारतीय संविधान है।
2ण् यह ऐसी कठिनाई है जिससे निकट विष्य
में कोई ी राजनैतिक दल पार नहीं पा सकता।
3ण् चीन क्योंकि ारत सरकार की दृष्टि
में ारत का मित्र देश है इसलिए उसे ारत सरकार की यह कठिनाई सहानुूति से समझनी
चाहिए।
अरुणाचल प्रदेश को लेकर ारत सरकार के इसी पराजित और लचर रवैय्ये के कारण
अरुणाचल प्रदेश के लोगों के मन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनता जा रहा है। अरुणाचल
प्रदेश के लोग इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि वे ारत का अंग है। वहां के
मुख्यमंत्री खांडु दोरजी बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि अरुणाचल प्रदेश के लोग ारत
की सीमा की रक्षा के लिए अपनी जान तक लड़ा देंगे। लेकिन दुर्ाग्य से ारत के
विदेशमंत्री अरुणाचल प्रदेश पर चीनी दावे को लेकर ारतीय संविधान के कारण
क्षमाप्रार्थी की मुद्रा में नजर आ रहे हैं। उनका स्वर कुछ इस प्रकार का है- कि ाई
साहब हम क्या करें ? हम तो अरुणाचल प्रदेश कल ही आपके हवाले कर देते मगर यह संविधान कमबख्त रास्ते
का रोड़ा बना हुआ है। अलबŸाा इस बात के लिए प्रणव मुखर्जी की दाद देनी पड़ेगी कि
उन्होंने चीन के विदेश मंत्री को हिम्मत से यह जरूर बता दिया है कि इस देश में इस
रोड़े को हटाने की ताकत न कांग्रेस में है न किसी दूसरे दल में। ारत की सीमाओं की
रक्षा यदि शत्रु के सामने क्षमा प्रार्थी की मुद्रा में की जाएगी तो उसका क्या
अंजाम हो सकता है यह देश ने चीन और पाकिस्तान के साथ लगती ारतीय सीमा के निरंतर
सिकुड़ने से देख ही लिया है।
प्रणव मुखर्जी का चीन के समक्ष क्षमायाचना वाला यह स्पष्टीकरण अी ठंडा नहीं
हुआ था कि अमेरिका की खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. ने अपने 30 साल से ी पुराने दस्तावेज
सार्वजनिक कर दिए हैं। अमेरिका सरकार की यह खूबी है कि वह अपने 30 साल पुराने कारनामों को
सार्वजनिक रूप से जग जाहिर करता है। बताते है वहां ऐसा कानून है। इससे अमेरिका को
दो ला होते हैं । एक तो उसका लोकतांत्रिक चेहरे का पाखंड बचा रहता है दूसरा वह
अप्रत्यक्ष रूप से दुनिया को अपनी बदमाशी के कार्यों की सूचना दे देता है ताकि विष्य
में वे देश अमेरिका से बातचीत करते हुए सावधान रहें। इन दस्तावेजों में ारत चीन
युद्ध से लेकर अमेरिका द्वारा क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल काóो को मारने के
षड़यंत्रों का विवरण दिया हुआ है। हमारा वास्ता केवल ारत चीन के संबंधों को लेकर
है। इन दस्तावेजों के अनुसार चीन शुरू से ही ारतीय इलाके पर कब्जे की योजना बना
रहा थाऔर ारतीय सीमा पर आक्रमण के लिए ी वह कटिबद्ध था। इसके लिए चीन सरकार नेहरू को मुगालते में रखती
रही और दुर्ाग्य से नेहरू उसी प्रकार मुगालते में आते रहे जिस प्रकार आज प्रणव
मुखर्जी और नटवर सिंह जैसे लोग आ रहे हैं। नेहरू तिब्बत को लेकर और एक प्रकार से ारतीय
सीमा को लेकर ी चीन के समक्ष क्षमा याचक की मुद्रा में प्रस्तुत होते रहे। लेकिन
चीन इतना शातिर देश है कि वह उस वक्त नेहरू से ऐसा व्यवहार करता रहा जैसे वह नेहरू
को विश्व स्तर का, विशेषकर एशिया का मार्गदर्शक स्वीकार करता हो। नेहरू को इस ्रम में डालकर चीन
अपनी तैयारी करता रहा और जब चीन को लगा कि अब नेहरू का ्रम तोड़ने की जरूरत आ गई
है और एशिया के नेता के रूप में चीन का दावा सार्वजनिक करने का वक्त आ गया है तो
उसने 1962
में ारत पर आक्रमण कर दिया।
सी.आई.ए. ने जो दस्तावेज सार्वजनिक किए हैं उससे यह ी प्रमाण मिलते हैं कि
चीन अरुणाचल प्रदेश पर केवल इसलिए दावा कर रहा था कि वह यह दावा छोड़ने के एवेज
में अक्साई चिन पर अपने दावे की ारतीय स्वीकृति चाहता था और इन दस्तावेजों से यह ी
प्रमाण मिलते हैं कि नेहरू इसके लिए तैयार हो गए थे। अब चीन 2007 में ी वही पुराना खेल
खेल रहा है। अक्साई चिन चीन के लिए सामरिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है
और ारत के लिए तो उससे ी महत्वपूर्ण है। ारत और चीन की जो वार्ता चल रही है,
जानकार लोगों का
कहना है कि ारत सरकार अक्साई चिन पर अपना दावा छोड़ सकती है और ारतीयों को खुश
करनेे के लिए वह यह कह सकती है कि चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ दिया
है। विदेश मंत्रालय में ारत चीन सीमा विवाद को ले देकर सुलझाने का सूत्र यही
बताया जा रहा है। इसमें चीन को केवल मौखिक और कागजी खानापूरी करनी है और ारत को ारत
माता का अंग ंग कर उसे चीनी ड्रैगन के हवाले करना है।
लेकिन चीन इतने से ही संतुष्ट नहीं है। वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ने
से पहले मनोवैज्ञानिक रूप से अरुणाचलियों को बता देना चाहता है कि तुम तो अपने
आपको ारतीय कहते थकते नहीं लेकिन ारत सरकार तुम्हारी केवल इतनी चिंता करती है।
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में कम्युनिस्टों की ूमिका सबसे ज्यादा संदेहास्पद है
क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप से कम्युनिस्ट ही ारत सरकार को चला रहे हैं। वे 1942 में अंग्रेजों के साथ
थे, 1962
में चीन के साथ थे और आज 2007 में वे इस पूरी लड़ाई में किसके साथ हैं? ारत के या चीन के? सीता राम येचुरी को की न की तो इसका जवाब देना ही पड़ेगा।
कम्युनिस्ट ही प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाए जाने की सबसे ज्यादा वकालत कर रहे
थे। अरुणाचल प्रदेश को लेकर प्रणव मुखर्जी ने यह बयान इस वकालत से पहले दिया था या
बाद में इसकी खोज करना ी जरूरी है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
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