Tuesday, 14 January 2014

धर्मांतरण से राष्ट्रीयता बदलती है

डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
धर्मांतरण शब्द का क्या अर्थ है? सामान्य धारणा के अनुसार एक धर्म छोड़कर दूसरे धर्म को अपना लेना ही धर्मांतरण है। यदि धर्मांतरण की परिाषा इतनी सहज है तो इसके साथ जुड़ा हुआ एक और प्रश्न पैदा होता है कि धर्मांतरण पर किसी दूसरे को आपŸिा क्यों होनी चाहिए? धर्म किसी का ी व्यक्तिगत मसला है। वह एक धर्म को स्वीकार करें या दूसरे धर्म को स्वीकार करें इसमें किसी अन्य व्यक्ति अथवा संगठन चाहे वह राज्य ही क्यों न हो दखल देने का अधिकार नहीं है। ऊपर से देखने पर यह ाष्य निर्दाेष दिखाई देता है। लेकिन इसमें सत्य का उतना ही अंश है जितना सर्प-रज्जु प्रकरण में रज्जु को ्रम में साँप समझने वाले व्यक्ति का अपनी इस धारणा पर ॰ढ़ता से अड़े रहना । धर्मांतरण को समझने से पहले धर्म को समझ लेना बहुत जरूरी है। इससे ी बढ़कर यह जरूरी है कि धर्म की अवधारणा को ारतीय पृष्ठूमि में समझा जाए न कि पश्चिमी पृष्ठूमि में। पश्चिम में धर्म की अवधारणाएं चर्च के संगठित होने के बाद में उपजी है और पश्चिम में इन अवधारणाओं के लिए अंग्रेजी के जिस शब्द रिलीजन का प्रयोग किया जाता है। उसका समानार्थी या पर्यायवाची धर्म नहीं है। पश्चिमी अवधारणाओं के अनुसार रिलीजन के दायरे में बहुत सीमा तक ईश्वर को स्वीकारने, उसके स्वरूप और उसके आगे नमन करने या उसकी पूजा करने के तौर-तरीके आते हैं। मौटेतौर पर इन कृत्यों अथवा गतिविधियों का धर्म से कोई तालुक नहीं है। ारतीय पृष्ठ ूमि में धर्म की जो अवधारणा व्याप्त है। वह बहुत सीमा तक कर्Ÿाव्य से मिलती जुलती है। अंग्रेजी में लाॅ शब्द जिस अर्थ को व्यक्त करता है उसका समावेश ी कुछ सीमा तक धर्म में हो जाता है। इसलिए यदि धर्म का अंग्रेजी ाषा में अनुवाद करना अनिवार्य ही हो तो वह कुछ सीमा तक लाॅ और ड्यूटी में समाहित हो सकता है।
धर्म की इस ारतीय पृष्ठूमि से एक और बात स्पष्ट होती हैकि धर्म स्थान व काल से निरपेक्ष है। धर्म सनातन है उसका किसी विशेष सम्प्रदाय से कोई तालुक नहीं है। मनु ने जो धर्म के जो 10 लक्षण दिए हैं वे अपने आप में सार्वौम है। इसलिए ारतीय शाóों में धर्म के आगे किसी विशेषण का प्रयोग नहीं किया।
यहां एक और प्रश्न पर ी विचार करना क्या धर्म का ईश्वर से कोई संबंध है? ईश्वर के अस्तित्व पर विचार करना उसकी प्रकृति के बारे में अनुसंधान करना जगत और जीव और ईश्वर के परस्पर संबंधों की व्याख्या करना प्रकृति और पुरूष की अवधारणाओं पर चिंतन करना ये सारे विषय ारतीय परंपरा में दर्शन शाó के विषय है । मौटेतौर पर धर्म का इनसे कोई संबंध नहीं है। कुछ लोग यह मान लेते है कि धर्म आस्तिक प्राणियों का विषय है । जबकि धर्म का आस्तिक होने या नास्तिक होने से कोई संबंध नहीं है। धर्म नास्तिक के लिए ी और आस्तिक के लिए ी उसी समान रूप से मान्य होना चाहिए। धर्म का विपरीत अधर्म है न कि नास्तिक । धर्म को लेकर जो ्रम फैला हुआ है उसका कारण यह है कि लोग धर्मशाó, दर्शनशाó और सम्प्रदाय शाó का एक साथ घालमेल कर देते हैं। इस विवेचन में सम्प्रदाय की अवधारणा को ी स्पष्ट करना जरूरी है। सम्प्रदाय से क्या निहितार्थ है? जो लोग ईश्वर के एक विशेष स्वरूप को मानते हैं, उसकी एक विशेष ढंग से पूजा करते हैं, पूजा विधि के लिए निश्चित पद्धति का पालन करते हैं। वे एक सम्प्रदाय के अंग माने जाएंगे। जाहिर है कि एक सम्प्रदाय के लोग ीतर ही ीतर किसी एक तंतु से बंधे हुए होंगे। लेकिन यह बंधन नकारात्मक नहीं हैऔर इसका कहीं धर्म से टकराव ी नहीं है । धर्म का क्षेत्र अलग है और सम्प्रदाय अथवा पंथ, जिसे अंग्रेजी ाषा में रिलीजन कहा जाता है, का क्षेत्र बिल्कुल अलग है। इस पूरे ाष्य के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि धर्मांतरण नाम की कोई प्रक्रिया नहीं है। क्योंकि धर्म सी के लिए एक समान है। या तो कोई व्यक्ति धर्म का पालन करने वाला हो सकता है या फिर वह अधर्मी हो सकता है।  धर्म बदलने की स्थिति तब आती है यदि अनेक धर्म हों। वास्तव में ऐसा तो है नहींं विश्व में धर्म सी के लिए समान है और उसका पालन ी व्यक्ति को अपने कर्Ÿाव्य के अनुसार ही करना होता है।
धर्मांतरण तो संव नहीं है लेकिन मतांतरण संव है। मत अथवा पंथ अथवा सम्प्रदाय मूलतः एक ही अवधारणा के द्योतक है। कोई व्यक्ति यदि अपना मत अथवा पंत छोड़कर दूसरे मत अथवा पंथ में दीक्षित हो जाता है तो इसको मतांतरण कहा जाएगा। उदाहरण के लिए कोई वैष्णव मत को मानने वाला है। अब यदि वह उसको छोड़कर शैव मत को स्वीकार कर ले तो इसे मतांतरण कहा जाएगा। इसी प्रकार कोई शैव पंथी यदि मोहम्मद पंथी हो जाता है तब ी यह मतांतरण की कहलाएगा। इस उदाहरण को आगे ी बढ़ाया जा सकता है। कोई रविदास पंथी या नानक पंथी यीशु पंथी हो जाता हैतो यह ी मतांतरण के खाते में ही आएगा।
अब प्रश्न पैदा होता हैकि मतांतरण से संबंधित व्यक्ति को छोड़कर इस पूरी प्रक्रिया में किसी दूसरे व्यक्ति का हस्तक्षेप कैसे हो सकता है? कोई व्यक्ति राम को स्वीकार करता है, या फिर अपनी विशिष्ट पद्धति से दुर्गा की पूजा करता है या फिर मस्जिद में जाकर अल्लाह को सिजदा करता है तो इसमें किसी तीसरे व्यक्ति को क्या आपŸिा हो सकती है? विवेचन के इस मरहले पर हमें राष्ट्र और राष्ट्रीयता की अवधारणाओं पर विचार करना होगा। क्योंकि अनुव ने सिद्ध किया हैऔर तथ्यात्मक अनुसंधान के निष्पक्ष निष्कर्षों से पता चलता है कि मतांतरण से राष्ट्रातांतरण की प्रक्रिया प्रारं होती है।
राष्ट्र क्या है? इसे समझने के लिए राज्य की अवधारणा को समझना होगा। राज्य एक स्थूल ईकाई है। एक निश्चित ूमि खंड है। इसे विश्व के मानचित्र पर नंगी आँखों से देखा जा सकता है इसकी सीमाओं को पहचाना जा सकता है। लेकिन क्या राष्ट्र को ी किसी मानचित्र पर अंकित किया जा सकता है? मौटे तौर पर कहा जाता है कि राष्ट्रीयता की अवधारणा के लिए किसी ूमिखंड का होना जरूरी नहीं है। राष्ट्रीयता एक समान संस्कारों सांझी विरासत इतिहास, ावनाओं, संवेदनाओं से निर्मित होती है। इन सी के प्रति समान ाव से लगाव राष्ट्रीयता को जन्म देता है। इसमें संस्कृति सम्मेलन ी होता है। संस्कृति में ईश्वर संबंधी अवधारणाएं और उसकी पूजा पद्धति का समावेश ी अपने आप ही होता है। ाषा राष्ट्रीयता के निर्माण में महत्वपूर्ण ूमिका अदा करती है। साहित्य की ी अपनी ूमिका है । परंतु इससे ी बढ़कर महत्वपूर्ण है। ाषा और साहित्य के ीतर का कथ्य । ाषाएं अलग-अलग ी हो सकती है । लेकिन कथ्य एक समान रहता है। तीर्थस्थान, प्रतीक, बिम्ब ये सी ी राष्ट्रीयता के निर्माण में महत्वपूर्ण ूमिका अदा करते हैं। संक्षेप में कहा जाए तो राष्ट्रीयता एक मानसिक स्थिति का नाम है। जिसको अनुव किया जा सकता है । जिससे हृदय द्रवित होता है। राष्ट्रीयता मूलतः ाव पक्ष है। परंतु यहां यह ी ध्यान रखना चाहिए कि इस ाव पक्ष की रचना किसी न किसी ूमि खंड पर ही होती हैऔर ाव पक्ष के कारण वह ूमि । ूमि न रहकर माता का दर्जा पा जाती है। नदियाँ साधारण जल का स्रोत न रहकर देवत्व को प्राप्त हो जाती है। वृक्ष देवी देवताओं के समकक्ष हो जाते हैंऔर प्रतीक या बिम्ब राष्ट्रीय अस्मिता के वाहक हो जाते हैं। राष्ट्रीयता का विकास होता हैऔर उसके स्वरूप को विकसित करने में हजारों-हजारों वर्ष लगते हैं। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीयता ाव ही जड़ ाव है। वह चेतन ाव है, उसमें परिवर्तन ी होता रहता है। लेकिन वह परिवर्तन उसी प्रकार है जिस प्रकार माता पिता की आँखों के सामने पाँच मास का बच्चा पचास साल का हो जाता है। लेकिन उन्हें अन्ततः पता नहीं चल पाता कि यह कब बड़ा हो गया। राष्ट्रीयता अपने आप में जल से गंगा जल बनने की प्रक्रिया का नाम है। यह जरूरी नहीं है कि कोई राष्ट्रिक उसी ूमि पर निवास करे जिस ूमि के इर्द-गिर्द राष्ट्रीयता का विकास हुआ है। राष्ट्रीयता राष्ट्रिक के हृदय में निवास करती है । वह विश्व के किसी ी ू-ाग में रहे। अपनी राष्ट्रीयता को वह अपने साथ ही ढोता है। जिस प्रकार अस्थियों पर मज्जा का आवरण है। जिस प्रकार शरीर में आत्मा का निवास है परंतु यह पहचानना है मुश्किल है कि यह आत्मा कहां रहती है? उसी प्रकार मानव मस्तिष्क के ीतर राष्ट्रीयता का निवास हैं ।
इस विवेचन के बाद हम इस प्रश्न पर चर्चा करेंगे कि मतांतरण से राष्ट्रांतरण कैसे होता है? लेकिन इस प्रश्न पर विचार करने से पहले इससे जुड़ा हुआ एक छोटा सा और बिंदू हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ारत के ीतर ही अनेक अलग-अलग मतावलंबी है। शैव, वैष्णव, शाक्त, लिंगायत, वीरशेव, राधा स्वामी, नरेन्द्र कारी, कबीर पंथी, दादू पंथी और न जाने कितने ही । अब प्रश्न यह है यदि कोई शैव मतावलंबी वैष्णव मतावलंबी हो जाता हैतो उससे राष्ट्रांतरण का खतरा क्यों उत्पन्न नहीं होता? दरअसल ारत के ीतर जितने मत अथवा पंथ विद्यमान है। वे ऊपर से अलग होने पर ी ीतर से हजारों-हजारों तंतुओं के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए है। उनमें इतने समान धरातल हैकि आस्था के असमान धरातल ी अंततः उन्हीं समान धरातलों की ओर ले जाते हैं। वििन्न मतावलंबियों के बीच दर्शन शाó की गुथियों को लेकर मतेद है और यह मतेद ारतीय परंपरा में सकारात्मक माना जाता है, नकारात्मक नहीं और एक ्रप्रकार से इसे प्रोत्साहन ी दिया जाता है। अतः वििन्न ारतीय मतों को मानने वालों के अंतर संबंध शाóार्थ के माध्यम से कुष्ट होते रहते हैं। ीतर का मतांतरण तुष्टिकरण का मार्ग है। अलगाव का मार्ग नहीं ।
इसलिए मौटेतौर पर रत में व्याप्त वििन्न मतावलंबियों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है।
1 ारतीय मतावलंबी
2 अारतीय मतावलंबी ।
अारतीय मतावलंबियों में ईसाई और इस्लाम मत का समावेश होता है। इसमें यहूदी सम्प्रदाय ी आता है परंतु क्योंकि यहूदियों मतांतरण की परंपरा नहीं है इसलिए इस विवेचन में उनको बाहर ही रखा गया है। विवेचना के इस मोड़ पर हमारा विश्लेषण और मुद्दे अत्यंत स्पष्ट हो गए हैं।
1. क्या ारतीय मतावलंबियों के अारतीय मतों को ग्रहण करने से राष्ट्रांतरण होता है
2. यदि होता है तो उसकी प्रक्रिया क्या है?
जहां तक पहले प्रश्न का उŸार है उसके लिए बहुत ज्यादा प्रमाण एकत्र करने की जरूरत नहीं हैक्योंकि वह परिणाम रूप में हमारे सामने आ चुका है। ारत के जिस ूमि खंड पर सर्वाधिक मतांतरण हुआ उस ूमि खंड ने कालांतर में स्वयं को ारतीय राष्ट्र से अलग घोषित कर दियाऔर अपने आपको इस राष्ट्र का अंग मानने से मना कर दियाऔर यहां की राष्ट्रीयता से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। पाकिस्तान और बांग्लादेश का निर्माण मतांतरण से राष्ट्रांतरण हो जाने की मान्यता का स्पष्ट प्रमाण है।
(हिन्दुस्थान समाचार)
 
राजनांद गांव में कांग्रेस की जीत के अर्थ: डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
Ÿाीसगढ़ में पिछले दिनों लोकसा के राजनांद गांव क्षेत्र के परिणामों ने कुछ लोगों को चैंका दिया है। यह सीट मूलतः राज्य के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की सीट है। फिलहाल इस पर ारतीय जनता पार्टी के श्री प्रदीप कुमार सांसद थे। लेकिन पिछले साल जब लोकसा में पैसे लेकर प्रश्न पूछने का ंड़ा फोड़ हुआतो प्रदीप ी उसमें गुल हो गए। उस सीट पर पिछले दिन हुए चुनाव में ाजपा 50 हजार से ी  ज्यादा मतों से हार गई हैऔर यह सीट कांग्रेस ने जीत ली है। अखबारों ने सीधी-सीधी व्याख्या दे ही दी है कि राज्य से में ाजपा की लोकप्रियता कम हो रही है। ऊपर से देखने पर कोई ी विश्लेषक इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। लेकिन थोड़ा गहराई से विचार करने पर कुछ तथ्य ध्यान में आते हैं। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी शुरू से ही इस बात का दावा कर रहे थे कि यह सीट ाजपा किसी ी हालत में नहीं जीत सकती। इस पर कांग्रेस ही जीतेगी । उधर नक्सलवादियों ने चुनाव के बहिष्कार का आह्नान किया हुआ था। नक्सलवादियों ने शायद कांग्रेस को यह ी निर्देश दिया हुआ था कि इस चुनाव के क्षेत्र में चुनाव प्रचार करने के लिए विधान सा में कांग्रेस प्रतिपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा को न बुलाया जाए। महेन्द्र कर्मा ने पूरे प्रदेश में नक्सलवादियों के खिलाफ जन जागरण अियान छेड़ा हुआ हैऔर आश्चर्य का विषय यह है कि महेन्द्र कर्मा इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने नहीं गए। जब अजीत जोगी से इस पर प्रश्न किया गया तो उनका कहना था कि वहां के कांग्रेसी प्रत्याशी को महेन्द्र कर्मा की सहायता की जरूरत नहीं थी। वैसे छŸाीसगढ़ में आम चर्चा है कि नक्सलवादियों का कांग्रेस के साथ गठजोड़ है। पूरी कांग्रेस के मामले में शायद यह सही न ी हो परंतु ीतरी जानकार यह कहने से नहीं हिचकिचाते कि अजीत जोगी के गुट का नक्सलवादियों के साथ कहीं न कहीं तालमेल बैठा हुआ है। अन्यथा नक्सलवादियों के बहिष्कार के आह्नान के बावजूद नक्सल प्रावित क्षेत्रों में 70 प्रतिशत से ी ज्यादा मतदान कैसे संव हो सकता है? प्रयवेक्षक मानते हैं कि चर्च और नक्सलवादी कहीं न कहीं एक दूसरे का समर्थन करते हैं। क्योंकि चर्च ी ईसाईयों के लिए अलग राष्ट्रीयता का नारा लगाता है और नक्सलवादी ी ारतीय संस्कृति को वैचारिक तौर पर नकारते हैं। जहां तक कांग्रेस का ताल्लुक है कांग्रेस के लिए ारतीय संस्कृति और ारतीय राष्ट्रीयता प्राथमिकता का मुद्दा नहीं है। कांग्रेस के लिए संस्कृति और राष्ट्रीयता के वही अर्थ है जो मैकाले और माक्र्स स्थापित कर गए थे। सांस्कृतिक और राष्ट्रीय धरातल पर शिखर च्युत होने से जो शून्य पैदा होता है उसी शून्य को रने का प्रयास नक्सलवाद और चर्च कर रहा है। नक्सलवाद और चर्च इस प्रक्रिया के अंतर्गत पहले शून्य उत्पन्न करता है उसके बाद उसको रता है। इस पूरी प्रक्रिया में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संस्खलन हो जाता है। इसलिए पूँजीवाद, उत्पादन और उत्पादन के साधन के मुद्दे पर चाहे चर्च और नक्सलवाद अलग ध्रुवों पर खड़े हों लेकिन जहां तक ारतीयता और उसके सांस्कृतिक प्रवाह को अवरूद्ध करने का प्रश्न है दोनों एक दूसरे के पूरक नजर आते हैं। छŸाीसगढ़ में चर्च और नक्सलवाद के इस ध्रुवीकरण में अजीत जोगी एक महत्वपूर्ण ूमिका में अवस्थित है क्योंकि वे जहां एक ओर चर्च का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे दूसरी ओर कांग्रेस के प्रतिनिधि हैं।  इन दोनों के हितों से नक्सलवादियों के हित कहीं नहीं टकराते। नक्सलवादी ये जानते हैं कि ाजपा से इनका विरोध केवल राज्य शासन की ॰ष्टि में कानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर नहीं है। बल्कि यह विरोध वैचारिक धरातल पर ी है। कांग्रेस से विरोध केवल कानून व्यवस्था के ॰ष्टिकोण से ही हो सकता है । इन सी कारणों से छŸाीसगढ़ में नक्सवादियों को कांग्रेस अपने ज्यादा अनुकूल लगती है और ाजपा धुरविरोधी । यहाँ इस बात का ी ध्यान रखना चाहिए कि जब से आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने राज्य सŸाा संाली है तो नक्सलवादियों की गतिविधियाँ वहां सीमित हो गई हैं और सारा जोर छŸाीसगढ़ के बस्तर पर सिमट आया है। ऐसा नहीं कि आंध्र प्रदेश में नक्सलवादियों ने अपना कार्य बंद कर दिया है। नक्सलवादियों का अियान उसी जोर शोर से जारी है। राज्य सŸाा ने उसमें अवरोध लगाना बंद कर दिया है। इस पूरी पृष्ठ ूमि में राजनांद गांव की सीट कांग्रेस के लिए इतनी प्रतिष्ठा की सीट नहीं थी जितनी नक्सलवादियों के लिए बन गई थी।
परंतु इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि ाजपा को अपनी पराजय के इन कारणों को जानकर अपने उŸारदायित्व से पल्ला झाड़ लेना चाहिए। छŸाीसगढ़ को नक्सलवाद से मुक्त कराना ाजपा का वैचारिक दायित्व ी हैऔर क्योंकि राज्य में ाजपा की सरकार है  इसलिए संविधानिक दायित्व ी । परंतु प्रश्न यह है कि राजनांद गांव की पराजय के बाद क्या इसमें छिपे संदेश को ाजपा पढ़ पाएगी?

(हिन्दुस्थान समाचार)

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