Tuesday, 14 January 2014

म्यांमार में लोकतंत्र की आड़ में चर्च का गंदा खेल:

 डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
दिनांक:  1 अक्तूबर 2007
स्थान: नई दिल्ली
म्यांमार में कुछ बौद्ध िक्षुओं ने लोकतंत्र के पक्ष में नारे लगाते हुए पिछले दिनों प्रदर्शन किए। प्रदर्शन उग्र हुए तो पुलिस ने लाठी चार्ज किया और गोली ी चली उसमें कुछ लोग मारे ी गए। उनमें से एक जापानी पत्रकार ी था। जाहिर है चीवर पहने िक्खु का खून बहेगा तो लोगों को क्रोध तो आएगा ही और यांगून में लोग क्रोध का प्रदर्शन कर ी रहे हैं। म्यांमार में 1962 में ही जनरल नेविन ने सैनिक सŸाा स्थापित कर ली थीऔर उसने 26 साल तक वहां राज्य किया। 1988 में म्यांमार में लोकतंत्र के पक्ष में लोग सड़कों पर निकल आए। जनरल नेविन को सŸााच्युत करते हुए एक अन्य सैनिक विद्रोह में जनरल साँ मुआंग ने सŸाा संाल ली । जनरल साँ मुआंग ने 1990 में देश में पहली बार स्वतंत्र चुनाव करवाए । इन चुनावों में औंग स्वांग सूकी की नेशनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी ने 489 में से 392 सीटें जीतकर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। परंतु जनरल साँ मुआंग ने सŸाा छोड़ने के बजाए 20 जुलाई 1999 को औंग स्वांग सूकी को गिरफ्तार कर लिया। सूकी तो तब से जेल में ही है अलबŸाा जनरल साँ मुआंग ने बाद में त्याग पत्र दे दिया और उनकी जगह थान श्वेह सŸाारूढ़ हुए।
सूकी का म्यांमार के स्वतंत्रता संघर्ष से पुराना समन्वय रहा है। चाहे प्रत्यक्ष चाहे अप्रत्यक्ष। सूकी के पिता औंग स्वांग ने 1940 में म्यांमार में बर्मा स्वतंत्रता सेना का गठन किया था और यह सेना  बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करती रही। वैसे कुछ लोगों का यह आरोप ी है कि औंग स्वांग पहले जापानियों के साथ थे। जापानियों ने ही उन्हें प्रशिक्षित किया था लेकिन बाद में उन्होंने जापानियों के खिलाफ ब्रिटेन से हाथ मिला लिया। 1947 में बर्मा में जो अस्थाई सरकार बनी उसमें औंग स्वांग उपसापति थे। परंतु इसके बनने के कुछ महीने बाद ही 1947 में विरोधियों ने औंग स्वांग समेत उनके अनेक मंत्रिमंडलीय सहयोगियोें को कत्ल कर दिया। इसे इतिहास का दुर्याेग कहा जाए या संयोग कि 1947 से 43 साल बाद औंग स्वांग की बेटी सूकी ने लोकतांत्रिक चुनावों में बर्मावासियों का समर्थन हासिल किया। लेकिन इस बीच इरावती में इतना पानी बह चुका था कि इस यात्रा को अथ से प्रारं करना संव नहीं था।
जिस समय अंग्रेजों का ारत और बर्मा पर एक साथ साम्राज्य था उस समय और 1937 के बाद ी जब बर्मा को ारत के प्रशासन से अलग कर दिया गया अंग्रेजों ने बर्मा के लोगों में फूट डलवाने के साम्राज्यवादी प्रयास किए। इस देश को दिया गया बर्मा नाम ी अंग्रेजों का ही षड्यंत्र था। जिस प्रकार उन्होंने हिन्दुस्थान और ारत को इंडिया बना दिया इसी प्रकार उन्होंने इरावती की धरती के पुराने नामों को दरकिनार करते हुए इस देश का नाम बर्मा कर दिया। बर्मा मूलतः अपनी पुरानी ऐतिहासिक विरासत को संाले हुए बुद्ध वचनों में विश्वास करने वाला देश है। इसकी राष्ट्रीयता का मूलाधार ी बुद्ध प्रतीक, इतिहास और संस्कृति के ीतर से उपजा है। अंग्रेजों ने एक निश्चित योजना के अनुसार बर्मा का ईसाइकरण प्रारं किया। ारत के  साथ बर्मा के पर्वतीय सीमांत पर बसी हुई जनजातियों का सरकारी सहायता से ईसाई मिशनरियों ने धर्मांतरण कर उनके गले में यीशु मसीह की सलीव लटका दी। धर्मांतरण के इन कुप्रयासों का फल यह हुआ कि बर्मा के ीतर ही वििन्न सम्प्रदायों में अविश्वास बढ़ा और झगड़े हुए। लोकतंत्र की सरकार का जो प्रयोग थोड़े अरसे वहाँ हुआ उसमें अमेरिका के साम्राज्यवादी रवैय्ये के कारण मैदानी क्षेत्रों में ी ईसाईकरण की प्रक्रिया तेज होने लगी। बर्मा में सेना ने सŸाा संालने के बाद ईसाई मिशनरियों की इन अराष्ट्रीय गतिविधियों पर रोक लगादी और बहुत सीमा तक धर्मांतरण के माध्यम से राष्ट्रांतरण की यह प्रकिया रूकी ।
लेकिन इसी बीच औंक स्वांग की बेटी सूकी के बारे में जान लेना ी रूचिकर होगा। इसी बीच औंग स्वांग की बेटी सूकी पढ़ने के लिए लंदन चली गई और वहाँ बर्मा में पूर्व ब्रिटिश राजदूत लाॅर्ड गौरबूथ के घर में रही। यही उनका परिचय एक अंग्रेज माइकल एरिस से हुआ और 1972 में दोनों नेे शादी कर ली। 1988 में सूकी बर्मा वापिस आई और वहीं उन्होंने देश की राजनीति में पुनः ाग लेने का निर्णय लिया। आगे की कथा इतिहास है । बर्मा साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक प्रकार से क्रीड़ा ूमि बन गया है। जब से पोप ने दिल्ली में यह घोषणा की है कि 21वीं शताब्दी में एशिया के बचे खुचे देशों में ी सलीव लटका दी जाएगी तब से ारत के आसपास के 8-10 छोटे-छोटे बौद्ध देश ईसाई मिशनरियों का निशाना बन गए हैं। बर्मा उनमें से एक है। सैनिक शासन ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण की आज्ञा नहीं दे रहा। इसलिए लोकतंत्र बचाने की आड़ में बर्मा के पर्वतीय क्षेत्रों के ईसाई बहुल इलाकों के लोग यत्र-तत्र प्रदर्शन करते रहते हैं। अमेरिका और अन्य यूरोपीय देश बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए इसीलिए लालयित है कि वहां ईसाइकरण की प्रक्रिया को तेज किया जा सके। अन्यथा अमेरिका पाकिस्तान में तानाशाही का ही समर्थन करता है। अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी देशों को यह लगता है औंग स्वांग सूकी उनके उपकारों से इतनी दबी हुई है कि यदि उसे सŸाा प्राप्त होती है तो वह ना तो अमेरिका के साम्राज्यवादी षड्यंत्रों को रोक पाएगी और ना ही ईसाई मिशनरियों पर लगाम लगा पाएगी। अमेरिका और यूरोप बर्मा के ईसाईकरण की प्रक्रिया में इतनी रूचि ले रहे हैं कि जब बर्मा सरकार ने देश का नाम प्राचीन परंपरा के अनुसार म्यांमार कर दिया तो अमेरिका आस्ट्रेलिया आयरलैण्ड और इंग्लैण्ड ने उसे स्वीकार करने से इंकार कर दियाऔर वे अी ी बर्मा नाम का ही प्रयोग करते हैं। यही स्थिति यूरोप संघ की है। म्यांमार के ीतर के ईसाई समुदाय तो म्यांमार नाम का विरोध कर ही रहे हैं।

म्यांमार इतिहास के चैराहे पर खड़ा है। एक ओर उसे चीन घेरना चाहता है। दूसरी ओर अमेरिका और ईसाई मिशनरियाँ अपने साम्राज्यवादी एजेण्डा को म्यांमार में लागू करना चाहती है। सैनिक तानाशाही म्यांमार के सांस्कृतिक विरासत को संाल रही है। लेकिन उसका तरीका तानाशाही का है और किसी ी देश में तानाशाही का समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन दुर्ाग्य से लोकतंत्र बचाओ आंदोलन की आड़ में अमेरिका और यूरोप म्यांमार में धर्म परिवर्तन का जो गंदा खेल खेल रहा है उससे ी आँखे नहीं चुराई जा सकती। गवान बुद्ध ने कहा था कि- अप्प दीपों व । लेकिन अमेरिका इसी दीपक को बुझा देना चाहता है। तब प्रश्न पैदा होता है कि अंधेरे में लोकतंत्र कैसे जिंदा रहेगा।? लोकतंत्र के बिना म्यांमार की संस्कृति ी जिंदा नहीं रह सकती । उसका कंकाल तो बचा रह सकता है लेकिन आत्मा नहीं । चीन के दोनों हाथों में लड्डू हैं। उसे ना  तानाशाही से कुछ लेना देना है ना लोकतंत्र से। जो ी सरकार आ जाए वह उसी के पक्ष में है। क्योंकि चीन का लोक से कोई वास्ता नहीं है। उसका वास्ता केवल सरकार से है। परंतु ारत को तो लोक की ी । चिंता करनी है और अपने हितों की ी यहाँ एक और दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका के उकसाने पर और उसकी कार्यसूची को पूरा करने की योजना के अंतर्गत वर्तमान ारत सरकार में म्यांमार में लोक की हत्या को लेकर ज्यादा ही चिंता जताई जा रही है। ारत सरकार को न तिब्बत के लोक की चिंता है ना पाकिस्तान में लोक हत्या की चिंता है। उसे केवल यांगून के लोग की चिंता हो रही है। क्या यह लोकचिंता अमेरिका और  ईसाई मिशनरियों के हितों की पूर्ति के लिए तो नहीं है? (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार) 

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