Tuesday, 14 January 2014

भारत का अमेरिका के साथ आणविक करार:

 डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
दिनांक: 20 अगस्त 2007
स्थान: नई दिल्ली
ारत और अमेरिका में हुए आणविक करार में प्रधानमंत्री मनमोहन की स्थिति कितनी दयनीय है और इसमें ारतीय हितों की किस प्रकार से बली चढ़ाई गई है यह इससे सिद्ध होने लगा है कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को अब इस समझौते की वकालत के लिए लक्ष्मीमलसिंघवी को  मैदान में उतारना पड़ा है। ऐसा नहीं है कि सोनिया व मनमोहन सिंह के पास समझौते का समर्थन करने के लिए अपने वकील नहीं थे। कपिल देव सिब्बल से लेकर पी. चिदंबरम तक वकीलों की फौज खड़ी है। परंतु लगता है सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनों समझ गए हैं कि समझौते का ताना-बाना नंगा हो जाने के कारण जो स्थितियाँ बन गई हैं उसके लिए सिंघवी जैसे लोगों की सहायता की ी जरूरत है। सिंघवी ने पिछले दिनों अखबारों में एक लेख लिखकर समझौते की वकालत ही नहीं की बल्कि वामपंथी दलों एवं ाजपा पर कीचड़ ी उछाला है। अब इसे मनमोहन सिंह का दुर्ाग्य ही कहना चाहिए कि सिंघवी ने इस समझौते के पक्ष में बहुत मेहनत करके जो तर्क जुटाए हैं वे इस समझौते की पोल ही खोलते हैंऔर सरकार चला रहे शीर्ष पुरूषों को कटघरे में ज्यादा खड़ा कर रहे हैं। सिंघवी ने यह स्वीकार कर लिया है कि ारत के वैज्ञानिकों की इस समझौते को लेकर अनेक आशंकाएं हैं। उसके बाद सिंघवी प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाना शुरू कर देते हैं और यह घोषणा करते हैं कि 18 जुलाई 2005 को प्रधानमंत्री ने उन सी आशंकाओं को दूर कर दिया था । सिंघवी यह नहीं बताते कि प्रधानमंत्री ने ये आशंकाएं किस प्रकार दूर कीं क्योंकि परमाणु शोध से जुड़े हुए ारतीय वैज्ञानिक तो अी तक सिर पीट रहे हैं कि इस समझौते से आगे के शोध कार्य पर रोक लग जाएगी। सिंघवी ये मानते हैं कि ारतीय वैज्ञानिकों की आशंकाओं में दम है। लेकिन उसके बाद वे स्वयं को केवल इतना कहकर संतुष्ट कर लेते हैं कि उनकी सब आपŸिायाँ दूर कर दी गईं हैं।
लेकिन सिंघवी को इस बात के लिए बधाई देनी होगी कि उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है कि यह समझौता राष्ट्रपति बुश के मनमोहन सिंह के साथ व्यक्तिगत संबंधों के कारण ही संव हो सका है। दुर्ाग्य से ारत के लोगों को ी यही आशंका है कि बुश के साथ इन व्यक्तिगत संबंधों के कारण ही मनमोहन सिंह ने ारतीय हितों को बलि दे दी और अमेरिका के हितों का ध्यान रखा । वैसे बंगाल के ूतपूर्व विŸामंत्री और जाने-माने अर्थशाóी प्रो0 अशोक मित्रा जो मनमोहन सिंह के मित्र ी है, कुछ अरसा पहले ही अपनी एक बांग्ला पुस्तक में इस बात का खुलासा कर चुके हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की  पूर्व में विŸामंत्री के पद पर नियुक्ति ही अमेरिका के कहने पर हुई थी। एहसान का ार बहुत दूर तक जाता है।
लेकिन सिंघवी की वकालत का असल चमत्कार कुछ दूसरा है। अमेरिका पिछले कुछ सालों से खासकर सोवियत रूस के पतन के बाद और सीटीबीटी, एनपीटी और डब्ल्यूटीओ जैसी शरारतों के बाद दुनिया र के देशों को यह पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहा है कि अब किसी देश कि पूर्ण संप्रुŸाा के दिन समाप्त हो गए हैं। सारी दुनिया एक गाँव बनती जा रही है इसलिए देशों को अपनी संप्रुŸाा के मामले पर समझौते करने होंगे। अप्रत्यक्ष अिप्राय कुछ-कुछ ऐसा है कि दुनिया के देशों को अपनी संप्रुŸाा का कुछ हिस्सा अमेरिका के पास गिरवी रखना होगा। सीटीबीटी, एनपीटी और डब्ल्यूटीओ जैसे जाल उस संप्रुŸाा को गिरवी रखने के अमेरिकी षड्यंत्र ही कहे जाने चाहिए। ारत अब तक अमेरिका के आगे झुकने से इंकार करता रहा है। लेकिन अब वह सहर्ष अमेरिका के आगे अपनी संप्रुŸाा को गिरवी रखने के लिए तैयार हो गया है। यह समझौता उसी दिशा में पहला घातक कदम है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि अमेरिका ने ारत में इस समय का धैर्य से इंतजार किया है। लेकिन वे अंधेरे में है। अमेरिका ने इंतजार नहीं किया बल्कि अमेरिका ने सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के हाथों में ारत को देने की परिस्थितियों का स्वयं निर्माण किया है और यह परमाणु समझौता अमेरिका के इस परिश्रम का स्वाविक फल है। लक्ष्मीमल सिंघवी ी अमेरिका के इसी तर्क का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि अब दुनिया के देशों को संप्रुŸाा की बढ़ी-चढ़ी ावना के स्वािमान में नहीं बहते रहना चाहिए। संप्रुŸाा का अर्थ अलगाव नहीं है और हर समझौते में लेनदेन होता ही है। लेकिन इसके आगे सिंघवी चुप हो जाते हैं। उन्होंने अंग्रेजी में एक शब्द ‘‘गिव एंड टेक’’ प्रयुक्त किया है यदि वह अपनी वकालत में यह ी खुलासा कर देते कि इस परमाणु समझौते में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का अमेरिका के साथ क्या गिव एंड टेकहुआ है तो शायद ारत के हितों की ज्यादा रक्षा होती । लेकिन सिंघवी ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि तब अमेरिका के हितों पर चोट पहुंचती। सिंघवी को सबसे ज्यादा गुस्सा ारतीय जनता पार्टी पर है। सिंघवी का तर्क है कि कामरेड तो समझौते का विरोध कर रहे हैं, यह उन्हें समझ में आ रहा है, परंतु ारतीय जनता पार्टी अमेरिका से हुए इस समझौते का विरोध क्यों कर रही है? यह सिंघवी की जिज्ञासा नहीं है। यह उनका गुस्सा है और वे गुस्से में घोषणा कर रहे हैं कि यह विरोध करके ाजपा बहुत ही गलत कार्य कर रही है। ाजपा पर बुश को ी गुस्सा आ रहा है। ाजपा पर सोनिया गांधी को ी गुस्सा आ रहा है और अब ाजपा पर लक्ष्मीमलसिंघवी को ी गुस्सा आ रहा है। सिंघवी का यह गुस्सा पिछले कुछ सालों तक शाकाहारी रहकर नए-नए बने मांसाहारी का गुस्सा है । इन तीनों के गुस्से से यह सिद्ध होता है कि ारतीय जनता पार्टी ठीक रास्ते पर चल रही है और यह समझौता देश के हितों के विपरीत है। क्या लक्ष्मीमलसिंघवी को इससे आगे ी कुछ कहना है?

( नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

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