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डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
किसी ी संस्कृति अथवा राष्ट्र के लिए
उसके प्रतीक अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। वास्तव में प्रतीक किसी राष्ट्र की अस्मिता और पहचान बन जाते हैं। इन प्रतीकों के
नष्ट होने से अथवा उनके प्रति श्रद्धा ाव
का ह्यास होने से राष्ट्र की पहचान धुंधली
होने लगती है और राष्ट्रीयता का स्वरूप बदलने लगता है। आधुनिक युग में किसी दूसरे देश
पर आक्रमण करने का तौर तरीका धीरे-धीरे बदल रहा है। पुराने युग में किसी राष्ट्र को परास्त करने के लिए विरोधी उसे सेना बल से कुचलते
थे और राष्ट्रांतरण के लिए शारीरिक बल से ही मतांतरण के लिए विवश करते थे। लेकिन, आधुनिक युग में जब से पश्चिमी शक्तियों का विश्व की राजनीति
में बोल बाला बढा है तब से उन्होंने अपने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के प्रसार के लिए
उसके तौर तरीके ी बदल दिए हैं। अब मतान्तरण के लिए छलकपट और लो का प्रयोग किया जाता
है और राष्ट्र अंतरण के लिए किसी ी देश के
प्रतीकों को धीरे-धीरे लाछित किया जाता है।
अति प्राचीन काल से ारत की पहचान के बाह्य प्रतीकों में से संतों का और मंदिरों
का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वास्तव में याजा बरी साधु संत इस देश की राष्ट्रीय
एकता और मेरूदण्ड रहे हैं। मध्य एशिया के सुदूर वाकु तक में पंजाब का कोई साधु ज्वाला
माई का धूणा रमा कर बैठा रहा है और मंदिर की दीवारों पर पंजाबी में कोयले से ज्वाला
माई के जन लिखता रहा है। यह शंकर देव और उनके शिष्य माधव देव ही थे जो सुदूर नगा प्रदेश
में वहां के नगाओं को वैष्णव क्ति से सराबोर कर रहे थे। आधुनिक युग में जब ारत सरकार
ने पंथ निरपेक्षता के नाम पर अपने आपको ारतीय संस्कृति, उसकी अस्मिता विरासत और पहचान से वैधानिक तौर पर असंबंधित
घोषित कर दिया है तो यह साधु संत ही हैं जो बिना किसी राजकीय सहायता और प्रोत्साहन
से ही यूरोप, अमेरिका और आस्ट-ेलिया जैसे
सुदूर महाद्वीपों में ारतीय अथवा हिन्दु संस्कृति का प्रसार ही नहीं कर रहे बल्कि
इसके मानव मूल्यों से वहां की अशांत तनावग्रस्त जनता को जीने का एक नया मकसद ी प्रदान
कर रहे हैं। महेश योगी, ओशो रजनीश स्वामी प्रुपााद
स्वामी राम, साईं बाबा जैसे अनेक साधु
संतों ने वर्तमान युग में ारतीय संस्कृति की दिग दिगंत तक दुन्दु ी बजाई है।
जहां साधु संत है वहां मंदिर या मठ ी हैं। दोनों मिलकर ारत अथवा ारतीय संस्कृति
के एक सशक्त रूप में स्थापित होते हैं। पिछली लगग एक शताब्दी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ ी ारत में और विदेशों में ी हिन्दुत्व अथवा ारत वर्ष की राष्ट्रीय चेतना का
सशक्त प्रतीक बनकर उरा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना आज से लगग 85 वर्ष
पहले ारत के नाथि केंद्र नागपुर में डा. केशव राम बलिराम हेडगेवार ने की थी। यह वह
समय था जब ब्रिटिश साम्राज्य़वादी ताकतें ारत
पर राजनैतिक शिकंजा कस चुकी थी और उसे सांस्कृतिक रूप से म्रत्य प्रायः करने के प्रयासों
में जुटी थी और उधर ीतर से सŸाा गवा चुकी मुगल शक्ति के
बचे हुए अवशेष हताशा में ारत की सांस्कृतिक पहचान को बदरंग करने के लिए इन्हीं ब्रिटिश
साम्राज्यावादी से हाथ मिला रही थी। लगग सात-आठ सौ वर्षों तक देश में अरबों ईरानियों
अफगानों और अंत में मुगलों के आक्रमणों के कारण और उनकी निरंतर बनी रही सŸाा के कारण ारत के कुछ लोग य अथवा प्रलोन से इस्लाम
मजहब में दीक्षित हो चुके थे। परंतु उसके बावजूद उनकी जडें ारतीय विरासत में शक्ति
से जमी हुई थी। उन्होंने इस्लाम को वस्त्र की तरह ओढ तो लिया था परंतु वह उनकी धमनियों
में रक्त बनकर नहीं पसरा था। इतिहास के इस मोड पर ब्रिटिश साम्राज्य़वादी ताकतें और ारत के ीतर की यह इस्लामी ताकतें एक
साझां मकसद के लिए इकट्ठा हो रही थी। 1857 के आजादी के प्रथम संग्राम के बाद अंग्रेज
इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि ारत के मुसलमानों ने विष्णु या शिव की जगह अल्लाह
को अपनाया है। उन्होंने अपनी विरासत को नहीं त्यागा है। अपने राजनीतिक हितों के लिए
अंग्रेजी शासन के लिए यह जरूरी था कि इस्लाम
मजहब में दीक्षित हुए यह ारतीय इस देश की मिट्टी से ी टूटे। जिन्ना का और ब्रिटिश
साम्राज्य़वादी ताकतों का आपसी समझौता साम्रा€यवादियों का इस दिशा में पहला कदम था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ ारतीयता की मूल पहचान को बचाने के लिए संगठित हिंदु अथवा ारतीय प्रयास था। स्वाविक
ही था कि ारत की संस्कृति के खिलाफ लडी जा रही इस लडाई में वह राष्ट्र ीयता के प्रतीक
के रूप में अवस्थित होने लगा। इसी प्रकार कुछ शब्द रंग, वस्त्र, पेड, पक्षी राष्ट्र ीयता के प्रतीक के
रूप में धीरे-धीरे आकार ग्रहण करने लगते हैं। गवा रंग गऊ, पीपल इत्यादि ारतीय राष्ट्रीयता के मान बिन्दु माने
जाते हैं।
पिछले कुछ अरसे से एक योजनाबद्घ ढंग से ारतीय अथवा हिन्दु संस्कृति के प्रतीक
चिन्हों को लाछित करने का अत्यंत सुनियोजित ढंग से प्रयास किया जा रहा है। साधु संतों
को तो बदनाम करने का तो मानों एक आंदोलन ही छेड दिया गया हो। इसमें विदेशी शक्तियां
ी शामिल हैं और ारत के ीतर की शक्तियां ी शामिल हैं जो ारत की पहचान बदलने के
लिए ी आमादा हैं। जब से सोनिया गांधी ने कांग्रेस पर कब्जा किया है तब से यह कांग्रेस
अपने पुराने नाम के रहते हुए ी एक नये संगठन के तौर पर स्थापित हुई है और जाहिर है
कि इसका मकसद ी बदला है और उस मकसद को प्राप्त करने के लिए कार्य पद्घति ी। संगठन
के तौर पर ारतीयता के मान बिन्दुओं और प्रतीकों को लाछित करने के इस अियान में कांग्रेस
ी हराबल दस्ते के रूप में कार्य कर रही है। कांग्रेसी नेताओं द्वारा बार-बार गवा
शब्द को आतंकवाद के साथ जोडने का प्रयास उसकी इसी नई रणनीति का परिचायक है। हिन्दु
आतंकवाद और प्रकारान्तर में गवा आतंकवाद की अवधारणा को स्थापित करने के प्रयास इसी
की ओर संकेत करते हैं। हिन्दु दर्शन, हिन्दु चिन्तन और उससे उपजी हिन्दु जीवन शैली स्वाव और प्रकृति से ही आतंकवाद
विरोधी है। हिन्दु के ीतर अनेकों उपासना पद्घतियां प्रचलित हैं। और अनेकों चिन्तन
धाराएं ी और यह सब इस देश में लाखों वर्षों से निरंतरता में चला आ रहा है। यह वहीं
सम्व हो सकता है जहां कोई किताब चिन्तन की बंद किताब नही बन जाती और न ही कोई मसीहा
अंतिम मसीहा मान लिया जाता है। चिंतन के इस प्रकार के वातावरण में सैन्य बल पशु बल
अथवा बन्दूक बल से आतंक फैलाने की ावना विद्यमान ही नहीं रह सकती। आतंकवाद के बीज
उन्हीं समाजों में छिपे रहते हैं जो किसी एक किताब को ही अंतिम किताब घोषित कर देते
हैं और किसी एक मसीहा को ही अंतिम मानने का हठ करते हैं। जब यह हठ बढ जाता है तो स्वााविक
ही उन समाजों में आतंकवाद के यह बीज अंकुरित होने लगते हैं और उदारवादी समाजों और चिंतन
प्रणालियों को पशु बल से धमकाने की मुद्रा में आ जाते हैं। हिन्दु समाज स्वाव और प्रकृति
से आतंकवाद का विरोधी ही नहीं है बल्कि वह दूसरी उपासना पद्घतियों अथवा साम्प्रदायों
को सुरक्षा की गारंटी ी देता है। यही कारण था कि अपने देश में सामी साम्प्रदायों के
आतंकवाद से पीडित होकर सैकडों वर्ष पहले ईरानी, यहूदी और सिरियाई ईसाई इस देश में शरण लेने के लिए आए और इतिहास गवाहा है कि इस
देश में उनके साथ कोई ेदाव नहीं किया गया। शरण देने से पहले उन पर उपासना पद्घति
बदलने की शर्त नहीं थोपी गई। यह फिर उन्हें अपना मजहब बदलने के लिए आतंकतित नहीं किया
गया। दुर्ागय से ारत सरकार और कुछ विदेशी
शक्तियां आज उसी हिन्दुत्व अथवा गवा चेतना को आतंकवाद से जोडकर इस देश के मेरूदण्ड
पर प्रहार कर रही है।
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