डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
22 जुलाई को बकौल लालू प्रसाद यादव जो मतदान हुआ उसमें ारत सरकार तकनीकी ॰ष्टि
से जीत गई लेकिन लोकतांत्रिक परंपरा में सरकार पराजित हो गई। लालू यादव ने वैसे तो
अपने ाषण में स्वयं ही मान लिया था कि यूपीए उस राक्षस के समान है जिसकी मृत्यु न
दिन मे ंहो सकती है न रात में उसके लिए गोधूली का समय ही उपयुक्त है। जिस मिथकीय राक्षस
की मृत्यु की विष्यवाणी लालू यादव कर रहे थे वह गोधूली में मरा या नहीं मरा ये तो
यादव ही जानते होंगे। लेकिन यूपीए का राक्षस गोधुली में ी इसलिए जिंदा रह पाया क्योंकि
उसकी रक्षा के लिए जेल में बंद ऐसे बाहुबली ी बुला लिए गए थे जिनको हत्या जैसे जघन्य
अपराधों में उम्रकैद तक की सजा सुना दी गई
है। लेकिन मनमोहन सिंह क्योंकि अर्थशाóी
है इसलिए वे केवल तकनीक, कानून और आंकड़ों पर रोसा
रखते हैं इसलिए वे कह सकते हैं कि हत्या के दोषी जिन लोगों को वोट डालने के लिए सम्मान
सहित संसद में बुलाया गया था वे तकनीकी तौर पर अी ी संसद के ही सदस्य है। मनमोहन
सिंह को अपनी सरकार बचाने के लिए अंततः पप्पू यादवों की सहायता लेनी पड़ी। शहाबुद्दीनों
से आलिंगनबद्ध होना पड़ा। मनमोहन सिंह का दुर्ाग्य कहें या रणनीति एक ओर वे पप्पू
यादव और शहाबुद्दीन के कंधों पर टिके हुए थे
दूसरी ओर बिना किसी लाज के, ‘देहु शिवा वर मोहे इह है, शु करमन ते कबहँु न डरौ।’ बाबू राम कटारा जो अपनी पत्नी के स्थान पर किसी दूसरी
औरत को ही अपनी पत्नी कहकर घुमाते रहे और कबूतर बाजी में लाखों रूपये कमाते रहे वे
मनमोहन सिंह के संकटमोचक बनकर उरे लेकिन मामला यहीं तक खत्म नहीं हुआ । मनमोहन सिंह
जानते थे कि बंदोबस्त पक्का होना चाहिए क्योंकि उन्हें अमेरिका को ी तो मुँह दिखाना
था। इसलिए महज लोकसा से अनुपस्थित रहने के लिए करोड़ों रूपये दायें से बाये हुए और
उन रूपयों की गड्डियां लोकसा में लहराई गईं। शिब्बू सोरेन से परदे के पीछे समझौते
हुए, खरीद फरोख्त इस प्रकार हुई कि लोकतंत्र
को एक बहुत बड़े बाजार में बदल दिया गया। लेकिन न मनमोहन सिंह को इस बात की लाज है
न चिदंबरम को क्योंकि दोनों ही ये मानकर ही चलते हैं कि ारत का विष्य या तो अमेरिका
तय करेगा या फिर बाजार तय करेगा। मनमोहन सिंह तो अर्थशाóी हैं और ऐसे अर्थशाóी
हैं जो ारत के अर्थतंत्र से ी ज्यादा अमेरिका के अर्थतंत्र को समझते हैं। वे ये ी
जानते होंगे कि आजकल अमेरिका और बाजार एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। आडवाणी ने
ठीक ही कहा था कि मनमोहन सिंह पहले लाल सलाम बजाते रहे। अब उन्होंने दलाल सलाम बजाना
शुरू कर दिया है। दिल्ली ने अमेरिका के हित में ारत के विष्य को गिरवी रख दिया है
। वैसे ी कांग्रेस को दलालों के सहारे सरकार बचाने में महारत हासिल हैं। नरसिंहा राव
ने ी ऐसा ही किया था और सोनिया गांधी ी ऐसा ही कर रही है। सरकार बचाने के लिए जितना
प्रयास सोनिया-मनमोहन सिंह कर रहे थे उससे ी ज्यादा प्रयास अमेरिका सरकार कर रही थी।
अमेरिका सरकार ने ापिछले लंबे अरसे से ारत के नीति निर्धारकों को बहलाना, फुसलाना और धमकाना शुरू कर दिया था। अमेरिकी राजदूत मलफोर्ड
यूपीए सरकार की जीत पर अपनी खुशी छिपा नहीं रहे थे। उन्होंने तुरंत ही कहा कि परमाणु
करार को जो समर्थन लोकसा में मिला है उससे अमेरिका को ारत के साथ इस करार को पूरा
करने में बहुत सहायता मिलेगी।
अमेरिकी राजदूत मलफोर्ड ने प्रसन्नता जाहिर की परन्तु अमेरिका के उपविदेश मंत्री
रिचर्ड वाउचर ने मतदान से एक दिन पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि सरकार के गिरने से कोई
फर्क नहीं पड़ेगा, अमेरिका ने ारत से परमाणु
करार करने का निर्णय कर लिया है और उसे वह उसे हर हालत में करेगा ही। यह एक प्रकार
से अप्रत्यक्ष रूप से ारतीय संसद को धमकी ही थी कि आपके परमाणु करार के पक्ष या विपक्ष
में होने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं अमेरिका यह समझौता करेगा ही। कोई और देश होता
तो इस अपमान का उŸार देता लेकिन दुर्ाग्य
से ारतीय संसद के ीतर ही मुलायम सिंह से लेकर कठोर सिंह तक सी अमेरिका का गुणगान
करने में व्यस्त थे। लोकतंत्र में नैतिकता और मूल्यों में विश्वास न अमेरिका को है
और न ही कांग्रेस को। इसलिए संसद में हुई बहस के बाद उसका परिणाम अप्रत्याशित नहीं
था। एक दिन पहले ही यह आास होने लगा था कि सरकार ने अपने पक्ष में इतने लोग जोड़ और
तोड़ लिए है कि अब उसे मलफोर्ड और बुश के सामने
लज्जित नहीं होन पड़ेगा। इस मतदान ने सŸाा
शिखरों पर आई गिरावट को और व्यवस्था के ीतर घुसे दलालों को नंगा कर दिया है। उन राजनैतिक
दलों को ी चपत बजी है जो टिकट देते समय प्रत्याशी की विचार धारा को ध्यान में नहीं
रखते बल्कि उसके पैसे और उसके जीतने की क्षमता को ध्यान में रखते हैं । ध्यान रहे जो
पैसे के बल पर जीतने में सक्षम होते हैं वे मौका पड़ने पर पाला बदलने में उतनी ही सक्रियता
दिखाते हैं। पाला बदलने का कलंक कमोवेश सी राजनैतिक दलों के माथे पर लगा है। कांग्रेस
की बात अलग है। वह सरकार बचाने के लिए और अमेरिका के आगे अपना रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत
करने की हड़बड़ी में काजल की कोठरी में ही घुस गई और मतदान के बाद जब उस कोठरी से निकली
तो कांग्रेस इतनी काली हो चुकी थी कि उसे पहचानना मुश्किल हो रहा था। परन्तु लगता है
कि अमेरिका को उसे पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई और शायद विष्य मे ंी नहीं होगी।
क्योंकि अमेरिका की नीतियां दिन के उजाले में इतनी प्रासंगिक नहीं है जितनी रात के
अंधेरे में । मनमोहन सिंह की सरकार इस मतदान के बाद अमेरिका की रात की अंधेरे की साथी
बनी है। इसमें लोकतंत्र पराजित हुआ है , ारत का आम आदमी शर्मिन्दा हुआ है, हमारा स्वतंत्रता संग्राम कलंकित हुआ है और आज से चार
साल पहले यूपीए सरकार ारत में सोनिया सरकार स्थापित करने की प्रासंगिकता का आज इस
परमाणु करार से खुलासा हुआ है । यह ठीक है कि अमेरिका दूर की सोचता है । वह बहुत लंबे
अरसे से, पं. जवाहरलाल नेहरू के समय से ारत
की आंतरिक राजनीति में दखलंदाजी और घुसपैठ का रास्ता तलाशता रहा है। इंग्लैण्ड को ारत
से गए हुए छः दशक हो गए है आज छः दशक बाद अमेरिका ने सोनिया गांधी की सहायता से ारत
के ीतर दखलंदाजी का राजमार्ग प्रशस्त किया है। लेकिन यह लड़ाई की शुरूआत मात्र है।
इस विश्वास मत से आम ारतीय हताश नहीं हुआ है। बल्कि उसके मन में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और दलालों के खिलाफ लड़ने का संघर्ष और
बलवती हुआ है।
दिनांक: 23 जुलाई 2008
No comments:
Post a Comment