Tuesday, 14 January 2014

पालकी उतार कर करें गणतंत्र की चर्चा:

 डा .कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
26 जनवरी ारत वर्ष में गणतंत्र दिवस के तौर पर मनाया जाता है । सरकारी स्तर पर छोटे-मोटे उत्सव और मेले-ठेले ी होते हैं । सरकारी इमारतों पर, खास कर सचिवालयों पर इधर बिजली के बल्ब लगाने का रिवाज ी बढ रहा है । सरकार लोगों को बार-बार यह विश्वास करने के लिए मना रही है कि इस देश में जिसकी उम्र निष्पक्ष इतिहासकारों की ॰ष्टि में ी दस -पन्द्रह हजार सालों से कम नहीं है , गणतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना 1950 मंे 26 जनवरी के दिन ही हुई थी और इसके लिए सरकार के पास सबसे बडा प्रमाण अंग्रेजी ाषा में लिखा हुआ ारतीय संविधान है जिसको इस दिन लागू किया गया था ।

ारत नाम का यह राष्ट्र हजारों हजारों साल पुराना है । उसने न जाने इस लंबे काल में कितने उतार चढाव देखे हैं । गणतांत्रिक व्यवस्थाओं को ी इस देश में जन्म लेते पल्लवित होते उसने देखा है । यह तो सौाग्य है कि लोग बहुत ज्यादा सरकार की बातों पर विश्वास नहीं करते । नहीं तो यदि सरकार का बस चलता तो पुराने सारे इतिहास को मिट्टी में डाल कर सरकार एक नये राष्ट्र के जन्म की घोषणा ी गणतंत्र दिवस के साथ ही कर देती । 

पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में एक गुट  ने ऐसा प्रचार प्रसार शुरु कर ही दिया था । जिस वक्त वे अंग्रेजी शासन के तथा कथित गुणों और लाों के  आगे नतमस्तक होने का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे थे उस समय वे एक ही मंत्र बोल रहे थे कि अंग्रेजों के आने के बाद ही यह देश एक राष्ट्र के रुप में पनपा है । पंडित जी का एक जुमला उन दिनों प्रसिद्ध हुआ था - नेशन इन दि मेकिंग - ़। पंडित जी की नाडी को पहचानने वालों का दावा था कि इसका अर्थ है कि अंग्रेजों ने इस देश में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया शुरु की थी और उनके चले जाने के बाद पंडित नेहरु इसे आगे बढा रहे हैं । लेकिन इसमें बहुत ज्यादा दोष पंडित नेहरु को नहीं दिया जा सकता । क्योंकि उन्होंने की यह दावा नहीं किया था कि वे ारतीय इतिहास और परंपरा से जुडे हुए हैं और अपने आप को इस विरासत का हिस्सा मानते हैं । बल्कि वे तो किसी इंग्लिशमैन की तरह ारत की खोज कर रहे थे । शायद इसीलिए उन्होंने ‘‘डिस्कवरी आफ इंडिया’’ लिखी ।
परंतु नेहेरु की देखा-देखी दरबारियों ने ी वही मंत्र जपना शुरु कर दिया और ारत को राष्ट्र निर्माण में लगे हुए देश की संज्ञा दे दी । इसलिए जो लोग इस देश को एक राष्ट्र ही मानने को तैयार नहीं थे या हैं वे इस देश की मिट्टी में परंपरा से ही जडे जमाई हुई गणतांत्रिक  व्यवस्थाओं को ला क्या जानेंगे । उनके लिए यह गणतंत्र ी अंग्रेजी शिक्षा व अंग्रेजी शासन का ारत को दिया गया उपहार है । हमें यहां यह ध्यान रखना होगा कि लोकतंत्र या गणतंत्र इस देश की मूल आत्मा है । यह इस देश की मिट्टी की सौंधी खुशबू  है । लोकतांत्रिक व्यवहार इस देश के लोगों का आचरण और व्यवहार है । शाóार्थ और संवाद रचना ारतीय समाज के दो ऐसे गुण है जो गणतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्राणवायु का कार्य करते हैं । समाज आम सहमति से चलता है । बहुत बडी सीमा तक ारतीय शासन व्यवस्था की परिधि से बाहर था । अंग्रेजों ने ारतीय समाज की इसी स्वायŸाता को नष्ट करके उसकी लोक तांत्रिक धमनियोें को अवरुद्ध करने का प्रयास किया । इसे ारत का दुर्ाग्य कहना चाहिए कि इस प्रक्रिया में इस्लाम और चर्च ने ी महत्वपूर्ण ूमिका निाई । इस्लामी आतंक का शासन इस देश में लगग 8-9 सौ साल पहले ही शुरु हो गया था । चर्च का आगमन ी लगग ढाई सौ साल पहले अंग्रेजों के आने के साथ ही प्रारं हो गया था । चर्च और इस्लाम दोनों ही अपने दर्शन, मनोविज्ञान , आचरण , व्यवहार और संस्कार में गणतंत्र विरोधी है । इनमें न शाóार्थ की परंपरा है और न संवाद रचना की । इन परंपराओं में श्रोता सुनने के लिए बाध्य है और उसे अमल में लाने के लिए ी विवश है । इससे मौलिक चिंतन की हत्या होती है और लोकतांत्रिक आचरण दूषित होता है । ारतीय परंपरा वादे-वादे जायते बाधा की है । जबकि इस्लामी पंरपरा फतवे की है और फतवे को न मानने वालों के खिलाफ मामला जिहाद तक ी जा सकता है । गणतंत्र और जिहाद का संबध लगग उसी प्रकार का है जिस प्रकार बकरी और शेर का । ारत वर्ष के जिस - जिस हिस्से में , उदाहरण के लिए बलूचिस्तान, पख्तूनिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, इस्लाम ने अपने दर्शन और  आचरण से बंजर किया है वहां लाख प्रयत्न करने पर ी लोकतांत्रिक बीज पनप नहीं पाये हैं ़। बहुत से लोग इस बात पर चैकते हैं कि ारत में पिछले 50 वर्षों में गणतांत्रिक व्यवस्था केवल बची हुई नहीं है बल्कि सफलतापूर्वक चल ी रही है , वे घबराये हुए से अति उत्साह में इसका श्रेय अंग्रेजी शासन को देना शुरु कर देते हैं । पर वे ूल जाते हैं कि अंग्रेजों ने अपना बोरिया बिस्तरा केवल हिन्दुस्थान से ही नहीं समेटा था, बल्कि एशिया और अफ्रीका के और ी दर्जनों देशों से ऐसा किया था और वे वहां ी जाते समय अंग्रेजी में लिखा हुआ संविधान का एक पोथा नये शासकों के हाथों में थमा गये थे । लेकिन जल्दी ही या तो सैनिक विद्रोहों ने उस पोथे को जला दिया या फिर उस पोथे के सहारे राज्याध्यक्ष बने लोगों ने ही अपने आप को तानाशाह घोषित कर दिया और उस पोथे को ताला बंद करके सुरक्षित रख दिया । ारत में गणतांत्रिक व्यवस्था सफलतापूर्वक चलते रहने का कारण ारतीय मनोविज्ञान है जो मूल प्रकृति से ही लोकतांत्रिक है । परंतु दुर्ाग्य से देश की वर्तमान सरकार अंग्रेजी विरासत और इस्लामी परंपरा को एक साथ सुरक्षित रखने के नपुंसक प्रयत्नों में जुटी हुई है । इस्लामी परंपरा ारत की लोकतांत्रिक जमीन को रेत बना रही है और अंग्रेजी विरासत बुद्धिजीविय़ों को पंगु । पंगु बुद्धिजीवी और लोकतंत्र के लिए रेतीली जमीन दोनों ही गणतंत्र के विरोधी हैं । बहुत अरसा पहले नागार्जुन बाबा ने इंग्लैण्ड की महारानी को इंगित करते हुए लिखा था - आओ रानी हम उठाए पालकी, आज्ञा ई यह जवाहर लाल की । आज जब गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की चर्चा कर रहे तो यदि यह पालकी उतार कर चर्चा करें तो सार्थक ी होगा और अनेक समस्याओं के समाधान ी मिल जाएगें ़।
(हिन्दुस्थान समाचार)


24.1.2007

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