जम्मू कश्मीर सरकार ने राशन कार्ड बनवाने के लिये जो आवेदन पत्र हाल ही में प्रकाशित किया है , वह अंग्रेज़ी भाषा में है । राज्य सरकार का ज़्यादा काम काज अंग्रेज़ी भाषा में ही चलता है । राज्य में इसका विरोध भी होता रहता है । अलग अलग संभागों के लोगों की माँग रहती है कि जिन कामों से जनता का सीधे सीधे वास्ता पड़ता है , वे काम तो कम से कम उन संभागों की भाषा में किया जाना चाहिये । राशनकार्ड के लिये आवेदन पत्र तो ऐसा फ़ार्म है जो हर हालत में स्थानीय भाषा में ही तैयार किया जाना चाहिये । मसलन जम्मू संभाग में यह डोगरी में ,लद्दाख में भोटी में , कारगिल में बल्ती में और कश्मीर संभाग में कश्मीरी भाषा में प्रकाशित किया जाना चाहिये । इसलिये जब ये आवेदन पत्र कश्मीर में वितरित किये जाने लगे तो इसको लेकर विरोध के स्वर सुनाई देने लगे कि यह प्रपत्र कश्मीरी भाषा में होना चाहिये । लेकिन हुर्रियत कान्फ्रेंस का वह धड़ा जिसकी अगुवाई सैयद अली शाह गिलानी करते हैं , शायद कश्मीरियों द्वारा कश्मीरी भाषा को लेकर दिखाये जा रहे इस भावनात्मक लगाव को बर्दाश्त नहीं कर पाया । पिछले दिनों ख़ुद गिलानी ने बाक़ायदा अख़बारों को एक बयान जारी कर अपनी और उनकी जैसी सोच रखने वाले अपने दूसरे साथियों की कश्मीर विरोधी जहनियत का ख़ुलासा कर दिया है ।
गिलानी का कहना है कि राशन कार्ड के ये फ़ार्म उर्दू भाषा में प्रकाशित किये जाने चाहिये । उनका कहना है कि उर्दू एशिया के लोगों के लिये अरबी ज़ुबान के बाद सबसे ज़्यादा पवित्र ज़ुबान है । अब कोई गिलानी से पूछे कि मलेशिया , इंडोनेशिया , वियतनाम , थाईलैंड और जापान इत्यादि देशों के मुसलमानों का उर्दू भाषा से क्या लेना देना है ? सैयद साहिब का कहना है कि इस्लाम की पवित्र किताबों का तरजुमा उर्दू ज़ुबान में हो चुका है, इसलिये मुसलमानों की नज़र में यह ज़बान भी अब उनकी मज़हबी ज़ुबान का पाक दर्जा अख़्तियार कर गई है । अब इन को कौन समझायें कि वह तो दुनिया की हर ज़ुबान में हो चुका है । केवल तरजुमा होने मात्र से उर्दू मुसलमानों की मज़हबी ज़ुबान कैसे हो गई ? गिलानी यह ज्ञान भी देते हैं कि उस पार के कश्मीर (यानि जो पाकिस्तान के क़ब्ज़े में है, लेकिन वे इसके लिये इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते । उनकी नज़र में इन शब्दों का प्रयोग नापाक है) के लोग भी उर्दू जानते हैं । लोगों को राशनकार्ड श्रीनगर , बारामुला, कुपवाडा ,शोपियां और अनन्तनाग में बनवाने हैं , लेकिन गिलानी साहिब उस पार के कश्मीरियों के भाषा ज्ञान पर तफसरा कर रहे हैं । वैसे गिलानी इतना तो जानते ही होंगे कि पाकिस्तान द्वारा क़ब्ज़ा किये गये उस पार के हिस्से में कोई कश्मीरी नहीं है , क्योंकि क़ब्ज़ा किया गया वह हिस्सा जम्मू का है जहाँ पंजाबी और डोगरी बोलने वाले लोग हैं या फिर मुज्जफराबाद है यहाँ केवल पंजाबी बोलने बाले लोग हैं । गिलगित और बाल्तीस्थान की अपनी अलग भाषा है, इसका पता भी गिलानी साहिब को इस उम्र तक आते आते पता चल ही गया होगा ।
राशन कार्ड का आवेदन पत्र अंग्रेज़ी में नहीं होना चाहिये , इसको लेकर तो कोई बहस नहीं है , लेकिन कश्मीर घाटी में वह कश्मीरी भाषा में होना चाहिये , इसको कहते हुये सैयदों की ज़ुबान बन्द क्यों हो जाती है ? जो ज़ुबान कश्मीर का बच्चा बच्चा बोलता है , उसे ये सैयद पवित्र ज़ुबान मानने को तैयार क्यों नहीं हैं ? जिस ज़ुबान में हब्बा खातून ने अपने दर्द का इज़हार किया , जिस में नुंद रिषी ने भाईचारे के गीत गाये , जिस में लल द्यद ने अपने वाखों की रचना की , ये सैयद उस ज़ुबान को मुक़द्दस मानने से मुनकिर क्यों हैं ? आज कश्मीर की युवा पीढ़ी में अपनी ज़ुबान कौशुर को लेकर एक नई चेतना का इज़हार हो रहा है । पहचान के संकट के समय हर आदमी अपनी मादरी ज़ुबान में अपनी पहचान की तलाश करता है । कश्मीर विश्वविद्यालय में कश्मीरी ज़ुबान के पक्ष में माहौल है । इस भाषा में नये साहित्य की रचना ही नहीं हो रही बल्कि पाठकों की संख्या भी बढ़ रही है । कश्मीरी ज़ुबान में रोज़ाना अख़बार छप रहे हैं । कश्मीरी ज़ुबान को इतने लम्बे अरसे बाद एक बार फिर तमाम कश्मीरियों की ओर से बिना किसी मज़हबी नज़रिए से इज़्ज़त मिल रही है । चाहिये तो यह था कि हुर्रियत कान्फ्रेंस के नाम पर इक्कठे हुये ये बुज़ुर्ग लोग नौजवान पीढ़ी के इस आन्दोलन का खैरमकदम करते , लेकिन इसके उलट इन सैयदों ने कश्मीरी को दरकिनार करते हुये कश्मीर की वादियों में अरबी उर्दू के तराने गाने शुरु कर दिये हैं ।
दरअसल कश्मीरियों की और सैयदों की यह जंग आज की नहीं कई सौ साल पुरानी है । यह एक प्रकार से उसी दिन शुरु हो गई थी जब शम्सुद्दीन शाहमीर ने कश्मीरी शासकों की हत्या कर इस प्रदेश पर क़ब्ज़ा कर लिया था । शाहमीर द्वारा स्थापित वह सुल्तान वंश कई सौ साल चला । उस काल में शासन की रीति नीति पर असल क़ब्ज़ा सैयदों का ही रहा , जिन्होंने कश्मीरियों पर बेहिसाब अत्याचार किये । यही कारण है कि कुछ इतिहासकार इस काल को विदेशी सैयद शासन काल भी कहते हैं । कश्मीरी भाषा को समाप्त कर उसके स्थान पर अरबी फ़ारसी थोपने के प्रयास तभी से शुरु हो गये थे । लेकिन क्योंकि कश्मीरी आम जनता की भाषा थी , उस जनता की भी जिसने इस्लाम मज़हब को तो चाहे अपना लिया था , लेकिन अपनी मातृ भाषा कश्मीरी को नहीं त्यागा था , इसलिये यह भाषा आज तक भी ज़िन्दा ही नहीं रही बल्कि साहित्य और बोलबाला की भाषा भी बनी रही । बहुत से लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जनगणना में दिये गये आँकड़ों के अनुसार कश्मीर संभाग में केवल 3830 लोगों ने उर्दू को अपनी भाषा स्वीकार किया । 2806441 कश्मीरियों ने कश्मीरी को अपनी भाषा बताया । यह भी सभी जानते हैं कश्मीरी को अपनी भाषा बताने वाले कश्मीरियों में से 95 प्रतिशत लोग मज़हब के लिहाज़ से मुसलमान ही हैं । लेकिन इसके बावजूद आज २०१४ में सैयद अली शाह गिलानी ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि कश्मीरी ज़ुबान के ख़िलाफ़ उनकी यह लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है । उर्दू और अरबी के नाम पर कश्मीरियों का मज़हबी जुनून उभारने की कोशिश कर , सैयद गिलानी कश्मीरी ज़ुबान को हाशिए पर धकेलने की पुरानी चालें चल रहे हैं , लेकिन आशा करनी चाहिये इस बार कश्मीरियों की सामूहिक चेतना के आगे वे यक़ीनन हार जायेंगे । हैरानी इस बात की है कि जम्मू कश्मीर रियासत के पाँचों संभागों में से किसी की भी भाषा उर्दू नहीं है । जम्मू की डोगरी , कश्मीर की कश्मीरी , लद्दाख की भोटी , बाल्तीसतान की बल्ती और गिलगित की अपनी जनजाति भाषा है , लेकिन फिर भी राज्य के संविधान में उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिया हुआ है । कश्मीर घाटी में कश्मीर के हितों के लिये लड़ने का दावा करने वाले , कश्मीरी भाषा को उसका उचित स्थान दिलवाने के प्रश्न पर रहस्यमय चुप्पी साध लेते हैं । नेशनल कान्फ्रेंस और पी डी पी बाक़ी हर प्रश्न पर लड़ते हैं लेकिन जब कश्मीरी भाषा को ठिकाने लगाने का प्रश्न आता है तो आगा सैयद रुहुल्लाह से लेकर सैयद मुफ़्ती मोहम्मद तक सभी सैयद शाह गिलानी के साथ खड़े दिखाई देते हैं । ध्यान रहे बाहरवीं शताब्दी के आसपास अरब और ईरान से आने वाले इन सैयदों की मातृभाषा अरबी या फ़ारसी थी । लेकिन इतनी शताब्दियाँ कश्मीर घाटी में गुज़ार देने के बाद भी ये कश्मीरी भाषा को अपनी नहीं मान सके । यदि ऐसा होता तो आज सैयद अली शाह गिलानी अपनी आवाज़ कश्मीरी भाषा के हक़ में उठाते न कि उर्दू के हक़ में । वैसे यह देखना भी रुचिकर रहेगा कि राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, जो ख़ुद कश्मीरी हैं , राशन कार्ड का आवेदन पत्र कश्मीरी भाषा में छपवा कर कश्मीरियों का साथ देते हैं या फिर उसे अंग्रेज़ी या उर्दू में ही रखकर परोक्ष रुप से इन सैयदों की ही सहायता करते हैं ?
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