डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
नक्सलवाद को जन्म देने वाले दो शख्स थे। चारू मजूमदार और कानू सान्याल। उŸारी बंगाल के सिलगढ़ी के पास के एक गांव नक्सलवाड़ी से
यह आंदोलन शुरू हुआ था। सान्याल और मजूमदार ने ज्योति बसु के नेतृत्व में पश्चिमी बंगाल
में बनी पहली साम्यवादी सरकार को चुनौती दी थी। जिन दिनों बंगाल में साम्यवादियों की सरकार आई उन दिनों वहां
की युवा पीढ़ी को लगता था कि अब पश्चिमी बंगाल की तमाम समस्याओं का हल हो जाएगा। उन्हें
ज्योति बसु में विश्वास था या कार्लमाक्र्स के सिद्धांतों में यह अी ी विवादास्पद
है। ज्योति बसु की सरकार के सŸाा में आने के कुछ अरसा बाद
ही नक्सलवाड़ी से उठी इस आवाज ने साम्यवादी कुनबे को चुनौती दी। उनका गंीर आरोप था
कि सीपीएम ने कार्ल माक्र्स की राह छोड़ दी है। वे सŸाा के सुख में लिप्त हो गए हैंऔर इतना ही नहीं वे अपने
विरोधियों को ‘इलिमीनेट’ कर रहे हैं। सीपीएम का टोला पश्चिमी बंगाल की जनता से
टूट चुका है। परंतु इससे जुड़ा एक और प्रश्न है। यदि सीपीएम और उसके टोले के साथी जनता
से टूट चुके हैं तो आखिर पिछले तीस सालों से वे राइटरस बिल्डिंग में अपनी पकड़ कैसे
बनाए हुए हैं? नक्सलवाडी से जो स्वर उठे
थे और उनमें से जो कुछ अी ी बचे हैं उनका कहना है कि सीपीएम कार्ल माक्र्स को तो
नहीं समझ पाया लेकिन वह हिंसा के जोर पर चुनाव जीतने की कला में पारंगत हो गया है।
चारू मजूमदार तो ज्योति बसु की जेलों में दम तोड़ गए। कानू सान्याल अी ी बुढ़ापे
में कार्ल माक्र्स के सूत्रों के अर्थ समझने के प्रयास में लगे हुए हैं। उन्होंने पिछले
दिनों एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा ज्योति बाबू तो कार्ल माक्र्स को सŸाा के शुरुवाती दौर में अलविदा कह गए थे। लेकिन उसके
बाद नक्सलवाड़ी के नाम पर कार्लमाक्र्स के सूत्रों की जो व्याख्याएं हुईं वे शायद दोषपूर्ण
ी थीं और जनसाधारण के लिए अलाकारी ी । कानू सान्याल का मानना है कि नक्सलवाड़ी का
नया संस्करण माओवाद अपने आप को माक्र्सवादी नहीं कहलवा सकता। ारत में माओवादी दरअसल अराजकतावादी कहे जा सकते हैं। व्यक्तिगत हिंसा से
निजाम नहीं बदला जा सकता।
परंतु माओ ने एक बार कहा था सŸाा बंदूक की गोली से निकलती
है। कार्ल माक्र्स की व्याख्या के लिए जब लोगों ने इस सूत्र का प्रयोग किया तो शायद
उसका अर्थ यह निकाल लिया कि हिंसा और अराजकता ही सŸाा
प्राप्ति का रास्ता है। परंतु प्रश्न यह है कि हिंसा किसके प्रति? राज्य के प्रति अथवा जनता के प्रति? जनता में ी हिंसा का निशाना कौन सा वर्ग होना चाहिए? शोषित सर्वहारा वर्ग अथवा शोषक वर्ग? रणूमि में जाकर विवेक अंधा हो जाता है और नियम ताक पर
रख दिए जाते हैं। रहा सवाल कार्ल माक्र्स के सूत्रों का उनकी उतनी ही व्याख्याएं हैं
जितने उसके शिष्य हैं। प्रत्येक साम्यवादी कार्ल माक्र्स का अनुयायी होने का दावा करता
है और दूसरे अनुयायी को संशोधनवादी करार दे रहा है। शायद यही कारण है कि नक्सलवाड़ी
से कार्लमाक्र्स के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए उठा आंदोलन इस बुरी तरह बंटा
कि इससे उसके टुकड़ों की संख्या सैकड़ों में हो गई। छŸाीसगढ़ में चल रहा माओवादी आंदोलन उन्हीं टुकड़ों में
से एक टुकड़ा है।
छŸाीसगढ़ में नक्सलवादी आंदोलन एक ऐसे
विरोधाास में से गुजर रहा है जो देर सबेर इसको विखंडित करेगा और इसके अंतर्विरोधों
को अधिक तीव्रता से जागृत करेगा। मुख्य प्रश्न यह है कि नक्सलवादी आंदोलन के इस वर्ग
संघर्ष में ये कौन से वर्ग हैं जो आपस में संघर्षरत है? माक्र्स ने दो वर्गों की कल्पना की है। एक सर्वहारा वर्ग
और दूसरा पूंजीपति वर्ग । माक्र्स मानते हैं कि इन दोनों वर्गों के रास्ते एक दूसरे
को काटते हुए गुजरते हैं। पूंजीपति वर्ग सर्वहारा के श्रम का शोषण करता है। माक्र्स
की कल्पना थी कि धीरे-धीरे स्थितियां ऐसे मोड़ पर आ जाती हैं कि सर्वहारा वर्ग पूंजीपति
वर्ग के खिलाफ संघर्ष में जुट जाता है। माक्र्स की यह ी विष्यवाणी थी कि इस संघर्ष
में अंत में विजय सर्वहारा वर्ग की ही होती है और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित
हो जाती है। माक्र्सवादी साहित्य में इसके लिए केन्द्रीयकृत लोकतंत्र शब्द का प्रयोग
किया जाता है। जिस समय कार्ल माक्र्स पूंजीपतियों द्वारा सर्वहारा वर्ग के श्रम के
शोषण के सिद्धांत को गढ़ रहे थे उन दिनों शायद उनके मन में यूरोप में नई उर रही औद्योगिक
व्यवस्था रही होगी। औद्योगिक क्षेत्रों में एक स्थान पर पूंजी का ारी निवेश होता है
और श्रमिकों के श्रम का दोहन ी और शोषण ी होता है। लेकिन कार्ल माक्र्स ने स्थानीय अनुवों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों को सार्वौमिक
और सर्वकालिक घोषित कर दिया। ारत में जहां नक्सलवादी आंदोलन बढ़ रहा है, विशेषकर छŸाीसगढ़
में, वहां औद्योगिक प्रगति के नाम पर कुछ
उत्साहजनक है-ऐसा कहा नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में वह पूंजीपति वर्ग जिसकी कल्पना
कार्लमाक्र्स करते हैं छŸाीसगढ़ में विद्यमान नहीं
हैै। जहां छŸाीसगढ़ शब्द का प्रयोग हम
केवल केस स्टडी के लिए कर रहे हैं। अन्यथा इसकी जगह झारखंड, आंध्र प्रदेश, बिहार और नेपाल शब्द का प्रयोग ी किया जा सकता है। तब प्रश्न पैदा होता है कि
छŸाीसगढ़ में नक्सलवादी किस वर्ग का
नेतृत्व करते हैं और किस वर्ग के साथ वह संघर्षरत हैं। वर्ग संरचना को लेकर जब तक यह
कोहरा छंट नहीं जायेगा तब तक यह संघर्ष माक्र्सवादी
संघर्ष न होकर व्यक्तिगत दुस्साहसिक अराजकतावाद ही कहा जाएगा। शायद इसी कारण कानू सान्याल
ने ी नक्सलवादियों की इस हिंसा को वैचारिक संघर्ष न कहकर अराजकतावाद का ही नाम दिया
है।
छŸाीसगढ़ में नक्सलवादी आंदोलन की वर्ग
संघर्ष की बात को आगे बढ़ाने से पहले इस आंदोलन में एक दूसरे पक्ष पर विचार करना ी
महत्वपूर्ण है। माओवादी जंगलों में और गांवों में वनवासी क्षेत्रों के युवाओं को हथियारों
की ट्रेनिंग दे रहे हैं। जाहिर है हथियार के साथ-साथ वे उन्हें माक्र्सवाद की घुट्टी
ी पिला रहे होंगे। यह अलग बात है कि इस घुट्टी का ब्रांड वही होगा जो इस समूह ने प्राप्त
किया होगा। माओ ने ी कार्लमाक्र्स की अपने ढंग से व्याख्या की थी और कार्लमाक्र्स
की सर्वहारा की तानाशाही को प्राप्त करने के लिए उसकी तकनीकों पर ी विचार किया था।
माओ ने कहा था कि गांव के लोगों को इकट्ठे होकर शहरों को घेरना होगा। जब गांव में लोग
वैचारिक रूप से संघर्ष के लिए परिपक्व हो जाएंगे तो वे नगरों को घेर लेंगे। इसके लिए
उन्हें हथियारों की कमी नहीं पड़ेगी क्योंकि वे परंपरागत हथियारों का ही प्रयोग करेंगे
और सरकारी हथियारगृहों से हथियारों को लूटेंगे। गांवों द्वारा की जाने वाली इस प्रकार
की घेराबंदी से सŸाा के केन्द्र नगर ढह जाएंगे
और सŸाा सूत्र सर्वहारा वर्ग के हाथ में
आ जाएंगे। माओ को कार्लमाक्र्स के रास्ते से हटकर ये तकनीकें इसलिए अपनानी पड़ीं क्योंकि
माओ वस्तुतः किसी वर्ग के खिलाफ संघर्ष नही कर रहे थे। वे अपने देश की उस सरकार के
खिलाफ संघर्ष कर रहे थे जिसका स्वरूप न लोकतांत्रिक था और न ही प्रतिनिधि प्रकार का, बल्कि इसके विपरीत वह सरकार अमेरिका की पिट्ठु होने के
कारण चीनियों में इस हद तक अलोकप्रिय थी कि चीनी उसे एक प्रकार से विदेशी सरकार ही
समझते थे। अमेरिका जिस प्रकार खुले रूप में च्यांगकाई शेक की मदद कर रहा था उससे यह
धारणा और ी पुख्ता होती थीकि च्यांगकाई शेक और उसकी ईसाई पत्नी एक प्रकार से अमेरिका
के प्रतिनिधि के रूप में ही चीन की सरकार चला रहे थे। माओ ने कार्लमाक्र्स और उसके
सिद्धांत को ढाल के रूप में इस्तेमाल किया। वास्तव में वे देश में हान राष्ट्रवाद की
आग सुलगा रहे थे। राष्ट्रवाद की यह आग तब ज्वालामुखी बन गई जब द्वितीय विश्वयुद्ध में
माओ के लड़ाकों ने जापान की आक्रांता सेना के साथ लोहा लिया। इसलिए माओ का संघर्ष मूलतः
हान राष्ट्रवाद का संघर्ष था जिसमें उन्हें सफलता मिली।
छŸाीसगढ़ के नक्सलवादी माओ की इस तकनीक
को छŸाीसगढ़ में अपना रहे हैं। परंतु वे
ूल रहे हैं कि वे जाने में या अनजाने में विदेशी शक्तियों के पिट्ठु बनते जा रहे हैं।
इस प्रकार उनका रास्ता वास्वत में माओ की विपरीत दिशा में जाता है। जो शक्तियाँ ारत
को शक्तिशाली नहीं देखना चाहतीं वे सी शक्तियाँ नक्सलवादियों की पीठ के पीछे दिखाई
दे रही हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि माओवादियों के संरक्षण में कुछ ऐसी शक्तियां
ी सक्रिय हैं जो वैचारिक धरातल पर माक्र्सवाद के खिलाफ हैं। नक्सलवादी यदि इन शक्तियों
के साथ मसलन मिशनरियों, इस्लामी आतंकवादियों के साथ
एक मंच पर खड़े दिखाई देते हैं तो जाहिर है कि उनका उद्देश्य ारत विरोध या फिर ारत
को कमजोर करना तो हो सकता है, उनका उद्देश्य माक्र्स के
वर्ग संघर्ष को उसकी अंतिम परिणति तक पहुंचाना नहीं हो सकता। इस ॰ष्टि से छŸाीसगढ़ में या देश में अन्यत्र ी नक्सलवाद माओ का नकार
ही कहा जा सकता है, उसका अनुकरण नहीं। माओ का
आंदोलन माक्र्स की आड़ में राष्ट्रवादी आंदोलन था और छŸाीसगढ़ के नक्सलवादियों का आंदोलन माक्र्सवाद और माओवाद
दोनों की आड़ में अराष्ट्रीय आंदोलन ही माना जाएगा। इसके प्रमाण यत्र तत्र सर्वत्र
उपलब्ध हैं।
अब हम पुनः उसी मूल प्रश्न पर आते हैं कि छŸाीसगढ़
का नक्सलवादी आंदोलन किस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और इसकी दशा और दिशा क्या है? यह नक्सलवादी आंदोलन पूंजीवादी वर्ग के खिलाफ संघर्षरत
न होकर सर्वहारा वर्ग के ही उन लोगों को निशाना बना रहा है जो लोग इस आंदोलन के नेतृत्व
के थीसीस और आंदोलन में अपनाई जाने वाली तकनीकों के विरोधी हैं। कायदे के मुताबिक तो
नक्सलवादियों को सर्वहारा के ीतर के अपने वैचारिक विरोधियों को ‘डाइलैक्टिकल क्रिटीसिजिम’ के आधार पर अपने पक्ष में करना चाहिए थाऔर तकनीक के प्रति
ी तार्किक आधार ही अपनाया जाना चाहिए था। परंतु नक्सलवादी आंदोलन के ये अगुवा नेता
सर्वहारा वर्ग के ीतर तर्क को समाप्त करने के लिए बंदूूक का इस्तेमाल कर रहे हैं।
यह अपने आप में माक्र्सवाद का नकार है। इतना ही नहीं ये नक्सलवादी नेतृत्व छोटे स्तर
के शास्कीय कर्मचारियों की हत्या को क्रांति के नाम से महिमामंडित कर रहा है जबकि कायदे
से ये कर्मचारी उसी सर्वहारा वर्ग से ताल्लुक रखते हैं जिसके उत्थान के लिए कार्लमाक्र्स
ने ‘दास कैपिटल’ का बड़ा ग्रंथ लिखा । कार्ल माक्र्स सर्वहारा वर्ग द्वारा
सŸाा सूत्रों पर कब्जा करने के सिद्धांत
को एक वैज्ञानिक प्रणाली के रूप में विकसित करते हैं और माओ इसी को आगे बढ़ाते हुए
सŸाा बंदूक की नली से निकलती है इस
सिद्धांत को प्रतिपादित करते हैं। परंतु दुर्ाग्य
से छŸाीसगढ़ में नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व
प्रदेश के विकास की आधारूत संरचना को नष्ट करने में ही अपनी बहादुरी समझ रहा है। इस
संरचना के नष्ट होने से अंततः नुकसान सर्वहारा वर्ग का ही होगा। जाहिर है कि यह नक्सलवादी
आंदोलन सर्वहारा वर्ग के हितों की उतनी चिंता नहीं कर रहा है जितनी चिंता उन्हें उन
विदेशी शक्तियों के हितों की हैजो ारत को ीतर से तोड़ना चाहती हैं। नक्सलवादियों ने जो कार्य बस्तर क्षेत्र में विद्युत
और अन्य संस्थानों से जुड़ी आधारूत संरचनाओं को नष्ट करके किया है वह हमारे इस विश्लेषण
का सबसे बड़ा प्रमाण है। प्रदेश के पिछड़े और वनवासी क्षेत्रों में थोड़ी बहुत उपलब्ध
सुविधाओं को नष्ट करने का नुकसान पूंजीपती वर्ग को हो रहा है या सर्वहारा वर्ग को, यह चिंतन का विषय है। नक्सलवादी ी इस बात को अच्छी तरह
जानते हैं कि अंततः उनकी इन गतिविधियों का शिकार सर्वहारा वर्ग ही होता है। परंतु उनके
लंबे एजेंडा में सर्वहारा वर्ग की चिंता नहीं है। बल्कि ारतीय स्टेट को नष्ट करने
की है क्योंकि उन्हें इस कार्य के लिए सहायता ारत विरोधी शक्तियों से ही मिल रही है।
नक्सलवादी दरअसल वर्ग संघर्ष के नाम पर सर्वहारा वर्ग को ही मार रहे हैं। स्वााविक
है कि इसकी जनप्रतिक्रिया होती । छŸाीसगढ़ के वनाचलों और गांवों
के रहने वाले लोगों ने माक्र्सवाद के नाम पर नक्सलवादियों के एक गिरोह द्वारा जन साधारण
पर किए जा रहे अत्याचारों के विरोध में हथियार उठा लिए । इसे नक्सलवादियों के मुँह
पर तमाचा ही कहना चाहिए कि माओ ने जन क्रांति के लिए जिन देसी हथियारों की वकालत की
थी वे हथियार उन लोगों के पास है जो लोग नक्सलवादियों से लोहा ले रहे हैं और देसी हथियारों
की वकालत करने वाले नक्सलवादियों के हाथों में विदेशी हथियार हैं । छŸाीसगढ़ में नक्सलवादियों का मुकाबला करने के लिए उठे
इस जनविद्रोह को ‘सलवा जुडुम’ के नाम से जाना जाता है। जाहिर है जनता हथियार तब उठाती
है जब सरकार जनसुरक्षा के अपने कर्Ÿाव्य को ूल जाती है या फिर
उसमें असफल हो जाती है। छŸाीसगढ़ में लगग 10 जिले
नक्सलवादियों की चपेट में है। कुछ जिले तो ऐसे है जहां दिन में सरकार का प्रशासन है
और रात में नक्सवादियों का शासन है। कुछ स्थान ऐसे ी है,जहां दिन हो या रात सरकारी प्रशासन मृत प्रायः हो गया
है। इस पूरी स्थिति के लिए सरकार के पास अपने कारण हो सकते हैं, तर्क हो सकते हैं और शायद बहाने ी हो सकते हैं। लेकिन
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्य प्रशासन पिछले दशक से धीरे-धीरे अपने कर्Ÿाव्य को निाने में असफल होता जा रहा है। इतना तो सी
मानते हैं कि राज्य का निर्माण ही जन सुरक्षा की ावना को लेकर हुआ था। यदि राज्य इसी
जन की सुरक्षा में असफल होता है तो जन को अपनी सुरक्षा के लिए हथियार उठाने के सिवा
क्या विकल्प है? सलवा जुडुम इसी मानसिकता
से जुड़ा नक्सलवाद के खिलाफ जनांदोलन है। नक्सलवादियों और सलवा जुडुम के बीच यदि माक्र्सवादी
शब्दावली में वर्ग की पहचान करना ही जरूरी हो तो कहा जा सकता हैकि सलवा जुडुम सर्वहारा
वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हैऔर नक्सलवादियों का वर्ग क्या है? यकीनन उन्हें पूंजीपति वर्ग तो नहीं कहा जा सकता । तब
क्या वे बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं? शायद ऐसा ी नहीं कहा जा सकता। कानू सान्याल के शब्दों में ही कहना हो तो वे अराजक
वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे ज्योति बसु शायद उन्हें संशोधनवादी मानते हों।
जाहिर है ज्योति बसु की नजरों में सीपीएम ही दास कैपिटल की पालकी वैज्ञानिक तौर-तरीके
से ढो सकता है और ढो रहा है। यदि नक्सलवादी सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते
और वे जन संघर्ष और जनकल्याण से ी नहीं जुड़े हुए हैं तो आखिर उनके इस पूरे आंदोलन
के पीछे निहित उद्देश्य क्या है?
क्या सŸाा हथियाना या फिर व्यवस्था में परिवर्तन करना? शायद ये दोनों ही
उद्देश्य नक्सलवादियों के एजेंडे में नहीं है क्योंकि वे इतना तो जानते ही है
कि ारत जैसे बड़े देश में इक्का-दुक्का स्थानों पर छिटपुट हिंसा के बल पर सŸाा नहीं हथियाई जा सकती। व्यवस्था परिवर्तन की बात तो
बहुत दूर की है । माक्र्सवाद को अपने वैचारिक प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम मानने वाले नक्सलवादी
माक्र्सवाद के उद्देश्यों और उसके तरीकों से दूर हटकर आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं? वास्तव में सर्वहारा क्रांति
के रास्ते पर नक्सलवाड़ी से निकला सान्याल और मजूमदार का यह आंदोलन अंततः टकता-टकता
विदेशी हथियारों से लैस एक आतंकवादी समूह में परिणित हो गया है। हिंसा का प्रयोग उसके
लिए अब साधना ी है और साध्य ी ।
इस मोड़ पर सलवा जुडुम की प्रासंगिकता और उपादेयता पर चर्चा करना अनिवार्य हो जाता
है। सलवा जुडुम का विरोध नक्सलवादियों के साथ-साथ कांग्रेस ी कर रही है । पिछले दिनों
राजनंद गांव में हुए लोकसा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रत्याशी के चुनाव
अियान में विधानसा में कांग्रेस के विधायक और विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा को नहीं
बुलाया। महेन्द्र कर्मा नक्सलवादियों के खिलाफ सलवा जुडुम को समर्थन दे रहे हैं। कांग्रेस
के ही अजीत जोगी जो छŸाीसगढ़ के मुख्यमंत्री रह
चुके हैं और अरसा पहले उन्होंने ारतीय धर्म छोड़कर चर्च की शरण ग्रहण कर ली थी वे
की प्रत्यक्ष तो की अप्रत्यक्ष नक्सलवादियों का समर्थन करते हैं। आंध्र प्रदेश में
पिछले विधानसा चुनावों में कांग्रेस का मुख्य चुनावी मुद्दा नक्सलवादियों के खिलाफ
पुलिस अियान को बंद करना था। ध्यान रहे आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सेम्युल
राज शेखर रेड्डी ने ी ारतीय धर्म को त्याग कर चर्च की शरण ग्रहण कर ली थी। जैसे सबूत
मिल रहे हैंऔर परिस्थितिजन्य प्रमाण जुट रहे हैं उससे लगता है कहीं न कहीं कांग्रेस
और नक्सलवादी आपस में ीतर से जुड़े हुए हैं। पिछले कुछ अरसे से चर्च ने नक्सलवादियों
और राज्य सरकारों के बीच अपने आप को मध्यस्थ की ूमिका में ी उपस्थित करना शुरू कर
दिया हैऔर नक्सलवादियों का चर्च पर विश्वास गहरा होता जा रहा है। यह अजीब विरोधाास
है कि कार्लमाक्र्स की ॰ष्टि में चर्च सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा शत्रु था और आज ारत
में उसी कार्लमाक्र्स का नाम लेने वाले नक्सलवादी समूह चर्च पर ही सबसे ज्यादा विश्वास
कर रहे हैं।
आज नक्सलवादियों की संपूर्ण शक्ति छŸाीसगढ़
में क्यों केन्द्रित हो रही है?
इसका मुख्य
कारण यह है कि छŸाीसगढ़ से ही जनांदोलन सलवा
जुडुम का प्रारं हुआ है । सलमा जुडुम नक्सलवाद के थीसिस के ीतर का एंटी थीसिस है
जो माक्र्स के अपने विश्लेषण के अनुसार ही देर सबेर अपने थीसिस याने नक्सलवाद को नष्ट
करेगा। इसलिए नक्सलवादी शक्तियाँ अपनी तमाम शक्ति छŸाीसगढ़
में सलवा जुडुम के खिलाफ केन्द्रित कर रही हैं। द्वितीय सलवा जुडुम आंदोलन क्योंकि
अपने मूल प्रारूप में सर्वहारा का आंदोलन है इसलिए यह नक्सलवाद के ीतर के अंर्तविरोधों
को नंगा करता है । नक्सलवादी इस सत्य का सामना न कर पाने के कारण किसी ी हालत में
सलवा जुडुम को नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं। सलवा जुडुम को लेकर केन्द्रीय सरकार के
गृह राज्य मंत्री प्रकाश जायसवाल ने एक प्रश्न उठाया है जिसकी यहां चर्चा कर लेना अत्यंत
संगत होगा। प्रकाश जायसवाल कहते हैं कि यदि छŸाीसगढ़
की सरकार सलवा जुडुम के कार्यकर्ताओं की प्राण रक्षा नहीं कर सकती तो उसे सलवा जुडुम
आंदोलन के पीछे से अपना हाथ खींच लेना चाहिए। प्रकाश जायसवाल के इस वक्तव्य का क्या
निहितार्थ है? नक्सलवादियों से प्रदेश का
सर्वहारा वर्ग लड़ रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार का क्या कर्Ÿाव्य बनता है ? उसके सामने तीन विकल्प हो सकते हैं । पहला विकल्प है कि वह नक्सलवादियों की मदद
करें। दूसरा विकल्प है कि वह सर्वहारा वर्ग सलवा जुडुम की मदद करें। तीसरा विकल्प है
कि वह इन दोनों वर्गों के झगड़े मे तटस्थ रहे। प्रकाश जायसवाल राज्य सरकार को सलवा
जुडुम का समर्थन करने से मना करते हैं तो इसका अर्थ है कि सरकार के पास बाकी के दो
विकल्प बचते हैं। क्या प्रकाश जायसवाल छŸाीसगढ़
सरकार को इन दोनों विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुनने की सलाह दे रहे हैं? प्रकाश जायसवाल की यह सलाह बड़ी खतरनाक है । यह नक्सलवाद
को लेकर कांग्रेस के ीतर की सोच और रणनीति को स्प्ष्ट करती है और निश्चय ही यह रणनीति
देश के लिए ी घातक है और इस देश के सर्वहारा वर्ग के लिए ी। इसका ला देश के पूंजीपति
वर्ग को ही मिल सकता है।
छŸाीसगढ़ में नक्सलवादियों द्वारा अपनी
समस्त शक्ति छोंक देने के पीछे एक और कारण ी है। ारतीय जनता पार्टी का नक्सलवाद से
वैचारिक विरोध है। ारतीय जनता पार्टी देश के ीतर की राष्ट्रीय शक्तियों का प्रतिनिधित्व
करती हैऔर उसका वैचारिक आधार दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद में है। वह एक ओर
नक्सलवादी समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या मानती है और दूसरी ओर इसे एक वैचारिक
युद्ध ी स्वीकारती है । कांग्रेस के लिए ऐसा कोई वैचारिक संकट नहीं है। क्योंकि सर
ह्यूम रोज के वक्त से चली कांग्रेस अपने जन्मकाल में ी वैचारिक धरातल से शून्य थी
और अब अपने जीवन की चैथ में ी वैचारिक धरातल से शून्य है। कांग्रेस की स्थापना करने
वाले अंग्रेज सर ह्यूम रोज एक प्रशासक थे, चिंतक नहीं। उन्होंने कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजों की प्रशासकीय सुविधा के लिए
की थी वैचारिक युद्ध लड़ने के लिए नहीं। बीच में गांधी नेहरू के कालखंड में कांग्रेस
का वैचारिक आधार पनपा था लेकिन पिछले दो दशकों से कांग्रेस पर उसी यूरोपीय विरासत की
सोनिया गांधी का कब्जा हो गया है जिसके बारे में ज्योति बसु ने की कहा था कि वे मात्र
एक गृहिणी है, राजनीतिज्ञ नहीं। नक्सलवादियों
से बेहतर सोनिया गांधी के इस रहस्य को कौन जानता है? इसलिए वे ी ाजपा के खिलाफ कांग्रेस से हाथ मिलाने के लिए तत्पर है और कहीं-कहीं
मिला ी रहे हैं। छŸाीसगढ़ और आंध्र प्रदेश इसका
ज्वलंत उदाहरण है। 1968 में नक्सलवाड़ी से चले नक्सलवादी आंदोलन को 2005 में छŸाीसगढ़ में सलवा जुडुम के रूप में सर्वहारा वर्ग ने पहली
बार वैचारिक चुनौती दी है । आज तक सरकारें नक्सलवाद का सामना कानून व्यवस्था की बेहतर
रणनीति से करती रही हैं लेकिन पहली बार नक्सलवाद को सलवा जुडुम की वैचारिक चुनौती मिली
है। सबसे बड़ी बात यह कि चुनौती उसे सर्वहारा वर्ग ने ही दी है। इस पूरी लड़ाई में
नक्सलवाद सर्वहारा वर्ग के खिलाफ खड़ा नजर आ रहा है। नक्सलवाद की इससे बड़ी पराजय और
क्या हो सकती है। लेकिन यह लड़ाई लंबी चलेगी क्योंकि इस लड़ाई में तर्क और गोली दोनों
एक साथ इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन इस लड़ाई का एक ला ही है कि पर्दे के पीछे छिपे
प्रकाश जायसवाल, अजीत जोगी, सेम्युलर राज शेखर रेड्डी, सोनिया गांधी, सीताराम जयचुरी, वृंदा करात और न जाने और
कितने लोग दिन के उजाले में नंगे हो रहे हैं।
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