डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
जम्मू प्रांत में लोगों का गुस्सा शांत होने को नहीं आ रहा। सोनिया गांधी की सरकार ने वहां सेना
ी तैनात कर दी है और सेना ने शहर के सी नाकों को सील कर दिया है। परन्तु जम्मू प्रांत
के लोग उफनती हुई तवी नदी को तैर करके ी जम्मू पहुंच रहे हैं। पुंछ, उधमपुर, रियासी, डोडा और कठुआ सी शहरों में
लोग स्वतः ही सरकार के विरोध में निकले हुए हैं। दिल्ली में बैठे शतुरमुर्गी सेकुलरिस्ट
गला फाड-फाडकर चिल्ला रहे हैं। जम्मू प्रांत में हिन्दू मुसलमानों के खिलाफ हो रहे
हैं। लेकिन जम्मू के पहाड़ों पर जम्मू की घाटियों में जम्मू की सड़कों पर जम्मू प्रांत
के सी हिन्दू और मुसलमान इकट्ठे होकर राज्यपाल एन0एन0बोहरा को बर्खास्त करने और बाबा
अमरनाथ धाम को दी गई जमीन बहाल करने के नारे लगाते हैं तो दिल्ली में मुसलमानों की
राजनीति करने वाले सेकुलरवादियों का मुँह पिचक जाता है । ऐसे पिचके हुए गालों वाले
राजनीतिज्ञों का एक ‘कट्ठ’ पिछले दिनों दिल्ली में हुआ था। स्वर सी का एक ही था
कि जम्मू के लोगों को लगाम लगाई जाए क्योंकि इससे कश्मीर का मुसलमान नाराज होता है।
कश्मीर का मुसलमान नाराज होता है या नहीं होता यह तथ्य और बहस का विषय हो सकता है।
लेकिन कश्मीर में आतंकवादी गिरोह,
हुर्रियत कांफ्रेस, लश्कर-ए-तौयबा, दुख तराने मिल्लत, मुफ्ती मोहम्मद सैय्यद और
मेहबूबा मु्फ्ती (बाप-बेटी की यह जोड़ी), शेख अब्दुल्ला के वारिस और गुलाम नबी आजाद के आका जरूर नाराज होते हैं। बहुत मुमकिन
है पाकिस्तान ी नाराज होता हो। कश्मीर घाटी में प्रदर्शन ी हो रहे हैं और जम्मू प्रांत
में ी प्रदर्शन हो रहे हैं दोनों प्रदर्शनों में एक ही अंतर है। घाटी में प्रदर्शनकारियों
के हाथ में पाकिस्तान का झंडा है और मुँह पर पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा है और जहां
तक ारतीय सेना का सवाल है उसके लिए इन अलगाववादी आतंकवादी प्रदर्शनकारियों की तनी
हुई मुठ्ठियों और क्रुद्ध चेहरों से एक ही ाव निकलता है ारतीयों कुŸाों वापिस जाओ। जबकि जम्मू प्रांत में लोगों के हाथ में
तिरंगा झंडा है। घोष का स्वर ारत माता की जय है और ारतीय सेना का हाथ हिला-हिलाकर
स्वागत करने की परंपरा है। जम्मू के लोग मर रहे हैं लेकिन मरते-मरते ी ारत माता की
जय बोल रहे हैं। कश्मीर में तथाकथित राजनैतिक दल और अलगाववादी आतंकवादी समूह (दोनों
के बीच का अंतर अब धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।) ारत सरकार की मेहमान बाजी का लुत्फ
ी उठाते है और घाटी में पाकिस्तान की ओर मुँह करके अपनी आस्था का प्रकटीकरण ी करते
हैं।
दिल्ली में बैठकर जो जम्मू कश्मीर के विशेषज्ञ बने हुए है। जिन्हें न डोगरी ाषा
आती है, न लद्दाखी ाषा आती है और न ही कश्मीरी
ाषा आती है। उनके पास अंग्रेज मालिकों द्वारा सिखाए गए कश्मीर समस्या के समाधान के
फार्मूले हैं। वे आज 2008 में ी अपने उन्हीं गोरे महाप्रुओं के फार्मूले लागू कर
रहे हैं। दिल्ली के इन मालिकों को एक साधारण तथ्य समझ नहीं आता कि जम्मू कश्मीर ी
ारत का ही हिस्सा है। वह ी उसी प्रकार लोकतांत्रिक व्यवस्था से परिचालित है। जिस
प्रकार देश का कोई अन्य प्रांत हरियाणा, पंजाब या गुजरात ।लेकिन पं0 नेहरू खुद कश्मीरी थे और उनके मित्र शेख अब्दुल्ला
तो अपने आपको शेर-ए-कश्मीर कहते थे। इन दोनों का शायद यह मानना था कि राज्य में कश्मीरियों
की जनसंख्या चाहे थोड़ी है लेकिन व्यवस्था ऐसी करनी चाहिए कि लोकतंत्र का पर्दा ी
बना रहे और राज केवल कश्मीरियों का ही सुनिश्चित कर दिया जाए। इसीलिए कश्मीर प्रांत
में कम जनसंख्या होते हुए ी विधानसा की ज्यादा सीटें हैं। और कश्मीर प्रांत में ज्यादा
जनसंख्या होते हुए ी विधानसा की सीटें कम है। अी देशर में सी राज्यों की विधानसाओं
के लिए पुनः परिसीमन हुआ ताकि विधानसा की सीटों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर किया
जा सके। लेकिन ारत सरकार ने अलगाववादियों और आतंकवादियों की मांग के आगे झुकते हुए
जम्मू कश्मीर में विधानसा की सीटों का परिसीमन नहीं किया। क्योंकि यदि परिसीमन हो
जाता तो राज्य पर अल्पसंख्यक कश्मीरियों का प्रुत्व समाप्त हो जाता ।
दरअसल जम्मू कश्मीर में यह लड़ाई लोकतंत्र की लड़ाई है। पिछले छः दशकों से जम्मू
प्रांत के लोगों के ीतर जमा हुआ लावा ज्वालामुखी बनकर फटा है। अमरनाथ धाम को दी गई
जमीन तो एक माध्यम बना है वास्तव में यह 60 सालों से जम्मू प्रांत के साथ हो रहे अन्याय
के खिलाफ युद्ध है। यह लड़ाई कश्मीरियों के खिलाफ ी नहीं है। बल्कि यह लड़ाई उन अलगाववादी
और आतंकवादी के खिलाफ है जिन्होंने कुछ अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के बल पर ारत को बंधक
बनाकर रखा है। अजीब संयोग है जो लड़ाई ारत सरकार को लड़नी चाहिए थी वह लड़ाई जम्मू
प्रांत के लोग लड़ रहे है और ारत सरकार की पुलिस उन पर गोलियां चला रही है। उमर अब्दुल्ला
एक इंच ी जमीन नहीं देने की बात कह रहे हैं और कुछ टीवी चैनल उनके इस ाषण को सर्वश्रेष्ठ
घोषित कर रहे हैं लेकिन उमर शायद यह नहीं जानते कि उनकी उम्र के हजारों को गुणा से
ी अधिक पुराना बाबा अमरनाथ का धाम है । कश्मीर
बाबा अमरनाथ का है कश्मीर नन्द ऋषि का है कश्मीर ललेश्वरी का है। कश्मीर उन सूफी संतों
का है जो कश्मीर की घाटियों में प्रेम के गीत गुंजाते थे ये कश्मीर अब्दुल्लाओं का
नहीं है और न ही गिलानियों का है और न ही सैय्यदों का है। कुछ अंग्रेजी का अखबार और
उसी प्रकार के विद्वान जम्मू प्रांत के लोगों का घुड़का रहे हैं कि उनके इस आंदोलन
से कश्मीर में प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन वे ये बात ूल जाते हैं कि जम्मू में
जो हो रहा है वह दरअसल कश्मीर में हो रही अलगावादी घटनाओं की प्रतिक्रिया ही है। ऐसे
मौके पर अकलमंद इंसान तो इस प्रकार की विषैली क्रिया को रोकने की कोशिश करता है ताकि
प्रतिक्रिया न हो किंतु दुर्ाग्य से यह तथाकथित विशेषज्ञ क्रिया करने वालों को तो
रोक नहीं सकते या उनके आगे अपना नपुंसकतावादी दर्शन बांचते हैं। इनकी सारी विद्वता
जम्मू में हो रही प्रतिक्रिया दबाने में खर्च हो रही है। गुजरात में जब की कुछ होता
है तो यही विद्वान चिल्लाते हैं कि इनमें आतंकवादियों का दोष है क्योंकि यह आतंकवादी
घटनाएं तो गोधरा काण्ड के दंगों की प्रतिक्रिया है। लेकिन वही विद्वान जम्मू को श्रीनगर
में जो कुछ हो रहा है उसकी प्रतिक्रिया नहीं मानते और यदि मान ी रहे हैं तो दोष प्रतिक्रिया
करने वाले पर ही थोप रहे हैं। कुछ तथाकथित कश्मीर विशेषज्ञ तो घबराकर इससे ी आगे चले
गए। उन्होंने यह रोना शुरू कर दिया कि यह सारा पंगा ही पूर्व राज्यपाल एस.के. सिन्हा
का खड़ा किया हुआ है। न सिन्हा अमरनाथधाम को जमीन देते और न ही यह सारा विवाद शुरू
होता । इनको शायद यह नहीं पता कि कश्मीर में पिछले 30 सालों से जो हो रहा है। उसका
अमरनाथ से कोई लेना देना नहीं है। अमरनाथधाम को दी गई जमीन तो एक बहाना है। असली निशाना
कहां है? इसका खुलासा उमर अब्दुल्ला ने किया
है। जम्मू प्रांत के लोग ारत की लड़ाई लड़ रहे हैं उनकी पीठ थपथपाने की जरूरत है न
कि पीठ में गोली मारने की।
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