: डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले दिनों उŸार प्रदेश के राज्यपाल राजेश्वर
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कुलाधिपति की हैसियत से
दीक्षांत ाषण देने गए थे। अपने ाषण में राजेश्वर ने संस्कृत के विद्वानों को सलाह
दी कि संस्कृत पढ़ने का अर्थ बैलगाड़ी के युग में जीना है। यदि जीवन में आगे बढ़ना
है तो अंग्रेजी पढ़नी पड़ेगी। आज के युग में संस्कृत की कोई उपयोगिता नहीं बची है।
उनका इस प्रकार का उपदेश लंबा खिंचता इससे पहले ही संस्कृत जानने वालों ने उनकी ओर
कुर्सियाँ फेंकनी शुरू कर दी। राज्यपाल को विश्वविद्यालय से निकालने में पुलिस को काफी
मशक्कत करनी पड़ी। राजेश्वर ने जो कहा उसकी मीमांसा तो बाद में ी की जा सकती है, फिलहाल यह जान लेना बेहतर होगा कि यह महाशय हैं कौन ? उŸार प्रदेश के राज्यपाल है
- ऐसा परिचय देने की जरूरत नहीं है। आज से लगग साठ सŸार साल पहले इन्होंने चेन्नई से अर्थशाó मेें एमए किया था। उसके बाद पुलिस की नौकरी में चले गए
और अनेक स्थानों में नौकरी करते-करते जब 1983 में महकमा-ए-पुलिस से रिटायर हुए तो सरकार
ने इन्हें अरुणाचल प्रदेश का लेफ्टिनेंट गवर्नर बना दिया। उसके बाद एक के बाद एक प्रदेश
के गवर्नर बनते गए। उम्र के आठ दशक पार कर लेने के बाद ी राज्यपाल के पद पर जमे हुए
हैं। हमारा उद्देश्य राजेश्वर का बायोडाटा एकत्रित करना नहीं है। बल्कि दीक्षांत समारोह
में दिए गए उनके ाषण और उनके इस बायोडाटा के ीतर तालमेल को पकड़ना है। जिसे शायद
वे बहुत मशक्कत से छुपा रहे हैं। राजेश्वर ने जिंदगी में की संस्कृत पढ़ी होगी इसका
फिलहाल कोई प्रमाण नहीं है। पुलिस की नौकरी से रिटायर होने के बीस साल बाद ी वे राज्यपालों
के पद पर जमे हुए हैं इसका कारण अंग्रेजी ाषा पर उनकी महारत हो सकता है। संस्कृत के
छात्रों का यह दुर्ाग्य है कि उन्होंने अपने
आगे बढ़ने के एक रहस्य का खुलासा तो कर दिया बाकी के रहस्यों को वे छुपा गए। आगे बढ़ने
से उनका अिप्राय यदि उनकी अपनी मिसाल पर आधारित है तो किसी को कोई ऐतराज नहीं होना
चाहिए। संस्कृत के छात्रों ने जो उन पर कुर्सियाँ फेंकी- इस परिप्रेक्ष्य में वह सचमुच
दुर्ाग्यपूर्ण था । प्रसिद्ध पत्रकार प्राष जोशी ने ी शायद इसी पृष्ठ ूमि में संस्कृत
के छात्रों के इस कृत्य को अशोनीय कहा है।
लेकिन इससे जुड़ा हुआ एक और प्रश्न ी है राजेश्वर को संस्कृत विश्वविद्यालय में
जाकर इस प्रकार की सलाह देने की जरूरत क्यों पड़ी? लंबे अरसे तक उन्होंने पुलिस महकमे में नौकरी की हैं, इसलिए इतना अंदाजा तो लगा ही लिया होगा कि इसकी प्रतिक्रिया
अशोनीय हो सकती है। यह जानते हुए ी वे किस विवशता या योजना से संस्कृत को गालियाँ
निकाल रहे थे?सोनिया गांधी की सरकार ने
सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में जो ‘‘ज्ञान आयोग’’ स्थापित किया था, पिछले दिनों उसने अपनी रपट सरकार को दे दी है। उस रपट में सैम पित्रोदा ने ज्ञान
और मेधा के प्रश्न पर चिंतन करने के बजाय ारत सरकार को ाषा संबंधी सलाह दी है। सैम
पित्रोदा का कहना है कि ारत सरकार को सी स्कूलों में पहली श्रेणी से ही अंग्रेजी
पढ़ाना अनिवार्य कर देना चाहिए। पित्रोदा ने स्पष्ट तो नहीं कहा लेकिन ाव कुछ-कुछ
यही निकलता हैकि यदि ारत को आगे बढ़ना है तो ारतीय ाषाओं के बलबूते पर नहीं बढ़ा
जा सकता। उसके लिए अंग्रेजी ाषा का दामन थामना होगा। सामान्य जन ी जानता है कि आगे
बढ़ने के लिए ज्ञान, मेधा, परिश्रम और मौलिक शोध की आवश्यकता होती है। ाषा की ूमिका
इस प्रगति में प्रमुख नहीं होती। यदि ऐसा होता तो रूस, जर्मनी, चीन इत्यादि देश ज्ञान विज्ञान में इतना आगे न बढ़े होते। पित्रोदा ी यह जानते
हैं और राजेश्वर ी अच्छी तरह पहचानते हैं। दरअसल पिछले तीन-चार दशकों में ारतीय विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अध्ययन अध्यापन
का माध्यम ारतीय ाषाएं कर दिया गया था। उससे नुकसान यह हुआ कि आम आदमी के बच्चे, ननुआ तेली का बच्चा, चतुरी चमार का बच्चा और घासी कहार का बच्चा ी पढ़कर आगे की सफों में बैठने लायक
हो गया। जाहिर था आिजात्य वर्ग में खलबली मचती। आगे बढ़ रही इस ीड़ को कैसे रोका
जाए? यदि यह ीड़ इसी प्रकार आगे बढ़ती
गई तो राजेश्वर राव का बच्चा क्या करेगा। क्योंकि उसे केवल अंग्रेजी आती है विषय से
उसका कोई ताल्लुक नहीं है। चतुरी चमार के बच्चे को विषय का ज्ञान है लेकिन उसे अंग्रेजी
नहीं आती। दुर्ाग्य से निर्णय लेने का अधिकार राजेश्वर राव को है, सैम पित्रोदा को है इसलिए उनका निर्णय अपने बच्चों या
अपने वर्ग के पक्ष में जा रहा है ज्ञान और
विषय के पक्ष में नहीं। इसे क्या कहा जाए? जिस सैम पित्रोदा को ज्ञान के पक्ष में रास्ते निकालने का काम सौंपा गया था वह
अंग्रेजी ाषा के खेमे में जाकर उन्हीं के साथ मिल गया। राजेश्वर इस कड़ी का एक हिस्सा
मात्र है। यहाँ सैम पित्रोदा और राजेश्वर व्यक्तिवाचक संज्ञाएं नहीं है बल्कि इनको
जातिवाचक संज्ञाएं मानना चाहिएऔर इसी परिपेक्ष्य में इसका पाठ करना चाहिए।
अब प्रश्न उठता है सैप पित्रोदा और राजेश्वर राव ने ारत के करोड़ों-करोड़ों लोगों
के आगे बढ़ रहे काफिले को रोकने के लिए यह जो अंग्रेजी ाषा का अियान चलाया है उसके
पीछे प्रयोजन क्या है । एक प्रयोजन का ऊपर हमने उल्लेख किया है लेकिन वह इस अियान
का मात्र एक पक्ष है। दूसरा पक्ष ज्यादा गहरा और रहस्यवादी चेतना से ओतप्रोत है। आज
से सौ साल पहले गोरी नसलों ने इस देश में ज्ञान और ाषा के प्रश्न पर विचार किया था
। लंबी बहस हुई थी, वाद विवाद ी हुए थे। अंत
में ‘‘हर मेजिस्टी’’ की सरकार ने यही निर्णय लिया कि ारत को आगे बढ़ने से
रोकना है और उसे स्थायी रूप से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में गोरी नस्लों का पिछलग्गू
बनाना है तो अध्ययन का माध्यम अनिवार्य रूप से अंग्रेजी ही किया जाना चाहिए। मैकाले
इस अियान के अग्रणी नेता थे। उनका कहना था कि मेरी इस योजना से ारतीय केवल शक्ल से
ारतीय रह पाएंगे, ीतर से वे पश्चिमी संस्कृति के अनुयायी हो जाएंगे। बहुत बाद में जब इकबाल ने यूनान, मिश्र, रोम, के जहान से मिट जाने की बात कही और
साथ ही यह ी कहा कि ‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती
नहीं हमारी’’तो ‘‘हर मजेस्टी’’ की लंदन स्थित सरकार के आगे ी यही मुख्य प्रश्न था कि इस ‘‘कुछ बात ’’ को किस प्रकार समाप्त किया जाए ताकि ारत का नाम ी यूनान, मिश्र और रोम की इस सूची में शामिल हो जाए। मैकाले का
यह अियान उसी दिशा में सहायता दे रहा था।
गोरी नस्लों का दिल्ली से प्रत्यक्ष वर्चस्व समाप्त हो गया। सरकार उन ारतीयों
के हाथों में चली गई जिन्हें मैकाले की शिक्षा पद्धति ने पैदा किया था । आज इस अियान
को चले हुए लगग डेढ़ सौ साल हो गया है । संस्कृत पर प्रहार करना इसलिए ी जरूरी हो
गया है क्योंकि वह उस ‘‘कुछ बात’’ की धुरी है। मैकाले से चली हुई इस यात्रा की मशाल सैम
पित्रोदा ने संाली है । लेकिन बहस गर्मा रही थी इसलिए शायद पर्दे के पीछे छिपी हुई
शक्तियों को पित्रोदा की सहायता के लिए राजेश्वर राव को उतारना पड़ा। जैसे की अफजल
गुरु की सहायता के लिए, संकट की घड़ी देखकर सोनिया
गांधी को गुलाम नवी आजाद को उतारना पड़ा था। गोरी नस्लों द्वारा हिन्दुस्तान में शुरू
की गई यह लड़ाई अी ी जारी है। ऊपर से सूत्र एक दूसरे से असंबंधित और दूर-दूर दिखाई
दे रहे हैं। लेकिन ीतर कहीं न कहीं आपस में अच्छी तरह जुड़े हुए हैं।
(हिन्दुस्थान समाचार)
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