डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले दिनों दिल्ली में हुए अंतर्राष्ट्रीय नेपाली संस्कृति सम्मेलन की चर्चा थम
नहीं रही है। यह सम्मेलन 9-10 सितम्बर 2006 को हुआ था। हिमालय परिवार के तत्वाधान में
नेपाली संस्कृति संस्थान की ओर से आयोजित यह सम्मेलन कई कारणों से चर्चित रहा । सबसे
पहले नेपाली समाज की परिाषा को लेकर। इस परिाषा को लेकर विवाद इसलिए खड़ा हो जाता
है क्योंकि नेपाली अपने आप में राष्ट्रीयता बोधक शब्द ी है और नेपाली ाषा बोधक शब्द
ी है। जिन लोगों की मातृाषा नेपाली है यह जरूरी नहीं है कि उनकी राष्ट्रीयता ी नेपाली
हो।
नेपाली मातृाषा वाले लोगों की राष्ट्रीयता ारतीय ी हो सकती है, ूटानी ी हो सकती है और नेपाली ी हो सकती है, यहां तक की तिब्बती ी हो सकती है। तिब्बत में ी बहुत
से ऐसे लोग रहते हैं, जिनकी मातृाषा नेपाली है।
लेकिन आज जब नेपाली शब्द का प्रयोग किया जाता हैतो आम तौर पर उसका अर्थ नेपाल में रहने
वाले लोगो ंसे लगाकर उनकी समस्याओं को उसी देश के संदर् में देखा जाने लगता है। वास्तव
में ऐसा नहीं है। नेपाल में जो कुछ हो रहा है उससे ारत के नेपाली ाषी नागरिकों का
कोई सीधा संबंध नहीं है। उस घटनाक्रम को लेकर उनकी चिन्ता उतनी ही है जितनी पंजाबी
ाषी ारतीय, बांग्ला ाषी ारतीय की या
तमिल ाषी ारतीय की है। परन्तु मातृाषा एक ही होने के कारण ारतीय नेपाली ाषी और
नेपाल के नेपाली ाषी का रिश्ता कहीं न कहीं सांस्कृतिक धरातल पर जुड़ता है।
जैसा कि समाज शाóी मानते हैं कि संस्कृति
के किसी ी निर्माण में ाषा सबसे महत्वपूर्ण ाग अदा करती है। यदि संस्कृति की ही
॰ष्टि से देखा जाए तो नेपाल, ारत, ूटान और यहां तक की सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया का सांस्कृतिक प्रवाह एक ही है।
इसलिए नेपाली संस्कृति शब्द का प्रयोग न ी किया जाए, तब ी इस सम्पूर्ण ू-ाग के सनातन सांस्कृतिक प्रवाह
में नेपाल की संस्कृति का समावेश हो ही जाता है। संस्कृति, राष्ट्रीयता और ाषा से जुड़े उन तमाम मुद्दों पर नेपाली
संस्कृति सम्मेलन में गहरी चर्चा हुई। क्योंकि यह मुद्दा अपने आप में विवादास्पद है
और उनको लेकर गहरे मंथन की जरूरत है इसलिए सम्मेलन में परस्पर विरोधी स्वर ी सुने
गए। लेकिन सम्मेलन का सकारात्मक पहलू यह रहा कि इन प्रश्नों पर और इनसे जुड़ी अवधारणाओं
पर एक स्पष्ट राय कायम करने का प्रयास किया गया। हमारे ख्याल से यह मुद्दा इस सम्मेलन
का अहम मुद्दा था।
सम्मेलन में एक दूसरा मुद्दा जो उरकर सामने आया वह था ारत नेपाल संबंधों का।
क्योंकि सम्मेलन में नेपाल से ी अच्छी-खासी संख्या में लोग आए हुए थे, नेपाल के वििन्न राजनैतिक दलों से जुड़े हुए लोग ी
इसमें शिरकत कर रहे थे इसलिए इस मुद्दे का उठना लाजमी था। वैसे ी यह मुद्दा सम्मेलन
के आयोजकों की कार्य सूची में ी था। क्योंकि सम्मेलन में ारत के नेपाली ाषा-ाषी
ी काफी संख्या में ाग ले रहे थे इसलिए इस प्रश्न की संवेदनशीलता अपने आप में बढ़
जाती है। दरअसल ारत और नेपाल के रिश्ते सामान्य रिश्ते नहीं हैं और न ही इन रिश्तों
का आकलन एक देश के दूसरे देश के साथ रिश्तों के आधार पर किया जा सकता है। इन रिश्तों
को केवल पड़ोसी देशों के रिश्ते ी नहीं कहा जा सकता।
ारत-नेपाल रिश्तों के गली-मोहल्ले, गली दर गली वाले रिश्ते हैं । नेपाल के साथ ारत के ाषाई रिश्ते हैं, सांस्कृतिक रिश्ते हैं, जातीय रिश्ते हैं, व्यक्तिगतरिश्ते हैं, देवी-देवताओं के रिश्ते हैं, तीर्थ स्थानों के रिश्ते हैं, एक प्रकार से यह बहुआयामी रिश्ते हैं। जहां तक सरकार
के स्तर पर रिश्तों का प्रश्न है ये रिश्ते बनते बिगड़ते रहते हैं। इसलिए जो लोग ारत-नेपाल
के लोगों के रिश्तों को दोनों देशों की सरकारों के प्रिज्म से देखने का प्रयास करते
हैं वे कहीं न कहीं धोखा खा ही सकते हैं। इन दोनों देशों की सरकारों को यहां के लोगों
के रिश्तों का प्रतीक नहीं माना जा सकता। पिछले कुछ अरसे से तिब्बत पर कब्जा जमा लेने
के बाद जब से चीन ने ारत की घेराबंदी का कार्य शुरू किया हैतो वह ारत और नेपाल के रिश्तों में खटास पैदा करने का प्रयास कर रहा है।
उसके ये प्रयास नेपाल सरकार के स्तर पर ी हैं और लोगों के स्तर पर ी। दुर्ाग्य से
जिस प्रकार चीन ने ारत में एक चीन समर्थक समूह की स्थापना कर ली है, उसी प्रकार वह नेपाल में ी वहां की जनता में चीन समर्थक
लाॅबी पैदा करने में कामयाब हो गया है।
दुर्ाग्य से ारत सरकार चीन के इस खतरे की ओर से आँखे बंद किए हुए है। जो सूत्र
ारत नेपाल के लोगों ंको आपस में जोड़ते हैं, मसलन समान धर्म, समान संस्कृति, समान देवी-देवता, समान तीर्थ स्थान इन सी का नाम लेना ी ारत सरकार के लिए कुफ्र के समान है। जो
सूत्र नेपाल और ारत को आपस में बांधते हैं, ारत सरकार उन्हीं को नकारती है क्योंकि उनको स्वीकारने
से उसकी धर्मनिरपेक्षता की छवि बिगड़ जाती है। बाँकी ारत सरकार के नेपाल के ्रप्रति
॰ष्टिकोण का ी ्रप्रश्न है। दिल्ली को शायद यह वहम है कि छोटा सा नेपाल अपनी औकात
में रहे तो ठीक है। इसी मानसिकता के कारण नेपाल के महाराजा को नागपुर में संघ के कार्यक्रम
में आने की आज्ञा ारत सरकार ने नहीं दी थी। स्वााविक है इससे नेपालियों के आत्मसम्मान
को चोट लगती है। चीन समर्थक लाॅबी ऐसे वातावरण में नेपालियों को ारत के खिलाफ ड़काने
का कार्य करती है। माओवादियों ने कुछ सालों से विशेषकर पश्चिम नेपाल में इस ारत विरोधी
ावना को हवा दी है। पर्वतीय और नेपाली क्षेत्रों के लोगों में हर देश में थोड़ा बहुत
विवाद चला ही रहता है। नेपाल में ी पहाड़ी नेपाल और मैदानी नेपाल में थोड़ा बहुत विवाद
चलता रहता है। लेकिन ारत विरोधी उसे ारत और नेपाल के विवाद की रंगत दे देते हैं।
दो देशों के बीच में मधुर संबंधों के लिए या तो वैचारिक आधार हो या फिर समान हित
हों। जहां तक समान हितों का ताल्लुक है चीन नेपाल को यह समझाने का प्रयास कर रहा हैकि
उसके हित चीन के साथ ज्यादा जुड़ते हैं और ारत के साथ कम। और जहां तक वैचारिक आधार
का सवाल है, ारत सरकार इस क्षेत्र में कदम तक नहीं रखना चाहती है, क्योंकि ारत नेपाल संबंधों का वैचारिक आधार समान धर्म
हो सकता है, धर्मनिरपेक्षता नहीं।
नेपाली संस्कृति सम्मेलन में पहली बार ारत और नेपाल के लोग इस मसले पर बातचीत
करने के लिए इकट्ठे हुए और यदि आयोजकों ंकी मानें तो सकारात्मक वातावरण में सार्थक
बातचीत हुई । इस सम्मेलन में प्रत्यक्ष या परोक्ष राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ूमिका
ी सहज ही देखी जा सकती है। संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी, केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य श्रीकांत जोशी, नेपाल के हिन्दू स्वयंसेवक संघ के संघचालक उमेश खनाल
और प्रचारक सूबेदार सिंह उपस्थित थे । दरअसल इस सम्मेलन के पीछे की पूरी योजना ी किसी
न किसी प्रकार से इंद्रेश कुमार की थी जो संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य ी
हैंऔर हिमालय परिवार के संयोजक ी। उन्होंने सम्मेलन के बीच में टिप्पणी करते हुए कहा
ी कि ारत और नेपाल दोनों देशों के ही लोगों की रुचि लोकतांत्रिक शक्तियों को मजबूत
करने की है । लोकतंत्र ही ऐसा तंत्र है जिसके माध्यम से जन अिव्यक्ति हो सकती है।
लेकिन यहां यह ी ध्यान रखना होगा कि जरूरी नहीं लोकतंत्र का स्वरूप वही हो जो
पश्चिम में प्रचलित है। ारत और नेपाल को लोकतंत्र सीखने के लिए पश्चिमी गुरुओं की
जरूरत नहीं है। इसी नेपाल और ारत की ूमि पर हजारों साल से लोकतंत्र के न जाने कितने
सफल प्रयोग हुए हैं। इसकी गाथाएं नेपाल और ारत के वाङमय में जगह-जगह मिल जाएंगी। इस
सम्मेलन में विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंहल ी उपस्थित थे।
इसमें दोनों देशों के संबंधों को लेकर एक प्रस्ताव ी पारित किया गया जिसके अनुसार
अंतर्राष्ट्रीय नेपाली संस्कृति सम्मेलन माओवादियों से अपने हथियारों को त्यागकर लोकतांत्रिक
राजनीतिक मुख्यधारा मंे समाहित होने का आह्नान करता है। माओवादी और अन्य राजनीतिक दल
एक दूसरे का विश्वास अर्जित करते हुए सार्थक सहयोग करेंगे तो निश्चय ही राजनीतिक समाधान
खोजा जा सकेगा। इससे नेपाली जनता सहज ही शांति प्राप्त कर सकती है।
नेपाल के वर्तमान संक्रमण काल एवं अराजकता का ला उठाकर कुछ विदेशी शक्तियां ी
षडयंत्रकारी रूप में प्रकट हो रहीं हैं। अतः नेपाल सरकार और ारत सरकार को उन्हें पराजित
करने के लिए आपसी सहयोग से सूझ-बूझ पूर्ण कदम उठाने चाहिए। ती समस्या के समाधान के
सार्थक रास्ते खोजे जा सकते हैं। अतः दोनों देशों की जनता ी अपने-अपने स्तर पर इस
दिशा में प्रयासरत रहे, ती नेपाल और नेपाली संस्कृति
सुरक्षित रह सकती है। यह अंतर्राष्ट्रीय नेपाली संस्कृति सम्मेलन सी से इस दिशा में
सक्रिय होने का आह्नान करता है।
नेपाल-ारत संबंधों के विशेषज्ञों का मानना है कि यह सम्मेलन वर्तमान परिस्थितियों
में दोनों देशों के संबंधों को दिशा देने में एक मिल का पत्थर सिद्ध होगा।
(हिन्दुस्थान समाचार)
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