डा. कुलदीप चंद
अग्निहोत्री
दिनांक: 17 सितंबर 2007
स्थान: नई दिल्ली
राम सेतु को तोड़ने की साजिश की परतें ज्यों-ज्यों उरती जा रही है।
त्यों-त्यों षड्यंत्रकारियों के खेमे में हड़कंप ी मचा हुआ है। लेकिन साथ ही असली
सूत्रधार को बचाने के प्रयास ी किए जा रहे हैं। रामसेतु को तोड़ने का षड्यंत्र न
तो कोई अकेली घटना है और न ही पहली घटना है। इस घटना को अट्ठाहरवीं शताब्दी के
प्रारं में ही यूरोपीय शक्तियों के ारत आगमन और उनके षड्यंत्रों, क्रियाकलापों और रणनीति
के संदर् में ही देखना होगा। गोवा दमन दीव में पुर्तगालियों ने कब्जा किया,
पुदुच्चेरी और
चंदननगर में फ्रांसिसियों का कब्जा हुआ और शेष ारत पर अंग्रेजों का कब्जा हुआ। इन
तीनों गोरी जातियों ने अपने-अपने क्षेत्र में चर्च का प्रचार-प्रसार तो किया ही
साथ ही ारतीय अस्मिता उसके विश्वासों, उसके इतिहास, उसके देवी-देवताओं, उसकी पूजा पद्धति और
उसके दर्शन शाó पर आक्रमण प्रारं किए। 1857 में कारतूसों में गाय की चर्बी का इस्तेमाल इसी षड्यंत्र
का हिस्सा था। लेकिन अंग्रेजों को शायद इस बात का अंदाजा नहीं थाकि ारत में आस्था
की जड़ें कितनी गहरी हैं। वे ारत को ी अफ्रीका और यूरोप के अन्य देशों की तरह
मानते रहे जिन्होंने चर्च के पहले आक्रमण पर ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर और पूर्वजों
को हेय घोषित कर दिया। लेकिन जब गोरी जातियों ने ारत की आस्था पर आक्रमण किया तो
उसमें से ारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम निकला।
इस स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने अपनी रणनीति बदली लेकिन अपने
उद्देश्यों में परिवर्तन नहीं किया। उन्होंने संपूर्ण ारतवर्ष में एक ऐसी शिक्षा
पद्धति लागू की जिस पर उन्हें रोसा था कि इसमें से पढ़कर निकले नौजवान स्वयं ही ारतीय
आस्था और अस्मिता को प्रश्नित करने लगेंगे। जाहिर है कि नई व्यवस्था में शिक्षित
ये लोग ही ारतीय समाज को नेतृत्व प्रदान करेंगे। अंग्रेजों को आशा थी कि जब इस नए
नेतृत्व का ही ारत अस्मिता में विश्वास नहीं होगा तो देश की जनता शीघ्र ही उनकी
अनुयायी बन जाएगी और इस प्रकार देश में एक शून्य व्याप्त हो जाएगा और ईसाइयत उस
शून्य को रेगी। अंग्रेजों की यह रणनीति कुछ सीमा तक कामयाब ी हुई। यहाँ से चले
जाने के बाद ी वे जिनके हाथों सŸाा का हस्तांतरण करके गए थे उन्होंने धर्म, इतिहास, आस्था, विरासत और संस्कृति के
क्षेत्र में उन्हीं अवधारणाओं को स्थापित किया जो यूरोपीय हितों का पोषण करती थीं
और प्रकारांतर से चर्च के लिए सहायक थी। इस वातावरण और इस परिप्रेक्ष्य में ये
शक्तियाँ एक बार फिर ारत की ीतरी स्थिति का परीक्षण कर लेना चाहती थीं। 1857 में ऐसा परीक्षण
उन्होंने कारतूस में गाय की चर्बी लगाकर किया था। वह परीक्षण फेल हो गया था। उसी
श्रृंखला में रामसेतु को तोड़ने की परियोजना बनाकर वही शक्तियाँ उसी परीक्षण को 2007 में दोबारा दोहरा रही
है।
लेकिन इस परीक्षण को दोहराने के लिए अब की बार इन शक्तियों ने योजना को अत्यंत
वैज्ञानिक ढंग से और उसके हर पहलू पर गंीर और लंबा विचार करने के उपरांत ही जमीन
पर उतारा। दिल्ली की सŸाा सोनिया गांधी के हाथों में सौंप दी गई जो इटली की
निवासिनी हैं और उन्हीं गोरी जातियों से संबंधित है जो ारत पर आक्रमण करती रही
हैं। सोनिया गांधी वेटिकन की शिष्या हैं और चर्च की उपासिका हैं । उनका इस देश की
मिट्टी, इसके
इतिहास, इसकी
आस्थाओं से कोई नाता नहीं है। उसके संस्कारों की गंध इटालवी है। विश्वासों की आधर ूमि
चर्च है और इतिहास तो इटली का है ही। उसको ारत की सŸाा के केन्द्र स्थापित करने के
बाद उसके इर्द-गिर्द जो सलाहकार रे गए हैं वे ज्यादातर ईसाई आस्थाओं में विश्वास
रखने वाले हैं। इन सी के लिए ारतीय इतिहास कोरी कल्पना है। ारतीय आस्था अज्ञान
है, वेद
गडरियों के गीत हैं और शेष ग्रंथ अज्ञान के प्रतीक है? जब से यीशु पैदा हुए हैं उसके
बाद से इन गोरी जातियों ने ारत को अंधकार से निकालने का पक्का निर्णय लिया हुआ
है। रामसेतु अंधकार की ओर ले जाता है और उसका टूटना आधुनिकता, विज्ञान और विकास का
रास्ता है। ऐसे तर्क दिल्ली के सŸाा के गलियारों में सुने जा सकते हैं।
लेकिन प्रश्न केवल ारत में सलीव गाडने का नहीं है। उसके समुद्री सीमांत को
घेरने का ी है। जैसा कि अमेरिका ने सारी दुनिया में ज्ञान का प्रकाश फैलाने का और
उसे राक्षसों से मुक्त करने का निर्णय स्वयं ही कर लिया है उसके चलते अमेरिका और
उसके साथियों द्वारा ारत के उŸारी सीमांत को घेरना ला़िजमी है। क्योंकि अी तक ारत न
अमेरिका के आगे नतमस्तक हुआ है न चर्च के आगे । सŸाा के गलियारों में ही घेराबंदी
करने के पश्चात अमेरिका ने सोनिया गांधी के माध्यम से रामसेतु पर आक्रमण किया हैं।
इसे संयोग कहा जाए या दुर्याेग कि जब ारत 1857 की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है तो
सोनिया गांधी की सरकार ने उसी वर्षगांठ पर रामसेतु को तोड़ने का ऐलान कर दिया।
परंतु इसे गोरी शक्तियों का दुर्ाग्य ही कहना होगा या फिर इस बार तो सानिया मायनो
का दुर्ाग्य कि जैसे 1857 में सारा ारत एकजुट होकर विद्रोह पर उतर आया था उसी
प्रकार 2007 में रामसेतु को तोड़ने के प्रश्न पर सारा ारत एक बार फिर क्रोध की मुद्रा
में सन्नद्ध हो गया है।
इटली के प्रसिद्ध राजनैतिक चिंतक मैकियावली ने एक ग्रंथ की रचना की है जो ‘‘राजा’’ के नाम से विख्यात है।
मैकियावली कुटिल नीतिकार के नाते जाना जाता है। उसने लिखा है कि जब राजा संकट में
घिर जाए तो उचित यही है कि उसके दरबारियों की बलि देकर उसकी रक्षा कर ली जाए। जनता
में राजा की दोषी नहीं दिखाया जाना चाहिए। चतुर राजा वही है जो अपने दोष
दरबारियों के माथे मड़ देता है और स्वयं जनता की नजर में पावन पवित्र बना रहता है।
यदि उसके षड्यंत्रों का ांडाफोड हो जाता है तो वह अत्यंत चतुराई से उनके लिए अपने
दरबारियों को जिम्मेवार ठहराता है और स्वयं उच्च आसन पर बैठकर न्याय का ढोंग रचता
है। इससे प्रजा की दृष्टि में राजा सदा श्रद्धेय और सम्मानीय बना रहता है।
सानिया मायनो इटली की रहने वाली हैं और रामसेतु को तोड़ने के षड्यंत्र का ांडा
फोड हो जाने के बाद वह मैकियावली के दिखाए रास्ते का अनुकरण करती हुई दरबारियों की
बलि देने की तैयारी कर रही हैं। कुछ ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है कि यह सारा
षड्यंत्र और राम के अस्तित्व को नकारने का अियान कुछ छोटे किस्म के नौकरशाहों
द्वारा चलाया गया है। लेकिन यदि इतने से ी मामला नहीं सुलटता तो किसी एक आध
मंत्री की बलि ी दी जा सकती है। राजा को हर हालत में बचाना ही है। अब सारा अियान
राजा को बचाने के लिए चला हुआ है। दुर्ाग्य से कुछ राजनैतिक पार्टियां ी रामसेतु
तोड़ने के षड्यंत्र के पीछे की असलियत को न समझ कर षड्यंत्रकारियों द्वारा ही
फैलाए जा रहे चोर-चोर के शोर की शिकार हो रही है। उन्होंने ी कहना शुरु कर दिया
है कि इस पूरे मामले में फलां नौकरशाह को निलंबित कर दिया जाए या फलां मंत्री से
इस्तीफा ले लिया जाए। प्रश्न यह है कि यदि षड्यंत्रकारी इन मांगों को स्वीकार कर
लेते हैं और कुछ नौकरशाह लुढ़क जाते हैं और कुछ मंत्रियों के सर कलम कर दिए जाते
हैं तो क्या यह मामला समाप्त हो जाएगा? यह तो एक प्रकार से षड्यंत्रकारियों को बचाने के अियान
में अप्रत्यक्ष सहायक होने के समान ही है। दरअसल चोर को पकड़ने के बजाए चोर की माँ
की तलाश करना जरूरी है। क्योंकि वहीं से ारत विरोधी षड्यंत्रों का सूत्रपात होता
है। 1857 में चतुर ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी
का बलिदान देकर ारतीयों को धोखा दे दिया था। क्या इस बार सानिया मायनो, अंबिका सोनी या कुछ बाबुओं का बलिदान देकर ारतीयों को धोखा
दे पाएगी? आखिर 1857 से लेकर 2007 तक के 150 सालों में ारतीयों ने कुछ सबक तो लिया होगा। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान
समाचार)
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