Tuesday, 14 January 2014

अनुसूचित जाति समाज को छोड़ कर चले गए लोगों को आरक्षण देने का प्रश्न


- डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
जाति व्यवस्था ारतीय समाज अथवा हिन्दू समाज की आधारूत संरचना में निहित है। इस व्यवस्था के गुण और दोषों पर लंबे अरसे से बहस होती रही है और अब ी हो रही है। कई दफा ऐसा ी होता है कि कोई व्यवस्था किसी समय लादायक और समाज के लिए उपयोगी होती है लेकिन काल प्रवाह में उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है और वह फालतु बोझ बन जाती है। बाज मामलों में ऐसा ी होता है कि वह व्यवस्था केवल बोझ ही नहीं बल्कि समाज की आंतरिक संरचना को खोखला ी करने लगती है। जाति व्यवस्था को लेकर यह तीनों स्थितियां समय-समय पर देखी जा सकती है। इस्लामी आक्रमणों के समय जाति व्यवस्था ने इस देश के लोगों का मजहब परिवर्तन होने से बचाया । ारत हजार वर्ष की इस्लामी गुलामी के बाद ी ारत ही बना रहा। यह व्यवस्था दुनिया के अन्य देशों जिन्होंने इस्लाम अथवा ईसाई देशों के आक्रमणों को झेला है उनकी दिखाई नहीं देती। दुनिया के अधिकांश देश इस्लाम के पहले हल्ले में ही दम तोड़ गए और अपनी संस्कृति, इतिहास और विरासत को छोड़कर उन्होंने नई संस्कृति, नई विरासत और नए इतिहास को ग्रहण कर लिया । उसके बाद इस्लामी आक्रमणों के काल में ी कमोवेश यही स्थिति रही। यही कारण था कि अग्निदेवता की पूजा करने वाला और नित्य प्रति या करने वाला संपूर्ण ईरानी समाज केवल मात्र तीस सालों में ही अपने इतिहास और विरासत पर लानत ेजने लगा और उसने अरबों का इस्लामी चोला धारण कर लिया । संपूर्ण मध्य एशिया, जिसमें की बुद्धम् शरणम् गच्छामि का मंत्र गूंजता था, वह कुछ दशकों में ही इस्लामी आक्रमण की आंधी से दम घुटने के कारण दम तोड़ गया।
ारत ने लगग आठ शताब्दियों तक इस्लाम के आक्रणों का मुकाबला किया । यह काल पराजय का काल ी था और संघर्ष का काल ी था। इसके बाद लगग दो सौ साल तक ईसाई देशों के आक्रमण का मुकाबला किया। लेकिन इसके बावजूद ारत अपनी परंपरा, इतिहास, संस्कृति और विरासत से जुड़ा रहा । सूत्र रूप में से कहना हो तो प्राचीनता में निरंतरता विद्यमान रही। ारत सचमुच ारत ही बना रहा। मोहम्मद इकबाल ने जब लिखा होगा-
यूनान मिश्र रोमा मिट गए जहां से ।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। ।
तो जिस बात के कारण हमारी हस्ती न तो मिटती है और न आजतक मिटी है, उस बात में जाति का ी महत्वपूर्ण योगदान रहा क्योंकि जाति एक प्रकार की बिरादरी बन गई और जो उस बिरादरी को छोड़कर बाहर जाकर इस्लामपंथी अथवा ईसाईपंथी बना उसको बिरादरी ने बाहर का दरवाजा दिखला दिया। उन दिनों बिरादरी से बाहर हो जाने का अर्थ जीवन का दुर हो जाना ही था। मौलाना हाली ने ी लिखा था-
वो दिने इलाही को बेबाग बेड़ा
किए पार जिसने थे सातों समंद्र
वो डूबा दहाने में गंगा के आकर
पूरब-पश्चिम, Ÿार-दक्षिण और सातों समुद्रों को जीतने वाला इस्लाम का बेड़ा आखिर गंगा के दहाने में आकर क्यों डूब गया? मोहम्मद इकबाल और हाली इसका कारण  समझा पाए हो या न हो लेकिन कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है।  इस दहाने में जाति व्यवस्था के ऐसे गड्ढे थे जिसमें से इस बेड़े का निकलना दुश्वार हो गया थ।
लेकिन धीरे-धीरे यह जाति व्यवस्था अपनी उपयोगिता खोने लगी और इस देश का वास्ता पश्चिमी देशों के इस्लामी आक्रमणों से हुआ। इस्लाम के हाथ में तलवार थी और पश्चिमी देशों के ईसाई आक्रणकारियों के हराबुल दास्ता ें रूप में चर्च चल रहा था जिसके हाथ में तलवार तो नहीं थी लेकिन सेवा का पाखंड और ढाल थी। जिसको आगे करके वह इस देश के लोगों का ईसाई पंथ में परिवर्तन करवाने लगा। अब की बार अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था को अपने पक्ष में उपयोग करने की कुटिल  नीति का सहारा लिया। उन्होंने एक लंबी योजना के अंतर्गत जातियों में विषमता उत्पन्न करने का अियान चलाया। इसका अर्थ यह नहीं कि वििन्न जातियों में वैमनस्य नहीं था। लेकिन अंग्रेजों ने उस वैमनस्य को आगे बढ़ाया। जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने में महत्वपूर्ण ूमिका निाई । जात वैमनस्य को बढ़ाने में अंग्रेजों की ूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही है। इसका उदाहरण ब्रिटिश इंडिध्या और रियासती ारत के सामाजिक विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है। हिमाचल प्रदेश का नीचे का हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के अंतर्गत वहां जाति वैमनस्य स्पष्ट देखा जा सकता है। केवल तथाकथित कुछ और निम्न जातियों में ही नहीं बल्कि ब्राह्मण और राजपूत जैसी जातियों में ी। इसके विपरीत रियासिती हिमाचल में जहां सŸाा रियासती राजाओं की थी। जातिगत वैमनस्य बहुत कम देखने को मिलता है। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि राजाओं की सŸाा जातियों समीकरण पर निर्र नहीं थी जबकि अंग्रेजों की सŸाा के बने रहने के लिए अनिवार्य था कि वििन्न जातियों के लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया जाए। अंग्रेज सरकार ने ारत की अनेक जातियों में से कुछ जातियों को सूचीबद्ध करके उन्हें राजपत्र में अनुसूचित कर दिया। ये जातियां अनुसूचित जातियां कहलाई जाने लगी। अंग्रेजों का मानना था कि इन जातियों से जन्मगत कारणों के कारण ेदाव किया जाता है और अनेक जातियों के साथ तो अस्पृश्यता का व्यवहार ी किया जाता है। उनका यह नया सिद्धांत कुछ तथ्य पर कुछ कल्पना पर आधारित था। परंतु इसको आधार बनाकर चर्च ने इस प्रकार अनुसूचित घोषित की गई जातियों के लोगों को जातिविहीन समाज का सपना दिखाया। वास्तव में यह लुावना सपना था। एक ऐसे समाज की कल्पना जिसमें न कोई जाति हो और न ही किसी विशेष जाति में जन्म लेने के कारण ेदाव का शिकार होना पड़े। जिसमें जन्म से चिपका हुआ जाति का नकारात्मक बोझ हट जाए और मनुष्य को विकास का समान अवसर उपलब्ध हो जाए ।
 ईसाईपंथी और इस्लामपंथी दोनों ही इस अियान में सक्रिय हुए । जातिेद के कारण, जो कुछ सीमा तक यथार्थ में विद्यमान था और कुछ सीमा तक अंग्रेजों ने उसे योजनापूर्ण ढंग से आगे बढ़ाया था, कुछ लोग इस्लाम, इस्लामी समाज और ईसाई समाज की ओर आकर्षित हुए और उन्होंने अपना मजहब परिवर्तित कर लिया । मजहब परिवर्तन का यह अियान तेजी से अंग्रेजी शासन काल में चलने लगा। उनका सारा जोर अनुसूचित जात के लोगों या फिर अनुसूचित जनजाति के लोगों पर ही रहा। लेकिन चर्च के दुर्ाग्य से 1947 में अंग्रेजों को अपना बोरिया बिस्तरा गोल करके यहां से कूच करना पड़ा। उनके सामने बड़ा प्रश्न था कि सŸाा का हस्तांतरण किसको किया जाए? जाहिर था कि अंग्रेज उनको ही सŸाा सौपेंगे जो उनके जाने के बाद ी सांस्कृतिक, शैखिक और मजहबी क्षेत्रों में उनकी नीतियों को जारी रखेंगे। शायद इसीलिए लार्ड माउन्टबेटन ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को सŸाा सौंपने की लाजवाब योजना बनाई ।
Ÿाा हस्तांतरण के बाद ारत के लिए नया संविधान बनाने की जरूरत बनी तो उसमें स्पष्ट ही दो विचारधाराओं का का स्पष्ट टकराव देखा जा सकता है। एक विचारधारा ऐसी थी जो पंथ निरपेक्षता के नाम पर ारत में चर्च को ईसाईकरण की खुली छुट देने की पक्षधर थी। इसलिए संविधान में यह प्रयास किया गया कि ऐसे प्रावधान रखें जाए जिनके अंतर्गत चर्च को पंथ परिवर्तन की खुली छुट मिली रहे। इस मरहले पर डा0 बाबासाहब अंबेडकर का ध्यान आता हैै । हिन्दू समाज के प्रताडि़त वर्ग के लिए कुछ सुविधाओं का प्रावधान किया जाए । यह सी की इच्छा थी इसलिए जिन जातियों को अंग्रेजों ने अनुसूचित जातियों के वर्ग में रखा था उनके लिए सरकारी नौकरियों में और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया जाए ऐसी व्यवस्था संविधान में की गई। डा0 अंबेडकर स्वयं ी इस जाति व्यवस्था से दुखी थे। वे स्वयं महार जाति के थे इसलिए जाति ेद और उसका दर्द क्या होता इसे उनसे अच्छी तरह कौन जा सकता था? इन्हीं परिस्थितियों में उन्हांेने हिन्दू व्यवस्था से निकलने का विचार किया।  उनके इस विचार की नक लगते ही इस्लाम और ईसाइयत के पैरोकार उनके पास दौड़े। वे उन्हें मुसलमान या ईसाई बनने का निवेदन कर रहे थे और उनका सबसे बड़ा तर्क यही था कि आप जाति व्यवस्था से दुखी है। इस्लाम समाज या ईसाई समाज जातिविहीन समाज है। ऐसा प्रलोन दक्षिणी अफ्रीका में चर्च ने एक बार महात्मा गांधी को ी दिया था। गांधी जी ने चर्च को लताड़ा ही नहीं था बल्कि यहां तक कहा कि ईसा मसीह यदि कहीं है तो वह चर्च के अतिरिक्त कहीं ी हो सकता है। अंबेडकर पंथ परिवर्तन के पीछे के छिपे हुए दुष्परिणामों से अच्छी तरह वाकिफ थे वे जानते थे कि पंथ परिवर्तन अंततः राष्ट्रांतरण की ओर ले जाता है। इसलिए उन्होंने इस्लाम के पेरोकारों और चर्च को स्पष्ट इंकार कर दिया। वे बुद्ध की शरण में चले गए। उनका मानना था कि बुद्ध वचनों का उद्गम ारत ूमि ही है इसलिए बुद्ध की शरण में जाने से ारतीय एकता और ी सशक्त होती है। उस समय चर्च ने अंबेडकर को अपना सबसे बड़ा विरोधी  विरोधी घोषित किया था। लेकिन नेहरू के साथ ज्यादा देर न अंबेडकर टिक पाए, न डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी। गोबिंद वल्ल पंथ और पुरूषोŸाम दास टंडन की क्या गत बनी इसे सी जानते है। चर्च नेहरू के समयम से ही ईसाईकरण की प्रक्रिया में लगा हुआ है। आश्चर्य की बात तो यह है कि चर्च के पक्ष में इतना पंथ परिवर्तन अंग्रेजों के समय में नहीं हुआ जितना पंडित नेहरू द्वारा सŸाा संालने से लेकर अब तक के काल में हो गया है।

लेकिन अी ी चर्च के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बाबा साहब अंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान वे प्रावधान है, जो अनुसूचित जातियों की बिरादरी को छोड़कर इस्लामी अथवा ईसाई बिरादरी में गए लोगों को आरक्षण का निषेध करते हैं। विदेशों से अरबों रूपया आने के बावजूद अी तक पूरा ारत या फिर कम से कम अनुसूचित जाति के सी लोग ईसाई क्यों नहीं बने, यह चर्च के लिए आश्चर्य का विषय है। इसलिए चर्च ने अब एक नई रणनीति इजाद की है। यदि अनुसूचित जाति के लोगों को इस्लामी समाज या ईसाई समाज में शामिल हो जाने के बाद ी सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में दलित लोगों के लिए आरक्षित स्थानों में हिस्सेदारी दे दी जाए तो चर्च को विश्वास है ईसाईकरण की प्रक्रिया तेज हो सकती है। लेकिन चर्च यह लड़ाई अकेले नहीं लड़ सकता। इसलिए उसने मस्जिद को ी साथ लिया है। आश्चर्य है कि शेष दुनिया में इस्लाम और ईसाइयत आमने-सामने है लेकिन ारत को कनवर्टकरने के मामले में दोनों साथ हो जाते हैं। 2004 में सोनिया गांधी के नियंत्रण वाली सरकार बन जाने के बाद चर्च को लगा कि इससे बढि़या मौका ारत में पंख फैलाने के लिए और नहीं मिल सकता। यदि अनुसूचित जातियों में से ईसाई और मुसलमान बने लोगों को पंथ परिवर्तन के बाद ी आरक्षण की सुविधा बरकरार रहें तो स्वाविक ही विदेशी धन बल के आधार पर पंथ परिवर्तन कर प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है। इस मोड़ पर ारत सरकार चर्च की सहायता के लिए आगे आई । मार्च 2005 में ारत सरकार ने मजहबी और ाषाई अल्पसंख्यकों में सामाजिक और आर्थिक ॰ष्टि से पिछड़े वर्ग हेतु राष्ट्रीय आयोगकी स्थापना की। इस आयोग का अध्यक्ष उड़ीसा के रंगनाथ मिश्र को बनाया गया। ये वही रंगनाथ मिश्र हैै जो की उच्चतम न्यायालय के मुख्यन्यायधीश रहे और वहां से रिटायर हो जाने के बाद केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने उन्हें राज्यसा का सदस्य बनाया । आयोग के एक अन्य सदस्य डा0 ताहिर महमूद, जो की दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों को कानून की पढ़ाई करवाते थे। एक तीसरे सदस्य दिल्ली में चर्च द्वारा चलाए जा रहे एक काॅलेज के प्रिंसीपल थे और इसे दुर्याेग ही कहना की आयोग की रपट लिखने के तुरंत बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया गया। पर्दा ी बना रहे और काम ी होता रहे इसलिए सरकार ने इस आयोग से सीधे-सीधे पंथ परिवर्तित लोगों को आरक्षण देने का सुझाव तो नहीं मांगा बल्कि यह कहा कि मजहबी और ाषाई अल्पसंख्यक लोगों में से सामाजिक और आर्थिक ॰ष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान कैसे की जाए? पहचान के बाद उनके कल्याण के लिए कौन से कदम उठाए जाए और यदि ये कदम उठाने के लिए संविधान में संशोधन ी करना पड़े तो कहां-कहां संशोधन किया जाना चाहिए। 

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